तानाबाना - 29 - अंतिम भाग Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

तानाबाना - 29 - अंतिम भाग

29

( ... यह अंत नहीं है )

उस दिन पूरा दिन रवि का काम में मन न लगा । वह बार बार धूप का परछावां देख समय का अनुमान लगाने की कोशिश करता । एक बार किसी घङी पहने आदमी से समय पूछ भी लिया पर उस समय तक सिर्फ दो ही बजे थे । अभी तीन घंटे बाकी थे । इतना लंबा समय । वह सोचकर ही परेशान हो गया । उसे यूं परेशान देखकर आखिर उसके साथी ने पूछ ही लिया –

“ क्या बात बाबू ? आज बहुत बेचैन दिखाई दे रहे हो । घर में सब ठीक है न “ ।

हमदर्दी पाकर रवि का गला भर आया – “ बीबी अस्पताल में है भैया । जचगी में । आज सुबह बेटी हुई है “ ।

एक कान से होती खबर दूसरे कान तक जाती जाती कुछ ही मिनटों में सबके कानों तक पहुँच गयी । बेटी के जन्म पर बधाई तो किसने देनी थी । उल्टे सहानुभूति जताई गयी तथा पत्नि के अस्पताल में भरती होने पर चिंता भी । बेटी का होना मतलब बाप की पगङी नीची होना । मतलब किसी का कर्जदार होना । मतलब चिंता का घर । हर आदमी उसे अपने अपने तरीके से बेटी के आने का अर्थ समझा रहा था पर मगनमना रवि पर इसका कोई असर नहीं हुआ । उसकी आँखों में बच्ची की सुबह की देखी एक झलक बार बार कौंध रही थी । मन कर रहा था कि यह सूरज जल्दी से अपने घर का रास्ता पकङे तो वह भी घर जाए ।

होते होते बात ओवरसीयर साहब तक पहुँची तो उन्होने अपने पास बुलाकर बच्ची के लिए शगुण के तौर पर पाँच रुपए के सिक्के और दो घंटे की छुट्टी देदी ।

कहाँ तो रवि सुबह से बच्ची के आसपास बना रहना चाहता था, कहाँ अब जाने के लिए पैर ही नहीं उठ रहे थे । वह जाने से टलता रहा । दोस्तों ने कह सुनकर उसे घर भेजा । वह घर पहुँचा तो भागभरी खाने पीने का सामान उठाए किसी का इंतजार कर रही थी कि कोई साथ बने तो वह भाभी के लिए हरीरा ले जाए । रवि को देखते ही वह उछल पङी ।

“ आ गया भाऊ, चल चलें । भरजाई के लिए बेबे ने हरीरा बनाया है । गरम गरम खा लेगी तो हड्डियों को आराम मिलेगा “ ।

रवि को बिन मांगे मुराद मिल गयी थी । अंधा क्या चाहे दो आँखें । वह तुरंत चल पङा । दाना मंडी पार कर वे अस्पताल पहुँचे ।

भागभरी बच्ची को कमरे से बाहर ले आई ।

“ देख भाऊ, ये तो बिल्कुल मेरी जापानी गुङिया जैसी है वही जो तुम मेरे लिए हरदुआर से लाये थे । देखो छोटे छोटे लाल लाल पैर । हाथ कितने गोरे गोरे हैं । आँखे और गाल तो भरजाई जैसे हैं । देखो बङी बङी आँखे हैं न भरजाई जैसी । और ये नाक और ठोडी बिलकुल आप पर गयी है । हम इसका नाम गुङिया रखें “ ।

रवि मंत्रमुग्ध सा उस जापानी गुङिया को देख रहा था एकटक कि दुरगी ने अचानक आकर डांटा – “ कैसे आँखे फाङ फाङकर देख रहे हो । नजर लगाओगे फूल सी बच्ची को । जा कुङिए बच्ची को अंदर तेरी भाभी को दे । बाहर तपिश कितनी है “ ।

भागभरी बिना कुछ बोले बच्ची को लेकर अंदर धर्मशीला के पास चली गयी । अंदर जाकर उसने फिर से अपनी बात दोहराई – “ भरजाई देख, इसकी आँखे बिल्कुल तुम पर हैं न बङी –बङी और नाक बिल्कुल भाऊ पर “ ।

धर्मशीला ने बच्ची को ध्यान से देखा – माथा नानी मंगला का, बाल सिलक जैसे मुलायम सुरसती माँ पर, आँखें वाकयी मेरे पर, नाक अपने बाप पर, रंग और हाथ अपनी दादी दुरगी पर । सबसे उसे कुछ न कुछ मिला था । धर्मशीला ने बच्ची को अपने चेहरे से सटा लिया और उसके कान में धीरे से कहा – “ बिटिया अपनी परनानी से धैर्य और दृढ संकल्प लेना, नानी से सबर सिदक, दादी से सत लेना और मुझ से हुनर और मिलनसारिता पर किस्मत हममें से किसी की न लेना । सुना तूने, मैंने क्या कहा “ । बच्ची मुस्करा दी मानो सब उसने समझ लिया ।

इतने में मुकुंद अपने पूरे परिवार के साथ आ पहुँचे । अस्पताल से छुट्टी दिलाकर ये लोग माँ – बेटी को घर ले आए । दुरगी ने देहली पर तेल ढाल बहु और पोती का स्वागत किया । महताब ने बुआ होने के नाते दूध धुलाई की । बदले में धम्मो ने एक बहुत सुंदर वाईन रंग का शनील का सूट सलमे की कढाई करके बनाया था, दे दिया । महताब हैरान हो गयी ।

“ भरजाई इतना सुंदर सूट । ये तूने खुद निकाला “ ।

“ भई अपने दूल्हे को साथ लाती तो उसके कपङे भी दे देती । उसे तो तू छोङ आई । इसे संभाल के रखियो, अपनी शादी वाले दिन फेरों पर पहनना “ ।

महताब की दो महीने पहले ही सगाई हुई थी । लङका उसी शहर में दसवीं में पढता था । दसवीं पूरी होते ही शादी होना तय था । दूल्हे का नाम सुनते ही वह शर्माकर ताई के पास चली गयी । वहाँ दुरगी के पास मुहल्ले की औरतों का झुरमुट लगा था । महताब ने सूट लेजाकर माँ और ताई को दिखाया तो धम्मो की सुघङता की बातें चल पङी ।

सात बजे अंधेरा हुआ तो मुकुंद पत्नि और बच्चों के साथ लौट गया ।. दुरगी बहु और बच्ची की देखभाल के लिए रह गयी । रवि ने छटी को जिद करके गणेश जी और रिधि सिधि की पूजा के बाद बच्ची के सिरहाने किताब कलम और बही रखी । दसवें दिन शुद्धिकरण के लिए पंडितजी बुलाए गये । हवन किया गया । पंडितजी ने विधि विधान से पूजा सम्पन्न कराके बच्ची को नाम दिया सेवारानी ।

आसपङोस के लोगों, नाते रिश्तेदारों, सबने तरह तरह के फ्राकों, झबलों, खिलौनों के ढेर लगा दिए । मुकुंद ने पोती को चाँदी के कंगन पहनाए तो सुरसती ने पाजेब । हलके गुलाबी रंग की फ्राक में सजाकर जब उसे सबकी गोद में दिया गया तो सब तरफ से आशीष उस पर बरस गयी । अकेले लङकियों ने मुँह बिचकाकर, शक्ले बनाकर कहा – “ हमने नहीं कहना इसे सेवारानी “ ।

एक ने कहा तो बाकी सब ने भी कहा – “ सारे सुन लो, हमने न कहना है न कहने देना है सेवारानी “ ।

“ हुं, यह भी कोई नाम हुआ “ ।.

बच्ची मुस्कुराई - पुरुषों के गढ में पहली सेंध लग गयी थी । पुरुष का दिया यह नाम नहीं चलेगा । उसकी मुट्ठियाँ बंध गयी ।

महताब ने कहा – “ देखो – देखो, कह रही है, इस नाम से बुलाओगे तो मुक्का मारूँगी “ । महताब ने जिस तरीके से कहा, सुनकर सभी लोग हँस पङे ।

धम्मो ने मन ही मन कहा – जैसा ताना पेटा होगा, वैसा ही तो कपङा बनेगा ।

और ताने बाने से एक नयी नकोर चादर तैयार हो गयी थी ।

समाप्त

नोट – जहाँ फिल्म खत्म होती है, वहाँ से एक नयी कहानी शुरु होती है । अब आप अगली कङी से पढ पाएंगे कथा उस बच्ची के लालन पालन की,धम्मो की तपस्या की , एक नये नाम से मैं तो ओढ चुनरिया । उम्मीद है आप साथ बने रहेंगे ।