तानाबाना - 5 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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तानाबाना - 5

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घर की इस बेटी की बात आगे । फिलहाल तो यहीं पाकपटन की बात जारी रखी जाय । इस घटना के बाद सात महीने बीते होंगे कि एक दिन भट्ट बाबा ( यह चारण थे जो परिवार के हर जातक का जन्म लेखा अपनी लाल जिल्द चढी बही में लिख कर रखते । किसी भी वंश का हाल उनके घर में होने वाले जन्म मृत्यु की जानकारी उनके खाते में दर्ज रहती । साल में एक बार चक्कर लगाने जरुर आते । अक्सर लोग इनसे रिश्ता सुझाने के लिए कहते और ये रिश्ता तय करवा भी देते ) के साथ दो लोग आए । एकदम गोरे चिट्टे, लंबे ऊँचे, सुदर्शन आदमी । सफेद कुरता, सफेद चादरा, तुरलेवाली पगङी । दो रुपए जार्ज पंचम वाले चाँदी के खनकते खनकते, एक नारियल और पाँच पतासे । उकाङाह मंडी से आए इन लोगों ने अपनी बेटी का रिश्ता इस घर के बेटे के साथ पक्का कर दिया । भट्ट बाबा खुद चलकर आए थे, इसलिए दोनों ही पक्षों को न कुछ पूछने की जरुरत थी, न बताने की । बात पक्की हो गयी । जबान के सौदे । वैसे भी असुरक्षा और आशंकाओं के दौर में जो काम जितनी जल्दी निपट जाए, उतना ही अच्छा ।

तो इस तरह ताने के पेटे के बाद लपेटे यानी बाने के कुछ उजले, कुछ रंग-बिरंगे धागों की बात शुरु हो गयी ।

शहरों में शहर लाहौर, महलों, हवेलियों, बागों और बाजारों वाला शहर लाहौर जिसके बारे में मशहूर है जिसने लहौर नहीं वेख्या ओह जम्मिया ही नही ( जिसने लाहौर नहीं देखा, उसने जन्म लिया न लिया कौई अन्तर नहीं ) । रावी के मीठे पानियों वाला शहर लाहौर । प्रेम दीवानी अनारकली के नाम पर बसे अनारकली बाजार और शहीदेआजम भगतसिंह की फांसी से उबलती गलियों कूचों वाला लाहौर । इसी लाहौर के फैले बाजूओं में बसा था एक बेमालूम सा, छोटा सा गाँव, कुल जमा चालीस घरों वाला गाँव जिसमें बाहमन, बनिए बहुतायत से रहते थे । एक घर नाई और एक घर कुम्हारों का । हरे भरे खेत औऱ फलों से लदे छायादार पेङ । उसी गाँव में रहता था एक ब्राहमण दम्पति । बेहद खूबसूरत मानो साक्षात रति और कामदेव ।

घर में पैसे, जेवर, अनाज की कोई कमी नहीं । बस कमी थी तो किसी बच्चे की किलकारियों की । शादी को आठ साल हो गये तो सबको चिंता सताने लगी । एक से एक वैद्यों की पुङियाँ, अरक और कुचले खाए पर कोई फर्क नहीं पङा । तीर्थ, मंदिर जा जाकर माथे टेके । जगह जगह मन्नत के धागे बांधे पर कोई तजवीज काम न आई । किसी ने बताया, पास ही कुछ कोस पर बाबा इच्छागिर का डेरा है । बाबा जिसके सिर पर हाथ धर देते हैं, मुराद पूरी हो जाती है । पति पत्नि ने इस दर पर भी किस्मत आजमाने का फैसला किया । संयोग की बात, जिस दिन ये डेरे में पहुँचे, तीन दिन पहले ही संत इच्छागिरि ब्रह्मलीन हो चुके थे । उस दिन बाबा दरियागिरि जी की ताजपोशी का दिन था । दूर दूर से संन्यासी साधु संत डेरे में इक्ट्ठे हुए थे । मायूस होने के बावजूद यह जोङा भी विधि में शामिल हुआ । बाबा इच्छा गिरि की समाधी पर नतमस्तक हुआ ।

दरियागिरि महाराज ने बाबा की समाधी के सामने चढाए गये प्रशाद से मुट्ठी भरी और खोल दी – भगतो तुम तो एक औलाद माँगने आए थे, लो महाराज ने चार संतान बख्श दी । दम्पति हैरान होने के साथ निहाल हो गये । हैरानी इस बात की कि इन संतों को मन की मुराद कैसे पता चली और खुशी यूँ कि संतों के मुँह की बात भगवान जरुर पूरी करता है । गदगद स्वर में बोले – बाबाजी पहली संतान जो भी हो, इस डेरे की भेंटा और झोली में एक इलायची, तीन दाने मखाने डलवा खुशी –खुशी घर आए ।

परमात्मा की करनी कि उसी रात भागभरी गर्भ से रह गयी । नौ महीने बीतते न बीतते पैदा हुई बेटी । निरी चाँद का टुकङा । सवा महीने की हुई तो कौल के मुताबिक पति पत्नि उसे गोद में लेकर डेरे में आए और बाबा के चरणों में डाल दी । बाबा दरियागिरि ने बच्ची के सिर पर हाथ रखा – आ गयी माई मंगला । भगतो इस बच्ची को डेरे की अमानत समझ कर पालो । बाबा के प्रताप से अभी तुम्हारे तीन बेटे भी होंगे ।

पति पत्नि बच्ची को ले लौट आए और मोह माया से परे रह उसे आश्रम की अमानत समझ कर पालने लगे । मंगला दिनोदिन बङी होने लगी । धर्मपरायण, संस्कारी और परिश्रमी । इस बीच बाबा के बचन अनुसार उनके तीन बेटे भी पैदा हुए ।

जब यह बच्ची आठ साल पूरे कर नौवे साल में आई तो पति पत्नि दोनों बच्ची को लेकर फिर डेरे में हाजिर हुए । इस बार बाबा दरिया गिरि ने आश्रम में ही एक चेले को अपना शिष्य बनाकर नया नाम दिया कुंदन गिरि और मंगला से विधिवत विवाह कर दोनों को डेरे में ही रख लिया । उस दिन से मंगला बाबा इच्छागिरि की बेटी हो गयी । डेरे में सब उसे बेबे कहते, बेबे यानी बङी बहन और संत पुकारते माई मंगला । मंगला पूरी निष्ठा से डेरे की सफाई करती, वटुकों के लिए रसोई तैयार करती और संतों के लिए फलाहार । बाकी समय समाधी के सामने या माता की मूरती के सामने बैठी उसे एकटक निहारा करती । आश्रम में सबकी चहेती थी मंगला । किसी की बेटी, किसी की बहन । कुंदन भी आश्रम की सेवा तन- मन से करता । पंद्रह साल की होते होते मंगला एक बेटी की माँ हो गयी । बच्ची का नाम रखा गया जमना । जमना हर आश्रमवासी की आँख की पुतली थी । अपनी बाल सुलभ क्रीङाओं से सबका मन मोहे रहती । सत्रहवें साल में मंगला जब दोबारा गर्भ से हुई तो उसकी सेहत देखते हुए बाबा दरियागिरि ने उसे जबरदस्ती मायके भेज दिया । इस हिदायत के साथ कि तीन महीने वहीं रखे । न मंगला जाना चाहती थी, न कुंदन मंगला को भेजना चाहता था । पर बङों के सामने कैसे जुबान खुलती आखिर संस्कार भी कोई चीज होते हैं । मंगला मायके आ गयी । इस बीच माँ-बाप स्वर्ग सिधार चुके थे । बङे दोनों भाईयों की शादी हो चुकी थी । बङी भाभी घर आ चुकी थी । छोटे का गौना होना बाकी था । आने के एक महीने बाद मंगला ने एक बेटी को जन्म दियाया । इस बेटी का नाम सरस्वती रखा गया । बच्ची बत्तीस दिन की हुई तो डेरे से रस्म मुताबिक अनेक सौगातें भेजी गयी ।