चार्ली चैप्लिन - मेरी आत्मकथा - 37 Suraj Prakash द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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चार्ली चैप्लिन - मेरी आत्मकथा - 37

चार्ली चैप्लिन

मेरी आत्मकथा

अनुवाद सूरज प्रकाश

37

अब उत्तेजना अपने चरम पर थी। कोई भी चीज दिमाग को बांध नहीं पा रही थी, बस सिर्फ प्रत्याशा ही थी। किस चीज की प्रत्याशा? मेरे दिमाग में हाहाकार मचा हुआ था। मेरे सोचने-समझने की शक्ति साथ छोड़ चुकी थी। मैं वस्तुपरक तरीके से सिर्फ लंदन की छतें ही देख पाया, लेकिन वास्तविकता वहां पर नहीं थी। सिर्फ प्रत्याशा थी और कुछ भी नहीं था!

आखिरकार हम पहुंच गये थे। रेलवे स्टेशन की घिरी हुई आवाज़ के दायरे में - वाटरलू स्टेशन! जैसे ही मैं ट्रेन से उतरा, मैंने प्लेटफार्म के दूसरे सिरे पर अपार भीड़ को देखा जिसे रस्से के सहारे रोक कर रखा गया था, और लगी थी पुलिस वालों की लाइनें। हर चीज बेहद तनाव में, हरकत में थी। और हालांकि मैं उत्तेजना के सिवाय किसी भी चीज को जज्ब़ करने की हालत से परे था, मैं इस बात को अच्छी तरह से जानता था कि मुझे प्लेटफार्म पर ही दबोच लिया जायेगा और प्लेटफार्म पर मेरी परेड करा दी जायेगी मानो मुझे गिरफ्तार किया गया हो। जैसे ही हम रस्से से रोकी गयी भीड़ के पास पहुंचे, तनाव ढीला होने लगा, "यहां है वो, वो आ गया! हमारा प्यारा चार्ली!" और इसके बाद वे लोग हर्ष ध्वनि करने लगे। इस सारे हंगामे के बीच मुझे मेरे कज़िन ऑब्रेय के साथ एक लिमोज़िन में ठूंस दिया गया। मैं ऑब्रेय से पन्द्रह बरस से नहीं मिला था। मुझमें सोचने-समझने की इतनी ताकत भी नहीं रह गयी थी कि उस भीड़ से इस तरह से छुपाये जाने का विरोध ही कर सकूं जो मुझसे मिलने के लिए इतनी देर से मेरा इंतज़ार कर रही थी।

मैंने ऑब्रेय से कहा कि वह पक्के तौर पर देख ले कि हम वेस्टमिन्स्टर ब्रिज से ही हो कर गुज़रें। वाटरलू से निकलते हुए और यॉर्क रोड से गुज़रते हुए मैंने पाया कि पुराने मकान ढहाये जा चुके हैं और उनकी जगह पर नया ढांचा एल सी सी बिल्डिंग खड़ी की दी गयी है। लेकिन जब हम यार्क रोड के कोने से मुड़े तो वेस्टमिन्स्टर ब्रिज चमकते सूर्य की तरह आंखों के सामने आ गया! पुल ठीक वैसा ही था, उसका सौम्य संसद भवन वैसा ही सदाबहार खड़ा था। पूरा का पूरा परिदृश्य ठीक वैसा ही था जैसा मैं छोड़ कर गया था। मेरी आंखों से आंसू ढरकने को थे।

मैंने रिट्ज होटल चुना क्योंकि यह उसी वक्त बनाया गया था जिस वक्त मैं छोटा बच्चा था और, उसके प्रवेश द्वार के पास से गुज़रते हुए मैंने उसके भीतर की शानो-शौकत की एक झलक देखी थी और तब से मुझे ये जानने की उत्सुकता थी कि बाकी सब कैसा लगता है!

होटल के बाहर बेइन्तहा भीड़ मेरी राह देख रही थी। मैंने एक छोटा-सा भाषण दिया। और आखिरकार जब मैं अपने कमरों में व्यवस्थित हो गया तो अकेले बाहर निकलने की मेरी बेसब्री ज़ोर मारने लगी। लेकिन कंधे से कंधा भिड़ाती भीड़ अभी भी बाहर जुटी हुई थी, चिल्ला-चिल्ला कर मेरा अभिवादन कर रही थी और इस चक्कर में मुझे कई बार बाल्कनी में आना पड़ा और राजसी मेहमानों की तरह उनके अभिवादन को स्वीकार करना पड़ा। इस बात को बयान कर पाना मुश्किल है कि ऐसी असाधारण परिस्थितियों में क्या चल रहा होता है।

मेरा सुइट दोस्तों से भरा हुआ था, लेकिन मेरी इच्छा यही थी कि इन सबसे छुटकारा पाया जाये। इस समय दोपहर के चार बज रहे थे, इसलिए मैंने उनसे कहा कि मैं थोड़ी झपकी लेना चाहूंगा और उनसे डिनर के वक्त शाम को मिलूंगा।

जैसे ही वे लोग गये, मैंने फटाफट कपड़े बदले, सामान ले जानी वाली लिफ्ट पकड़ी और पिछले दरवाजे से चुपचाप सरक लिया। तुरंत ही मैं जर्मिन स्ट्रीट के दूसरे सिरे की तरफ लपका। मैंने एक टैक्सी पकड़ी और ट्रैफेल्गार स्क्वायर, संसद भवन और वेस्टमिन्स्टर ब्रिज के ऊपर से होते हुए हेय मार्केट की तरफ फूट लिया।

टैक्सी ने एक मोड़ काटा और आखिर, केनिंगटन स्ट्रीट पर आ पहुंची! मेरे सामने थी केनिंगटन स्ट्रीट! अविश्वसनीय सी लगती! कुछ भी तो नहीं बदला था। वेस्टमिन्स्टर ब्रिज रोड के कोने पर क्राइस्ट चर्च था। ब्रुक स्ट्रीट के कोने पर टैन्कार्ड बार था।

मैंने टैक्सी को 3 पाउनॉल टैरेस से थोड़ा सा पहले ही रुकवा लिया। मैं जैसे ही घर की तरफ बढ़ा, एक अजीब-सी शांति मुझ पर तारी हो गयी। मैं एक पल के लिए ठिठका रहा, और दृश्य को अपने भीतर उतारता रहा। 3 पाउनॉल टैरेस! सामने नज़र आ रहा था पाउनॉल टैरेस। किसी उदास पुरानी खोपड़ी की तरह। मैंने सबसे ऊपर की मंज़िल की दो खिड़कियों की तरफ देखा - वो परछत्ती जहां पर मां बैठा करती थी, कमज़ोर और कुपोषण की शिकार, धीरे-धीरे उसका दिमाग साथ छोड़ रहा था। खिड़कियां मज़बूती से बंद थीं। वे कोई भेद नहीं खोल रही थीं और उस आदमी की तरफ पूरी तरह से उदासीन थीं जो इतनी देर से नीचे खड़ा उनकी तरफ घूर रहा था, इसके बावजूद उनके मौन ने मुझसे इतना कुछ कह दिया जोकि शायद शब्द भी न कह पाते। तभी कुछ छोटे-छोटे बच्चे वहां आ गये और उन्होंने मुझे घेर लिया, और मुझे मजबूरन वहां से हटना पड़ा।

मैं कैनिंगटन रोड के पिछवाड़े में घुड़साल की तरफ बढ़ा। वहां पर मैं लकड़ी चीरने वालों की मदद किया करता था। लेकिन घुड़साल में ईंटें चढ़ा दी गयी थीं, और लकड़ी चीरने वालों का वहां कोई नामो-निशान नहीं था।

तब मैं 287 केनिंगटन रोड की तरफ बढ़ा जहां पर सिडनी और मैं अपने पिता और लुइसी और उनके नन्हें मुन्ने बेटे के साथ रहा करते थे। मैंने कमरे की दूसरी मंज़िल की खिड़की की तरफ निगाह दौड़ायी। ये कमरा हमारे बचपन की हताशाओं का कितना हमजोली हुआ करता था। अब ये सारी चीजें कितनी निश्छल सी दिखती हैं। शांत और स्थिर।

अब मैं केनिंगटन पार्क की तरफ चला। उस डाकखाने के आगे से गुज़रते हुए जहां पर मेरा साठ पाउंड का एक बचत खाता हुआ करता था - ये वो राशि थी जो मैं 1908 से बचाने के लिए कितनी कंजूसी किया करता था और ये राशि अभी भी वहीं थी।

केनिंगटन पार्क! इतने बरसों के बाद भी वह उदासी भरी हरियाली से लहलहा रहा था। अब मैं केनिंगटन गेट की तरफ मुड़ा। ये वही जगह थी जहां पर हैट्टी से मेरी पहली मुलाकात हुई थी। मैं एक पल के लिए थमा। तभी एक ट्राम कार आ कर रुकी। उसमें कोई चढ़ा लेकिन उतरा कोई भी नहीं।

अब मेरा अगला पड़ाव था ब्रिक्सटन रोड में 15 ग्लेनशॉ मैन्सन। यहां पर वह फ्लैट था जिसे सिडनी और मैंने सजाया था। लेकिन मेरी संवेदनाएं सूख चुकी थीं, मात्र उत्सुकता बाकी रह गयी थी।

वापिस आते समय मैं एक ड्रिंक लेने के लिए हॉर्न्स बार में रुक गया। अपने अच्छे दिनों में ये बहुत भव्य हुआ करता था। इसका पॉलिश से दमकता महोगनी बार, शानदार दर्पण और बिलियर्ड रूम। वहां एक बड़ा-सा एसेम्बली रूम था जहां पर पिता के लिए आखिरी बार सहायतार्थ आयोजन रखा गया था। अब हॉर्न्स थोड़ा थोड़ा अस्त व्यस्त लग रहा था लेकिन सब कुछ वैसा का वैसा ही था। पास ही में वह जगह थी जहां पर मैंने दो बरस तक पढ़ाई की थी, केनिंगटन रोड काउंटी काउंसिल स्कूल। मैंने खेल के मैदान में झांक कर देखा; डामर का उसका धूसर मैदान सिकुड़ चुका था और उस जगह पर और इमारतें आ गयी थीं।

मैं जैसे-जैसे केनिंगटन में भटकता रहा, वो सब कुछ जो मेरे साथ हुआ था, सपने की मानिंद लगने लगा और जो कुछ मेरे साथ स्टेट्स में हुआ था, वास्तविकता प्रतीत होने लगा। इसके बावजूद मुझे कुछ-कुछ असहजता का अहसास होने लगा कि शायद गरीबी की अपनी सी उन गलियों में अभी भी इतनी ताकत है कि मुझे अपनी हताशा की फिसलती रेत में धंसा लेंगी।

मेरी गम्भीर उदासी और तन्हाई के बारे में बहुत कुछ बकवास लिखा जा चुका है। शायद मुझे कभी भी बहुत ज्यादा दोस्तों की ज़रूरत नहीं रही - आदमी जब किसी ऊंची जगह पर पहुंच जाता है तो दोस्त चुनने में कोई विवेक काम नहीं करता। जब मैं मूड में होता हूं तो मैं दोस्तों को वैसे ही पसंद करता हूं जैसे संगीत को पसंद करता हूं। ज़रूरत के वक्त किसी दोस्त की मदद करना आसान होता है लेकिन आप हमेशा इतने खुशनसीब नहीं होते कि उसे अपना समय दे पायें। जब मैं लोकप्रियता के शिखर पर था तो मेरे दोस्तों और परिचितों का हुजूम मुझे ज़रूरत से ज्यादा घेरे रहता था। मैं एक साथ ही बहिर्मुखी और अंतर्मुखी हूं लेकिन जब मेरा अंतर्मुखी पक्ष हावी होता तो मुझे इस सारे ताम-झाम से दूर भाग जाना पड़ता। शायद यही वज़ह रही होगी कि मेरे बारे में इस तरह के आलेख लिखे गये कि मैं बचता फिरता हूं, अकेला रहता हूं और सच्ची दोस्ती के काबिल नहीं हूं। ये सब बकवास है। मेरे एक-दो बहुत ही अच्छे दोस्त हैं जो मेरे क्षितिज को रौशन बनाये रहते हैं और जब भी मैं उनके साथ होता हूं, आम तौर पर उनके साथ का आनंद उठाता हूं।

इसके बावजूद मेरे व्यक्तित्व को लेखक के स्वभाव के अनुसार ऊपर उठाया गया है और नीचे गिराया गया है।

उदाहरण के लिए, सॉमरसेट मॉम ने लिखा है:

चार्ली चैप्लिन ... उसका मज़ाक सरल और मिठासभरा और सहज है। और इसके बावजूद आपको यह अहसास होता है कि इन सबके पीछे एक गहरी उदासी है। वह मूड का प्राणी है और इसके लिए उसे परिहासयुक्त स्वीकृति की ज़रूरत नहीं होती। ""हेय, कल रात मुझे का ऐसा दौरा पड़ा कि मुझे बिल्कुल भी पता नहीं चला कि मैं अपने आप के साथ क्या करूं!!" मैं आपको चेताता हूं कि उसका हास्य उदासी के साथ-साथ चलता है। वह आपको खुश आदमी की छवि नहीं देता। मुझे तो ये लगता है कि वह झोपड़पट्टियों की आसक्त करने वाली याद से पीड़ित है। जिस तरह के वैभव को वह भोगता है, उसकी दौलत, उसे इस तरह की ज़िंदगी में कैद कर लेते हैं जिसे वह अड़चनों की तरह ही पाता है। मुझे लगता है कि वह अपनी संघर्षशील जवानी की आज़ादी की तरफ मुड़-मुड़ कर देखता है, उसकी मुफलिसी और कड़वे अभावों के साथ, उस चाहत के साथ जिसे बारे में उसे पता है कि कभी भी संतुष्ट नहीं की जा सकती। उसके लिए दक्षिणी लंदन की गलियां मौज मस्ती, ऐशो आराम और बेइन्तहां रोमांच के ठिकाने हैं . .. मैं इस बात की कल्पना कर सकता हूं कि वह अपने खुद के घर में जाता है और हैरान होता है कि आखिर वह अजनबी आदमी के घर पर कर ही क्या रहा है!! मुझे शक है कि वह सिर्फ एक ही घर को अपने घर की तरह देख सकता है और वह है केनिंगटन रोड की दूसरी मंज़िल पर पिछवाड़े की तरफ का घर। एक रात मैं उसके साथ लॉस एंंजेल्स में घूम रहा था और चलते चलते हमारे कदम शहर के गरीब तबकों के इलाके की तरफ मुड़ गये। वहां पर मुफलिसी में जीने वालों के घर थे और गंदी, भड़कीली दुकानें थीं जिनमें गरीब आदमी अपनी रोज़ाना की ज़रूरत की चीजें खरीदते हैं। चार्ली का चेहरा दमक उठा और जब उसने अपनी बात कही तो उसकी आवाज़ में एक जोशीला स्वर आ मिला था, "देखो तो, यही है असली ज़िंदगी, नहीं क्या? बाकी सब कुछ तो मक्कारी है!!"*

किसी दूसरे व्यक्ति के लिए गरीबी को आकर्षक बनाने की चाह रखने का यह नज़रिया कोफ्त में डालता है। मैं अब तक ऐसे एक भी गरीब आदमी से नहीं मिला हूं जो अपनी गरीबी के प्रति आसक्त हो या उसमें आज़ादी ढूंढता हो। न ही मिस्टर मॉम किसी गरीब आदमी को इस बात का यकीन ही दिला पाये कि प्रसिद्धि के शिखर पर होने और बेइन्तहां दौलत का मतलब रुकावट होता है- इसके विपरीत मुझे तो प्रसिद्ध और बेइन्तहां दौलत में आज़ादी महसूस होती है। मुझे नहीं लगता कि मिस्टर मॉम अपने किसी उपन्यास में अपने किसी चरित्र को इस तरह के झूठे अर्थ देंगे, उनमें से किसी को भी नहीं। इस तरह के शब्द जाल,"दक्षिणी लंदन की गलियां मौज मस्ती, ऐशो आराम और बेइन्तहां रोमांच के ठिकाने" हैं, में फ्रांस की महारानी मैरी एंंटोइनेटे की काल्पनिक दिल्लगी की तंज नज़र आती है।

गरीबी मुझे न तो आकर्षक और न ही कलात्मक लगती है। इसने मुझे और कुछ नहीं, बल्कि मूल्यों को विकृत करना, अमीरों तथा तथा कथित सम्पन्न वर्गों की विशेषताओं और गरिमा को बढ़ा चढ़ा कर बताना ही सिखाया है।

इसके विपरीत धन-दौलत और प्रसिद्धि ने मुझे दुनिया को सही नज़रिये से देखना, और यह पता लगाना सिखाया है कि खास जगहों पर बैठे हुए लोगों के सम्पर्क में जब मैं आया तो अपने तरीके से वे भी उतने ही कमज़ोरियों के पुतले थे जितने बाकी हम सब लोग हैं।

धन दौलत और प्रसिद्धि ने मुझे ये भी सिखाया कि तलवार, छड़ी और उठे हुए कोड़े के महत्त्व को कैसे भुनाना है और उन्हें घमंड के अर्थ के नजदीक पड़ता है। कॉलेज वाले उच्चारण के मद में आदमी के गुणों और बौद्धिकता का अनुमान लगाना और इस झूठ ने अंग्रेजी मध्यम वर्गों पर जो लकवा मारने वाला असर छोड़ा है उसे जानना और ये जानना कि मेधा जरूरी नहीं कि शिक्षा से या पुराने महाकाव्य पढ़ कर ही आती हो।

मॉम के अनुमानों के बावजूद मैं और सब लोगों की तरह वही हूं जो मैं हूं। एक व्यक्ति, अनूठा और अलग। जिसमें प्राम्पट करने का भीतरी भावों को समाने लाने का थोड़ा सा रेखीय इतिहास रहा है। सपनों का, इच्छाओं का, और खास अनुभवों का इतिहास, और मैं इन सबका जोड़ हूं।

लंदन में पहुंचने के बाद मैं अपने-आपको लगातार हॉलीवुड के दोस्तों के संग-साथ में ही पा रहा था। मैं परिवर्तन चाहता था, नये लोग, नये अनुभव; मैं प्रसिद्ध शख्सियत होने के इस कारोबार की कीमत वसूलना चाहता था। मैं अब तक सिर्फ एक ही व्यक्ति से मिला था और ये थे एच जी वेल्स। उसके बाद मैं अलमस्त घूम रहा था और हिचकिचाहट भरी उम्मीद कर रहा था कि और लोगों से मुलाकात हो।

"मैंने तुम्हारे लिए गैरिक क्लब में एक डिनर का इंतज़ाम किया है।" ऐडी नोब्लॉक ने बताया।

"फिर वही अभिनेता, कलाकार और लेखक," मैंने मज़ाक में कहा,"लेकिन वो इंगलिश माहौल, वो देहातों वाले घर और घरेलू पार्टियां कहां हैं जहां का मुझे न्यौता नहीं दिया गया है?" मैं डÎूकों जैसे जीवन के दुर्लभतम माहौल के लिए छटपटा रहा था। ये बात नहीं है कि मैं घमंडी था, बल्कि मैं तो एक पर्यटक था और सैर सपाटे को निकला व्यक्ति था।

गैरिक क्लब में माहौल बेहद लुभाने वाला था, धूप छांही ओक की गाढ़े रंग की दीवारें और तैल चित्र। यहीं पर मैं सर जेम्स बैरी, ई वी लुकास, वाल्टर हैकेट, जॉर्ज फ्रैम्पटन, सर एडविन लुटÎेन्स, स्क्वायर बैनक्रोफ्ट और अन्य गणमान्य विभूतियों से मिला। हालांकि ये पार्टी कुछ हद तक फीकी ही थी, मैं इन महान विभूतियों की मौजूदगी से मिले सम्मान से ही बहुत ज्यादा अभिभूत था।

लेकिन मुझे लगता है कि उस शाम को जितना रंगीन होना चाहिये था, उतनी हुई नहीं। जब महान विभूतियां एक जगह पर एकत्रित होती हैं, तो मौके का मांग यह होती है कि आपस में प्रेम से घुला-मिला जाये और ये हो पाना कुछ हद तक इस वज़ह से मुश्किल था क्योंकि सम्मानित मेहमान जो थे, वे एक विख्यात नव धन कुबेर थे जिन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया था कि डिनर के बाद वाली कोई भाषणबाजी नहीं होगी; शायद इसी बात की कमी खल रही थी। डिनर के दौरान फ्रैम्पटन, वास्तुशिल्पी ने कुछ हँसी मज़ाक का प्रयास किया और वे खूब जमे, लेकिन वे गैरिक क्लब में छायी मनहूसियत को कम करने में मुश्किल पा रहे थे, क्योंकि हम सब बाकी लोग उबले हैम और ट्रिकल पुडिंग खाने में लगे हुए थे।

अंग्रेज़ी प्रेस के साथ अपने पहले साक्षात्कार में मैंने अनजाने में यह कह दिया था कि मैं अपने इंगलिश स्कूली दिनों को फिर से जीने, रसेदार ईल मछली और ट्रिकल पुडिंग का स्वाद लेने के लिए आया हूं। इसका नतीजा ये हुआ कि इन लोगों ने मुझे गैरिक क्लब में, रिट्ज में, एच जी वेल्स के यहां और यहां तक कि सर फिलिप सैसून के यहां छप्पन भोग वाले डिनर में भी जो स्वीट डिश खिलायी, वह ट्रिकल पुडिंग ही थी।

पार्टी जल्द ही बिखर गयी। तब ऐडी नोब्लॉक मेरे कान में फुसफुसाये कि सर जेम्स बैरी चाहते हैं कि हम एडेल्फी टैरेस स्थित उनके अपार्टमेंट में एक कप चाय के लिए चलें।

बेरी का अपार्टमेंट चित्रशाला की तरह था। एक बहुत बड़ा-सा कमरा जहां से टेम्स नदी का नज़ारा दिखायी देता था। कमरे के बीचों-बीच एक गोलाकार अंगीठी थी जिसमें से चिमनी का एक पाइप ऊपर छत तक चला गया था। वे हमें उस खिड़की तक ले गये जो एक तंग गली की तरफ खुलती थी और उसके ठीक सामने एक दूसरी खिड़की थी।

"ये बर्नार्ड शॉ का सोने का कमरा है।" उन्होंने अपने स्कॉटिश लहजे में शरारतपूर्ण तरीके से कहा,"जब भी मैं बत्ती जली हुई देखता हूं तो मैं उनकी खिड़की पर चेरी या आलूचे के बीज फेंक कर मारता हूं। अगर वे गप्पबाजी करना चाहते हैं तो वे खिड़की खोल देते हैं, और हम थोड़ी देर निठल्ली औरतों की तरह गपशप कर लेते हैं और अगर वे बात नहीं करना चाहते तो मेरी तरफ कोई ध्यान नहीं देते या फिर बत्ती बुझा देते हैं। आम तौर पर मैं तीन बार बीज उनकी खिड़की पर मारता हूं और उसके बाद छोड़ देता हूं।"

पैरामाउंट हॉलीवुड में पीटर पैन फिल्माने जा रहे थे। "पीटर पैन" मैंने बेरी से कहा,"में नाटक से भी ज्यादा फिल्म में संभावनाएं हैं।" और वे मुझसे सहमत थे। उस शाम बैरी ने ये पूछा,"आपने द किड में एक स्वप्न की दृश्यावली को क्यों पिरोया है? इससे कथा के विकास में बाधा आती है।"

"चूंकि मैं ए किस ऑफ सिंड्रेला से प्रभावित था।" मैंने बेधड़क हो कर कहा।

अगले दिन ऐडी और मैं खरीदारी के लिए निकल गये। उसके बाद उन्होंने सुझाव दिया कि क्यों न हम बर्नार्ड शॉ से मिलते चलें! कोई समय तय नहीं किया गया था। "हम बस उनसे यूं ही मिल लेंगे।" कहा ऐडी ने। दोपहर चार बजे के करीब ऐडी ने एडेल्फी टैरेस में दरवाजे की घंटी बजायी। जिस वक्त हम इंतज़ार कर रहे थे कि तभी अचानक मेरा मूड उखड़ गया,"किसी और समय।" कहा मैंने और वहां से गली में सरपट दौड़ लिया। ऐडी मेरे पीछे-पीछे दौड़ रहे थे। वे बेकार में मुझे आश्वस्त कर रहे थे कि सब कुछ ठीक हो जायेगा।

1931 में ही यह संभव हो पाया था जब मुझे बर्नार्ड शॉ से मिलने का सौभाग्य मिला।

अगली सुबह मेरी नींद बैठक में बज रही टेलिफोन की घंटी से खुली और मैंने अपने अमरीकी सचिव की गुरू गम्भीर आवाज़ सुनी: "कौन? प्रिंस ऑफ वेल्स!!"

ऐडी भी वहीं पर थे और चूंकि वे अपने आपको प्रोटोकॉल के जानकार समझते थे, फोन सचिव से ले लिया। मैं ऐडी की आवाज़ सुन पा रहा था, वे कह रहे थे,"तो आप हैं! हां हां, जी हां, आज रात? धन्यवाद!!"

ऐडी ने उत्तेजित होते हुए मेरे सचिव को बताया कि प्रिंस ऑफ वेल्स चाहते हैं कि चैप्लिन आज रात उनके साथ भोजन करें और वे खुद मेरे बेडरूम की तरफ लपके।

"उन्हें अभी मत जगाइये।" मेरे सचिव ने कहा।

"अरे भाई, समझा करो। ये प्रिंस ऑफ वेल्स हैं।" ऐडी ने नाराज़ होते हुए कहा और ब्रिटिश तौर तरीकों पर हल्ला बोल दिया।

एक ही पल बाद मैंने अपने बैडरूम के दरवाजे के हैंडल को घूमते हुए सुना तो मैंने यही जतलाया मानो मैं जाग रहा था। ऐडी भीतर आये और दबी हुई उत्तेजना के साथ और नकली उदासीनता के साथ बताने लगे," आज रात अपने आपको फ्री रखना। तुम्हें प्रिंस ऑफ वेल्स के साथ खाना खाने के लिए न्यौता मिला है।"

उसी तरह की उदासीनता ओढ़ते हुए मैंने उन्हें बताया कि ये खराब लगेगा क्योंकि मैं आज की शाम एच जी वेल्स के साथ डिनर करने के बारे में पहले ही तय कर चुका हूं। मैंने जो कुछ कहा उस पर ऐडी ने कोई ध्यान नहीं दिया और प्रिंस के संदेश को दोहराया। बेशक मैं रोमांचित था - बकिंघम पैलेस में प्रिंस ऑफ वेल्स के साथ भोजन करने का ख्याल ही रोमांचित करने वाला था!