रत्नावली
रामगोपाल भावुक
तेरह
आस्थाओं-अनास्थाओं में युगों-युगों से संघर्ष होता रहा है। विजयश्री कभी आस्थाओं को मिली है, कभी अनास्थाओं को। आस्थाहीन मानव को लोग भटका हुआ मानते हैं। वह जिस चिन्तन में अपने को आत्मसात् किये रहता है उसमें उसका आत्मविश्वास पर्वत की भॉँति अटल अविचल खड़ा होता है। आस्थाओं वाले धरातल के तथ्य को वह अपने तर्कों की अनुभूतियों से काट फेंकता है। इनमें उसका कोई न कोई दर्शन अवश्य होता है।... रामा भैया रात भर ऐसी ही बातें सोचते रहे।
और रत्नावली रात भर सोचती रही - मैंने जाने किस राम की दुहाई देकर उन्हें अपने से दूर कर दिया और आज कहॉं चला गया उनका राम ? कहाँ है उसका अस्तित्व ? तुम चाहे राम के होकर रहो। लेकिन अब मेरा विश्वास तो किसी राम पर टिकने वाला है नहीं। कितनी दुहाई दी थी अपने लाल की रक्षा के लिए ? पर कहीं कोई राम होता तो मेरी यह दशा न होती। राम को अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए मेरे लाल के जीवन की रक्षा करना ही चाहिए थी। आज मैं तो क्या सारा संसार तुम्हारे अस्तित्व पर शंका करने लगा है।
कितनी बार तुम्हारे नाम की भभूत लगायी लेकिन कोई भी पुण्य आड़े न हुआ। क्या हमारे पूर्वजों का सारा पुण्य क्षीण हो गया है। यदि न हुआ होता तो आज यह वंश यहीं समाप्त न हो गया होता। किसी वंश की समाप्ति को किसी भी धर्म ग्रंथ में पुण्य का प्रताप तो माना ही नहीं गया होगा।
जब दुर्दिन आते हैं। वैसी ही बुद्धि बदल जाती है। मेरा भी यही हाल हुआ है। राम पर मेरा विश्वास कैसा था! जो इस तरह चकनाचूर हो गया। कहीं मेरे विश्वास में कमी तो नहीं थी। मैंने तेरे अस्तित्व पर कभी शंका भी नहीं की थी। फिर ऐसा क्यों हो गया ? मेरे आस्थाओं के संसार को उजाड़ने में तूने संकोच क्यों नहीं किया ? अब तुझ पर कौन विश्वास करेगा ? तुम्हारे चरणों में मन टिका रहे, तुमने उन आधारों को भी छीन लिया। संसार है इसलिए तुम हो। अन्यथा तुम्हारे अस्तित्व के बारे में कौन सोचता! पशु-पक्षी तुम्हारे अस्तित्व को नहीं स्वीकारते। इसीलिए उन पर सुख-दुःख की छाया इतनी नहीं है। मैं तुम्हारा अस्तित्व स्वीकारती हॅूं। कौन सा सुख लूट रही हूँ? वे चले गये। मैंने सह लिया। तुम इस तिनके के समान सहारे को अपने वेग में बहाकर ले गये। आज मैं समझ गयी, कोई ईश्वर- वीस्वर नहीं होता। सब आदमी के अंदर का बहम है। जन्म-जन्मान्तर से पड़े़ संस्कारों का फल है। आदमी ने जब से होश सॅंँभाला है अपने विकास के पीछे किसी अज्ञात सत्ता के अस्तित्व को स्वीकारा है। उसने वह सत्ता चन्द्रमा में देखना चाही। सूरज में देखना चाही। पेड-पौधों, जीव-जन्तुओं अर्थात् सारे चराचर में वह उसका अस्तित्व देखने में लगा रहा। लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला। घण्टों माला फेरना व्यर्थ ही लगा। इन सब बातों से मानव को कहीं शान्ति मिली है? उत्तर मिलेगा नहीं। फिर मुझे शान्ति कहॉं से मिलती ?
अब जीकर भी क्या करूगी ? अब ये पहाड़ सी जिन्दगी कैसे कटेगी ?
रातभर तारा की याद में कराहते हुये निकल गयी। एक बार झपकी लगती-सी लगी तो रुदन करता हुआ तारा सामने आ गया। नींद उचट गयी। वेदना फिर सामने आकर खड़ी हो गयी। आह निकली- हाय लाल ! तुम कहाँ चले गये ? हरको बात सुन रही थी। वह उन्हें डॉँटते हुये बोली-‘कहीं नहीं गये। राम के यहॉं गये हैं। तुम जब वहॉं पहॅुँचोगी, तुम्हें मिल जायेंगे।‘
यह बात सुनकर वह चुप रह गयी। सोचने लगी- क्या वाकई ऐसा होता है ? फिर ये मन गढ़न्त बातें कितने विश्वास के साथ कह दी जाती हैं। सब मन के बहम् हैं। बड़े-बड़े अवतार हुये हैं, कौन जाने ? इसी तरह मन गढ़न्त अवतार ही तो नहीं हुये हैं। एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे पर झूठ-सच थोपते चले गये। जाने क्या-क्या मन पर आरोपित कर दिया गया है ?
इसी तरह के सोच में सबेरा हो गया। हरको बोली-‘भौजी चलो, नदी पर चलें। नहा धो आयेंगे। यह सुन उसका हृदय फिर भर आया। पहले जाती थी तो तारा को भी साथ ले जाती थी। हरको ने पकड़कर उसे बरबस उठाया। पकड़कर ऑंगन में ले आयी। हरको ने धनिया को आदेश दिया- ये दौल, छॉंव में रखे हुये हैं, तुम इन्हें ले जाकर घाट पर मछलियों को डाल आ........, नहीं तो गउओं को खिला दे।‘
धनिया ने कोई उत्तर नहीं दिया तो हरको पुनः बोली-‘मैं भौजी को ले चलती हूँ।तुम भौजी का लंहगा लूंगरा ले आना। जरा जल्दी करना, नहीं हम वहीं बैठी रहें। दिन निकलने को हो गया।‘ कहते हुये वे घर से निकल गयी। धनिया अपने काम में लग गयी। सोचने लगी- बॅंटोना जाने कैसे मुर्हूत में गलने डाला गया कि बिना बॅंटे ही रह गया।
अब दिन तारा की याद में व्यतीत होने लगे। उसके वस्त्र देखकर रोने लगती। उसकी तोतली बातें याद आतीं, ऑंँसुओं की धार बह निकलती। रोते-रोते पलकें सूज गयी। खड़ी होती तो चक्कर आ जाता, आधीपद्धी रोटी गणपति की माँ आकर खिला जाती। वे इतनी कमजोर हो गयी कि युवावस्था में डुकरिया सी लगने लगीं। गाँव की औरते दुःख बॅंटाने के बहाने बैठने आ जातीं। दिन भर आना जाना-लगा रहता। लोग प्रयास करते थे कि जितना सम्भव हो उन्हें अकेला न छोड़ा जाये। पढ़ने वाले बच्चे बिना पट्टी और दवात-लेखनी के चक्कर लगाने लगे। उनके घर के लोग उनसे कह देते-‘जाओ मैया के पास खेलना जिससे उनका मन बहल जायेगा।‘
यों दैनिक जीवन फिर से ढरकने लगा। मन नये सन्दर्भों की तलाश करने लगा। बच्चों को अपने पास देख कर उन्हें अच्छा लगता। बाल गोपालों में मन रम जाता। उस वक्त वे तारा को भूल जातीं। हर बालक में तारा की छवि देखने का प्रयास करने लगतीं। शनैःशनैः मन का बदलना शुरू हो गया।
सत्य को लम्बे समय तक नकारा नहीं जा सकता। उसके नाम पर रोने से वह आ तो नहीं सकता। फिर संसार को रो-रोकर दिखाना ठीक नहीं है। हिम्मत से काम लेना चाहिए। नहीं लोग कहेंगे, बडी बहादुर बनती थी, कैसी कायर निकली ? मन के दुख को बाहर क्यों निकलने दॅूं। संसार के सामने सामान्य बनकर रहूँ।
इस सोच के बाद वे एक दम बदल गयी। लोगों ने उसे कितना समझाया पर कुछ भी समझ में नहीं आया। जब मन ने अपने आप को समझाया, बात अच्छी तरह से समझ में आ गयी।
कुछ दिनों से हरको के मन में एक प्रश्न उभर रहा था। उसे कहने के लिए वह कई बार भूमिका भी बना चुकी थी। उसे लगा- अब उस बात को कह देने में देर नहीं करनी चाहिए। यही सोचकर वह डरते-डरते बोली-‘भौजी एक बात मन में आती है।‘
रत्नावली ने बात के प्रति उदासीनता दिखाते हुये पूछा-‘क्या बात है ?‘
वह बात को एक सॉंस में कह गयी-‘यही आप गुरुजी के पास चक्कर लगा आयें। उन्हें आपकी स्थिति का ज्ञान भी हो जायेगा। सम्भव है वे कुछ सोचें, समझे और घर लौट आयें।‘
रत्नावली कुछ सोचते हुये बोली-‘देख हरको बाई, मैं उन्हें अच्छी तरह जानती हॅूँ, अब वे यहॉं आने वाले तो हैं नहीं। मेरे जाने से कहीं उनकी आस्थाओं को चोट लगी तो............।‘
यह सुनकर हरको बोली-‘भौजी आप यह तो सोचें। गुरुजी को मुन्ना की खबर तो मिलनी ही चाहिए। वे विद्वान आदमी हैं, कुछ न कुछ उपाय अवश्य खोजेंगे।‘
रत्नावली ने हरको का मन रखने के लिए यह बात टालते हुये कहा-‘देखो हरको बाई, अभी तो मन ठीक नहीं है। कभी मन हुआ तो देखेंगे।‘
हरको समझ गयी मेरी बात टल गयी है। फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी और बोली-‘आप आज्ञा देंगी तो मैं भी आप के साथ चल सकती हूँ। आपके कारण ही गुरुजी के दर्शन हो जायें।‘
रत्नावली खीजते हुये बोली-‘रहने दे, उन्हें कहाँ खोजने जायेंगे। अभी तक उनका कहीं पता चल पाया है, बोल?‘
यह सुनकर हरको के चेहरे पर निराशा झलक आयी। बोली-‘उनका पता भी तो नहीं है, हम जायेंगे कहॉँ? पर वे होंगे किसी तीर्थ में ही!‘
रत्नावली बोली-‘रमता जोगी बहता पानी का क्या ठिकाना ? ना जाने कहॉँ धूनी रमी होगी। हम औरतें उन्हें कहॉं खोजती फिरें ?‘
यह कहकर वे कुछ देर तक चुप बनी रहीं। हरको समझ गयी , कुछ सोचने में लगी हैं। तब हरको ने प्रश्न भरी निगाहों से उनकी ओर देखा तो वे बोलीं-‘देख हरको मैंने इन बच्चों को जो कुछ सिखाया था सब भूल गए होंगे। अब हमें अपना पढ़ाने-लिखाने का काम फिर से शुरू कर देना चाहिए।‘
हरको को लगा वह उछल पड़े। झट से बात बढ़ाते हुये बोली-‘आपका यह बहुत अच्छा विचार है। बच्चे चक्कर लगा ही रहे हैं। मैं उन से कहे देती हूँ। कल से आना शुरू कर दें।‘ यह कहते हुये वह घर से बाहर निकल गयी ।
इस प्रकार बच्चों की पढाई फिर से शुरू हो गयी थी। एक दिन हरको के माध्यम से रामा भैया ने खबर भेजी, भौजी से कहना-‘मैं गुरुजी का पता लगाने का प्रयास कर रहा हॅूँ कि वे कहॉंहैं ? जैसे ही उनका पता चलेगा, चलने को तैयार रहें। गाँवके लोगों की भी यही राय है।‘
यह सुनकर वे सोचने लगीं- मुझे गाँवकी यह राय माननी ही चाहिए।
इस प्रसंग ने गोस्वामी जी के दर्शनों की इच्छा को और तीव्र कर दिया। वे सोचने लगी- क्या पता स्वामी कहॉंँ होंगे ? बाबा-वैरागियों का क्या ठिकाना ? लेकिन रामा भैया जिस काम की ठान लेते हैं, उसे पूरा करके ही मानते हैं। अब तो उनके दर्शन अवश्य होंगे।
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