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रत्नावली 12

रत्नावली

रामगोपाल भावुक

बारह

राजापुर गॉँव यमुना की कछार में बसा है और रत्नावली का घर यमुना के किनारे पर। घर का मँह यमुना की तरफ खुलता है। घर से निकलते ही दिखता है, यमुना का प्रवाह। भरपूर फसलें देने वाली उपजाऊ मिट्टी।.... बसन्त के सुहावने मौसम की समाप्ति। मौसम का परिवर्तन। लोग बीमार पड़ने लगे। छूत के रोग की तरह बीमारियॉँ गाँव भर में फैल गयी। हरको व रामा भैया लोगों की सेवा में लग गये।

रात तारापति खूब खीजा। उसे चुप कराने में रत्नावली रुऑँसी हो गयी। फिर भी वह चुप न हो रहा था। रोये चला जा रहा था। सुबह होते-होते उसे तेज बुखार हो गया। खबर भेज कर सुबह ही रामा भैया को बुलवा लिया। वे तारा को देखकर रत्ना को साँन्त्वना देते हुये बोले-‘फसली बुखार है। घर-घर यही हालत है। चिन्ता की कोई बात नहीं है। दवा दिये देता हॅूँ। राम जी सब ठीक करेंगे।‘ उनकी बात से रत्नावली को सन्तोष मिला। हरको ने रामा भैया की प्रशंसा करने के उद्देश्य से कहा-‘इस गॉँव में तो बस तुम्ही हो। भैया तुम्हें ही गुरु जी अपने सारे मंत्र सिखा गये हैं।‘ कहने में उसे याद हो आयी बक्से में रखी दवाओं की पोटली की। रत्नावली रामा भैया से बिना कहे जेबने घर में चली गयी। और वह पोटली उठा लायी। रामा भैया को देते हुये बोली-‘ये पोटली दीपवली की सफाई में उनके बक्से में मिली है। ये लो।‘ पेाटली देने को हाथ बढ़ा़ दिया। रामा भैया ने पोटली ले ली।

रामा भैया ने पटक पर बैठकर उसे खेाला। बड़ी देर तक उन दवाओं की परख करते रहे। फिर बोले-‘इसमें तो कई दवा ऐसी रखी हैं जो मेरी समझ में ही नहीं आ रही हैं। अभी मैं अपनी पोटली में से दवा दिये देता हॅूँ।‘ यह कहकर उन्होंने कुछ जड़ी निकालकर दे दी और बोले-‘इसे घिस-घिसकर चटाती रहें। गोस्वामी जी की पोटली को फुर्सत में बैठकर देखूँगा।‘ दवा देकर वे जाने लगे।

रत्नावली बोली-‘इस पोटली को लेते जाये। यहाँ किस काम की। आप शायद इसमे काम की चीजें ढूढ सके।‘

तब रामा भैया उस पोटली को लेकर चले गये।

रत्नावली ने दवा सिलवट्टा पर पीसी, उसे शहद में मिलाकर चटाना शुरू कर दी। राम जी का सहारा पकड़ने के लिए अपनी अर्चना के समय में वृद्धि भी करना चाही। लेकिन तारापति का ध्यान भी उतना ही बढ़़ गया। वह पूजा-अर्चना में बैठती तो तारा के स्वास्थ्य के बारे में चिन्तन चलने लगता। ध्यान में मन न लगता..... फिर भी उसने भजन-पूजन मे बैठना बन्द नहीं किया।

तारापति ‘नाना नाना........’ कहकर जिद करने लगा था। रत्नावली ने महेबा खबर भेज दी। वहॉँ से खबर लौट आयी-‘अभी पिताजी तीर्थयात्रा से लौट कर नहीं आये हैं। ना ही उनकी कोई सूचना मिली है।‘

रामा भैया दिन में तीन-चार बार चक्कर लगाने लगे थे। लेकिन बुखार कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। जब रामा भैया चक्कर लगाने आये उन्हें देखते ही वे बोलीं-‘रामा भैया! इसका बुखार तो कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है। अब तो अर्रजर्र भी देने लगा है। न हो तो पहाड़ी गॉँव में कोई वैद्य हो उसे बुला लेते। या किसी को चित्रकूट भेज देते। वहाँ जरूर कोई अच्छे वैद्य होंगे।‘

उनकी बात सुनकर रामा भैया का दिल कॉँप गया। बोले-‘भौजी पहाड़ी गॉँव में तो कोई वैद्य है ही नहीं। रही चित्रकूट की तो वहॉँ के लिए किसी को रवाना करता हॅूँ। उसे लौटने में भी दो दिन लग जायेंगे। वैसे यही दवा देती रहंे। न हो तो दवा की मात्रा चार बार की बजाय पॉँच बार कर दे। एक दवा और देता हूँ।। उसे शहद में चटाना शुरू कर दें। ये जो दवा दे रहा हूँ। वह तो राम वाण है। आप चिन्ता न करें। आज ही नदी किनारे से खोज कर लाया हॅूँ। यदि इससे भी फायदा न होगा तो भी चिन्ता न करें मैं और दवा दूँगा। हॉँ एक बात लगती है, तीन दिन तपते-तपते हो गये बुखार जरा भी नरम नहीं हुआ। लगता है कहीं माता मैया का आगमन तो नहीं है।‘

यह सुन रत्नावली एक क्षण चुप रही। उसने तारापति के माथे पर हाथ रखा। माथा तप रहा था। उसने शरीर पर दृष्टि डाली। शरीर लाल पडता जा रहा था। बोली-‘लग तो मुझे भी यही रहा है। बदन लाल पड़ने लगा है।‘

रामाभैया ने तारापति के शरीर पर अपनी दृष्टि गड़ा दी और बोले-‘फिर तो भौजी अपने को ये सारी दवाऐं बन्द करनी पड़ेंगी। जब माता मैया घर में आती हैं, सारी दवायें बन्द कर देना पड़ती हैं। नहीं तो माता मैया और बिचिल जायेंगी, वैसे सब राम जी ठीक करेंगे। हमें तो उन्हीं का भरोसा है। घर की देहरी पर आप आग गाड़ कर रखना। इससे भूत बाधाओं से रक्षा होगी। तारा के सिराहने हॅँसिया और नीम रख देना। घर में साग भाजी का छोंक न लगे।‘

रत्नावली ने बोली-‘साग भाजी तो उसी दिन से बन्द है, जिस दिन से इसे ताप चढ़ी है।‘

रामा भैया बोले-‘ठीक है, मैं चलता हॅूँ रोज माता के मन्दिर में जल चढ़ा आया करें। चिन्ता करने की जरूरत नहीं हैं। आप भी कौरा घॅूँटा खाती-पीती रहंे। आप बीमार पड़ गयी तो फिर इसकी देखभाल कौन करेगा?‘

रत्नावली बोली ‘मुझे क्या होना है ? भगवान मेरी मिट्टी समेट ले। लेकिन तारा अच्छा हो जाये। मुझे अपनी चिन्ता नहीं है।‘

यह सुनते हुये रामा भैया घर से निकल पड़े। रत्नावली तारा के पास रह गयी।

दूसरे दिन शरीर पर फफोले से दिखने लगे। लगने लगा- बड़ी माता है। तारा बुरी तरह छटपटा रहा था। हरको धनिया और रत्नावली को रात भर बैठे-बैठे निकली। दिन भी इसी तरह निकल गया। रत्नावली ने अन्न का परित्याग कर दिया। केवल पानी पीकर रहने का निश्चय कर लिया। रामा भैया के कहने पर फलाहार लेने लगीं।

रत्नावली जब पूजा से उठती, राम जी की भभूत ले आतीं। तारापति के सारे शरीर से लगाती और कामना करतीं कि तारापति का शरीर वज्र सा हो जाये। यह सोचते हुये उन्हें लगता- अब तारापति का कोई अनिष्ट नहीं होने वाला। मन प्रसन्न हो जाता, एक क्षण के लिए निश्चिन्त हो जातीं। दूसरे ही क्षण वह पुनः संसार में लौट आतीं। लेकिन वह निश्चिन्तता का क्षण ही उनमें जीवन के लिए उत्साह भर देता। यों आशा के सहारे डूबते-उतराते समय कट रहा था।

रामजी न करें, कहीं मेरे साथ अब और कोई अनहोनी हो! नहीं-नहीं, रामजी ऐसा नहीं कर सकते। स्वामी आप के हिस्से में आये हैं। हमने राम जी को बाँटा है। मैं हार गयी। राम को आपके हिस्से में दे दिया और संसार अपने हिस्से में ले लिया। यहीं मेरी हार हो गयी। वैसे तो तारा आपके राम जी के हिस्से वाला ही हिस्सा है। पालन-पोषण ही मेरे हिस्से में आया है। और मैं वह भी नहीं कर पा रही हॅूँ।

हरको ने प्रसाद के लिए दौल गला दिये थे। धनिया दौल देखने में लगी थी कि वे फूले हैं कि नहीं। बनिया के यहॉँ से गुड़ मंगवा लिया गया था।

हरको चली सो गॉँव में माता की भंटों का बुलौआ दे आयी। शाम से ही औरतें आने लगीं। ढोलक ठुनकने लगी। भेंटें गाने वाली औरत आ गयी। देवी की भेंट गाई जाने लगीं।

तारा के कॉंखने की आवाज कानों में पड़ी। वह पूरी तरह सचेत हो गयी। तारा का श्वास बहुत तेज चलने लगा। वह बेटे से छत्र की तरह सटकर बैठ गयी। बात ऑँगन में पहँच गयी। ढोलक ने ठुनकना बन्द कर दिया। सभी औरतों ने कानाफूसी की आवाज में बातें की। तय किया। पॉँच भेंट जल्दी-जल्दी निपटा कर कार्यक्रम समाप्त कर लेना चाहिए। तारा की हालत गड़बड़ा रही है। ढो़लक फिर ठुनकने लगी। औरतों ने जल्दी-जल्दी गाना शुरू कर दिया। इधर रत्ना के चीखने की आवाज ऑँगन में सुन पड़ी।

आवाज सुनकर वे जहॉँ की तहॉँ रुक गयी। उन की सॉँसें रुक-सी गयी। संकट के समय हरको ने हिम्मत बॅँधाना चाही। पर वह भी हार मानकर चीखने लगी। हरको की आवाज चीखने वालों में सबसे तेज थी। चीखें रात के सन्नाटे को चीरकर सारे गॉँव को पार कर रही थीं। लोग दौड़े चले आये। जैसे, दौड़ने के लिए पह़ले से ही तैयार बैठे हों! रामा भैया ने अंतिम क्षण तक साहस दिलाया। बोले-‘अरे! अभी क्यों रोने चीखने लगे, पहले मुझे तो देखने दो क्या बात है ?‘ तो एक क्षण के लिए सभी का रोना रुक गया। रामा भैया ने नब्ज पर हाथ रखा। नब्ज नहीं मिल रही थी। सॉँस रुक गयी थी। वे समझ तो पहले ही गये थे। लेकिन अंतिम प्रयास की आशा में उनका मन भी तो हार नहीं माना था। मगर अब उन्होंने भी निराश होकर तारा का हाथ छोड़ दिया। औरतों को गम्भीर होकर आदेश दिया-‘भौजी को संभालो।‘

औरतें चीख-चीख कर विलाप करने लगीं। हरको ने हिम्मत बॉँधी और रत्ना मैया को सिर फोड़ने से रोका। वे बेहोश हो गयी। रामा भैया समझ गये। मिट्टी को जितनी जल्दी हो सके ठिकाने लगा देना चाहिए। उन्होंने ही तारा को उठाया और झट से घर से बाहर निकल आये। अन्दर विलाप का अंतिम स्वर इतना तेज हो गया था कि मौजूदा जनमानस इस पर विलाप करने लगा। गॉँव भर में ऐसा कोई न था, जिसने विलाप न किया हो।

इधर हरको ने हॉंक लगाई-‘चुप हो जाओ। यों रो-रो कर भौजी को ही मारना चाहती हो। धनिया पानी का गंगा सागर तो ला।‘

धनिया दौड़ कर पानी ले आयी। मुह पर पानी के छीटें मारे। होश में लाने के लिए मंत्र की तरह वाक्वाण फैंके और बोली-‘भौजी तारा तो बिलकुल ठीक है, तुम यां हीं। बात रत्ना के कानों में पड़ी। बेहोशी टूटी, तारा के बिस्तर पर निगाह गयी। और फिर चिल्लाई-‘हाय तारा बेटा......, रामा भैया ये क्या हो गया ? ये...... ।‘ और फिर बेहोश हो गयी।

कुछ औरतें बोली-‘अब बोलो मत। गले में एक घूट पानी डाल दो।‘

हरको ने मुँह खोलना चाहा। दॉंती भिंची थी। हरको ने मुँह पर पानी के छींटे मारे। तब दॉंती थोड़ी सी ढीली पड़ी। धनिया ने मुँह में पानी डाला। वे पानी श्वास के साथ गटक गयी। वे इस क्रिया से आशावान दिखने लगे। गणपति की मॉँ कह रही थी-‘आदमी को भगवान जैसे राखे तैसे रहना पड़ेगा। संसार तो भैया ,सब लेन-देन का हिसाब है। वह पूरा हुआ कि कौन किसका बेटा और कौन किसकी मॅंताई ? सब जगत देखे के नाते है।‘

बकरीदी ने कहा-‘यह बात शास्त्री जी सुनेंगे, घर लौट आयंगे। वे इतने निष्ठुर नहीं हो सकते।‘

बातें कानों में से होकर अन्दर पहुच रही थीं। रत्नावली को चेत तो आ गया था, पर निष्प्राण सी पड़ी थी। अब क्या होगा ? प्रश्न सामने खड़ा था ?

लोग मरघट से संस्कार करके लौट आये थे। गणपति के पिता ने रत्ना के पास जाकर खड़े-खड़े ही कहा ‘अब तो राम जी जैसे राखं वैसे रहे। जब तक जीवन है मरा तो जाता नहीं। और मरने से उसे जीवन मिल जाता तो तुम्हारे सामने जितने खड़े हैं, सब मर कर दिखला देते।‘ ये बातें कानों में पड़ीं। उन्हें लगा कोई नींद से उठा रहा है। वे भड़भड़ा कर उठकर बैठ गयी। चीख निकली-‘हा लाल ......।‘

रामा भैया ने समझाने का प्रयास किया-‘हम लोग तो चलते हैं। हम सब का एक ही कहना है जो आपने गोस्वामी जी से कहा था। आप भी अब हाडमांस की प्रीति छोड़कर अपनी लगन राम से लगा लीजिये।‘ यह सुनकर रत्नावली को चेतना सी आ गयी। उन्हें लगा- वे स्वप्न से जागी हैं। लोग जाने लगे। प्रश्न मुँह से निकला-‘यह क्या हो गया ?‘

किसी ने कह दिया ‘कुछ नहीं हुआ। गाँव भर में तमाम तारा तो हैं। मन के विस्तार का नाम ही संसार है।‘ मगर उसे धीरज नहीं बॅंधा।

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