रत्नावली 7 ramgopal bhavuk द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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रत्नावली 7

रत्नावली

रामगोपाल भावुक

सात

नाव राजापुर के घाट लगी। घाट पर कुछ लड़के खड़े थे। रत्ना मैया को देखकर चिल्लाने लगे-‘मैया आ गयीं। मैया आ गयीं।‘ मैया नाव से उतर आयीं। एक लड़के ने आगे बढ़कर तारापति को ले लिया। गणपति मैया का सामान लिए था।

घर यमुना के किनारे पर ही था। घाट से ऊपर चढ़कर ऊॅंचे पर घर बना था, जिससे बाढ़ के वेग से बचा रह सके। सभी घर आ गये। शास्त्री जी के समय से ही घर के कामकाज में मदद एक महिला करती थी। उसका नाम था हरको। हरको के कोई बच्चा न हुआ तो पति जनकू ने दूसरी शादी हरको की रजामन्दी से ही करली थी। दोनों पत्नियॉँ प्रेम से रहती थीं। दूसरी के एक लड़की हुयी। इसके बाद पति ने हरको को घर से निकाल दिया। स्वाभिमानी ने फिर उस घर में कदम नहीं रखा। शास्त्री जी ने उसे शरण दे दी थी। वह भी इसी घर की पौर में पड़ी रहती थी। जो प्रसाद मिलता उसी से गुजर कर लेती। श्रावण में राखी डोरा बनाकर अपना काम भी चला लेती थी। जाति की जोगन जो ठहरी। झाड़-फूंक में, गॉँव भर में मात्र हरको ही जानकार थी। सुबह से शाम तक यहाँ वहाँ चक्कर लगाना पड़ता था। हरको इसे जनसेवा मानकर अपने को समर्पित कर बैठी। गाँव भर में किसी के यहॉँ दुःख तकलीफ हुयी, बुलाओ हरको को और हरको अपनी भूख प्यास भूलकर लोगों की सेवा में लग जाती।

धन्नो गाँव नाते काकी लगती थी। बूढ़ी हो चली है। बूढ़ी औरतें पैर छुयें यह रत्नावली को अच्छा नहीं लगता, पर मना भी करें तो धन्नो मानने वाली नहीं थी। धन्नो भी हरको के काम में मदद करने आती रहती थी।

जब रत्नावली घर पहुँची, हरको रत्ना की प्रतीक्षा कर रही थी। गाँवभर की तरह रत्ना भी हरको को हरकोबाई ही कहती थी। हरको ने तारापति को गोद में ले लिया। सारा सामान हरको को सॅंभला दिया।

गंगेश्वर के लिए आँगन में पीढ़ा डाल दिया गया। वह उस पर बैठ गया। इसी समय, धन्नो आ गयी। आते ही उसने रत्ना के पैर छुये और बोली-‘मैं सोच रही थी जाने आप आती हैं या नहीं ?‘

‘हम क्यों नहीं आते और तुम कहो ठीक तो हो।‘

यह सुन उसने कहा-‘गुरुजी गये हैं, तब से हम तो ठीक नहीं हैं। नींद ही चली गयी है। हमें यह पता होता तो हम उन्हें गुरु ही न बनाते, किन्तु आपको बनाते। आप हमारे पास तो हैं। गुरुजी को इस तरह आपको छोड़कर नहीं जाना चाहिए था।‘

रत्ना मैया बोलीं-‘काकी उन्हें जाने दो, उन्हें अपना काम करने दो, हम अपना काम करते रहेंगे।‘

हरको ने धन्नो के काम की प्रशंसा कर उसका ऋण चुकता करना चाहा-‘बस यह धन्नो तुम्हारे घर की रोज झाड़ू बुहारी कर जाती है। मैं तो तुम्हारी पौर में धन्नो के ही भरोसे डली रही हूँ।‘

जो सुनता गया। रत्ना मैया के दर्शन करने आता गया। थोड़ी देर में पूरा आँगन खचाखच भर गया। गणपति की माँ आ गयी। वे बैठते हुये बोलीं-‘तुम कहोगी भागवती ऐसे कहती है। अरे! आदमी से ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए। आजकल आदमी छोटी-छोटी बातों का बुरा मान जाता है।

आँगन में बैठी रमजान की माँ बकरीदी ने जवाब दिया-‘ऐसी बातें तो अल्लाह की फजल से होती हैं। मैं तो शास्त्री को पहले ही जानती थी कि यह तो कोई पहुँचा हुआ फकीर है।‘

गणपति की माँ भागवती बोली-‘जो होना था हो गया। अब उसके बारे में सोचते रहने से कोई फायदा नहीं है।‘

बकरीदी फिर बोली-‘अब अपने घर में अमन-चैन से रहो। यहाँ हम सब तो तुम्हारे साथ हैं।‘

धन्नो बड़ी देर से सब की बातें सुन रही थी बोली-‘तुम्हारी सेवा में कमी पड़े़ तब कहना।‘

एक बोली ‘जिस दिन वे ससुराल गये वा दिन रामानन्द भैया से मिलके गये थे।‘

दूसरी बोली-‘जो कुछ बातें कह गये होंगे सो सब बातें पता चल जायेंगी।‘

तीसरी ने बात बदलनी चाही ,बोली-‘जे तो सब बातें हो गयीं। अब बहन तुम यह तो बताओ तुम्हारे पिताजी कैसे हैं ?‘

रत्ना ने पीढ़ा पर बैठे भाई गंगेश्वर की ओर देखा और बोली-‘ठीक हैं। अब उनकी तीर्थ यात्रा करने की इच्छा है जिससे मन को सन्तोष मिलेगा। रही मेरी, मेरे तो आप सब हैं। बस यह तारा पल जाये, फिर मुझे कुछ चिन्ता नहीं है।‘

झुण्ड में से एक बोली ‘बेटी तें चिन्ता मत करै, भगवान एक हाथ से छीनता है तो दूसरे से डोर भी लगा देता है।‘

गोस्वामी जी ने राजापुर में हनुमान जी की प्राण प्रतिष्ठा करायी थी। पुजारी भी बैठा दिया था। मन्दिर के पास में ही पुजारी परिवार का निवास है। जो चढ़ौती होती है, उसी से उनका भरण पोषण चलता रहता है।

रत्नावली ने राजापुर में रहना शुरू कर दिया। एक दिन मन्दिर का पुजारी कुछ चढ़ौती का सामान लेकर मैया के पास आया और बोला-‘मैया यह सब आपका है।‘

रत्नावली यह देखकर बोली-‘भैया मन्दिर की सेवा आप करते हो, इस पर आपका हक है। आप मेरी चिन्ता न करें। आप तो उनके संकट मोचन की खूब अच्छी तरह से मन लगा कर सेवा करते रहें।‘

पुजारी के जाने के बाद अपने जीवन निर्वाह के बारे में सोचने लगी- कहते हैं बाह्मण की झोली सोने की होती है, उसे भीख मॉंगने में शर्म नहीं करनी चाहिए। वाह! क्या व्यवस्था ब्राह्मणों ने अंगीकार की है। मुझे तो भीख मॉँंगने से निकृष्ट कुछ लगा भी नहीं है। किसी के सामने हाथ फैलाने में तो प्राण ही निकलते हैं। भीख मॉंगने से तो यमुना मैया में डूबकर प्राण दे देना उचित है। मैं किसी के सामने कभी पेट की खातिर झोली नहीं फैलाऊॅंगी। मैं श्रम करुँगी। प्रश्न उठा- क्या श्रम करुँगी ? तत्क्षण उत्तर आया- मैं पढ़ी लिखी हूँ बच्चों को शिक्षित तो कर ही सकती हूँ। बस यही काम करुँगी। यही मेरे और उनके सम्मान के लिए उचित रहेगा। बस यही.............।

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