परमहंस मस्तराम गैारीशंकर बाबा 2
मुझे उस दिन की बात रह-रहकर याद आती है जिस दिन बाबा परमानान्द सिन्धी की दुकान पर बैठे थे। मैं अपने गाँव सालवई से डबरा कस्वे में बाजार से सौदा लेने आया था। वहाँ आकर पता चलाया कि बाबा कहाँ हैं? उन्हें खेजता हुँआ उस दुकान पर जा पहुँचा।....किन्तु आश्चर्य मेरे वहाँ पहुँचने का बाबा को पहले ही पता चल गया वे पहले से ही एक पेन(कलम) लिये वहाँ बैठे थे। जैसे ही मैं उनके सामने पहुँचा,वे उस कलम को मुझे देते हुये बोले-‘‘लो...।’’
मैं युग-युगान्तर से कलम के लिये प्यासा था। मैंने उनकी कृपा को सिर माथे से लगाया और उस कलम को संभालकर रख लिया। उस दिन मुझे अपना लेखन फलीभूत होता दिखा था। मुझ जैसे गाँवटी व्यक्ति की आज की तारीख तक ग्यारह पुस्तकें आठ उपन्यासों सहित दिल्ली से प्रकाशित हो चुकी हैं। रत्नावली और एकलव्य जैसे उपन्यास की चर्चा विदेशों में भी की जाने लगी है। खास बात यह है ,इनके प्रकाशन में मुझे अपना पैसा नहीं लगाना पड़ा है। उल्टा कुछ मिल ही रहा है। यह सब बाबा की कृपा का ही प्रतिफल है। वह कलम आज भी मेरे पास सुरक्षित है। होली -दीपावली की दौज को घर में उसी कलम की पूजा की जाती है।
अब तक हमारा कुआ खुद चुका था। उसमें कामचलाऊ पानी निकल आया था। पैसे की तंगी के कारण हम हार -थककर बैठ गये। एक दिन की बात है- पहले से बिना बुक किये एक बोरिगं मशीन घर के पास आ रुकी। उसके दो कर्मचारी हमें तलाशते हुये हमारे घर आये। एक बोला-‘‘हम यहाँ पास ही सडक से गुजर रहे थे कि एक लम्वे-तगड़े बाबा जी ने हमारी गाड़ी रोककऱ कहा-तुम लोग सालवई ग्राम में तिवारी के घर चले जाओ,वे बोरिंग करा लेंगे। हम बिना एडवान्स के कहीं जाते नहीं हैं,पर पता नहीं इधर कैसे चले आये।’’
इसे मैंने बाबा की आज्ञा मानकर उनसे कहा-‘‘इस वक्त घर में एक पैसा नहीं है,हमें कितने पैसे की व्यवस्था करना पड़ेगी?’’
उनमें से छूसरा बोला-‘‘कम से कम पाँच सौ रुपये तो चाहिये ही। शेश तुम्हारी किस्मत! देख लें ,हम घन्टे भर प्रतीक्षा करेंगे अन्यथा लौट जायेंगे।’’मैंने पैसे के लिये इधर-उधर दृष्टि डाली। मेरे विद्यालय के एक साथी शिक्षक कालका सिंह चौहान को इस बात का पता चल गया होगा। वे आते ही बोले-‘‘किस सोच में डूवे हो?’’
मैंने अपने मन की व्यथा कही, वे बोले-‘‘चिन्ता नहीं करें,आप दो तीन दिन में दे देना।’’यह कहकर उन्होंने पाँच सौ रुपये अपनी जेब से निकाल कर मुझे दे दिये। मैं समझ गया ,बाबा ने इस काम के लिये पैसों की व्यवस्था भी कर दी। बाबा का यह चमत्कार भुलाये नहीं भूलता।
हमने अपने गाँव के कुआ गुनने वाले को वुलाया। वे बोले-‘‘इस कुये के पश्चिम की ओर बगल में बोरिंग करायें। उनके बताये अनुसार बोरिंग कराना शुरू कर दी। पच्चीस फीट पर जाकर बेांरिंग की मशीन फस गई। उस समय बाबा ने जहाँ खूंटा गाडा था उस स्थान की याद आई। हमने उसी स्थान पर पुनः बोरिंग कराना शुरू कर दी। पेंतीस फीट पर जाकर पानी की धार बह निकली। यों उस जमाने में कुल दो सौ पचास रुपये बोरिंग वालों ने रखे शेष बापस कर दिये। हमारे गाँव के लोग आज भी इस घटना की चर्चा कर बाबा के गुनगान करते रहते हैं।
बाबा की कृपा से कुये में पर्याप्त पानी हो गया तो हमें सत्यनारायण की कथा कराने की याद आई। पिता जी ही कथा बचवाने के लिये बाबा को बुलाने गए। बाबा का घर में दुबारा आगमन, यह हमारे जीवन का सबसे अच्छा समय था। घर में आनन्द की वर्षा होने लगी।
उस दिन सोमवार था। जिस दिन बाबा ने स्वयं उस कुये पर बैठकर संस्कृत में कथा वाँची थी। सारे परिवार ने उनके श्रीमुख से सत्यनारायण की कथा सुनी। परम सौभाग्य की बात यह थी कि दो दिन बाद ही गुरू पुर्णिमा थी। चौदस की रात्री बाबा खटिया पर लेटे रहे। देर रात तक बाबा के पास बैठक चलती रही। गाँव के सभी लोग अपने-अपने घर चले गये। पिताजी भी आराम करने वहीं बाबा के पास लेट गये। उनकी नीद लग गई तो बाबा उठकर कहीं चल दिये। पिताजी की नीद खुली तो निगाह बाबा की ओर गई। बाबा गायब। पिताजी की वही दशा हो गई जो भक्त के सामने से भगवान के अदृश्य होने पर होती है। वे बाबा-बाबा चिल्लाकर उन्हें इधर-उधर ढूढने लगे। घर के सभी लोग जाग गये। रात्री के तीन बजे होगे ,घर के सभी लोग बेसब्री से उन्हें खोजने लगे। छोटे भाई को उन्हें खोजने डबरा शहर भेज दिया। उन्हें ढूढते-ढूढते दिन निकल आया। गाँव के किसी व्यक्ति ने आकर बताया-बाबा ताल के ऊपर जो कुआ है, वहाँ पर बैठे हैं। हम सब उन्हें खोजते हुये वहाँ पहुँचे, बाबा पालथी मारे आराम से उस कुये पर बैठे मुश्करा रहे थे।
इस समय मुझे एक दिन पहले की बात याद हो आई। मैंने ही बाबा से कह दिया था-‘‘बाबा इस कुये का पानी कुछ-कुछ खारा सा है।’’ बाबा का इस कुये पर होना क्या संकेत है?कहीं बाबा इस कुये से उस कुये का सम्बन्ध तो नहीं जोड़ रहे हैं। बाबा का यहाँ होना निश्चय ही कोई बात है। यदि इसे और गहरा बोर करायें तो उस कुये की झिर मिल जायेगी। यही सब सोचते हुये मैं बाबा के पीछे-पीछे चलकर घर आ गया। सन्तों की बात का अर्थ लगाना कोई खेल नहीं हैं।
उस दिन वर्ष 1975 की गुरू पूर्णिमा थी। इस अवसर का लाभ लेने की बात मन में आने लगी। यह सोचकर मैंने बाबा से पूछा-‘‘ बाबा बच्चों का विद्यारंभ संस्कार कराना है आप करा दीजिये।’’
बाबा बोले-‘‘ बुला वच्चों को और पटटी और बोरंखा तो ला।’’ मैं बाबा की बात समझ गया। पुत्री ज्योति एवं भतीजे देवेश और प्रवीन को बाबा के पास बुलाया। स्लेट-बत्ती उठा लाया। स्लेट-बत्ती बाबा के सामने रखदी। बाबा ने क्रम से तीनों को उनका हाथ पकड़कर ‘श्री गणेशाय नमः’ लिखाया और बुलवाया भी। यों इन तीनों वच्चों का विद्यारंभ संस्कार बाबा ने ही कराया है। आज तीनों पढ-लिखकर व्यवस्थित जीवन व्यतीत कर रहे हैं। यह बाबा की कृपा का ही फल है।
मैं अपने जीवन की उस अविस्मरणीय गुरू पूर्णिमा की याद करके पश्चाताप करता रहता हूँ कि उस दिन अपने आध्यात्मिक जीवन के लिये उनकी कृपा की याचना भी नहीं कर पाया।
सच तो यह है उस दिन तक मैं आध्यात्म के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानता था। वैसे भी महापुरुषों का साधना क्र्रम प्रायः संसार की दृष्टि से अदृश्य ही बना रहता है। सामान्य जनों में उसके जानने की कोई रुचि भी नहीं होती और ना हीं वे इसकी कोई आवश्यकता ही समझते हैं। वे तो सन्तों का गुणगान करने तक ही अपने को सीमित बनाये रखते हैं। बाबा अपने अन्तर में क्या-क्या अनुभव समेटे थे? उनकी साधना पद्धति क्या थी। उनने कब, किससे, कहाँऔर कैसे अनुग्रह प्राप्त किया था? आदि प्रश्न सामान्य जन के लिये निरर्थक ही रहते हैं।
बाबा तो अपने प्रियतम की याद में तल्लीन थे। प्रसिद्धि की उन्हें कोई चाह नहीं थी, वे उससे कोसों दूर थे। उन्हें किसी से कुछ लेना- देना नहीं था। मैंने उन्हें किसी से कुछ माँगते भी नहीं देखा। यदि किसी से कुछ लेते तो वह अपने लिये नहीं वल्कि लोगों को बाँटने के लिये ले लेते थे। उन्होंने न कभी कोई आश्रम बनाया और न कोई कुटिया। वे तो भीड़ भरे बाजार में एकान्त में रहते थे। उनके लिये भीड़ भरे बाजार और जंगल की कन्दरायें एक समान थीं। उनके किसी कार्य कलाप में कोई व्यवधान नहीं पड़ता। आज साधना के लिये जंगलों का अभाव है तो बाबा जैसे परमहंस सन्तों के लिये भी भीड़ ही साधना स्थली है। मैंने तो बाबा को उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते हर पल साधना में निरत महसूस किया है। वे एक पल भी अपने प्रियतम से दूर नहीं रहते थे। जगत में रहते हुये हर पल साधना में बने रहते ।
इन बातों के ध्यान में आते ही आपके मन में एक प्रश्न उभरेगा-क्या ऐसे साधक अब भी हैं?
मेरे गुरुदेव परमश्रद्धेय हरिओम तीर्थ जी के गुरुदेव स्वामी शिवोम् तीर्थ जी की कृति अन्तिम रचना में इस प्रश्न का उत्तर महाराज श्री ने यों दिया है-शक्तिपात् विद्या के साधकों की दो धारायें हैं,-एक स्थाई दूसरी अस्थाई। एकान्तप्रिय साधकों की धारा स्थाई है। इसका अधिक विस्तार नहीं होता किन्तु निरन्तरता सदैव अखन्ड बनी रहती हैं। किसी भी परिस्थिति में इसकी निरन्तरता में अन्तर नहीं आता। बाबा की तरह इसके साधक महातपस्वी,महात्यागी,जन-समाज में रहते हुये जन-समाज से दूर,साधना में रत एवं दैवी शक्तियों से सम्पन्न होते हैं।
जब संसार में अस्थाई धारा का प्रचार-प्रसार बढ जाता है तब भी स्थाई धारा भूमिगत प्रवाहशील बनी रहती है। स्थाई धारा के महापुरुष शक्ति सम्पन्न होते हुये भी किसी को दीक्षा नहीं देते। वे तो शक्ति के उत्थान के लिये साधना में लगे रहते हैं।
मेरी जानकारी में बाबा ने किसी को भी दीक्षा नहीं दी है। इसके बावजूद बाबा के अनेक भक्त इस क्षेत्र में विखरे हुये हैं। मेरे एक मित्र डा0 लक्ष्मी नारायण शर्मा के मन में विचार आया-मुझे बाबा से दीक्षा लेना है। वे व्याकुल होकर बाबा से प्रार्थना करने लगे -बाबा मुझे अपना शिष्य बना लो। सारा दिन प्रार्थना करते निकल गया। रात इसी धुन में सोये। झपका सा लगा,बाबा स्वप्न में आकर कहने लगे-‘‘चेला कोई किसी का नहीं है,चेला तो सब बद्रीश के हैं।’’ यह कहकर वे अदृश्य होगये। नीद खुल गई। दूसरे दिन उन्होंने सारी घटना का मेरे पास आकर व्यान कर किया। इस घटनासे मैं समझ गया-बाबा किसी को अपना चेला नहीं बनाते।
मैं अपने विवाह के पूर्व श्री श्री 108श्री स्वामी सहजानन्द जी महाराज से दीक्षा लेकर उनकी कृपा प्रप्तकर चुका था। उनके प्रति श्रद्धा-समर्पण में कोई कमी नहीं थी। इसीलिये मैंने बाबा से इस तरह का अनुग्रह प्राप्त करने की कोई प्रार्थना नहीं की। वे तो उस गुरु पूर्णिमा से मेरे चित्त में परमाराध्य बनकर बिराजमान हो गये हैं। अब तो मेरा चित्त हर पल अपने इस इष्ट के इर्द-गिर्द बना रहना चाहता है।
गुरु पूर्णिमा के दूसरे दिन प्रातः ही घर से जाने लगे। पिताजी बैल-गाड़ी ले आये। बाबा के साथ मैं भी गाड़ी में बैठ गया। पिताजी से बाबा बोले-‘‘तूने मुझे अंग वस्त्र नहीं दिया। यह ठीक रहा पिताजी उस समय कन्धे पर धोती डाले हुये थे,उन्होंने तत्काल उस धोती को उन्हें ओढ़ा दी। वे बोले-‘‘चल यही ठीक है।’’यह कहकर वे मुश्कराने लगे।
यों बाबा की लीलायें देखकर चित्त बार-बार उनकी ओर जाने लगा। उस समय एक गीत-सा प्रस्फुटित होने लगा-
मस्तराम की मस्ती में राम नजर आया है।
बिष में अमृत का भाव नजर आया है।।
चेतना अन्तः मुखी हो उठती है,
तुम्हारे गुणगान करने में ये पाया है।।
नस-नस में तेरा स्वर फूटने लगा है,
हर स्वर में तेरा स्वर नजर आया है।।
नजर भर के कहीं गौर से देखा तो,
हर रूप में तेरा रूप नजर आया है।।
सारे दश्य परिदृश्य उलट-पलट डाले,
हर दृश्य में तेरा दृश्य नजर आया है।।
सियाराम मय है सारा जड-चेतन,
भावुक के मन में समाधान आया है।।
हर पल ये भाव मन में रहने लगे। घीरे-धीरे यही भाव स्थाई भाव का रूप धारण करते चले गये। आज बाबा के अलावा कोई देव इष्ट के स्थान पर बिराजमान नहीं हो पाया। अब तो प्रश्न्न हेाकर दर्शन देने वाले देव से यही प्रार्थना है कि वे दर्शन दें तो बाबा के वेश में हीं दें,तो ही मुझे उनकी प्रश्न्नता स्वीकार है। मैं क्या कहूँ-जब भी किसी देव ने कृपा की है बाबा के रूप में हीं उनने दर्शन दिये हैं।
मार्च-अप्रैल 1976 की बात है-उन दिनों मैंने बाबा की कृपा से डबरा नगर में मकान बनवाना शुरू कर दिया था। मकान बनाने में यदि कोई बाधा आती तो मैं प्रार्थना लेकर बाबा के पास पहुँच जाता। जब मकान बनकर तैयार हो गया तो मैंने बाबा से उनका छायाचित्र प्राप्त करने के लिये प्रार्थना की-‘‘बाबा अमर फोटो स्टूडियो के यहाँ आपका फोटो है आपकी कृपा हो जाये तो मैं उससे आपका फोटो प्राप्त करलूं।’’
बाबा बोले-‘‘जा उसके यहाँ से जाकर ले ले।’’मैंने अमर फोटो स्टूडियो के यहाँ से बाबा के दो फोटो ले लिये। उन्हें ले जाकर अपने नव निर्मित मकान में प्रतिष्ठित कर दिया।’’
उन्हीं दिनों बाबा से मैंने अपने ट्रान्सफर के लिये प्रार्थना की-‘‘बाबा आप मेरा स्थानान्तर डबरा नगर के आस-पास शहराई ग्राम में की करा दें।’’
वे बोले- ‘‘वहाँ नहीं , वहाँ तो इक्का से जाना पड़ेगा।’’यह सुनकर मैं चला आया था। आप इसे संयोग ही कहेंगे, बिना प्रयास के छह दिन बाद ही मेरा स्थानान्तर डबरा नगर के बीचों-बीच मा0 वि0 डबरा क्रमांक तीन में हो गया। मैंने 28जून 1976 को डयूटी ज्योइन करली। अब गृह प्रवेश का कार्यक्रम अनिवार्य था। पंडित जी से गृह प्रवेश का मुहूर्त निकलवाया गया। 30 जून का मुहूँर्त निकला। इस कार्यक्रम में बाबा को बुलाने पिताजी गये थे। उन्होंने बाबा से जाकर प्रार्थना की-‘‘बबा चलो,घर में प्रवेश तो करो।’’
बाबा बोले-‘‘ मैं वहाँ बैठा तो हूँ। जा मेरे लिये पेड़ा तो ले आ।’’
सच मानिये पिताजी पूरे डबरा नगर के हलवाइयों के यहाँ पेड़ा तलाशते फिरे ,किन्तु पेड़ा कहीं नहीं मिले। उन्हें एक उपाय सूझा-बाबा ने पेड़ा मांगे हैं तो वर्र्फी के ही पेड़ा बनवाकर ले चलूं। यों उन्होंने वर्र्फी के पेड़ा बनवाये और बाबा के पास लेकर पहुँचे। बाबा उन्हें दूर से ही देखकर बोले-‘‘क्यों नहीं मिले पेड़े ।चल ठीक है जो ले आया है उन्हें ही पाये लेता हूँ।’’ यह कहकर उन्होंने वे पेड़े ले लिये और प्रेम से पा लिये। पिताजी ने घर आकर ये सारी बात हमें बतलाई थी। उसके वाद पिताजी घर से उनके लिये प्रसाद लेकर गये थे। जिसे बाबा ने खुद भी पाया और पास बैठे भक्तों में बाँट दिया था।
बाबा का यह कहना कि मैं वहाँ बैठा तो हूँ। उस दिन गृह प्रवेश की भड़-भड़ी में इस बात का अर्थ समझ नहीं पाया था।...किन्तु आज अच्छी तरह समझ में आ गया है। बाबा के बास से घर से सूनापन गायव है। मुझे कभी नहीं लगता कि मैं इस घर में अकेला हूँ। घर में तरह-तरह की सुगन्ध ,बाबा की उपस्थिति का आभस कराती रहती है। बाबा के भोग की महक मन को आन्दित कर बाबा की उपस्थिति का आभस करा देती है। यों घर में रहकर मन बाबा से जुड़ा रहता है। आप कहेंगे,यह सब मेरी श्रद्धा और विश्वास है। मैं आप से पूछता हूँ-‘‘मैं वहाँ बैठा तो हूँ ,बाबा के इस कथन का आपके पास क्या उत्तर है ?’’
बात 1 जौलाई 1976 यानी ग्रह प्रवेश के दूसरे दिन की है। मैं विद्यालय से लौट रहा था। नये घर की व्यवस्था जमाने के चक्कर में बाबा से मिलने भी नहीं जा पाया था। लौटते में बारह वजे का समय रहा होगा। मैन रोड से घर जाने के लिये मुड़ा। तेज भूख लगी थी। कदम घर पहुँचने के लिये धूप के कारण तेजी से उठ रहे थे।सड़क दोपहरी के कारण सूनसान थी। बाबा नाथूराम खर्द के मकान के सामने नीम के पेड़ की छाया में चबूतरे पर बैठे थे। एक टीन का डिव्वा पास रखा था। मेरी निगाह बाबा पर पड़ी। मुझे लगा-बाबा दिशा -मैदान से लौटे हैं। मैं बाबा को डिस्टर्व क्यों करू? यह सोचकर उन्हें प्रणाम करके आगे बढ़ गया। बाबा मुझे जाते हुये देखते रहे और मैं मुड़-मुड़कर उनकी दृष्टि को निहारता रहा।
उनकी उस दृष्टि को मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ। लगता है वे आज भी मुझे उसी दृष्टि से निहार रहे हैं।
उस दिन सोचा था, शाम को बाबा के दर्शन करूंगा। शाम को मैंने बाबा की तलाश की। पता चला-बाबा तो कल शाम से ही कहीं चले गये हैं।यह सुनकर धक्का सा लगा-बाबा मुझे दर्शन देने आये थे। मैं पागल उनके चरण नहीं पकड़ पाया। आज भी इस आग में झुलसता रहता हूँ।
उस दिन सोचा था ,अपने बिलौआ गाँव चले गये होगे। ...लेकिन दो-चार दिन में यह हवा फैल गई कि बाबा जाने कहाँ चले गये?उनके भक्तों ने उनकी खोज -खबर लेना चाही। उनका कहीं पता नहीं चला।
उस दिन से आज तक यह सोचता रहा हूँ-अदृश्य होने से पहले बाबा मुझ पर कृपा करने आये थे। उनकी ही इच्छा रही होगी इसीलिये मैं उनके चरण नहीं छॅ सका। नहीं , यह बात भी नहीं हो सकती,यदि ऐसा होता तो उस दिन साधना में उपस्थित होकर बाबा का यह कहना-और पास आ....।.... और पास आ....। .....और पास आ। यों बाबा मुझे सर्म्पूण पास बुलाना चाहते हैं। उस दिन तो मैं ही अपने माया-मोह,भूख-प्यास के चक्कर में आगे बढ़ गया था। इसके परिणाम स्वरूप दिन-रात अपनी मूर्खता पर पश्चाताप करता रहा। अपने विवेक को धिक्कारता रहा। दूसरी ओर मैं मन- वेमन अगरबत्ती लगाकर बाबा के सामने बैठता रहा। इधर-उधर भाग रहे मन को पकड़कर बाबा के चरणों में लाता रहा। वे मन की इस क्रिया से भी जिन्दगी की मन्जिल आसान होती चली गई। बस इसी तरह सोचने में जिन्दगी के बारह वर्ष गुजर गये।
राजेन्द्र की शिक्षा पूरी हो गई। उपयन्त्री के पद पर उसकी नौकरी लग गई। उसके विवाह के लिये सम्बन्ध आने लगे। एक दिन की बात है, मिलान हेतु एक कुन्डली आ गर्इ्र। मैंने उसे देखने के बाद पाया कि कुन्डली नहीं मिली। यह सोचकर मैंने उसे मन्दिर के ऊपर वाली अल्मारी में रखने के लिये हाथ बढाया। कुन्डली हाथ से छूटी और बाबा के सामने जा रखी। ऐसा लगा जैसे किसी ने उसे हाथ में से छीनकर वहाँ रख दी हो। मैं समझ गया बाबा की यही इच्छा है। पत्नी रामश्री को बुलाया। सारा वृतांत बता दिया। उन्होंने भी उस कुन्डली को बाबा के सामने रखे देखा। बोलीं-‘‘ बाबा का यह तो आदेश होगया। अब क्या सोचना? लड़की वालों को तत्काल सूचित कर दो।’’
मैंने उसी समय पोस्टकार्ड उठाया, अपनी स्वीकृति का पत्र लिखा और जाकर उसे उसी समय पोस्ट ओफिस के डिव्वे में डाल आया। जिससे दूसरे दिन तक कहीं मेरा दृष्टि कोंण ही न बदल जाये। यों पुत्रवधू के चयन में बाबा की कृपा से मन हलका हो गया। आज पुत्र के विवाह को बाइस वर्ष से अधिक समय गुजर गया। पौत्र प्रलेख इन्जीनियर की पढाई पूरी करके कालेज केम्पस में उसका नौकरी के लिये चयन होगया है। छूसरा पौत्र पलास इन्टर की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुका है।
हम सच्चे मन से आज भी बाबा को याद करें वे हमारी समस्याओं का हल प्रस्तुत कर जाते हैं।
मेरा पूरा विश्वास है बाबा आज भी हैं। कहीं तप कर रहे होंगे। ऐसे महा पुरुष अजर-अमर होते हैं। किन्तु बाबा का जन्म 1924 ई0 का होने से तो आज की तारीख सन 2020 में वे 96 वर्ष के हैं। वे प्रतिदिन छककर खाना खाते रहते किन्तु दिशा मैदान में निवृत होने आठ-आठ दिन में जाते। यों बाबा ने प्रकृति को बस में कर लिया था।
जिस दिन से बाबा अदृश्य हुये थे उसी दिन से मैं उनकी तलाश में हूँ। बाबा की खोज में मैं कहाँ- कहाँ नहीं गया? उस दिन से आज तक निगाह बाबा को खेजती रही है। बाबा का कहीं कोई पता नहीं चला। किन्तु व्यग्र होकर जिसने याद किया बाबा ने उसे दर्शन दिये हैं। एक बार मैंने साधना में बैठकर व्यग्र हेाकर बाबा से प्रश्न किया-‘‘बाबा आप से मिलन कब होगा?’’
बाबा उपस्थित होकर बोले-‘‘ज्योति से ज्योति के मिलन के लिये जब व्याकुलता होगी तभी मिलन होगा।’’
मैं इसी व्याकुलता में था कि इसी समय बाबा के एक भक्त डॉ सतीश सक्सेना‘शून्य’जी का घर आगमन हुआ । वे अपने साथ बाबा पर लिखी सी0डी0 लिये थे। उसी सी0डी0 को हम यहाँ आपके समक्ष यथावत प्रस्तुत कर रहे हैं।
परमयोगी बाबा मस्तरामजी महाराज
बाबाजी के प्रथम दर्शन
यह उस समय की बात है जब डॉ सतीश सक्सेना‘शून्य’जी की नौकरी लोक निर्माण विभाग डबरा में उपयंत्रीके पद पर थी। तब हम लोग ओवरसियर कहलाते थे। सन्1965 से 1972 तक मुझे वहाँ रहनेका अवसर प्राप्त हुँआ। ग्वालियर अथवा कहीं बाहर जाते समय बसस्टेण्ड पर अथवा तहसील या ब्लाक आफिस में कहीं भी नगर में बाबा को घूमता देखा करता था । उस समय वे पुलिस विभाग की खाकी रंग की कमीज, खाकी नेकर तथा पुलिस विभाग की टोपी धारण किये रहते थे। मेरी दृष्टि में वे यों ही निरुद्देश्य घूमते रहते थे । कभी किसी ने कहा भी कि ये बहुँत बडे संत हैं तो भी मैंने इस बात को कभी गम्भीरता से नहीं लिया। संतो की एक यह भी विशेषता होती है कि वे-
सदा रहहिं अपनपो दुराऐ ।
कहहुँ कवन हित लोक जनाऐ ।।मानस।।
और राम रूप के मस्त को पागल कहत समाज।
लाज बचावत भगत की सदा गरीव नवाज ।।
किसी की वास्तविकता पहचानने के लिये जिस आन्तरिक सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता होती है,सम्भवतः, उस समय मुझमें उसका अभाव था। किन्तु यह भी सत्य है कि- यों भी-
जानहि सोइ जेहिं देउ जनाई ।
जानत तुमहिं तुमहिं हुइ जाई ।।मानस।।
मैं यह भी कह सकता हूँ कि उस समय मेरे वे अच्छे संस्कार उदित नहीं हुए थे कि जो मैं बाबा की कृपा का पात्र बन पाता-
विनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ।
सतसंगति संसृति कर अंता ।।
बाबाजी को जानने का यह समय लगभग पांच वर्ष बाद आया-
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन ।
विनु हरि कृपा न होय सो गावहिं वेद पुरान ।।मानस।।
सन 1970 में मैंने एक विक्की मोपेड खरीदी थी। उस समय येांही शौकिया तौरपर में होम्यापैथी सीख रहाथा तथा निशुल्क दवाका वितरण किया करता था। इसी कारण जवाहर गंज स्थित डा चतुर्वेदी के सम्पर्क में था। उन्होंने मुझ से कहा कि तुमने गाडी खरीदी है मुझे घुमाने नहीं ले जाओगे। मैंनें कहा जरूर चलिये। बताइये कब और कहाँ चलना है। मैंने सोचा शायद ये सिन्ध नदी तक,जो वहाँ से करीव 5 किलोमीटर दूर है,जाना चाहेंगे किन्तु वे बोले कि मुझे एक संत के दर्शन करने बिलउआ जाना है। संस्कारवश मेरी रुचि साधु-संतो में पहिले से ही थी सेा मैं तुरन्त तैयार हो गया। देा तीन दिन बाद हम लोग चल दिये। उन्होंने, और मैंनेभी, कुछ प्रशाद बगैरह ले लिया और बिलौआ जा पहुँचे।
बाबा के घर बिलौआ पहुँच कर देखा तो मुझे बडा आश्चर्य हुआ। ये तो वे ही बाबाजी हैं जिन्हें मैं डबरामें घूमते देखता था। एक बडेसे कमरेमें बाबाजी सामने तख्त पर विराजमान थे । उनकी सौम्य मुद्रा देख कर मुझे बडाही आनन्द हुँआ। नीचे फर्श बिछा हुआ था ,हम लोग उसीपर बैठ गये। बाबाजी को प्रसाद अर्पण किया गया। उसमें से कुछ उन्होंने ग्रहण कर लिया और कुछ बाँट दिया। बाबा के वचन मुझे बडे ही अटपटे लग रहे थे । मेरी समझ में कुछ भी नहीं आरहा था। डॉ चतुर्वेदी मूलतः मथुरा के रहने बाले थे। उनका पारिवारिक जीवन सुखद नहीं था। पहिली पत्नी से एक पुत्र था जो अपने चाचा के पास रहकर पला-बढा था और उन्होंने ही उसकी नौकरी मथुरा की कचहरीमें लगवा दी थी किन्तु वह अपने पिता के बहुत विरुद्ध रहता था। दूसरी पत्नी भी उनसे अलग मथुरा में ही रह कर एक मिठाई की दुकान का संचालन करती थी। पूर्वमें डॉक्टर साहब ने कभी बाबा से प्रार्थना की होगी तो उनकी पत्नी डबरा आगईं किन्तु कुछ समय बाद बापिस चली गईं। इस वार उन्होंने फिर बाबाजी से गुहार लगाई तो बाबाजी ने उन्हें सांकेतिक रूपसे बताया कि तुम भ्रमर गीत का पाठ किया करो। इसे वे तो समझ गये किन्तु मेरी समझ में उस समय कुछ भी नहीं आया।
डॉक्टर साहब ने मुझसे धीरे से कहा कि तुम अपने मन मे कुछ सोच लो बाबा उसको पूरा कर देंगे। मैंने अपने मन में सोचा कि मैं बाबा से क्या मागू। बाबा का दिया सब कुछ तो है। रोटी-रोजी है, मान-सम्मान है, आस-औलाद है, और क्या चाहिये? डॉक्टर साहब ने मुझसे दुबारा आग्रह किया किन्तु मेरे मन में कुछ मांगने की इच्छा नहीं हुई। अब भाग्य की बात देखिये कि उन्होंने मुझसे तीसरी बार अनुरोध किया। इस बार में लालच में आगया। उस समय मेरे दो पुत्रियाँ तथा एक पुत्र था तथा मेरी पत्नी को चार माह का गर्भ चल रहा था। मैंनें बाबा से मन ही मन विनय की बाबा इस बार फिर लडकी मत कर देना नहीं तो सारा बैलेन्स बिगड जायेगा । इसके बाद हम फिर किसी और चर्चा में लग गये ।
कुछ देर बाद बाबा ने मुझ से कहा कि ये अंगूठी मुझे देदे। उस समय मै अपने हाथ में एक आठ आने भरकी सोने की अंगूठी पहिने हुआ था जिसमें एक पीला नग लगा हुआ था। मैंने तुरन्त अंगूठी उतारकर बाबा के हाथमें देदी जिसे उनने अपनी छोटी अंगूली में धारण कर लिया। थोडी देर बाद जब हम लोग चलनेको हुए तो बाबाके भतीजे ने,जो निरन्तर उनकी सेवा में रहते थे,बाबा से कहा कि बाबा ओवरसियर साहब की अंगूठी दे दो तो बाबा ने कहा कि क्यों दे दो। उन्होंने दी है। मैंने कहा कि हाँ मेंने खुशी से दी है। बाबाके भतीजे ने मुझसे कहा कि आप चिन्ता नहीं करना, जब कभी बाबा अच्छे मूड में होंगे तो हम बाबा से आप की अंगूठी लेलेगें । आपकी चीज आपके पास पहुँच जायेगी। मैंने कहा मुझे कोई चिन्ता नहीं है बाबा शौक से पहिनें। जिस समय हम चलने लगे उस समय बाबा के भतीजे भीतर चले गये,डॉक्टर साहब बाहर अपने जूते पहिन रहे थे और मैं दरबाजे के सामने ही अपने सैंडिल पहिन रहा था। उसी समय बाबा मेरी ओर देख कर मुस्कराये जैसे वे मुझसे कुछ कहना चाह रहे हों। उनकी अर्थपूर्ण मुस्कराहट को देखकर मैंने हाथ जोड लिये। बाबाने अपना एक हाथ नीचे रखा और छूसरा हाथ उसके ऊपर रखकर बच्चे का संकेत किया और फिर दोनों हाथ ऊपर उठाकर सुनिश्चित रूप से आशीर्वाद दिया। मुझे यह समझते देर नहीं लगी कि बाबा ने न केवल मेरे मन की बात जानली है अपितु उसे पूरा भी करदिया है। गद्गद् हो में नतमस्तक हो गया।
कहना न होगा कि यथा समय मेरे घर पुत्र का जन्म हुँआ जो बाबाकी असीम कृपासे आज अत्यन्त सुखी और समृद्ध है।
खुदा मंजूर करता है दुआ जब दिल से होती है।
मगर मुश्किल तो ये है बात ये मुश्किल से होती हैं ।।
अब जरा उस अंगूठी के रहस्य की भी चर्चा करली जाये। बाबाका यह स्वभाव था कि वे किसी की कोई वस्तु अपने पास अधिक समय तक नहीं रखते थे-
जिन्हैं संसार से नाता नहीं दौलत से क्या नाता ।
लगन लग जाये मालिक से किसी से क्या रहे नाता ।।
चाणक्यनीति का कथन है-
अधमाधनमिच्छति धनंमानं च मध्यमाः ।
उत्तमामान मिच्छन्ति मानोहिमहतांधनम्।।
दोहाः अधम धनहिं को चाहते, मध्यम धन अरु मान ।
मानहिं धन है बडेन को, उत्तम चाहें मान।।
अतः महात्माओं का धन तो मान ही है।
किन्तु बाबाजी उस अंगूठी को बहुत समय तक धारण किये रहे । इसका रहस्य मुझे बाद में ज्ञात हुआ। डबराके ही एक सोनीजी बाबाकी सेवामें प्रायः जाते रहते थे। वे धडे-सट्टे के शौकीन थे इसलिये बाबा से किसी नम्बर को जानने केा उत्सुक रहते थे। उन्होंने जब बाबा को हाथ में सोने की अंगूठी पहिने देखा तो उनके मन में लालच आगया और वे बाबा से उसे उन्हें देने के लिये बारबार आग्रह करने लगे। कहने लगे बाबा में बहुँत परेशान हूँ मुझे कुछ परशादी देदो। कर्इ्र बार मांगने पर बाबाने कहा कि ले, मैं दे देताहूँ पर तू लेगा नहीं । सोनीने कहा नहीं बाबा आप देदो में ले लूगा । बाबाने कहा ले लेले, एक्सीडेन्ट है। यह सुन कर तो सोनी भीतर तक कांप गया। बोला-‘‘ नहीं बाबा मुझे नहीं चाहिये।’’ भला ऐसी चीज को कोई कैसे ले सकता है। असल में वह अगूठी मेरे लिये हानिकारक थी इसलिये बाबाने उसे मेरे हाथ से उतरवाली थी। इस बीच मेरी तीन बार दुर्घटनायें हुईं किन्तु मुझे खरोंच तक नहीं आई। देखनेबालों के दिल दहल गये किन्तु मुझे तो ऐसा लगा जैसे किसीने मुझे अपनी गोद में उठाकर सुरक्षित रख दिया हो। बाबाने मेरे लिये कितनी चौटें सहीं क्या मैं इसे कभी भूल सकता हूँ-
मलूका सोई पीर है जो जानहि पर पीर ।
जो पर पीर न जानई सो काफिर बेपीर ।।
अंतमें बाबा ने उस अंगूठी को बिलौआ के ही एक शिक्षक चौरसियाजी केा दे दिया, जिनके एक दस वर्शीय बालक का निधन होगया था और वह अंगूठी उनके लिये दूसरे पुत्र के जन्म के लिये कल्याणकारी सिद्ध हुई।
कविरा संगति साधु की ज्यों गन्धी की बास ।
जो कछु गन्धी दे नहीं तो भी बास सुवास ।।
डॉक्टर चतुर्वेदी के घर भी एक महिला आई, किन्तु कारण जो भी रहा हो,वे उनके पास अधिक रहीं नहीं।अब तो वे भी इस संसार से कूच कर चुके हैं ।
संतों के दर्शन मात्र से चारों फलों-धर्म,अर्ध,काम,मोक्ष-की प्राप्ति होती है-
दोहाः तीर्थ नहाये एक फल, संत मिले फल चार ।
सत्गुरू मिले अनन्त फल कहत कबीर विचार ।।
स्ंसार के तापसे तपे हुए लागों के लिये तीन ही हेतु कहे गये हैं।
चाणक्यनीति में कहा भी गया है-
स्ंसारतापदग्धानांत्रयोविश्रान्ति हेतवः ।
अपत्यंच कलत्रंच संतासंगतिरेव च ।।
सोरठाः यह तीनों विश्राम,माह तपन जग ताप में ।
हरै घोर भव घाम,पुत्र नारि सतसंग पुनि ।।
बाबाका जन्म एवं कर्म-
बाबा उन आत्माओं में से थे जो जन्म जन्मान्तर से योग साधने में लीन रहते हैं किन्तु प्रारब्धवश उन्हें इस जगत में आकर भौतिेक आवरण ग्रहण करना पडता हैं। लोकोपकार करते हुए अपनी तपस्या केा पूर्ण कर अंतमें वे इस आवागमन के चक्रसे मुक्ति प्रा्रप्त कर लेते हैं। गीतामें में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन की शंकाओं का समाधान करते हुए कहते हैं –
प्राप्य पुण्य कश्तांलोकानुशित्वाशाश्वतीःसमाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योग भ्रष्टों भिजायते ।। अध्या 6श्लो41।।
अर्थात् योग भृष्ट पुरुषों पुण्यवानों के लोकों अर्थात स्वर्गादि के उत्तम लोकों को प्राप्त हो कर उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरणबाले श्रीमान पुरुर्षों के घर में जन्म लेताहै।
बाबा के जीवन पर पण्डित रामगोपाल तिवारी‘भावुक’ द्वारा एक कृति ‘आस्था के चरण ’ संपादित की गई । सर्वप्रथम प्रामाणिक पुस्तक ‘आस्था के चरण’ में पण्डित हरचरन लाल जी वैद्य,डबरा,ने लिखा है कि बाबाने एक वार एकान्त में उनसे कहा था कि यदि किसी कारणवश नित्य पूजा-पाठ न कर पाओ तो गीताके छठवें अध्याय को ही पढ लिया करो । इसके पाठ करने से नित्य पूजापाठ की पूर्ति हो जाती है। आप यहाँ समझ ही गये होंगे कि बाबाने स्वयं अपने ही बारे में कितना बडा सत्य उजागर कियाहै। उपरोक्त श्लोक ही इसका पुष्ट प्रमाण है। इस असार संसार में ऐसे संतों का अवतरण एक दिव्य एवं विरल घटना है-
शैले-शैले न मणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे।
साधवौ हि न सर्वत्रं चन्दनं न वने वने ।।
बात सही है। हर पर्वत में मणियां और हर हाथी में मोती नहीं होते और न हर जगह साधू अर्थात संत होते हैं। हर वन में चन्दन नहीं होता और उसी प्रकार-
लालों की नहिं बोरियां हंसों की नहिं पात ।
सिहों के लहडे नहीं साधु न चलें जमात ।।
मैंने ‘‘संत गौरीशंकर चरित माल‘‘में बाबाका जन्म परिचय अति संक्षेप में निम्न शब्दों में दिया है-
पावन डबरा क्षेत्र भू धन्य बिलौआ ग्राम ।
पग पग परम पवित्र रज डगडग तीरथ धाम ।।
शुभदिन शुभऋतु शुभ अयन अतिशुभ बहीसमीर ।
उन्नीस सौ चौबास सन बाबा धरौ शरीर ।।
जगन्नाथ के पुत्र प्रिय मौजी राम सुपौत्र ।
गौरी शंकर नाम शुभ विप्र तिवारी गोत्र ।।
दुबईबारी मातु की पुतरी आँखिन बीच ।
पारवती के प्राणप्रिय प्रेम सलिल शुचि सींच ।।
प्राथमिक शिक्षा गृह ग्राम में हुई । दस वर्ष की आयु में संस्कृत के अध्यन के लिये मथुरा गये। धार्मिक नगरी मथुरा धर्मशास्त्र की शिक्षा के लिये प्राचीनकालसे ही अग्रणी रही है।
पढी संस्कृत मधुपुरी गुने ग्रंथ गुन ग्राम ।
भ्रमत जगत खोजत फिरें जग आये केहि काम ।।
वपिस आने पर विवाह हुआ । जीवन निर्वाह के लिये कृशि कार्य में लग गये। कुछ समय बाद ग्वालियर जाकर फौज में भरती हो गये तथा कश्मीर सीमापर देश हित में गोली से घायल होकर पूना में चिकित्सा करबाई। बाद में ग्वालियर राज्य की पुलिस में भरती होकर दीवान के पद पर कार्यरत हो गये। करैरा और नरबर थानों में आपकी पदस्थी रही। वहीं से आपको विरक्ति हुई और साधु परम्परामें प्रविष्ट हो गये।
प्रभु प्राप्ति का लक्ष्यः
शास्त्रों में मानव जीवन का परम लक्ष्य प्रभु प्राप्ति ही कहा गया है। इसके लिये जो तीन साधन बताये गये हैं वे हैं कर्म,ज्ञान एवं उपासना अथवा भक्ति । बाबा के जीवन में ये तीन ही साधन पूर्णतः परिलक्षित होते दिखाई देते हैं । प्रथम वाल्य अवस्था में विद्यार्जन तथा युवा अवस्थामें कृषिकार्य एवं शासकीय सेवा द्वितीय अवस्था में गृहत्याग कर साधु के रूप में ज्ञानार्जन तृतीय अवस्थामें अपने आपको सम्पूर्ण रूप से भगवान को समर्पित कर भक्ति की चरम अवस्था,जिसे तुरीय अवस्था भी कह सकते हैं, में भगवद्भजन एवं प्राप्त सिद्धियों के द्वारा मानव मात्र की कल्याण साधना । इस दृष्टि से देखा जाय तो बाबा का जीवन अद्वितीय सिद्ध होता हैं।
प्रारम्भिक अवस्थामें शिक्षा पा्रप्त करने में एक ओर जहाँ स्वयं का प्रयास आवश्यक है वहीं सामाजिक परिस्थितियों का योगदान भी अति महत्वपूर्ण होता है। शिक्षा केवल किताबी ज्ञान का नाम नहीं हैं,इसमें वह सब भी आता है जिसमें आत्मिक तथा शारीरिक विकास भी सम्मिलित है। जिस प्रकार एक पौधे को फूलने फलने के लिये मूल आवश्यकताओं, खाद-पानी की पूर्तिा होना चाहिये, मानव जीवन के लिये उसका परिवेश महत्वपूर्ण है । बाबा ने न केवल पुस्तकीय ज्ञान प्रप्त किया अपितु शरीरिक,मानसिक तथा आध्यात्मिक तत्वों को भी अपने आप में समाहित किया । मैं यहाँ यह कहना चाहूँगा कि बाबा को व्यायाम तथा पहलवानी का भी शौक था और उन्होंने कसरत के द्वारा अपने शरीर केा सुदृढ बनाया था। आखिर स्वस्थ तन में ही तो स्वस्थ मन का वास होगा ।
कहा गया है कि होनहार विरवान के होत चीकने पात। बाबा को मथुरा जैसी भारतकी पवित्र नगरी,जो न केवल एक तीर्थ है अपितु धार्मिक सप्तपुरियों में अग्रगण्य है-
अयोध्या मथुरा माया काशी कॉचीह्यवन्तिका ।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैते मोक्षदायिकाः ।।
अर्थात् अयोध्या,मथुरा,हरिद्वार,काशी,कान्ची,उज्जैन,जगन्नाथपुरी तथा द्वारका, ये सात पुरियाँ मोक्ष देनेबाली हैं। मथुरा की प्रशंसामें कहा गया हैः
अहो मधुपुरी धन्या यत्रा सन्निहिते हरिः ।
सर्वेशां चत्र पापानां प्रवेशोऽपि न विद्यते।।
अर्थात् मथुरा नगरी तो धन्य है जहाँ भागवान स्वयं प्रगट हैं, जहाँ पाप का प्रवेश तो हो ही नहीं सकता ।
बाबा जिस प्रकारकी शिक्षा प्राप्त करनेके लिये मथुरा भेजे गये थे उसका उद्देश्य केवल उन्हें संस्कृत का विद्वान बना करके पुरोहिताई के कार्य में संलग्न करने का ही था, पण्डिताई तो परिवार में पहिले से होती ही थी। पर बाबा क्या इस काम के लिये ही बने थे? क्या उनका उद्देश्य लौकिक शिक्षा हो सकता था? मोक्ष की नगरी से तो उन्हें उस शिक्षाकी अपेक्षा थी जो उन्हें जीवन-मरण के चक्र्र से मुक्ति देनेबाली हों।
बाबा के मथुरा जाने के पहिले से बाबा के एक बडे भाई भी मथुरा में शिक्षा प्राप्त कररहे थे । उन्हीं के आश्रय में बाबा को वहाँ पढने के लिये भेजा गया था किन्तु,बाबा का मन तो इस पढाई में लगता नहीं था । मन विचलित होता तो यहाँ-वहाँ साधु-संतों की संगति करने के लिये निकल जाते-
कविरा संगति साधु की साहब आवें याद ।
लेखे में सोई घडी बाकी सब बरबाद ।।
उनकी जिज्ञासा तो उस सत्य के खोज की थी जो इस सपूर्ण चराचर जगत का आधार है, संचालक है-
सत्येन धार्यते पृथ्वी सत्येन तपते रविः।
सत्येनवातिवायुश्च सर्वं सत्यं प्रतिश्ठतिः।।
दोहाः सत्यहि ते रवि तपत है सत्यहि पर भुवि भार ।
बहे पवनहू सत्यते सत्यहि सब आधार ।।
सत्य की खोज ही तो ईश्वर की खोज है।
उनकी खोज तो वह विद्या थी जो परलोकमें साथ देनेबाली हो अतः उनके इस व्यौहार की शिकायत की गई और परिणाम स्वरूप उन्हैं वापिस गाँव बुला लिया गया। गाँव में आकर वे कृषिकार्य में संलग्न होगये।
अतः हम कह सकते हैं कि बाबा के मन में प्रभु प्राप्ति की ललक वाल्यकाल से ही उत्पन्न हो गई थी जो संस्कारों के प्रवल होते ही यथा समय पुश्पित तथा पल्लवित हो गई जिसने न केवल उन्हें अपितु अनेकों की नैया मझधार से पार लगादी।