परमहंस मस्तराम गैारीशंकर बाबा - 3 रामगोपाल तिवारी (भावुक) द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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परमहंस मस्तराम गैारीशंकर बाबा - 3

परमहंस मस्तराम गैारीशंकर बाबा 3

बाबा कृषिकार्य में संलग्न रहे हों अथवा सेना में सेवा कररहे हों,अपने कर्तव्य के प्रति सदैव सजग रहे तथा दृढतापूर्वक उसको निवाहते रहे। अपने कर्तव्य को सत्यनिष्ठा पूर्वक करनाभी प्रभु प्राप्तिका एक श्रेष्ठ साधन कहा गया है। श्रीमद्भगव्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्प ष्ठ कहा है -

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।

स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथाविन्दति चच्छृणु ।।

अर्थात् अपने स्वाभाविक कर्म में तत्परतासे लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार भगवद्प्राप्ति रूप परम सिद्धि को प्राप्त होता है उस विधि को तू सुन-

यथा प्रवृति भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।

अर्थात् जिस परमेश्वर से सब प्राणियों की उत्पति हुई है और जिससे यह जगत व्याप्त है,उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होजाता है।

गृहत्यागः

कवीरदासजी ने कहा है-

दोहाः कामी क्रोधी लालची इनसे भक्ति न होय ।

भक्ति करे कोइ सूरमा जाति वरन सब खोय।।

द्वितीय अवस्था अथात् गृहस्थ अवस्थामें भी बाबा अपनी नौकरी के साथ साथ धर्म-कर्म में सदा संलग्न रहे। फौज में रहते हुँए उन्होंने कश्मीर में सवामनी हवन करवाया था। नित्य गीतापाठ तथा सूर्य भगवान को जल अर्पण करना आदि धार्मिक कश्त्य तथा अन्य गृहस्थों के धर्म का पालन वे दश्ढता पूर्वक करते थे। किन्तु इस गृहस्थी से पार पाना अति दुश्कर कार्य है। मानस की यह चौपाई मुझे बहुँत सटीक लगती है-

गृह कारज नाना जंजाला । ते अति दुर्गम शैल विशाला ।।

अब इस चौपाई के शब्दों पर ध्यान दीजिये । नाना का अर्थ है बहुँत प्रकार के अथवा हर प्रकारके जैसे अभाव,रोग,शौक जैसी विपरीत परस्थितियाँ आदि । जंजाल का मतलब है ऐसी उलझन जिसका कोई ओर-छोर न मिलता हो। ते यानी वे।अति-अति सर्वत्र वर्ज्यते । दुर्गम- जहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन हो। शैल-बडे बडे पर्वत ‘‘शैल हिमाचल आदिक जेते’’ एवं विशाला- जिनका कोई आदि अंत न दिखाई देता हो। आप देखेंगे कि 16-16-32 मात्राओं की इस चौपाई में संत तुलसीदासजी ने विशेषणों की जो भरमार करदी हे वह अन्यथा नहीं है।


सामान्य संसारी जीव शडविकारों और ग्रहस्थी के मोह से ग्रस्त हैं वे भला भगवान को कैसे पा सकते हैं ।

काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुःख रूप ।

ते किम पावहिं रघुपतिहिं मूढ. परे तम कूप ।। मानस।।


गृहस्थीसे छॅटना आसान नहीं है। यह तो ईश्वरीय कृपा पर ही निर्भर करता है कि व्यक्ति की भूमिका आगे जाकर क्या होनेबाली है । बाबाके साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हुँआ । एकबार बाबा भगवान के ध्यान में अथवा सत्संग में इतने डूब गये कि उन्हें नौकरी का भी ध्यान नहीं रहा । जब चेत हुआ तो भागे- भागे थाने पहुँचे। वहाँ जाकर पता लगा कि इस बीच किसी उच्चअधिकारी का निरीक्षण हुँआ जिसे इन्होंने स्वयं ही करबाया । अफसर ने इनकी रिपोर्ट भी बहुत अच्छी लिखी। हाजिरी रजिस्टर पर इनके हस्थाक्षर भी मौजूद थे। समझते देर नहीं लगी कि भगवान स्वयं इनके रूपमें आकर इनकी ड्यूटी कर गये हैं। ‘‘संत गौरी शंकर चरित माल’’ में मैंने इसे निम्न पंक्तियों में व्यक्त किया है-

साधुन की सेवा करें जे गृहस्थ के धर्म ।

पालें सो सब जतन से निज पत्नी सहधर्म ।।

हुँआ अचानक ऐक दिन अफसर का अभियान ।

ये डूबे सत्संग में भयो न सो कछु भान ।।

ये तो विरमे राम में करी नौकरी राम ।

जब जाना पल में तजी कर आखिरी सलाम ।।

छोड़ा निज घरबार अरु बाँटा सब धन धाम ।

क्री मधुकरी मास शट फिरत ग्राम प्रति ग्राम ।।

यहाँ मैं कहना चाहूँगा कि मधुकरी भिक्षा मांगना नहीं है। किसी ने बिना मांगे यदि कुछ देदिया तो ले लिया मांगा नहीं जाता ।

सबहि कहावत राम के सबहिं राम की आस ।

राम कहहिं जेहिं आपने तेहिं भज तुलसीदास ।।

‘‘शिलारत्नम् महाकाव्य’’ में, जो पटियाबाले बाबा रतनदास जी महाराज (करेहधाम-मुरैना) के जीवनपर आधारित है और जिसे पारसेन निवासी आचार्य श्री राम स्वरूपजी ने रचा है तथा अभी हाल ही में अखिल भारतीय कालीदास समारोह में सम्मानित किया गया है,ने जो इस सम्वन्ध में लिखा है वह यहाँ पूर्णतः समीचीन है-

हित्वानिवासं यदि न प्रयाति पादेशु मृत्युरवितुं मुरारे ।

तस्येक रक्षा भवितेह भूमो चथा द्रुमं त्यक्तवतः खगस्य ।।

।।सर्ग3श्लोक 30।।

अर्थात् यदि मनुष्य अपने घरको छोड कर रक्षा के लिये भगवान शरण में जाताहै तोही इस प्रथ्वी उसकी पर रक्षा हो सकेगी।उसी प्रकार जिस प्रकार वश्क्षसे भागा हुँआ पक्षी बहेलिये के जाल से बच जाता है।

नमित्रं नवन्धुर्मिलति न च मार्गै परिचितः ।

यदैवाकाकी सन् ब्रजति जनहीनेा यमपुरम्।।

न भोक्ते पाथेयं भवति यदि कश्टं बहुँविधि।

तथापश्चातापो दहति पार्थ जीवानलवत् ।। वहीश्लोक311।

अर्थात् जब जीव यहाँ से अकेला यमपुर को जाता है तब मार्ग में न मित्र मिलते हें न बन्धु। और कोई परिचित भी नहीं मिलता। यदि भगवान का भजनरूपी पाथेय,मार्ग व्यय, मूलरूपके साथ में नहीं होता तो यमपुर के मार्ग में अनेक प्रकारके संकट आते हैं तब राह में पश्चाताप जीवों कोअग्नि के समान कश्ट देता है।

अतो गमश्यामि विहाय गेहं हरिं भजसयामि वनं प्रविश्य ।

न कामियस्ये निज देह सौख्यं त्यक्षामि सर्वान हरिमाप्तकामः ।। ।।वही श्लोक 32।।

अत,इस संसारी घर को त्याग कर वन में जाकर भगवान का भजन करूंगा । मैं अपने देह के सुख को नहीं चाहूँगा और भगवान केा प्राप्त करने हेतु सब कुछ त्याग दूंगा ।


घर छोड कर जाने के बाद बाबा यहांू वहाँं घूमते रहे। बाद मे बद्रीनाथ में पहुँच कर साधु हेागये । यहाँ यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि बाबा ने किस गुरू से किस प्रकार की दीक्षा प्राप्त की थी । वैश्णव साधुओं को जो पांच प्रतीक चिन्ह दिये जाते हैं वह हैं मन्त्र,कण्ठी,तिलक,लंगोटी तथा नाम।

जहाँ तक मन्त्र का प्रश्न है बाबाको किसी मन्त्र विशेश का जप करते नहीं देखा या सुना गया । बाबा नैश्टिक ब्राह्मण कुल में जन्मे थे तो यह तो निश्चित ही है कि उनका यज्ञोपवीत संस्कार हुँआ होगा। इस समय गायत्री मन्त्र की दीक्षा दिये जाने का प्रचलन है। बाबा सूर्य भगवान को अर्घ देते थे। अतः गायत्री मन्त्र को वल मिलता है।बाबा को मन्त्रों का पूर्ण ज्ञान था।उन्होंने अपने बडे भाई श्रीयुत श्रीलाल जी को,जब उनके पैर में फ्र्र्र्रेक्चर होगया था तो,पौराणिक महामृत्युन्जय मन्त्र जपने के लिये कहाथा जो इस प्रकार है-मृत्युन्जयाय रुद्राय नीलकण्ठाय सम्भवः।

अमृतेशाय सर्वाय महादेवाय ते नमः ।।

बाबाने मथुरा में संस्कृत का अध्यन तो विधिवत् किया ही था इसलिये वे किसी भी शास्त्रोक्त मन्त्र को बिना किसी कठिनाई के जप सकते थै। शेश अन्य चार चिन्हों जैसे तिलक आदि का भी नियम पूर्वक पालन करते उन्हें कभी नहीं देखा गया था। गीता के पूरे सात सौ श्लोकों का पाठ और वह भी खडे-खडे करना एक कठिन काम है। इसमें कमसे कम डेढ-दो घण्टे तो लग ही जाते होंगे।बाबा मथुरा में रहे थे इससे उनके मन में कृष्ण भक्ति का उदय हुआ हो यह भी केवल अनुमान का ही विषय है। मन्त्र तथा नाम का जप जब तक सही उच्चारण के साथ न किया जाय तब तक उनका सिद्ध होना कठिन है।

बाबा हाथ में माला लेकर कभी जप नहीं करते थे।सम्भवतः कवीर की तरह उनका भी यह विश्वास रहा होगा-

दोहाः माता फेरत जुग गया मिटा पन मन काफेर ।

कर का मन का डार दे मन का मनका फेर ।।

मन्त्र मूर्तियां और सभी प्रतीक चिन्ह साकार उपासना के द्योतक हैं। जब बच्चे पढ़ना सीखते हैं तो उन्हें ‘अ‘ से ‘अनार‘ याद कराया जाता है किन्तु कालान्तर से अ केवल अ ही रह जाता है और अनार कहीं पीछे छूट जाता है। उसी प्रकार जो निराकार पारब्रह्म परमेश्वर के उपासक हैं उनके लिये किसी प्रतीक चिन्ह की आवश्यकता नहीं रह जाती । वे तो उस परमसत्ता से सीधे ही ऐसे जुड जाते हैं कि वे ‘ऐकोऽहं द्वितीयोनास्ति’ की स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं । ऐसे साधक तो ब्रह्म का ही रूप हो जाते हैं ।

भगवान की भक्ति में भाव ही प्रधान है-

का भाषा का संस्कृत प्रेम चाहिये साँच ।

कमु जु आवे कामरी का लै करिय कीमाँ च ।।

मेरे विचार से इन सब नियम कायदों को बाबा के साथ लागू नहीं करना चाहिये ओर न वे हो ही सकते हैं क्योंकि बाबा तो जन्मसिद्ध सन्त थे । देखिये पलटू साहब क्या फरमाते हैं-

आगम कहत न सन्त भडेरिया कहत हैं ।

सन्त न औशधि देंय वैद यह करत हैं ।

झार फूक ताबीज ओझा के काम हैं ।

अरे हाँ रे पलटू ,


सन्त रहित परपंच, राम का नाम है ।।

और देखिये-

ज्ञानी चतुरा बहु मिले पण्डित मिले अनेक ।

राम रता इन्द्रिय जिता कोटिन में कोउ एक।।

ज्ञानी की पहिचान तो कुछ और ही है। रमण गीता में गणपतिमुनि द्वारा महऋषि रमण से प्रश्न किया गया कि-

ज्ञानिनं केन लिंगेन ज्ञातुशक्ष्यान्ति कोविदः।

अर्थात् विद्वान लोग किस चिन्ह से ज्ञानी को पहिचान सकते हैं-

महऋषि रमण का उत्तर था-

सर्वभूत समत्वेन लिंगेन ज्ञान मह्यतेन ।

अर्थात् समंस्त प्राणियों यानी भूत मात्र के प्रति समभाव उत्पन्न हो जावे ऐसे चिन्ह से ज्ञानी पहिचाना जाता है।

महाकवि विहारी की सतसई में एक सोरठा इस प्रकार है-

मैं समझ्यो निरधार,या जग काँचों काँच सौ।

एकै रूप अपार, प्रतिविम्वित लखिये जहाँ।।

संत तो कण कण में उस अनंत परम पिता की छवि देखते हैं।

संत किसी वंधन में बंधे हुए नहीं होते।जो स्वयं वंधन में बंधा होगा वह भला दूसरे को कैसे मुक्त कर सकता है।कवीर का भी तो यही कहना है-

बंधे को बंधा मिला छूटे कौन उपाय।

कर सेवा निर्बन्ध की पल में लेय छुडाय।।

बाबा की सौम्य मुद्राः

बाबा की मुद्रा प्रायः सौम्य ही रहती थी। उनके मुखमण्डल पर एक दिव्यतेज की आभासी प्रतीत होती थी। अंग्रेजी भाषा में एक मुहावरा है जिसका अर्थ है कि ‘‘चेहरा मनुष्य के विचारों का सूचक होताहै’’। सहज ही में समझा जा सकता है कि जिसका मन शान्त और स्थिर होगा उसका मुखमण्डल भी सौम्य और तेजोमय होगा। चित्त की शान्ति को यदि हम और अधिक स्पष्ठ करना चाहें तो इसके लिये हमें तीन उदाहराणों पर विचार करना होगा । पहिला उदाहरण सागर का है जिसमें निरन्तर ऊूची-ऊूची लहरें उठतीं रहतीं हैं जो कभी रुकने का नाम नहीं लेतीं। ज्वार-भाटे के समय तो ये और भी अधिक प्रचण्ड हो जातीं हैं। सागर में यदि एक बडासा पर्वत भी डाल दिया जावे तो वह भी उसकी अतल गहराइयों में डूब जायेगा किन्तु इससे उसकी निरन्तर उठती हुई लहरों की निरन्तरता में कोई वाधा उत्पन्न नहीं होगी।यही स्थिति उन लोगों के मन की है जिनके मन में सदैव कामनाओं और अदम्य इच्छाओं के ज्वार-भाटे ठाठें मारते रहते हैं।इनके चेहरे पर सदैव तनाव की रेखाऐं खिंची रहती हैं।छूसरा उदाहरण हम सरिता का ले सकते हें । सरिता का प्रवाह कभी रुकता नहीं। उसकी धारा सदा अजस्र रूपसे बहती रहती है। उसके मार्ग में यदि कोई पर्वत भी आजाये तो वह उसे काट कर अपना मार्ग बना लेती है। सममतल मैदान में आकर तो उसका आकार और विशाल रुप धारण कर लेता है। बाढ के समय तो जो कुछ भी मार्ग में आजाये वह नष्ट हुए विना नहीं रहता। उसको यदि विश्राम मिलता है तो केवल सागर की गहराइयों में समा जाने के बाद। यह उदाहरण उन लोगों का है जो निरन्तर आगे बढने के प्रयास में दौड लगाते रहते हें।स्वयं को आगे बढाने के लिये कोई भी उचित अनुचित रीति-नीति अपनाने में संकोच नहीं करते।वे तो किसी को धक्का या धोका देकर भी अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करने में नहीं हिचकते।ऐसे लोगों के चेहरे पर संघर्श और त्वराके चिन्ह गहरी स्याही से लिखे दिखते हैं।अंत में तीसरा उदाहरण एक ऐसी झील का लिया जासकता है जिसका जल स्थिर और शान्त हो। उसमें एक छोटा सा कंकर भी यदि फेंक दिया जावे तो उसमें गोलाकार जल की सतह पर तरंगें बनने लगतीं हैं जो बिना जल के चलायमान किये हुँए एक तट से दूसरे तट तक चली जातीं हैं। निष्काम संतों के मुखमण्डल पर छाया हुआ सौम्य और शान्त भाव इसी भावदशा को परिलक्षित करता हैं। बाबा महाराज के चेहरे पर इसे सहज ही देखा जाकता था।

आपने महात्मा बुद्ध की पद्मासनमें आसीन और जैन तीर्थकरों की खड्गासन में खडी हुई मुद्रा में अनेकों मूर्तियाँ देखी होंगी। उनके मुखमण्डल की शान्त मुद्राओं को भी निहारा होगा। ऐसी मुद्रा केवल तभी प्रगट होती है जब मनमें भावों का पूर्ण अभाव हो। ऐसी सरलता एक शिशु के मुख पर भी आप पायेंगे क्यों कि शिशु सरल और निश्छल होता है।

बाबा का सान्निध्यः

सन 1970 के पूर्व तक बाबा का घूमना फिरना लगा रहता था। बडी दूर-दूर तक की यात्राओं पर वे निकल जाते तथा महिनों रेल से यात्रा करते रहते। कभी कोई साथ होता तो कभी अकेले ही यात्रा करते रहते। जब डबरा में होते तो आस पास के ग्रामों में भ्रमण करते रहते। इस क्षेत्र का शायद ही कोई गाँव एसा होगा जहाँ बाबा के चरण न पडे हों। चाणक्यनीति में कहा गया है-

भ्रमन्सम्पूज्यतेराजा भ्रमन्सम्पूज्यते द्विजः

भ्रमन्सम्पूज्यते योगी स्त्रीभ्रमन्तीविनस्यती।।

दोहाः पूज जात हैं भ्रमन ते द्विज योगी अरु भूप।

भ्रमन किये नारी नशै ऐसी नीति अनूप ।।

उनके लिये कोई रोक टोक तो थी ही नहीं और ना ही उनकी चलायमान गति को कोई विराम । इस सम्वन्धमें बाबा के अनेकों भक्तोंने अपने अनुभवों को व्यक्त किया है।श्री रामगोपाल तिवारी ‘भावुक’ जी ने ‘आस्थाके चरण’ में अनेकों ऐसे संस्मरण लिपिवद्ध किये हैं । सन 1970 के ही आस पास बाबा बिलौआ में अपने निवास पर स्थित होगये थे यद्यपि जाना आना तब भी लगा रहता था। इसी समय से मेरा बाबा से सम्पर्क हुआ और जब भी मुझे अवकाश मिलता मैं बाबा के दर्शन कर लिया करता था। बाबा बडे स्नेह से मुझे ‘‘औंसियर’’ कहकर बुलाते थै। मेरा सम्वन्ध उनसे वैसाही था जैसा एक पिता-पुत्र अथवा गुरु-शिष्य में होता है।उनकी मुझ पर सतत निगाह रहती थी । स्थिति यहाँ तक थी कि यदि मैं कहीं भी, किसीसे भी और कभी भी बाबा की चर्चा करता तो बाबा बिलौआ में या जहां कहीं भी होते,मुझे पुकारने लगते । ऐक संस्मरण मैं आपसे बाँटना चाहूँगा । एक बार में डबरा की शासकीय लाइब्रेरी में खडा हुँआ था। लाइब्रेरी सदर बाजार के एक मकान की छत पर स्थित थी । प्रसंगवश लाइब्रेरियन से बाबा के बारे में मेरी चर्चा होने लगी । यहां डबरा में मैं बाबा की चर्चा कर रहा था वहां बिलौआ में बाबा मेरे नाम की आवाज लगाने लगे। जोर जोर से ऐसे पुकारने लगे जैसे अदालतों में मुवक्किलों को पुकारा जाता है-‘‘औंसियरऽ हाजिर होऽऽ’,‘औंसियर हाजिर होऽऽऽऽ। उस समय बाबा के पास कुछ लोग बैठे हुए थे उन्होंने बाबा से पूछा कहाँ है औंसियर । बाबा बोले छत पर खडा हुआ है,छतपर ही तो खडा है। सुनने बाले चिन्तित होने लगे कि न जाने औंसियर पर क्या संकट आ गया है जो वह बाबा को याद कर रहा है।

दूसरे ही दिन बाबा के बडे भाई श्रीयुत श्रीलालजी मेरे घर पधारे। बडी प्रसन्नता हुई। उन्होंने मुझसे पूछा सब कुशल है। मैंने कहा बाबाके दया से सब कुशल है । उन्होंन फिर प्रश्न किया बाल-बच्चे मजे में हैं तो मैंने कहा आपके आशीर्वाद से सब आनन्द से हैं। किन्तु जब उनने तीसरी बार घुमा फिरा कर वही प्रश्न किया तो मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने उनसे कहा कि बारम्बार वे इसी प्रश्न को क्यों पूछ रहे हैं। तब उन्होने मुझसे पूछा कि क्या कल तुम बाबा को याद कर रहे थै?मैंने कहा किस समय। उन्होंने कहा कि जब आँधी चली थी।

क्या तुम उस समय छत पर खडे थे। मैंने कहा, हाँ में छत पर खडा लाइब्रेरियन से बाबा की चर्चा कर रहा था किन्तु आपको कैसे मालूम हुआ । वे बोले उस समय बाबा तुम्हैं बार बार पुकार रहे थे इसलिये हमें बडी चिन्ता हुई और में आपसे मिलने चला आया। ऐसी थी बाबा की कृपा !! इतना ध्यान तो कोई माता अपने ब्र्रच्चे का भी नहीं रख सकती । बच्चे के आँख से ओझल होते ही माता विवश हो जाती है किन्तु बाबा की दृष्टि से तो उनके भक्त कभी ओझल होते ही नहीं । ऐसी सतत चौकीदारी के चलते क्या कोई गलत काम आप कर सकते हैं!! मैं पूछता हूँ कि क्या संसार की आधुनिक से आधुनिक सुरक्षा व्यवस्था बाबा की इस दिव्य दृष्टि का मुकाबिला कर सकती है। निश्चय ही आप कहेंगे कि असम्भव है ।

एक बार में बाबा के निकट बैठा था। बाबाने किसी पढनेबाले बच्चे की एक रफ कापी मुझे दे दी। बोले ले इसे लेले। मैंने कहा बाबा क्या करूं इसका तो बोले रखले। आज मेरी समझ में आरहा है कि बाबा का वह प्रशाद मेरे लिये कितना अनमोल था। बाबा के उस आशीर्वाद ने ही मुझे लेखक, सम्पादक, कवि, साहित्यकार, ज्योतिशी और आकाशवाणी का कलाकार बना दिया। यही नहीं मेरी तो काया ही पलट दी वरना एक इन्जीनियर का एक सफल डॉक्टर बनना क्या किसी चमत्कार से कम है।

मै यहाँ एक और घटना आपके सामने रख रहा हूँ जो मेरे एक वन्धुवत् मित्र के छोटे भाई के सम्वन्ध मे है। उस परिवार से मेरा आत्मिक सम्वन्ध है। मित्र की माताजी ने मुझसे कहा कि बेटा,बडे बैटे और छोटे बेटे की नौकरी तो लग गर्इ्र परन्तु बीचबाला बी.ए.पास कर घर बैठा हुआ है। बह बडा दुखी रहता है,उसके लिये कोई नौकरी देखो। मैंने मन में सोचा कि वह बडा रहीसी स्वभाव का है अतः कोई छोटी-मोटी नौकरी तो करेगा नहीं और मैं इतना बडा अधिकारी हूँ नहीं जो उसे कोई बडा पद दिला संकू। मैंने सोचा कि बाबा से ही कहूँगा । ग्वालियर से बिलौआ जाते समय जैसे ही झांसी रोड से मैंने अपनी गाडी बिलौआ की तरफ मोड़ी तो अपने घरके सामने नीम के नीचे चबूतरे पर बैठे बाबाने पुकारना शुरू कर दिया‘-‘‘चले आ रहे हैं रईसों के सुपारती,चले आरहे हैं रईसों के सुपारती(शिफारसी)’’ । लोगों ने पूछा कौन आरहे हैं। हैं एक रईसों के सुपारती। कुछ ही समय में मैं भी वहाँ पहुँच गया। लोगों ने बताया कि बाबा कह रहे थे कि चले आरहे हैं रईसों के सुपारती। मैंने बाबा से निवेदन किया कि बाबा जिस पर आपकी कृपा हो वही तो रईस है । मेरा भाई रहीस है और में उसका सिफारसी हूँ । कहना न होगा कि अगले ही दिन उसके बडे भाई का मित्र, जो बिजली विभाग में अधिकारी था, उसे घर से बुला ले गया और बाबू की नौकरी देदी।

बाबा के सम्वन्ध में ऐसी घटनाओं की कोई गिनती नहीं हो सकती। जैसे समुद्रके पानीका स्वाद जानने के लिये सारे समुद्र का पानी पीना आवश्यक नहीं है, उसका स्वाद तो बस एक बूद चख करही जान लिया जा सकता है, उसी प्रकार बाबा के चरित्रों को भी समझ लेना चाहिये।

डबरा में पदस्थ हुए मुझे सात वर्ष हो चुके थे। इस बीच मेरे स्थानान्तर की कई बार चर्चा चली । अब तक बाबा की कृपासे मैं एक सफल होम्योपैथिक डॉक्टर बन चुका था। मेरे पास डॉक्टरी की कोई डिग्री-डिप्लोमा तो था ही नहीं बस अनुभव के आधार पर ही दबाइयाँ बाँटता रहता था। इसके लिये कोई्र शुल्क अथवा दबाइयों का मूल्य भी नहीं लेता था। मरीजों की संख्या इतनी अधिक होने लगी थी कि सायंकाल से पाँच बजे कभी- कभी रात के दो तक बज जाते थे। बाबा की कृपा कुछ ऐसी थी कि जहाँ दो चार पुडियाँ दीं और मरीज को लाभ हुआ । अतः जब भी मेरे स्थानान्तर की चर्चा चलती थी तो जनता अफसरों तक जा पहुँचती और अफसर यातो तबादला करते ही नहीं और कर भी देते निरस्त होजाता। सन 1972 में मेरा स्थानान्तर ग्वालियर हुआ। मैं भी जाना चहता था। विचार यह था कि ग्वालियर में रह कर होम्योपैथिक का डिप्लोमा करलूं जिससे आगे प्रेक्टिस करने मैं कोई कानूनी अड़चन न आये। मैं बाबाके पास गया और उनसे निवेदन किया कि बाबा आपने मुझे यहाँ से तो भगा ही दिया , अब कहाँ ले जाकर पटकोगे। कभी-कभी में बाबा से बच्चों की तरह लढियाने लगता था। बाबा हंसते रहे। फिर उन्होंने मुझे रस्सी का एक टुकडा दिया, कहने लगे ले इसे लेजा। मैंने कहा-‘‘‘ बाबा इसका क्या करुं?’’ बाबा बोले- इसमें घास बाँध लेना और कांस बाँध लेना। मेरे कुछ समझ में तो आया नहीं, मैंने बाबा से कहा कि बाबा आपकी कृपासे में डलियाँ तो डलबा ही रहा हूँ , घास भी खुदवा लूंगा। ग्वालियर में मेरी पदस्थी दो बार ऐसे कार्यों पर हुई जो नगर में ही थे किन्तु निरस्त होते गये और अंत में एक ऐसे नवीन ग्रामीण मार्ग के निर्माण कार्य पर पदस्थी हुई कि जहाँ पहुँचते ही मुझे दस किलोमीटर की लम्बाई में सबसे पहिले जंगल सफाई्र का ही कार्य कराना पड़ा।

बाबाकी कृपाओं की गणना सम्भव नहीं है। उनसे सम्पर्क भी होता रहता था और स्मरण मात्र से ही उनकी कृपा का अनुभव होजाता था। एक बार बाबा ने मुझसे कहा, ‘‘ओंसियर तू मेरा मन्दिर बनबायेगा’’!! मैंने कहा बाबा मुझे तो और कुछ आता नहीं है। आपही बताइये कहाँ क्या करना है। बाबा मुस्कराकर रह गये। आज भी मैं सोचता हूँ तो मन्दिर की कहीं कुछ भूमिका नजर नहीं आती। यदि बाबा मुझसे कुछ सेवा लेना चाहेंगे तो मेरे लिये इससे बडा सौभाग्य और क्या होगा?

चरितमाल का लेखन-

सहायक यंत्री के पद से हमारी सेवा निवृत्ति सन 1995 में होगई थी। आगे के लिये तो कुछ सोचना था ही नहीं क्यों कि बाबा की कृपासे में एक क्वालीफाइड और रजिसटर्ड डॉक्टर बन चुका था अतः प्रेक्टिस के लिये मुरार में मयूर मार्कीट,ठाठी पुर, में एक दुकान ले कर ‘‘कायाकल्प’’के नाम से दवाखाना प्रारम्भ कर दिया। 1996-97 में डबरा के नागरिकों के विशेष अनुरोध पर डबरामें सराफा बाजार में एक दुकान लेकर सुबह के समय वहाँ बैठने लगा। उसी समय अखबार में खबर पढने केा मिली कि श्री राम गोपाल तिवारी ‘भावुक’ ने बाबा के जीवन पर एक पुस्तक लिखी है जिसका विमोचन बाई महाराज द्वारा किया गया है। मुझे बडी प्रसन्नता हुई। अपने एक मरीज से मैंने राम गोपालजी का पता पूछा तो उसने कहा कि आप चिन्ता न करें। मैं अभी जाकर राम गोपाल जी को बता दूंगा तथा वे आपसे स्वयं ही मिल लेंगे। दूसरे ही दिन भावुक जी मुझसे मिलने आगये और उन्होंने मुझे ‘‘आस्थाके चरण’’ नामकी पुस्तक भेंट की। पुस्तक देख कर मन प्रसन्न होगया। आज भी बाबा के जीवन पर यह एक मात्र प्रामाणिक दस्तावेज है। पुस्तक से प्रेरणा पाकर मुझे भी कुछ लिखने की प्रेरणा हुई और मैंने सोचा कि मैं भी बाबाके जीवन पर कुछ लिखूं । बाबाकी कृपासे अगले तीन ही दिन में मैंने 108 दोहे लिख कर भावुकजी को दिखाये। भावुकजी बोले इसे छापना है। मैंने कहा अभी नहीं अभी तो इसे पूरा करना है। पहिले आप उत्सुक जी का कार्य प्रकाशित करें । मेरा सहयोग आपके साथ रहेगा। इसके बाद ‘‘परमहंस संत गौरीशंकर चरितमाल’’ के नाम से उस पुस्तक का प्रकाशन मैंने ग्वालियर से ही किया। इसका विमोचन भी भावुकजी के निवास पर, जो डबरा में बाबाके सत्संगका प्रमुख स्थान है,परमपूज्य बाई महाराज के करकमलों से सम्पन्न हुआ। उत्सुकजी ने बाबा का ‘‘मस्तराम चालीसा’’ लिखा है। इसमें स्तुति इसीसे ली गई है बाबाके भक्त जिसका नित्य पाठ करते हैं। बाबाकी अहेतुकी कृपा का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है? बाबाकी दयादृष्टि का एक और उदाहरण देना चाहूँगा । जब इस पुस्तक की भूमिका लिखने बैठा तो मन में बिचार आया कि बाबाने भावुक जी को पेन दिया मुझे नहीं दिया । मैं अब भूमिका किससे लिखूं। कुछ देर बाद में लघुशंका के लिये बाहर निकला तो क्या देखता हूँ कि सड़क पर एक पायलट पैन पडा हुआ है। मैंने पेन उठा लिया और थेडी देर तक उसे लिये खडा रहा कि जिसका पेन गिरा है वह शायद ढूढ़ता हुआ आयेगा। आया तो कोई नहीं पर मन में विचार आया कि अभी थोडी देर पहिले तुमने बाबा से पैन मांगा था इसलिये यह किसी का नहीं है । यह तो तुम्हैं बाबा ने दियाहै। दुर्भाग्य से वह पैन अब मेरे पास नहीं है। बाबाका अर्न्तध्यान होनाः बख्शी बनकर आते हें जगत में राम के प्यारे ।

लीला है इनकी अद्भुत ,करतब हैं इनके न्यारे ।

बाबा 1976 तक बिलौआ ग्राम में अपने घर पर विराजमान रहे। जब कोई भक्त उन्हें आमन्त्रित करता तो उसकी रुचि को देखते हुए उसे कृतार्थ करने उसके निवास को अपनी चरणरज से पवित्र कर देते। दिनांक 1 जुलाई सन 1976 को कोई पुलिस के दरोगाजी अपने मकान का गृहप्रवेश कराने के लिये बाबा को मोटरसाइकिल पर बैठा कर ग्वालियर ले जाने के लिये रवाना हुए। बाबाजी वहीं से अर्न्तहित होगये। बाबाके बडे भाई श्रीयुत श्री लाल जी के अनुसार दरोगाजी का कहना है कि बाबा उद्घाटन के पूर्व ही वहाँसे कहीं चले गये थे। सन्तों की मौज के वारे में जानना तो क्या अनुमान लगाना भी किसी के लिये सम्भव नहीं है।

दोहाः कवीर हसना छोड दे रोने से कर प्रीत ।

विन रोये किमि पाइये प्रेम पियारा मीत।।

बाबाको जहाँ तक सम्भव हो सका ढूडा गया। बाबाके होने के तो अनेकों प्रमाण मिले किन्तु मिलने के नहीं । बाबा किसी को रेल्वे स्टेशन पर मिले तो किसी को बीच बाजार में लेकिन जब तक मिलनेबाला संभल पाता तब तक बाबा अदृश्य हो जाते । जब उनसे पूछा जाता कि बाबा आप कहाँ हो तो सबको एक ही उत्तर मिलता कि यह में नहीं बता सकता । अनेकों संतों और जानकारों ने उनके होने की पुष्टि की है परन्तु वे कहाँ है इसकी जानकारी किसी के पास नहीं है।

हमारे सामने एक तथ्य और भी उभरकर सामने आता है कि जिससे अनुमान किया जा सकता है कि बाबा हैं। जैसा कि पूज्य बाई महाराज ने अपने संस्मरण मे व्यक्त किया है, बाबा ने उन्हें आशीर्वाद दियाथा कि तुम सदा सौभाग्यवती रहोगी तथा आनन्द करोगी। सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जब तक बाई महाराज का सान्निध्य हमारे साथ है तब तक बाबाके होने के किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता ही क्या है!!

संत तो सदा-सदा के लिये ही होते हैं । उनका शरीर भले ही नश्वर हो,उनकी आत्मा,आत्मिक शक्ति,और कृपादृष्टि अक्षुण्य होती है। और, शरीर त्यागने के बाद भी क्या उन्हें कोई दिविगंत मानता है!! क्या आज तक किसी ने तुलसीदास को स्वर्गीय तुलसीदास या कवीर को स्वर्गीय कवीर दास के नाम से सम्वोधित किया है। बाबा के भक्त तो यही मानते हैं कि बाबा उनके ही द्वारा परेशान किये जाने के कारण यह सथान छोड कर चले गये हें और एक न एक दिन बाबा जरूर बापिस आयेंगे।

चाणक्यनीति में कहा गया है कि -

दर्शनध्यानसंस्पर्शेर्मत्सीकूर्मीच पक्षिणी ।

शिशुंपालयते नित्यंततः सज्जन संगतिहिः।।

दोहाः मच्छी पछिनी कच्छपी दरस परस कर ध्यान।,

शिशु पालै नित तैसेही सज्जन संग प्रमाण।।

जैसे मछली अण्डों को देख कर,कछुवी अण्डों का ध्यान करके तथा पच्छिणी स्पर्श के द्वारा अपने अण्डों को सेती हे तैसे ही सज्जन पुरुष अर्थात् संत भी अपने बच्चों की रक्षा करते हैं। यहाँ एक बात हमें अवश्य समझलेना चाहिये कि मछली,कछवी और पक्षिणी अपनी सीमाओं में रह कर एक ही एक प्रकार से अपने बच्चों की रक्षा करते हैं किन्तु संतों के लिये सीमाओं का कोई बंधन नहीं है । वे तो अपने भक्तों को तीनों प्रकारसे अपनी दया,कृपा दृष्टि और स्नेह से पालन करते हैं। और भी देखिये कि जीव-जन्तु अपने अण्डों बच्चों का तभी तक पालन करते हैं जब तक वे स्वयं सक्षम नहीं हो जाते। संतों के लिये उनके भक्त सदा शिशु के समान ही रहते हैं और वे सदाही उनका पालन पोशण और संरक्षण करते रहते हैं। उनकी सच्ची भक्ति करनेवाले शिष्य बाबाकी कृपा से कभी वंचित नहीं रह सकते हैं।

गुरु शिष्य का सम्वन्ध तो और भी गहराहै। शिष्य का निर्माता भी गुरु होताहै और उसकी कमियों का दूर करनेवाला भी गुरु-

गुरु कुम्हार घट शिष्य है गढ गढ काढे खोट ।

भीतर हाथ लगायके बाहर मारे चोट ।।

और गढा हुँआ यदि मैला होजाये तो-

दोहाः गुरु धोबी शिश कापडा साबुन सिरजन हार ।

सुरत शिला पर धोइये निकले मैल अपार ।।

संत बाबा रामदासजी महाराज,पटियाबाले-करेह धाम,ने एक बहुँत सुन्दर बात कही है-

बिछुडो होय तो फिर मिले रूठो हूँ मिलि जाय ।

मिलो रहे अरु ना मिले ता सन कहा बसाय ।।

बाबा हैं चिरन्जीवीः

संत कवीरदरस जी ने फरमाया है-

वैद मुआ रोगी मुआ मुआ सकल संसार ।

एक कवीरा ना मुआ जेहिके राम अधार।।


हमारे धर्म ग्रन्थों में आठ ऐसे महानुभाव हुँए हें जिन्हें चिरन्जीवी की संज्ञासे विभूशित किया गया है। प्रातःकाल इनका स्मरण करना अत्यन्त शुभ माना गया है-

अश्वत्थामा वर्लिव्यासो हनुमांश्च विभीशणः ।

कृपाःपरशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः ।।

अथैतान स्मरेनित्यं मार्कण्डेय चाश्टमम् ।

जीवेद् वर्ष शतमायुरपमृत्युविवर्जितः ।।

अर्थात् अश्वत्थामा,वलि,व्यास,हनुमान,विभीशण,कृपा,परशुराम तथा मार्कण्डेय ये आठ चिरंजीवी हें ।नित्य प्रातःकाल इनके स्मरण से सौे वर्ष की आयु प्राप्त होती हे तथा अपमश्त्यु नहीं होती।


इन आठों चिरजीवियों में सभी ऋषि नहीं हैं। किन्तु,भगवद्-प्रीति और ईश्वरीय विधान को पूर्ण करने में इनका महत्वपूर्ण योगदान अवश्य रहा हैं। हमारे बाबा महाराज का यह अवतरण तथा साधना उनकी जन्म जन्मान्तरों की तपस्या का ही परिणाम है। सम्भवतः यह उनका अंतिम चक्र्र ही होगा। यद्यपि में इसका अधिकारी तो नहीं हूँ तथापि अपनी भावना के अनुरूप उपरोक्त दूसरे श्लोक को निम्न प्रकार से लिखना चाहूँगा-

अथैतान स्मरेन्नित्यं मार्कण्डेय चाश्टमम् ।

नवमं गौरशिंकराय अपमृतयु विवर्जितः ।।

आज के युग में तथा कथित साधु-संत अपना नाम उजागार करने के लिये नये-नये पंथों और आडम्बरों का सहारा लेते हैं। बडी से बडी संख्यामें आश्रम खोलते हैं और लोगों को भ्रमित कर अपना शिष्य बनाते हैं। कवीर दासजी ने इस स्थिति को आज से चार सौ साल पहिले ही जान लिया था तभी तो उन्होंने लिखा है-


फूटी आँख विवके की लखे न संत असंत ।

जाके संग दस बीस हैं ताको नाम महन्त ।।

गुरूजी का दायित्व बहुँत बडा होता है। यदि गुरु शिष्य को धर्म पथ पर नहीं चला सकता तो दोनों ही पाप के भागी होते हें।

चाणक्यनीति तो यही कहती है- ।


श्राजाराश्ट्र्कृतंपापं राज्ञम्पापंपुरोहितः ।

भर्ताच स्त्रीकृतंपापं शिष्य पापंगुरुस्तथा।।

दोहाः प्रजा पाप नश्प भोगियत प्रोहित नृप को पाप ।

तिय पातक पति शिष्य को गुरु भोगत है आप ।।

बाबा महाराज ने न तो कोई चेला बनाया और न कोई पंथ ही चलाया। उनका राज तो उनके भक्तों के हृदय में चिर स्थाई है।

रामते अधिक राम कर दासा-

हमारे धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि मानव को भगवान की आराधना अवश्य काना चाहिये किन्तु यह भी कहा गया है कि भगवान से भी अधिक ऊूंचा स्थान भगवान के भक्त साधु-संतों का है। अतः,संतों की आराधना भी भगवान की ही आराधना निरूपित की गई है। पद्म पुराण का निम्न श्लोक

विचारणीय है-


आराधनानांसर्वेशां विश्णोराधानं परम् ।

तस्मात्परतरंदेवि तदीयानांसमर्चनम् ।।

अर्थात् समस्त आराधनाओं में विष्णु की आराधना श्रेष्ठ है। परन्तु हे देवि! उससे भी श्रेष्ठ उनके भक्तों का अर्चन हैं। आदिपुराण में तो यहाँ तक लिखा गया है कि जो मानव केवल मेरे ही भक्त हैं वे मेरे मान्य भक्त नहीं हैं किन्तु जो मेरे भक्तों अर्थात् संतों के भी भक्त हैं वे ही मेरे परम भक्त हैं-

मम भक्ता हिये पार्थ नमे भक्तास्तु मे मताः । मद्भक्तास्य तुये भक्ताते मे भक्तात्मा मताः।।

पद्म पुराण का में लेख है कि संतों को छोड भगवान की पूजा नहीं दम्भ मात्र है-अर्चयित्वातु गोविन्दमं तदीयान्नार्चयन्तिये ।

न ते विश्णोः प्रसादस्य भजनं दम्भिका मताः।।

अर्थात् जो भगवान का तो पूजन करते हैं किन्तु उनके भक्तों का नहीं ,वे प्रभु की कृपा के पात्र नहीं हो पाते। उनकी पूजा पूजा नहीं दम्भ है।

मानस में तो संत तुलसीदास जी ने तो रामजी के मुखसे ही कहला दिया है-

मो ते अधिक संत कर लेखे ।

अतः,बाबा महाराज की भक्ति,उनकी पूजा,उनकी आराधना भगवनकी ही आराधना है इसमें तनिक भी संशय नहीं हैं।

यही नहीं-

जो अपराध भक्त कर करही। राम रोश पावक सो जरही।।

क्यों कि‘‘संत तो सरल चित और जगत हित’’ होते है। वे तो रोश नहीं करेंगे किन्त राम के रोश से तो कैसे भी नहीं बच सकेगे।

अन्त में यही कहना चाहूँगा कि वे जन धन्य हैं जिन्हें बाबा महाराज के दर्शन,सत्संग औैर कृपा प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुँआ। वे ही नहीं वे भी धन्य है। जो उन सौभाग्यशाली भक्तों के दरशन करेंगे-

ते जन पुन्यपुन्ज हम लेखे । जे देखहिं देखहिं जिन्ह देखे।।

अन्त में मैं बाबा महाराज के चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम अर्पित कर अपनी लेखनी को विराम देता हूँ।

शून्यजी यह आलेख मुझे सोंपते हुये यह प्रसंग सुनाने लगे-‘‘डबरा से कुछ दूरी पर रजियार की पहाड़ी है। वहाँ सिद्ध बाबा का चबूतरा बना हुँआ है। मैं चीनोर रोड़ पर इन्जीनियर था। मैंने दयालदास जी घेाड़ेवाले इस स्थान पर निर्माण कार्य करा रहे थे। वे घेाड़ा साथ रखते थे ,इसलिये लोग उन्हें दयालदास जी घेाड़ेवाले के नाम से जानने लगे थे। वे उस स्थान पर बैठे-बैठे अपने भक्तों से कह रहे थे-‘‘छत के लिये काली गिटटी की जरूरत है तो सड़क वाले इन्जीनियर यहाँ आने की सोच तो रहे हैं।’’ इसके कुछ देर बाद ही मैं वहाँ पहुँच गया। उनके भक्त कहने लगे- ‘‘बाबा अभी आपकी ही याद कर रहे थे। ’’ मैंने कहा-‘‘ मेरी याद!’’ बाबा बोले-‘‘छत के लिये गिटटी की जरूरत पड़ रही है।’’ मैंने गिटटी की व्यवस्था करदी । मैं उनसे इतना प्रभावित हुआ कि मैंने उनसे गुरु दीक्षा ग्रहण की थी। वे जो कुछ कहते थे, वे सब बातें मस्तराम गौरीशंकर बाबा की तरह पूरी हो जातीं थी। सुना यह है कि दयालदास जी महाराज जिस जगह रहते थे वहाँ एक11वर्ष के बालक की मृत्यु होगई। लोगों ने उस बालक का सब इनके स्थान पर लाकर रक्ष्ख दिया तो बालक उठकर खड़ा होगया। जब महाराज लौटे तो इन्होंने वह जगह ही छोड़ दी और तब से रजियार आकर रहने लगे थे। इन्होंने यहाँ पर एक विशाल यज्ञ भी किया था जिसके भन्डारे में रास्ते रोक दिये गये थे।

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