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परमहंस मस्तराम गैारीशंकर बाबा - 1

परमहंस मस्तराम गैारीशंकर बाबा


रामगोपाल भावुक


सम्पर्क- कमलेश्वर कोलोनी (डबरा) भवभूतिनगर

जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110

मो0 9425715707, , 8770554097


मेरे परम आराध्य

परमहंस मस्तराम गैारीशंकर बाबा के श्री चरणों में

सादर समर्पित

रामगोपाल भावुक

2.6.20


भूमिका

मैं परमश्रद्धेय गुरूदेव स्वामी हरिओम तीर्थ जी के पास एक दो दिन में गुरूनिकेतन जाता रहता हूँ। यह गुरूनिकेतन स्वामी नारायण देव तीर्थजी महाराज की परम्परा का है। उस दिन जब मैं गुरूनिकेतन पहुँचा , नगर के प्रसिद्ध होमोपैथी चिकित्सक डा0 के0 के0 शार्मा वहाँ पहले से ही मौजूद थे। जैसे ही मैं उनके पास बैठा महाराज जी बोले-‘‘‘और तिवाड़ी जी क्या कर रहे हैं?’’

मैंने कहा-‘‘इन दिनों मैं परमहंस मस्तराम गैारीशंकर बाबा का जीवनचरित्र पुनः लिखने की सोच रहा हूँ। हमारे परमहंस मस्तराम गैारीशंकर सत्संग समिति के सदस्य इस बात पर जोर दे रहे हैं।

महाराज जी ने पूछा-‘‘ समिति में कौन-कौन हैं?’’

मैंने नाम गिनाये-‘‘अनन्तराम गुप्त,रामवली सिंह चन्देल,भवानीशंकर सैन,इ0जगदीश तिवारी एवं प्रेम नारायण विलैया आदि आते हैं।

वे बोले-‘‘बस चार पाँच लोग !’’

मैंने कहा-‘‘जी, बाबा की जिस पर कृपा है वही सत्संग में टिक पाता हैं। मैंने देखा है सत्संग में कुछ लोग बड़े उत्साह से आ तो जाते हैं किन्तु उनका आना एक दो वार से अधिक नहीं हो पाता। फिर उनका इधर आने का मन ही नहीं होता।’’

महाराज जी बोले-‘‘बाबा की इच्छा के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है। इस तरह की जो प्रेरणा हो रही है वह उनकी ही कृपा से ही, फिर इस काम में देर न करें। लिखना शुरूकर दीजिये।’’

मैंने पूछा-‘‘कैसे?’’

महाराज जी बोले-‘‘अबकी वार इसे पहले की तरह नहीं लिखे,, अब तो उपन्यास की शैली में उनका सम्पूर्ण जीवन वृत लिखिये।’’

यह कहकर गुरूदेव स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज बाबा की कथा सुनाने लगे- मुझे याद है जब मैं शुरू- शुरू में इस नगर में आया था , बाबा उन दिनों तहसील प्रगंण डबरा में तहसीलदार रायजादा के न्यायालय के समक्ष बाहर वरामदे में बैठे रहते थे’। मैं उनके सामने से जितनी वार गुजरता उतनी ही वार उन्हें प्रणाम करके निकलता था। वे बैठे-बैठे मस्ती में झूमते रहते थे। एक दिन मैं उनके लिये फल ले आया तो उन्होंने सहजता से ग्रहण कर लिये। जब यह दृश्य तहसीलदार रायजादा ने देखा तो मुझ से बोले-‘‘बाबा तो किसी से कोई चीज ग्रहण ही नहीं करते किन्तु आश्चर्य आपसे फल ग्रहण कर लिये। आप तो बड़े भाग्य वाले हैं। मैंने रायजादा जी से कहा-‘‘ यह उनकी कृपा है।’’ मुझ पर तो महान संन्तों की कृपा जीवन भर होती रही है।’’

महाराज जी की बात सुनकर डा0 के0 के0 शार्मा बोले-‘‘संत हरपल अपने इष्ट की उपासना में लीन रहते हैं। उनमें अपने पराये का भाव नहीं होता। संत के हृदय में तो समत्व का भाव रहता है। ऐसे संतों का सानिध्य पाकर व्यक्ति कृतार्थ हो जाता है। सुना है गौरी बाबा ऐसे ही संत रहे हैं। स्वामी जी जैसे कह रहे हैं ,उसी तरह से आपको बाबा का चरित्र लिखना शुरू कर देना चाहिये।’’ इस बात को गुनते हुये मैं घर लौट आया और उसी दिन इसका लेखन शुरू कर दिया।

आस्था के चरण

आस्थाओं- अनास्थाओं का द्वंद बचपन से ही चलना शुरू हो गया था। कभी आस्थायें जीती हैं तो कभी अनास्थायें । फिर भी द्वंद बन्द नहीं हुँआ है। साधु- सन्तों से कुछ पाने की इच्छा रही हैं जिससे आस्थायें जीत सकें।

मैं अपनी उस भ्रमात्मक वुद्धि का स्वागत करता हूँ जो आस्थाओं का मोह लेकर सत्य की तलाश में भटकती रही।

जन चर्चाओं में मस्तराम बाबा के बारे में कुछ बातें सुन पड़ी। मन दर्शन करने को व्याकुल हो उठा।

उन दिनों बाबा डबरा शहर में भेंसावाले तिवारी के मकान पर ठहरे हुये थे। सांझ का समय,अंधेरा सा होने लगा था। जब मैं उनके यहाँ पहुँचा मस्तराम बाबा खटिया पर विश्राम कर रहे थे। उस दिन की याद करके अन्नतराम गुप्त जी का यह श्लोक याद आने लगता है-

पीठासीनं विशालकायम्।

ब्राह्मण कुलोद्भवम्।।

नमामि गौरीशंकराय।

परमहंसम् अद्भुतम्।।

अर्थात् वे विशाल शरीर वाले कुर्सीपर बैठे हुये हैं। ब्राह्मण कुल में पैदा हुये हैं। ऐसे अदुभुत परमहंस गौरीशंकर बाबा जी को मेरा प्रणाम है।

उनका नाम है गैारीशंकर बाबा। किन्तु लोग उन्हें मस्तराम बाबा के नाम से जानते हैं। आस-पास बैठे उनके भक्त कुछ गुनने में लगे थे। मस्तराम महाराज सूने में इस तरह बतिया रहे थे जैसे कोई उनके सामने बैठा उनकी बातें सुन रहा हो। अन्ट-सन्ट की भाषा,भक्तों की समझ न आ रही थी। अनजान आदमी तो उन्हें पागल ही समझ लेगा। इस क्षेत्र के लोग उनके इस गूढ रहस्य को समझ गये हैं।

इसी समय एक आदमी बाबा के पास आया। उसने भी सभी की तरह उनके चरण छुये और बोला-‘‘जै सियाराम बब्बा।’’

यह सुनकर उनके मुँह से निकला-‘‘जै सियाराम।’’ ये शब्द उनके अन्तस् से इस तरह निकले जैसे किसी प्रियजन का नाम हमारे मुँह से निकलता है। वह व्यक्ति हाथ जोड़े किसी आदेश की प्रतिक्षा में उनके सामने खड़ा रहा। अब मस्तराम महाराज ने उसकी ओर देखे बिना चन्द्रमा की स्तुती का यह मन्त्र बोलना शुरू किया-

‘‘ रोहिणीश सुधामूर्तिः, सुधागात्रो सुधाशनः।

विशाम स्थान सम्भूतां, पीड़ां दहतु मे विधुः।।’’

‘‘चन्द्रमा के दर्शन करै, यह मन्त्र बेाला और लैाट गये। चन्द्रमा के दर्शन करै यह मन्त्र बेाला और लैाट गये। चन्द्रमा के दर्शन करै यह मन्त्र बेाला और लैाट गये।’’ बाबा का यही बात तीन बार कहना ,किसी की कुछ समझ नहीं आरहा था।यह सुनते हुये वह आदमी सब के बीच में बैठ चुका था। सभी ने प्रश्न भरी निगाह से उसकी ओर देखा तो वह स्वतः ही बोला-‘‘बाबा मुझे छमा करैं। मुझे दमा की बीमारी है। मैंने बाबा से निवेदन किया था । बाबा के इस मन्त्र से मुझे बहुँत फायदा है। मैं रोज यहाँ आने के लिये दुकान बढाकर चलता किन्तु रेल्वे क्र्रासिंग तक आते-आते चन्द्रमा दिखता, बाबा जो मन्त्र अभी-अभी बोल रहे थे मैं बोलता और यह सोचते हुये लौट जाता, आज देर हो गई कल आऊगा। इस तरह मैं तीन दिन से लौट रहा था।

यह सुनकर सभी अपने अन्दर कुछ सहेज कर रखने लगे। कुछ अनास्थायें निकाल फेंकने लगे। मेरे मन में भी द्वन्द छिड़़गया। जादू के खेल और वास्तविक तथ्यों में अन्तर करना आ ही गया है। यों आस्थाओं को विजय श्री मिल गई।

इस घटना के बाद तो जब मौका लगता मैं उनके दर्शन करने जाने लगा। हर बार आस्थायें पैदा करने वाले प्रसंग उनके भक्तों के संस्मरणों में सुन पड़ने लगे। आस्थाओं के पग स्थिर होने लगे।

मेरे पिता जी श्री घनसुन्दर तिवारी बाबा के अनन्य भक्त थे। हमें कुआ खुदाना था। प्रश्न खड़ा हुआ कुआ किससे गुनाया जाय। क्षेत्र भर के कुआ गुनने वालों के नाम गिनाये जाने लगे। पिताजी बोले-‘‘ मैं तो मस्तराम बाबा से ही अपना कुआ गुनाऊंगा।’’

बाबा को आमंत्रित करने मैं भी पिताजी के साथ गया था। उन दिनों बाबा हमारे जिले ग्वालियर के बिलउआ गाँव में थे। यह सुनकर मन मयूर सा नाचने लगा। इस बहाने बाबा की जन्म स्थली के दर्शन करने का मौका हाथ लग रहा था। कितना भाग्य शाली है वह स्थल जहाँ ऐसे महापुरुष ने जन्म लिया है। मेरे कौन से जन्म के पुण्य उदय हुये हैं जिसके कारण ऐसे तीर्थ के दर्शन का लाभ हो रहा है। इस तरह जाने क्या-क्या सोचते हुये बाबा के पास पहुँच गया। वे अपने भतीजे के घर ठहरे हुये थे। पौर में पलंग पड़ा था। जिस पर वे बैठे मस्ती में झूम रहे थे। अर्न्तमन स्वतः नमन के लिये झुक गया। सिर चरणों में रख दिया। मेरे मुँह से शब्द निकले-‘‘जय सियाराम बाब्बा।’’

उन्होंने आशीर्वाद दिया-‘‘जय.... सियाराम.....।’’

पिताजी ने डरते-डरते अपनी बात रखी-‘‘बाबा आप सब जानते है, गरीव आदमी हूँ। घर के सामने मेरे पास थोड़ी सी कृषि भूमि है उसमें कुआ खुदाना चाहता हूँ। इच्छा है कि आप उसमें कुआ गुन दें, बच्चे पल जायेंगे।’’

बात सुनकर वे उनकी ओर देखते रहे फिर ओगढ़ भाषा में बोले-‘‘ठीक है ब्याना तो दे।’’

पिताजी ने पाच का नोट उन्हें अर्पित कर दिया और चरण छू लिये। वही उनके भतीजे नरेन्द्र तिवारी बैठे थे। बाबा उनसे बोले-‘‘ नरेन्द्र मुहुर्त तो बता।’’

पं0नरेन्द तिवारी ने पंचाग निकाला। पन्ना उलट-पलटकर दिन और समय बाबा से निश्चित करा दिया। उसके बाद बाबा की ही अनुमति से वापस लौट आये।

बाबा को मुहुर्त से एक दिन पहले पिताजी लेकर आये थे। बाबा के आते ही घर का वातावरण बदल गया। घर बाबा का आश्रम बन गया। घर के प्रत्येक व्यक्ति की दिनचर्या बदल ही गई। उनके भक्त लोग दर्शन के लिये आने लगे।

चाहे कोई आये चाहे जाये,बाबा हर पल समाधि की अवस्था में दिखते। कोई उत्तर देना होता अथवा किसी से कुछ कहना होता तो ऐसे लगता जैसे समाधि में ही डुवे रह कर बोल रहे हैं। उनकी अन्ट-सन्ट की भाषा इस बात का प्रमाण थी। समाधि के अन्दर से निकले शब्द अस्त- व्यस्त होने से भक्तों को अर्थ लगाने में दिमाग पर जोर डालना पड़ता । फिर जो भाव उभरता उसे वह श्रध्दा-विश्वास से ग्रहण कर लेता। यों नियन्ता का खेल देख सभी आश्चर्य चकित होने लगे।

मैं तो आज भी उनकी उन बातों का अर्थ लगाने में लगा रहता हूँ।

दूसरे दिन की बात है। गाँव के लोग मुहुर्त से पहले इकत्रित होगये। मुहुर्त का समय हो गया। कुआ खोदने की पूरी तैयारी करली। बाबा समाधिस्त हो गये। बाबा के समाधि से उठने की सभी प्रतीक्षा करने लगे। मुहुर्त की बात बाबा से कैान कहे?उनसे किसी की निवेदन करने की हिम्मत ही नहीं पड़ रही थी। भीड़ में सन्नाटा पसरा था।सभी एक दूसरे का मुँह ताक रहे थे। मुहुर्त का समय निकल गया। कुछ लोग मेरे कान के पास आकर फुसफुसाये-‘‘बाबा से निवेदन तो कीजिये।’’मैं हतप्रभ सा बैठ था।बात सुनकर चेतना आगई। मैं उठा और बाबा के सामने हाथ जोड़कर खड़ा होगया। मेरे मुँह से शब्द निकले-‘‘बाबा मुहुर्त तो निकल गया!’’ यह सुनकर बाबा उठे घर से निकलकर सामने खेत में पहुँच गये। एक खेत पार करके दूसरे खेत में जा पहुँच । उसमें भी काफी अन्दर तक चले । एक स्थान पर जाकर रुक गये और बोले-‘‘इस जगह पर खूटा गाड़ दो।’’

पिताजी खूटा लिये थे,उन्होंने उस स्थान पर खूटा गाड़ दिया।

बाबा बोले-‘‘इसे यहीं ठोकते जाना।’’ यह कहकर बाबा ने पाँच तस्सल मिट्टी स्वयं खेादकर डाली। यह देखकर हमारा उत्साह बढ़ गया। हम भी मिट्टी खेादकर बाबा की तरह डालने लगे। कुआ खुदना शुरू होगया। बाबा पाँच छह दिन तक घर रहे। अन्य लोगों की तरह मैंने कब्बड़ी के

खेल में टूटे अपने हाथ के बारे में बाबा से पूछा-‘‘बाबा मेरा टूटा हाथ ठीक हो जाये।’’

यह सुनकर वे बोले-‘‘इसके लिये तुम्हें दादर जाना पड़ेगा।’’

उनकी यह बात सुनकर मैं चुप रह गया था। इस बात का आज भी अर्थ निकालने में ला रहता हूँ। कभी सोचता- इस का इलाज कराने दादर‘मुम्वई’ जाना पड़ेगा। वहाँ ही इसका इलाज सम्भव है। यह सोचते-सोचते वूढा हो गया। आज तक दादर नहीं जा पाया। अब सोचता हूँ क्या पता अगला जन्म ही मेरा दादर में हो। उस नये जन्म में वहाँ मेरा हाथ ठीक हो ही जायेगा। यों दादर जाने का यह अर्थ भी निकलता रहता हूँ। सच क्या है यह तो बाबा ही जानें।

कुआ खेदने का कार्य मजदूर करने लगे। बाबा की सेवा का दाइत्व पिता जी ने अपने पास रखा। दिन-रात पिताजी बाबा के पास बैठे रहते। उनकी ओर टकटकी लगाये देखते रहते। बाबा चाहे तख्त पर बैठे हो, चाहे लेटे हो वे हर पल समाधि में रहते। कभी-कभी वे रात भर बैठे और कभी लेटे रहते ।

रात के दो बजे का समय रहा होगा। मेरी नींद उचट गई। मेरे चित्त में आया कि देखू तो बाबा क्य कर रहे हैं? मैं पौर में पहुँच गया। बाबा समाधि में लीन थे। पिताजी उनके पास बैठे आन्नद में कुछ पी रहे थे। मैं ठिठक गया। पिताजी समझ गये मैं क्यों ठिठका हूँ। उत्तर सुनने मैंने अपने कान पिताजी के पास कर दिये जिससे बाबा को साधना में व्यवधान न हो। पिताजी धीरे से फुसफुसाये-‘‘मैंने तो बाबा के मूत्र का प्रसाद ग्रहण कर लिया।’’यह सुनकर में अपने कमरे मैं लौट आया।

उस दिन से पिताजी की जीवनचर्या ही बदल गई थी। दिन भर की मानसिक पूजा का क्र्र्र्र्रम शुरू हो गया था। पिताजी की ये बातें मैं भूल नहीं पाया हूँ। वे कहा करते थे कि बाबा को उन्होंने बाजार में पहली वार देखा था ,उस समय वे ताडाधींगा- ताडाधींगा कहते हुये घूम रहे थे। उस समय इन्हें वे पागल ही लगे थे। उन्हीं की कृपा से पिताजी का दृष्टि कोंण बदला और वे उनके दर्शन करने के लिये जाने लगे थे। इसके बाद तो वे जब भी डबरा जाते, बाबा के दर्शन किये बिना न लौटते। एक वार बाबा ने इन्हें कुछ रुपये दिये और कहा-‘‘ इन्हें जेब में रख ले और बटन लगा ले।’’ इन्होंने बटन तो लगा लिये किन्तु वे रुपये खर्च कर दिये। जिसका उन्हें जीवन भर पश्चाताप रहा।

लिखने और छपने की लालसा से मैंने अपनी रचनायें आशीर्वाद पाने बाबा के सामने रख दीं। वे उन्हें बिना पढे उलट-पलट कर देखते हुये बोले-‘‘हाँ...ठीक हैं,अश्लील नहीं हैं।’’

यह कहकर उन्होंने उन पर अपने हस्ताक्षर कर दिये और बोले-‘‘देर लगेगी सब छप जायेंगी।’’

मैंने उनकी अश्लीलता वाली बात गाँठ बाँध ली। उस दिन से लिखते समय यह बात ध्यान में रहती है कहीं किसी तरह की लेखन में अश्लीलता न आजाये। यह बात वेद मन्त्र की तरह चित्त में बैठ गई है। इसी कारण मेरी रचनओं में अश्लीलता नाम की कोई बात नहीं मिलेगी। आज इस के लिखते समय तक ग्यारहवी कृति दिल्ली के विश्व विजय प्रकाशन से प्रकाशित हो चुकी है। आज की तिथि में बाबा की कृपा से छपने की कोई समस्या नहीं है।

उन दिनों मैं अपने गाँव में ही शिक्षक था। शाम चार बजे के बाद विद्यालय से लैट रहा था। घर के दरवाजे पर खटिया पड़ी थी ,उस पर बाबा विराजमान थे। मुझे आते देख उन्होंने तकिया उठाया। मैं समझ गया बाबा मुझे कुछ देना चाहते हैं। कहीं पैसे-वैसे दे रहे हो। सन्तों से क्यों चाहिये पैसे। उनकी कृपा के बदले हमें ही उनकी सेवा करना चाहिये। यह सोचकर मैं वहाँ रूका नहीं,घर के अन्दर पहुँच गया। अन्दर जाकर रेडियो खेाल लिया। फिल्मी गाने सुनने लगा। एक मिनट बाद ही भूल गया कि मुझे बाबा के पास नहीं जाना चाहिये। मैंने अपना मन पसन्द गाना न सुनकर रेडियो बन्द कर दिया।....और बाबा के पास जा बैठा। बैठते ही बाबा मुझे दस का नोट देने लगे।बोले-‘‘ले।’’

मैंने निवेदन किया-‘‘इनका मैं क्या करूगा?’’

वे बोले -‘‘रख ले,कनागतों में काम आयेंगे।’’

मुझे उनकी वह कृपा प्राप्त करना पड़ी।उस दिन से कभी मेरी जेब खाली नहीं रही। दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजन के समय उन्हीं की पूजा की जाती है। किन्तु जब भी कनागत यानी पितृपक्ष आते हैं। मैं सोचने लगता हूँ-बाबा ने कनागतों में इनके खर्च की बात कही थी।

यों सोचते-सोचते लम्बा समय गुजर गया। पिताजी के साथ बद्रीनाथ यात्रा का संयोग बन गया। यमनोत्री,गंगोत्री,केदारनाथ की यात्रा से निवृत होकर जब हम बद्रीनाथ पहुँचे , कनागत पक्ष शुरू होगया। यह बिचित्र संयोग ही था।

कनागत पक्ष में ब्रह्मकपाल पर पिन्डदान का विशेष महत्व है। पिताजी के द्वारा पिन्डदान का कार्यक्रम कराया। जब इस कार्य से निवृत हुये,बाबा के कनागतों की बात याद हो आई। इतने समय पूर्व बाबा ने जो बात कही थी वह पूरी हो गई।

बाबा घर में ठहरे थे। उस रात पुत्र राजेन्द्र को उल्टियाँ होने लगीं। रात्री में बाबा को कष्ट देना उचित नहीं लगा। कैसे भी रात काटी। सुवह ही मन ही मन इकलोते पुत्र की जिन्दगी का सन्देह लिये बाबा के पास मैं अर्ज लेकर पहुँच गया-‘‘बाबा,राजेन्द्र को रातभर उल्टियाँ होती रही हैं।’’बाबा मेरे अन्दर का भाव जान गये,बोले-‘‘इसको कुछ नहीं होगा। पेट खराब है इसे त्रिफला का चूर्ण खिलाते रहें। सब ठीक रहेगा।’’ आज उस की उम्र तेतालीस की हो रही है,बस पेट खराब रहता है।

जब मस्तराम बाबा घर से जाने लगे तो पैदल ही चल दिये। गाँव से बस स्टेन्ड दो किलो मीटर दूर है। मैंने कहा, बाबा बस स्टेन्ड पर पहुँचते-पहुँचते बस निकल जायेगी। वे बोले- ‘‘नहीं, बस तो 7 -15 पर आयेगी।’’ पिताजी बैल गाड़ी ले आये। वे उस में बैठ गये। गाड़ी बस स्टेन्ड से दूर थी। सड़क पर बस आती दिखी। बस ड्रायवर ने बाबा को देख लिया होगा। उसने बस रोक दी। पाँच सात मिनिट में हम बस तक पहुँच गये। बाबा बस में बैठ गये। मैंने ड्रायवर से समय पूछा। वह बोला-‘‘7-15 ।’’ यह सुनकर तो आस्था ने मेरे अन्तस में एक और मजबूत कदम रख दिया।

जब तक बाबा हमारे यहाँ रहे, हम रोज शाम को बाबा की आरती उतारते थे। बाबा हमसे आरती में ‘‘‘ऊ जय जगदीश हरे’’ की आरती कहलवाते रहे। आज अपने मन्दिर की आरती करते समय रोज उन दिनों की याद आ जाती है.। अब तो घर में रोज नरेन्द्र उत्सुक द्वारा लिखित बाबा की यह आरती की जाती है-आरती कीजै बृह्म अंश की। गौरीशंकर परमहंस की।।

जाके बल से संकट नासै।उऋण न जिनसे होती सासैं।।

चमत्कार अनगिन दिखलाये। सुमिरा जिसने दर्शन पाये।।

भेद भाव की खाई मिटाई। सत्य शांति प्रभु राम दुहाई।।

राम कृष्ण शिवशंकर गौरी। चादर जिनकी निर्मल केारी।।

आरती जो बाबा की गावै।‘उत्सुक’परम शंाति मन पावै।।

पहली वार बाबा की आरती सुनाते समय उत्सुक जी बहुँत भाव विभोर हो उठे और बोले-‘‘मैं 1966 ई0 में ब्लाक डबरा में लेखपाल था। उन दिनों गौरी बाबा तहसील में खजाने के पास बैठे रहते थे। एक दिन वहीं एक डन्डी से मुझे मारते हुये बोले-‘‘चल उठ,इधर चल।’’ मुझे वे मारते हुये नायव तहसीलदार साहब के चेम्बर में ले आये और उनकी खाली पड़ी कुर्सी की ओर इसारा करके बोले-‘‘बैठ इसपर बैठ।’’वहाँ खड़े चपरासी ने कहा -‘‘बाबा कह रहे हैं तो बैठ जाओ। अधिकारी की कुर्सीपर बैठना न्याय संगत नहीं लगा और मैं नहीं बैठा। इस घटना के बाद तीसरे दिन मुझे फूड इन्सपेक्टर पद पर काम करने का आदेश मिल गया । काश! मैं बाबा का आदेश मान लेता तो मैं स्थाई फूड इन्सपेक्टर बन जाता। यह कहकर वे यह रचना गाकर सुनाने लगे-

चल चित्र जैसा हृदय को मोह लेती हैं।

आस्थायें हृदय को झकझोर देती हैं।।

मोह कितने मन लिये हैं गौरीशंकर आपने।

ठगे कितने रह गये मन देख अचरज सामने।।

आश्चर्य ही आश्चर्य हैं कितने गिनायें आपको।

बिपत्ति जब-जब भी पड़ी है,हाथ आये थामने।।

आकांक्षायें तब मिलन की सघन होती हैं।

विरह में जब रातभर यह आूख रोती है।।

चरण जब-जब जहाँ भी उनके पड़े अचरज हुआ।

आज तक लोगों के दिल में रम रही उनकी दुआ।।

गंध की परछाई जिनकी चल रही है साथ में।

इस धरा पर संत ऐसा मस्त मौला भी हुँआ।।

हर जगह चर्चायें जिनकी रोज होती हैं।

पौध जो विश्वास के नित रोज बोती है।।

सहज समझ पाना कठिन था

ऐसा वह व्यक्तित्व थे।

भूलना जिनकेा कठिन है

ऐसा वह अपनत्व थे।।

कहानियाँ वे हर जुवा पर

अगड़ाई लेती हैं।

हर ह्रदय को आस्थायें

जोड़ लेतीं हैं।।

बाबा का जीवन चरित्र

मस्तराम बाबा का पूरा नाम पंडित गैारीशंकर तिवारी और उनकी पत्नी का नाम पार्वती वाई है। बाबा के पिताजी पं0 जगन्नाथ तिवारी तथा पितामाह मौजीराम जी तिवारी ग्राम बिलौआ परगना डबरा(भवभूति नगर) जिला ग्वालियर मध्य प्रदेश के निवासी हैं।बाबा की माता जी को लोग दुभई वाली काकी के नाम से जानते थे। इनके बड़े भ्राता का नाम बद्री प्रसाद तिवारी है। इनके मझले भ्राता पं0 श्रीलाल तिवारी जो शिक्षक रहे। बाबा के तीसरे भ्राता पं0 रघुवर दयाल तिवारी तथा बाबा चारों भाइयों में सबसे छोटे थे। इनके मझले भ्राता पं0 श्रीलाल जी अध्ययन करने मथुरा गये तो उन्होंने इन्हें भी वहाँ अध्ययन करने के लिये बुला लिया।

मथुरा रहकर कुछ ही दिनों में इन्होंने लघु सिध्दान्त कौमदी का अघ्योपान्त अध्ययनकर डाला। इसके साथ ही अपनी घुम्मकड प्रकृति के कारण इन्होंने सम्पूर्ण विन्द्रावन क्षेत्र का भ्रमण भी कर डाला। यह बात इनके भ्राता जी को अच्छी नहीं लगी। उन्होंने इस बात की सूचना घर भेज दी। इनके पिताजी ने इस बात पर इन्हें घर वापस बुला लिया।

गाँव लौटकर ये खेती के कार्य तें मदद करने लगे। इन्हीं दिनों इनका विवाह पार्वती वाई के साथ होगया। एक दिन इन्होंने अपना गाँव ही छोड़ दिया और ग्वालियर जाकर सेना में भरती हो गये। वहाँ इन्होंने विधिवत सेना का प्रशिक्षण प्राप्त किया। इन्हें प्रशिक्षण के बाद सन् 1942 में कश्मीर के वार्डर पर भेज दिया गया। वहाँ इन्होंने सेना के सहयोग से सवा मन का हवन का कार्यक्रम कराया। ये अपनी नौकरी भी सजगता से करने लगे। लड़ाई के मोर्चे पर भेज दिया गया। वहाँ इनके पैर में गोली लगी। डाक्टर ने गोली तो निकल

.03++दी लेकिन उन्हें चैकिंग में पता चला कि इन्हें तो पीनस का रोग भी है। अतः इन्हें पूना के लिये रेफर कर दिया। कान के बगल से ओपरेशन करके उस रोग का उपचार कर दिया। इन्होंने सेना की नौकरी छोड़ दी। घर लौट आये। मैके से पत्नी को बुला लिया।

कुछ ही दिनों में ये उस सामान्य जीवन से भी उक्ता गये। ये पुनः ग्वालियर चले गये। वहाँ जाकर ग्वालियर पुलिस में भरती हो गये। वहाँ से इन्हें करैरा के लिये भेज दिया। नौकरी पर पत्नी को साथ रखते थे। करैरा से इन्हें नरवर जिला शिवपुरी में पदस्थ किया गया।

ये श्रीम्द भगवत गीता का पाठ हमेशा खड़े होकर ही किया करते थे। जब तक गीता के अठारह अध्याय का पूरा पाठ नहीं कर लेते,बोलते नहीं थे। इनके पुलिस चौकी क्षेत्र में कहीं रामचरित मानस का पाठ हुँआ तो ये वहीं जम गये। मानस का पाठ करने एक बार बैठ गये फिर उठाये न उठते। लोग न उठाये तो रातभर एक बैठक बैठे तन्मय होकर पाठ करते रहें।

प्रा्ररब्ध कब कहाँ कैसे मिलते हैं? यह महज संयोग ही होता है। जन्म-जन्मान्तर के प्रारब्ध संयोग बनकर गुरूदेव के रूप में उपस्थित हो जाते हैं।

इसे हम यों कहें , सत्गुरू को भी सत् शिष्य की तलास रहती है। एक दिन की बात है कस्वे के किसी मन्दिर पर बाबा अपने पूजा पाठ में व्यस्त थे। पता नहीं कहाँ से अचानक परमहंस योगी आदित्य नारायण वहाँ से गुजरे। पिछले जन्म से बिछुड़े सत् शिष्य को देखकर दया उमड़ आई। गुरूदेव उस मन्दिर मे इनके पास पहुँच गये। उस वक्त ये साधना में लवलीन थे। गुरूदेव को सामने पाकर इनकी पिछले जन्म की स्मृति जाग गई। गुरु-शिष्य ने एक दूसरे को पहचान लिया। दोनों की दृष्टि टकराई और जन्म-जन्मान्तर के लिये इनकी सहज समाधि लग गई। गुरुदेव अपना कार्य करके अदृश्य होगये। उसी दिन से ये प्र्रभू प्रेम में पागल बने घूम रहे हैं।

संयोग कहें, उसी दिन थाने में अनायास किसी अधिकारी का दौरा हो गया। ये लम्वी साधना के बाद उठे। इन्हें अपनी नौकरी की याद आई। ये संकोच करते थाने पहुँचे। इन्हें अधिकारी के आने का कोई पता नहीं था। जाकर हस्ताक्षर करने रजिस्टर उठाया। देखा,इनके हस्ताक्षर पूर्व से ही हैं। साथ में अधिकारी की चैकिग के साइन भी दिखे। वड़ी देर तक उस पन्ने का घूरते रहे। इनका एक साथी बोला-‘‘एस0पी0 साहव को यहाँ सब कुछ ठीक- ठाक लगा। इतना डाटने-फटकारने वाला अफसर आपके कारण एक शब्द भी नहीं बोला आश्चर्य !’’

ये बोले-‘‘मैं यहाँ कहाँ?’’ यह सुनकर इनके सभी साथी खिल-खिलाकर हँस पड़े। ये समझ गये-प्रभु ने मेरी नौकरी बचाने के लिये इतना कष्ट सहा। मेरा रुप धारण करके निरीक्षण कराया और मेरे हस्ताक्षर करना पड़े।

इन्होंने सामने पड़ी पंजी से एक पन्ना फाड़ा और उसपर नौकरी से अपना त्याग पत्र लिख दिया और सभी से राम- राम करके घर लौट आये। आकर दरवाजे पर पालथी मारकर बैठ गये। जो भी वहाँ से निकलता उसे अपने पास बुलाते और घर का कोई भी सामान जो उसकी पसन्द का हो उसे उठाने की कहते ।जब वह किसी सामान को उठा लेता तो उससे कहते -‘‘जा इसे अपने घर लेजा।’’यदि वह उसे ले जाने में संकोच करता तो वे उसे डांट कर कहते-‘‘जा इसे अपने घर ले जा।’’उस जमाने में किस की मजाल थी कि कोई किसी पुलिस दीवान की बात न मानता। यों धर का सारा सामान बाँट दिया। जब घर पूरी तरह खाली हो गया तो वो भी वहाँ से चल दिये।

उन दिनों बाबा की पत्नी अपने मैके सिघारन ग्राम गईं हुई थीं। बाबा की एक भतीजी नरवर में ही व्याही थी। जिसका कन्यादान बाबा ने ही किया था। उसने इस बात की खबर अपनी काकी जी के पास ग्राम सिघारन भेज दी। खबर पाकर पार्वती वाई शीघ्र् ही नरवर लौट आईं। जब लोगों को यह पता चला कि गौरीशंकर दीवान जी की पत्नी आ गईं हैं तो लोगों ने उनका सामान पार्वती वाई के मना करने पर भी वापस कर दिया।

पार्वती वाई सब कुछ पहले से ही समझ रहीं थीं। बाबा उन्हें समझा कर कहा करते थे-‘‘देखना, किसी दिन सब छोड़-छोड़कर कहीं चला जाऊंगा।’ ’आज उनकी सब बातें साफ-साफ समझ में आ गयीं।

घर के सभी लोग उनकी खोज -खबर लेने का प्रयास करते रहे। उनका कहीं कोई पता नहीं चला किन्तु वे सभी आशा की डोर से बूधे सोचते रहे कि वे अवश्य आयेंगे।

यों उनकेा छह माह का समय व्यतीत हो गया। एक दिन बद्रीनारायण के पण्डा का इनके घर के पते पर पत्र आया कि ये साधू बनकर यहाँ आये हैं। पत्र पढकर सभी लोग इनकी स्थिति से अवगत हो गये।

कुछ दिनों के बाद इनका इधर चक्कर लगा। ये बिलौआ ग्राम से कुछ दूर बने एक मन्दिर पर आकर ठहर गये। लोगों को इनके आने की खबर लगी। वे सभी लोग इनके दर्शन करने उस मन्दिर पर जा पहुँचे। सभी ने अपना विवके और बुद्धि लगाकर इन्हें समझाया। मुश्किल से इन्हें बिलौआ ग्राम के एक मन्दिर पर लाया गया। वहाँ से इन्हें घर लाने का प्रयास किया गया। वे बोले-‘‘यदि मैं घर लौट कर गया तो पागल हो जाऊंगा।’’

इनके बड़े भाई बद्री प्रसाद ने इन्हें समझाया-‘‘अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है?कुछ दिन संसार में और रह लो,सन्यास तो लोग उम्र के चौथे पड़ाव पर आकर लेते थे। यह तो असमय ही तुमने सन्यास की बात सोची है जो ठीक नहीं है। समय पर सभी बातें शोभा देती हैं। युवा पत्नी को छोड़कर भाग रहे हो फिर तुमने व्याह ही क्यों किया।’’

बाबा बोले-‘‘मैंने कहा ना,अब यदि मैं संसार में गया तो पागल हो जाऊूगा।’’

उस मन्दिर में उन दिनों रावल पिन्ड़ी के एक सन्यासी पहले से ही ठहरे हुये थे। वे भी इनसे बहुँत प्रभावित हुये। एक दिन घर के लोगों के परामर्श से इनकी पत्नी पार्वती वाई ने मन्दिर में जाकर उन रावल पिन्ड़ी के सन्यासी जी से इन्हें समझाने के लिये निवेदन किया-‘‘स्वामी जी मैं चाहती हूँ आप इन्हें समझायें , जिससे ये घर लौट आयें । मैं समझ रही हूँ ये आपकी बात नहीं टालेंगे।’’

स्वामी जी बोले-‘‘बेटी, मुझे इनका लौटना कठिन लग रहा हैं,किन्तु मैं कहकर देख लेता हूँ।’’

यह कहकर स्वामी जी ने इन्हें आवाज दी-‘‘अरे गौरी बाबा हमारी तो सुनिये।’’उनकी आवाज सुनकर वे उनके पास आ गये। पास आकर एक पटिया पर बैठ गये। स्वामी जी ने इन्हें समझाया-‘‘ये बेटी, आपसे निवेदन करने आई हैं। आप मेरा कहना मान लें और घर लौट जायें।’’

बाबा सब कुछ पहले से ही समझ रहे थे। वे गम्भीर होकर बोले-‘‘स्वामी जी,मृत्यु के बाद कोई लौट कर आता है!आप आज्ञा करें?’’

स्वामी जी गम्भीर हो गये और पार्वती वाई के चेहरे की ओर उत्तर के लिये देखते हुये बोले-‘‘बेटी, इन्हें क्या उत्तर दें?’’

पार्वती वाई समझ गई ,उत्तर उन्हें हीं देना हैं। यह सोचकर बोलीं-‘‘मैं इन्हें अच्छी तरह जानती हूँ। इनसे बातों में मैं कभी नहीं जीत पाई। इन्हें जो अच्छा लगेगा ,ये वही करेंगे। अब बोलो मैं अपनी पहाड़ सी जिन्दगी कैसे काटू?’’

प्रश्न सुनकर गौरी बाबा गम्भीर होकर बोले-‘‘तुम तो अपने इष्ट के भजन में लीन होजाओ। तुम सदा सुहागन रहोगी। आन्नद करोगी।’’यह सुनकर वे उनके चरण छॅकर चलीं आईं थीं ।

पार्वती वाई इन्हें लिये बिना जब घर पहुँचीं । बड़े भाई बद्री प्रसाद को इन पर वहुत क्रोध आया। उन्होंने इन्हें पागल घोषित कर दिया। इसके बाद इन्हें रस्सी से बाँध कर रख गया। घर के लोग सोच रहे थे-ये किसी भी तरह वापस लैाट आयें। जब ये किसी तरह नहीं माने तो इन्हें छोड़ दिया गया। अब तो ये मरघट की राख अपने शरीर से लपेट कर गाँव की गलियों में घूमने लगे। गाँव के सभी लोग इन्हें पागल समझने लगे। कभी-कभी बाबा आगे-आगे और गाँव के छोटे-छोटे बच्चे हो- हो के स्वर में चिल्लाते हुये पीछे-पीछे दौड़ते हुये दिखाई देते। यो बाबा गाँव भर में पागल के रूप में चर्चा का विषय बन गये। घर के लोगों के लिये यह चिन्ता का विषय बन गया।

उन्हीं दिनों बाबा के साले प्रभूदयाल चौधरी उर्फ बाबा प्रियदास को इनके आने की खबर लगी। वे सिघारन ग्राम से चलकर बिलौआ ग्राम में आये। बाबा की स्थिति देखकर समझ गये, ये तो पागल होगये हैं। घर के लोगों के साथ इन्होंने भी बाबा को रस्सी से बाँधने में मदद की। परमहंस बाबा लीला दिखाने के लिये सहजता से बँध गये। हसते-मुस्कराते बँधन में बँधेउनके पीछे-पीछे चल दिये। ये लोग ग्वालियर ले जाकर इन्हें वहाँ के पागल खाने में भर्र्ती करा आये। वहाँ पागलखाने के प्रसिद्ध डॅाक्टर काले का नाम कौन नहीं जानता? डॅाक्टर काले पहली मुलाकात में ही समझ गये कि ये पागल-बागल कुछ नहीं हैं। ये तो कोई महान सन्त हैं जो संसार के सामने पागल का अभिनय कर रहे हैं। सात-आठ दिन बाद प्रभूदयाल चौधरी इन्हें देखने पागलखाने गये। वहाँ जाकर डॅाक्टर काले से मिले। वे इन्हें देखते ही बोले-‘‘आप लोग यहाँ ये किसे ले आये। अरे ये जिस पागल के थप्पड़ मार देते हैं वही ठीक हो जाता है! भैया इन्हें यहाँ से ले जाओ नहीं तो मैं पागल हो जाऊूगा।’’यह कहकर उन्होंने बाबाको इनके साथ घर भेज दिया।

कुछ दिन ठीक रहने के बाद बाबा वहाँ से भी चल दिये। ग्वालियर जिले के पंचमहल क्षेत्र का कोई गाँव ऐसा नहीं हैं जहाँ बाबा नहीं गये हों। वे चाहते तो अपने लिये कहीं भी आश्रम बना सकते थे। इनका देशभर में कहीं कोई आश्रम नहीं मिलेगा। रमता जोगी बहता पानी वाली कहावत को चरितार्थ करने में लगे रहे। इस क्षेत्र के हर गाँव में बाबा के भक्त बिखरे हुये हैं जो इनके गुणगान करने में अघाते नहीं हैं। जब भी कोई बाबा का भक्त मिल जाता है उनके चमत्कारों का वर्णन करने लगता है ,उस समय लगता है-बाबा रूप धारण करके सामने हैं। यों उस परम सत्ता से रूबरू होने का सौभग्य मिलता रहता है।

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