शोलागढ़ @ 34 किलोमीटर - 10 Kumar Rahman द्वारा जासूसी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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शोलागढ़ @ 34 किलोमीटर - 10

झील के किनारे


सार्जेंट सलीम फटी-फटी आंखों से शेयाली को देखे जा रहा था।

“तुम जिंदा हो!” सार्जेंट सलीम के मुंह से बेसाख्ता निकला।

“मैं क्यों मरने लगी भला!” शेयाली पलकें झपका-झपका कर उसे देखे जा रही थी।

“तुम यहां कैसे पहुंचीं?” सलीम ने पूछा।

“उसने मुझे तुम्हारे पास भेजा है। वह कह रहा था मेरी-तुम्हारी शादी होनी है।” शेयाली ने मुस्कुराते हुए कहा।

“लेकिन अभी तक तो मेरे अब्बा की भी शादी नहीं हुई।” सार्जेंट सलीम ने घबराए हुए से अंदाज में कहा।

“यह अब्बा क्या होता है।”

“अम्मी के शौहर को उनके बच्चे अब्बा कह कर बुलाते हैं।” सार्जेंट सलीम ने पूरी गंभीरता से जवाब दिया।

“तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आ रही है।” शेयाली ने कहा।

“मैंने पूछा था कि तुम जंगल में कैसे पहुंच गईं।” सलीम ने पूछा।

“मुझे नहीं पता।”

“मतलब?”

“मतलब मुझे सचमुच नहीं पता कि मैं यहां कैसे पहुंची हूं।”

“तुम पानी में डूब गई थीं।” सलीम ने उसे याद दिलाने की कोशिश की।

“कब हुआ था यह?” शेयाली ने आश्चर्य से पूछा।

“लगता है याददाश्त चली गई।” सलीम धीरे से बुदबुदाया।

शेयाली सलीम को अभी भी बड़े ध्यान से देखे जा रही थी। जैसे उसकी बातें समझने की कोशिश कर रही हो।

सलीम उठ कर खड़ा हो गया और उसे ध्यान से देखने लगा। शेयाली भी उठ कर खड़ी हो गई। शेयाली ने भी छाती और कमर पर किसी जानवर की खाल बांध रखी थी। उसके बदन का ज्यादातर हिस्सा खुला हुआ था।

“आओ मेरे साथ!” सलीम ने उससे कहा। उसे झोपड़ी में गर्मी और घुटन सी महसूस हो रही थी।

इसके बाद दोनों उस झोपड़ी से बाहर आ गए। उन दोनों को देखते ही बाकी जंगली उनके चारों तरफ घेरा बना कर नाचने लगे। वह कुछ गा भी रहे थे, लेकिन सलीम और शेयाली के कुछ भी समझ में नहीं आया। इन सबके बीच कमर पर खाल लपेटे सलीम भी जंगली ही नजर आ रहा था।

जल्द ही सार्जेंट सलीम को इस नाच-गाने से कोफ्त होने लगी। उसके कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह उन्हें कैसे रोके। अचानक वह दोनों हाथों को ऊपर करके चिल्लाया, “बास!”

उन जंगलियों को जाने क्या समझ में आया कि वह सभी रुक गए। सलीम ने उन्हें हाथ के इशारे से दूर जाने को कहा। शायद वह उसकी बात समझ गए थे और फिर सभी अपने-अपने काम में लग गए। महिलाएं दोनों को देख कर हंस रही थीं।

सार्जेंट सलीम शेयाली को लेकर झील की तरफ चल दिया। कुछ देर बाद दोनों झील के किनारे पहुंच गए। शाम ढल रही थी। यहां का मंज़र बहुत खूबसूरत था। झील के किनारे ऊंचे-ऊंचे पेड़ लगे हुए थे। उनकी छाया पानी में बहुत दिलफरेब लग रही थी। झील में जलीय पक्षी बैठे हुए थे। उन्हें देखते ही कई पक्षी फड़फड़ाकर उड़ गए।

वह दोनों एक पत्थर पर जा कर बैठ गए।

“तुम्हारा नाम क्या है?”

“मुझे याद नहीं आ रहा है।”

“तुम्हारा नाम शेयाली है।” सलीम ने उसे बताया।

“तुम्हें कैसे पता?”

“क्योंकि मैं तुम्हें पहले से जानता हूं।”

“तुम हमारे पति हो क्या?”

“नहीं.... मैं उल्लू का पट्ठा हूं।” सार्जेंट सलीम को जाने क्यों इस सवाल पर गुस्सा आ गया था।

“यह क्या होता है?”

“उल्लू के बेटे को पट्ठा बोलते हैं।”

“जी अच्छा... लेकिन आप हैं कौन? आप दिखते तो जंगलियों जैसे हैं, लेकिन बातचीत हमारी भाषा में ही करते हैं।”

“तुम्हें यह किसने बताया था कि तुम्हारी, मुझ से शादी होगी? मेरा मतलब यह है कि तुम इन जंगलियों की भाषा कैसे समझती हो?”

सलीम के इस सवाल पर शेयाली सकपका गई। कुछ देर बाद उसने कहा, “उनमें से एक है जो हमारी तरह थोड़ा-बहुत बोल लेता है।”

“ओके! क्या कहा था उसने?”

“उसने कहा था कि मैं उनकी देवी मां हूं। पूरनमासी के दिन मेरी शादी कराई जाएगी।”

शेयाली की बात सुन कर सलीम सोच में पड़ गया। कुछ देर बाद उसने कहा, “वह मुझे जबरदस्ती पकड़ कर यहां लाए हैं। मेरे साथ एक लड़की भी थी, लेकिन वह कहीं भी नजर नहीं आ रही है।”

“मुझे नहीं पता।”

“वह तुम्हारी शादी किसी जंगली से क्यों नहीं करा देते।”

“पागल हो क्या? मैं तुम्हारा मुंह नोच लूंगी, अगर तुमने दोबारा ऐसी बात कही तो।” शेयाली ने गुस्से से कहा।

“मैं तो इसलिए कह रहा था ताकि इन जंगलियों की नस्ल सुधर सके।”

सलीम की इस बात पर शेयाली उसे घूरने लगी। सलीम के चेहरे पर मुस्कुराहट फैल गई।

कुछ देर बाद सार्जेंट सलीम ने फिर पूछा, “वह मुझसे तुम्हारी शादी क्यों कराना चाहते हैं?”

“मुझे नहीं पता।” शेयाली की आवाज में अब भी गुस्सा था।

“लेकिन मैं क्यों करूं तुमसे शादी। हमारी सात पुश्तों में भी किसी की शादी नहीं हुई। हमारे खानदान में शादी की परंपरा ही नहीं है।”

“तो क्या तुम आसमान से टपके थे?” शेयाली ने गुस्से से पूछा।

“मुझे परी दे गई थी।” सलीम ने भोलेपन के साथ जवाब दिया।

“भाड़ में जाओ।” यह कहते हुए शेयाली उठ खड़ी हुई और वहां से पैर पटखते हुए चली गई।

“यह तो बताती जाओ कि पूरनमासी कब है।”

“अपने अब्बा से पूछ लेना।” शेयाली ने बिना पीछे मुड़े ही जवाब दिया।

सार्जेंट सलीम कुछ देर वहां अकेला बैठा रहा। उसके बाद वह भी उठ कर खड़ा हो गया।


नाइट क्लब


विक्रम के खान कई दिनों के बाद अपने बैंग्लो से बाहर निकला था। इस दौरान उसने हैंडलबार स्टाइल की मूंछें रख ली थीं। उसने रॉयल ब्ल्यू कलर का सूट पहन रखा था। उसके हाथों में इटैलियन ब्रश था। इसे वह छड़ी की तरह इस्तेमाल करता था।

हैंडलबार मूंछें लंबी और ऊपर की तरफ घुमावदार किनारों वाली होती हैं। इसे यह नाम साइकिल के हैंडलबार जैसी होने की वजह से दिया गया है। यह मूछें इटैलियन मर्द काफी ज्यादा रखते हैं। उनके रूढ़िवादी जुड़ाव की वजह से इसे स्पेगेटी मूंछें भी कहा जाता है।

विक्रम कार में सवार हो गया। उसने कार स्टार्ट की और वह तेजी से आगे बढ़ गई। गेट मैन ने गेट खोल दिया था।

विक्रम की कार रोड पर आ गई थी। उसकी स्पीड काफी ज्यादा थी। इस इलाके में सड़क पर ज्यादा भीड़ नहीं थी। विक्रम का रुख रेड मून नाइट क्लब की तरफ था।

क्लब पहुंच कर उसने कार गेट के पास रोक दी। वह कार से नीचे उतर आया और उसने कार की चाबी शोफर की तरफ उछाल दी। शोफर कार को स्टार्ट करके पार्किंग की तरफ ले कर चला गया।

विक्रम खान सीधे कैसिनो की तरफ बढ़ गया। वह यहां अकसर जुआ खेलने आता था। तरक्की और पैसा अकसर अपने साथ बहुत सारी खराबियां भी लेकर आते हैं। विक्रम के साथ भी यही हुआ था। एक होनहार पेंटर को जुए की लत लग गई थी।

यह एक बहुत बड़ा सा हाल था। यहां अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग तरह के जुए खेले जा रहे थे। यहां एक-एक रात में कई-कई करोड़ रुपयों के वारे-न्यारे हो जाते थे। यह जुआखाना रात 11 बजे से सुबह तीन बजे तक खुला रहता था। विक्रम ठीक वक्त पर यानी 11 बजे यहां दाखिल हुआ था।

वह सीधे एक बड़ी सी टेबल की तरफ बढ़ गया। यहां ताश के पत्ते फेंटे जा रहे थे। उसे देखते ही दोनों लोगों ने खड़े हो कर उसका स्वागत किया। एक महिला भी टेबल पर थी, लेकिन वह बैठी ही रही। अलबत्ता उसने मुस्कुराकर विक्रम से हैलो कहा था।

“बड़े दिनों बाद दिखे खान साहब?” महिला ने पूछा।

“हां कुछ बिजी था।” विक्रम ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा।

“शेयाली के बारे में पता चला.... काफी....।” एक आदमी ने कहना चाहा, लेकिन विक्रम ने उसकी बात बीच में ही काट दी, “मैं यहां पर्सनल बातें डिस्कस करने नहीं आया। पत्ते फेंटिए।”

क्लब का एक बाउंसर आया और विक्रम के रुपये टेबल से उठा कर चला गया। वह रुपयों को क्वाइन में एक्सचेंज करने गया था। इस टेबल पर चार लोग थे। विक्रम के अलावा वह महिला के साथ ही दो और लोग थे। महिला शहर के एक बड़े और बूढ़े उद्योगपति की ट्रॉफी वाइफ थी। उद्योगपति इस वक्त हाल में ही रम्मी खेलने में व्यस्त था।

ट्रॉफी वाइफ बूढ़े पैसे वालों की दूसरी पत्नियों को कहा जाता है। आम तौर पर नामचीन और पैसे वाले लोग पार्टियों या महफिलों में अपनी बूढ़ी बीवी को ले जाना पसंद नहीं करते। महफिलों में ले जाने के लिए वह खूबसूरत और कम उम्र की लड़कियों से शादी करते हैं। न्हें ही ट्रॉफी वाइफ कहा जाता है।

कुछ देर बाद बाउंसर लौट आया। आते ही उसने कहा, “सर! आप का पिछला उधार था। वह पैसे काट लिए गए हैं। अभी भी उधार के कुछ पैसे बचे हुए हैं आप पर।”

“ब्लडी बास्टर्ड!” विक्रम ने कुर्सी से उठते हुए कहा, “मैं कहीं भागा नहीं जा रहा हूं। तुम लोगों की हिम्मत कैसे हुई पैसा जमा करने की।”

“सर! आप मैनेजर साहब से एक बार बात कर लें।” बाउंसर ने अदब के साथ कहा।

“मैं किसी से बात करने नहीं जा रहा। एक्सचेंज काउंटर से मुझे क्वाइन ला कर दो।”

तभी एक लंबे-चौड़े आदमी ने आकर बाउंसर को एक जोरदार थप्पड़ मारा। बाउंसर के थप्पड़ इस जोर का पड़ा था कि वह कई कदम पीछे हट गया। उसके बाद उसने गुस्से से कहा, “तुम हरामजादों का रोज का यही ड्रामा है।”

जवाब में बाउंसर ने चाकू निकाल लिया। उसने एक भरपूर वार उस आदमी पर किया। वह आदमी काफी फुर्तीला साबित हुआ था। वह तेजी के साथ पीछे हटा था। अगर उसने फुर्ती न दिखाई होती तो उसकी आंतें पेट से बाहर आ चुकी होतीं।

इस बीच उस आदमी ने जेब से पिस्टल निकाल ली और बाउंसर पर फायर कर दिया। गोली बाउंसर के सीने के बीचोबीच लगी थी। वहां से खून का एक फव्वारा फूट पड़ा।

वह बाउंसर सीधे विक्रम की टेबल पर मौजूद महिला पर आ रहा। महिला कुर्सी समेत नीचे गिर पड़ी। वह चीखे जा रही थी। तभी पूरे हाल में अंधेरा छा गया।


*** * ***


सार्जेंट सलीम किन चक्करों में फंस गया था?
शेयाली के साथ क्या सलीम की शादी हो पाई?

इन सवालों के जवाब पाने के लिए पढ़िए जासूसी उपन्यास ‘शोलागढ़ @ 34 किलोमीटर’ का अगला भाग...