मृत्यु का मध्यांतर - 5 Vijay Raval द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मृत्यु का मध्यांतर - 5

अंक - पांचवां/५

'आदित्य कहीं भी नहीं गया। अहीं मुंबई में ही है एक महीने से। औैर घर पर ही है। वाे पूरी तरह से झूठ बोल रहा है तुम्हारे सामने।'
श्रुति ने बदले हुए स्वर में जवाब दिया।

इशिता का आदित्य के प्रति अडिग औैर आस्तिकता से भरपूर विश्वास से काफ़ी असंगत श्रुति के निवेदन से एक पल के लिए इशिता की दिल की धड़कन चूक गई।
सिर पर हाथ रखते हुए बैठते हुए इशिता ने पूछा,

'येे तुम क्या कह रही हो श्रुति? आर यू स्योर? मैं तुम्हारी भाई आदित्य की बात कर रही हूं। तुम्हें कोई मिसअंडरस्टैंडिंग तो नहीं हो रही है न?'

'ना, ज़रा भी नहीं, मैं पूरे होशोहवास में, हंड्रेड परसेंट मेरे भाई आदित्य पाटिल की ही बात कर रही हूं इशिता।'
श्रुति ने जवाब दिया।

इशिता का दिमाग तीन सो साठ डिग्री तक घूम गया। ज्ञान के रेशों की गति अनियंत्रित हो गई। मन ही मन बोली, 'आदि तुम भी?'

'प्लीज़, मैं... मैं.. तुम्हें थोड़ी ही देर में कॉल बेक करती हूं श्रुति।'

कॉल कट करने के बाद दोनों हथेलियों से आंखें दबाकर इशिता थोड़ी देर बेड पर गिरकर मन ही मन बोली, 'ओह.. माय गॉड.. येे क्या हाे रहा है मेरी लाइफ़ में? आदित्य झूठ बोल रहा है? पहले तो येे बात ही अनुचित स्थान पर है। सच छुपाने के पीछे जरूर कोई वास्तविक गहरा रहस्य होना चाहिए। औैर वो सच मुझे आदित्य के मुंह से आमने सामने ही सुनना है।'

किचन में जाकर पानी पिया फिर कॉल लगाया श्रुति को।

'श्रुति अब तुम मुझे कहोगी कि, सच बात क्या है?'

विडम्बना से हंसते हुए श्रुति ने सवाल के सामने सवाल करते हुए पूछा,

'लेकिन, अंततः एक महीने बाद आज अचानक ही आदित्य कैसे याद आया?'

श्रुति का ऐसा अप्रत्याशित सवाल सुनकर इशिता को थोड़ा आश्चर्य हुआ।

'नहीं, ऐसा नहीं है श्रुति, पिछले एक महीने से एक भी दिन ऐसा नहीं गया कि, मैसेज या कॉल से मैंने आदित्य का कॉन्टैक्ट करने की कोशिश न की हो, लेकिन हमेशा वाे मेरे सामने अपनी व्यस्तता का बहाना आगे करके मेरी बात को बड़ी सिफत से टाल देता था। मुझे भी ऐसा लगा कि शायद ऐसा हाे सकता है कि सच में बिज़ी हाे। लेकिन ऐसा निरंतर औैर निरंतर होने लगा। जाे मुझे बादमें थोड़ा अवास्तविक लगने लगा इसलिए मुझे ऐसा लगा कि चलो अब देर हो जाए उससे पहले तुम्हें पूछने के सिवाय कोई चारा ही नहीं। औैर आदित्य झूठ बोल रहा है येे बात तो अभी भी मेरा मन मानने के लिए तैयार नहीं। लेकिन अब जो भी हो वो सच बताओगी प्लीज़ श्रुति।'

'देर तो हाे ही चुकी है इशिता, लेकिन बात ऐसी है कि कॉल पर नहीं, लेकिन तुम आमने सामने मिलो तो समझ पाओगी ऐसा है।' श्रुति बोली।

'अभी, तुम बोलो, कहां मिलना है? अति अधीरता से इशिता ने पूछा।

'हहममम.. मैं तुम्हें जाे एड्रेस भेज रही हूं वहां तुम एक घण्टे में पहुंच जाओ। बाद में वहां मिलकर मैं तुम्हें आगे की बात बताती हूं।'श्रुति ने कहा।

'जी, ठीक है।' फ़ोन रखने के बाद इशिता निरंतर ईश्वर का नाम रटती रही। मन में एक अजीब सा डर लग रहा था। दिमाग में कई तरह के रूपांतरित मन की मनोव्यथा का मनोमंथन चल रहा था तभी श्रुति का मैसेज आया।

इशिता जल्दी से तैयार होकर रवाना हुईं स्टेशन की ओर।

श्रुति मैसेज में भेजे हुए एड्रेस पर पहुंचने तक तो इशिता के दिल औैर दिमाग के बीच विचारों का घमासान युद्ध चलता रहा।

एड्रेस के मुताबिक मॉल के फोर्थ फ्लोर पर आई हुई कॉफी शॉप के बाहर के लाउंज के एक टेबल पर की बैठने की जगह पर दोनों बैठे।

'कितने समय के बाद हम दोनों मिले इशिता?'श्रुति ने पूछा।

'आई थिंक कि.. आखिर में, चार महीने पहले कॉलेज में मिले थे, एम आई राइट?' इशिता ने जवाब दिया।

'यस, परफेक्ट याद है तुम्हें,' श्रुति बोली।

'मेरे सर्किल में फ्रेंड्स की गिनती सिंगल डिजिट में ही है। घर औैर मेरे खुद के लिए मेरे पास समय ही नहीं रहता, औैर मेरे लिए आदित्य अकेला ही काफ़ी है। अब मुझे पहले वाे बताओ सत्य हकीकत क्या है?'

इशिता ने पूछा।

थोड़ी देर तक श्रुति इशिता की ओर देखती ही रही।
'क्या देख रही हो श्रुति, क्या सोच रही हो?' इशिता ने पूछा।

'मैं येे सोच रही हूं कि, कहां से शुरू करूं। किसकी बात करूं तुम्हारी या आदि की?' श्रुति बोली।

'श्रुति अभी आदि कहां है?'

'घर पर ही है।' श्रुति ने कहा।

श्रुति ने अपने साथ लाए हुए पेपर हैंडबैग में से एक आठ से दस पेज के पेपर का बंच टेबल पर रखा। पहली नज़र में कोर्इ दस्तावेज के पेपर लगते ही जिज्ञासावश इशिता ने पूछा,

'येे किसके पेपर है?'

'येे...... वील है। वसीयतनामा।' श्रुति बोली।
'लेकिन किसका?' आश्चर्य के साथ इशिता ने पूछा। 'आदित्य का।' चेयर को पकड़कर श्रुति ने जवाब दिया।
आश्चर्य के साथ आंखें बड़ी करके इशिता ने पूछा,
'व्हाट, आदित्य का वसीयतनामा? बट व्हाय? येे उमर है क्या आदित्य की वील बनाने की? औैर किसके लिए?'
'ज़्यादा नहीं है, बस कुछ बारह पंद्रह करोड़ की मिल्कियत होगी।' श्रुति बोली,
'लेकिन किसके लिए?'अब इशिता की बेसब्री उसकी चरम पर आ गई इस तरह पूछा।
दो-पांच सेकंड चुप रहकर इशिता की देखकर श्रुति ने जवाब दिया,
'वन एण्ड ओन्ली इशिता दीक्षित के नाम पर।'
श्रुति के एकदम असंभावित औैर नाटकीय लग रहे निवेदन से इशिता आश्चर्य के साथ उफ्फ करते हुए बोली,
'येे तुम क्या कह रही हो श्रुति? आदित्य क्यूं वील करेगा, औैर वो भी मेरे नाम पर?'
डॉक्यूमेंट हाथ में लेकर जैसे जैसे पन्ने पलटती गई वैसे वैसे इशिता के दिल की धड़कन बढ़ती गई।
'श्रुति, डॉन्ट क्रिएट मोर क्लाइमेक्स। येे सांकेतिक शब्दरूप भाषा में मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा है।'
बेसब्री से हताश होकर इशिता ने पूछा।

'तो अब शांति से सुनो क्या हुआ था वो।'

एक महीने पहले...

'करीब एक महीने पहले श्रुति अपनी एक इम्पोर्टेंट बुक ढूंढ रही थी। काफ़ी ढूंढने के बाद अंत में नहीं मिली तो उसे ऐसा लगा कि शायद आदित्य के रूम में भूल गई होगी ऐसा हो सकता है। इसलिए उसके रूम में जाकर सर्च करते हुए बुक तो नहीं मिली, लेकिन आदित्य के बुक शेल्फ के ड्रॉअर में से श्रुति को डॉक्यूमेंट हाथ लगे। वो देखकर श्रुति को आश्चर्य के साथ विस्मय उस बात का हुआ कि वसीयतनामा? दो से पांच में तो एकसाथ बहुत सारे कितने अजीबोगरीब विचित्र विचार मशरूम के जैसे श्रुति के दिमाग में विसफोट करने लगे।
श्रुति ड्रॉईंग रूम में जाकर आदित्य को अपने साथ लेकर आई और उसके सामने विसियतनामा ज़ोर से फेकते हुए पूछा,

'व्हाट इज धीस आदि?'

श्रुति के क्रोधावेश से भरे हुए गंभीर स्वरूप को औैर सवाल के प्रत्युत्तर में आदित्य हंसने लगा। एक अलग अजायब भरी असमंजस की अनुभावकता की अनुभूति के साथ खड़ी हुई गुस्से को अंकुश में लेकर फ़िर से श्रुति ने पूछा,

'आदि येे इतना बड़ा बिग इश्यू तुम्हें मज़ाक लग रहा है? प्रॉपर्टी के पैसे या किसके नाम किए उससे मुझे कोर्इ फ़र्क नहीं पड़ता, लेकिन.. मुझे येे जानना है कि, किसलिए?

'अरे यहां आओ। मेरे पास बैठो। मैं तुम्हें समझाता हूं।'
आदित्य बोला।
'क्या जानना है तुम्हें बोलो?' श्रुति के कंधों पर हाथ रखते हुए आदित्य ने पूछा,
'सब कुछ।' श्रुति आदित्य के सामने देखकर बोली।
'देखो श्रुति.....

इतना बोलकर श्रुति चुप हो गई... इसलिए इशिता ने पूछा, 'क्या हुआ श्रुति? क्या जवाब दिया आदित्य ने?'

& एक महीने पहले आदित्य को लीवर सिरोसिस डिटेक्ट हुआ है। सेकंड स्टेज पर है। औैर तुम्हें इस बात की बिलकुल भी भनक न इसलिए पिछले एक महीने से आदित्य तुम्हारे साथ येे इस नाटक का त्राटक कर रहा है।'

इतना बोलते ही श्रुति का रोना निरंकुश हो जाते ही रुमाल से उसने अपना मुंह दबा दिया।

औैर इशिता जैसे अपनी सोचने समझने की शक्ति पर क्रूर कुठाराघात हुआ हो ऐसे आघात का झटका लगा कि दो पल को तो आंखों के सामने अंधेरा छाने के साथ चक्कर भी आ गए। इशिता को लगा कि, अपने शरीर का संतुलन खो देगी इसलिए उसने अपना सिर टेबल पर टीका दिया तब उसकी आंखें भी मूंद गई।

पांच से सात मिनट तक एेसे ही बैठी रही। श्रुति ने धक्का देकर जगाया। तब तब आंसू छलकते ही फ़ौरन दोनों हथेलियों में अपना चेहरा छुपाकर बस रोने लगी।

उसके बाद श्रुति ने अपने आप को संभालते हुए इशिता को पानी पिलाकर बड़ी मुश्किल से शांत किया। रोते रोते इशिता ने पूछा,
'तुम्हारी औैर आदित्य के बीच की बात पूरी करो।'

'उसके बाद हंसते हंसते उसने उसकी ज़िन्दगी को मौत के किनारे पहुंचाने वाली बीमारी के बारे में बात की, मेरी हालत तो तुमसे भी खराब थी। बड़ी मुश्किल से अड़ी ने मुझे संभाला। उसके बाद मैंने मम्मी पापा से बात की। आदि की येे कलेजे को चीरती हुई ऐसी खबर से तो घर में जैसे आंसुओं का सैलाब आया हो ऐसा माहौल था।

'लेकिन इशिता जिस बात के लिए तुम्हें यहां बुलाया है वो बात बहुत बड़ी औैर महत्त्व की है।' स्वस्थ होते हुए श्रुति बोली।

'कौनसी बात श्रुति?'

'इस वसीयतनामा पर से कुछ समझ आया?' श्रुति ने पूछा।

थोड़ी देर सोचने के बाद इशिता बोली,

'नहीं, मैं यही सोच रही हूं कि, येे वसीयतनामा.. औैर वाे भी मेरे नाम क्योें?'

मन ही मन एक खेद के साथ श्रुति बोली।

'इशिता, वो आदित्य कि जिसे पता है कि उसकी जिन्दगी के समन्दर के भाग्य में उसकी जीवन नैया डूबने के कगार पर है, फिर भी न तो उसे अपनी या परिवार का विचार आया। उसे सबसे पहले चिंता हुई तो इशिता की। वो व्यक्ति येे भी भूल गया कि इस मजेदार दुनिया को छोड़कर जाने के लिए आखरी दिन गिने जा रहे हैं, येे बात सुनकर उसकी जननी पर क्या बीतेगी? लेकिन नहीं? उसने सिर्फ़ औैर सिर्फ़ तुम्हारा ही सोचा इशिता।

बीकॉज़ कि..... आदित्य लव्स यू ए लॉट। आदित्य तुम्हें इतना प्यार करता है कि उसका दुनिया की किसी भी भाषा में नहीं समझा सकते। औैर...'

इतना बोलते हुए श्रुति इतनी भावुक हुई की भरे गले मेें आगे शब्द जम से गए।

इशिता एक बुत के जैसे स्थिर होकर चिपक गई। दृष्टि औैर दिमाग भी बंध हो गए। थोड़ी देर तक तो उसे ऐसा लगा कि.. नसीब को उसका खेल खेलने के लिए मैं ही अकेली मिली? एक ओर ईश्वर ने एक ऐसा आभासी प्यार की छाया मेरे सामने प्रस्तुत करी कि जाे सात समंदर पार जाकर मेरी तस्वीर पर थूकने के लिए भी तैयार नहीं। फ़िर भी उसे देवता मानकर ईश्वर से पहले उसे पूजती रही, औैर दूसरी ओर आदित्य है कि मेरी सांसे तक गिनता रहा। मेरी परछाईं को भी धूप से बचाने के लिए खुद को जलाता रहा औैर उसकी भनक तक मुझे नहीं लगने दी, क्यूं? अब नहीं चाहिए वो ईश्वर मुझे। मैं कहां चूक गई ईश्वर की श्रध्दा की परीक्षा में? एक निःस्वार्थ प्रेम के सिवाय मांगा भी क्या ईश्वर के पास? अब मैं देखती हूं कि कैसे कोर्इ बाल भी बांका कर सकता है आदित्य कर। एक ही झटके में सभी अप्रत्यक्ष पीड़ा के प्रहारों की पीड़ा की अवगणना करके मनोबल मजबूत करते हुए बोली,

'चलो, श्रुति अभी मिलना है आदि से।'
'लेकिन इशिता...'
श्रुति की बात काटते हुए इशिता बोली,
'प्लीज़.... श्रुति अब कोर्इ लेकिन या वेकिन नहीं चाहिए मुझे, चलो।'

इतनी देर में इशिता को इतनी दृढ़ औैर स्ट्रॉन्ग होते देखकर श्रुति में भी थोड़ी हिम्मत आ गई।
दोनों निकले श्रुति की कार में उसके घर की ओर।

आदित्य के परिचय में आई तब से लेकर अंतिम मुलाकात तक के एक एक दृश्य इशिता के नज़रों के सामने घूमने लगे।

बंगलो में एंटर होते हुए श्रुति ने मम्मी को इशारे से पूछा, मम्मी ने कहा कि, 'आदित्य अपने कमरे में ही है।'

इशिता अकेली ही अपने हाथ में वसीयतनामा लेकर, आदित्य के रूम के पास जाकर डॉर पर नॉक करते ही अन्दर से आदित्य बोला..'यस।'

इशिता को रूम में दाखिल होते हुए देखकर बेड पर सहारा लेकर अधलेटे आदित्य का चेहरा शरम के मारे मुरझा गया। थोड़ा सा हकलाते हुए बोला..

'अरे.. इशिता आओ आओ.. मैं अभी तुम्हें कॉल करने ही वाला था.. बस देखो आज ही आया मुंबई। आओ बैठो।'

'अरे.. आदि, मुझे दूसरा कोई काम नहीं है। बस इस डॉक्युमेंट के ट्रांसलेशन में मुझे थोड़ा समझ नहीं आ रहा इसलिए तुम्हारी एडवाइस लेने आई हूं बस।'
आदित्य के सामने देखकर इशिता बोली,

'बस, अरे.. उसमें क्या है लाओ तो देखूं ऐसा तो क्या है कि तुम्हें समझ में नहीं आता?'
वसीयतनामा हाथ में लेकर आदित्य बोला।

वसीयतनामा देखते ही आदित्य के चेहरे का रंग उड़ गया। बोलती बंद हो गई। औैर आंखें नीचे झुक गई।

'अरे... उसमें एक ही छोटी सी मिस्टेक है, आदि। दो मुझे देखो मैं दिखाती हूं।'

ऐसा बोलकर वसीयतनामा अपने हाथ में लेकर, फाड़कर टुकड़े टुकड़े करके आदित्य की ओर देखकर बोली,

'आदित्य, इशिता के प्यार की कीमत पंद्रह करोड़, बहुत ही मामूली है। फ़िर भी चलेगा लेकिन मुझे जाे चाहिए, वो तो तुम मेंशन करना भूल गए हाे।'

'क्या?' इतना पूछते हुए भी आदित्य को बहुत थकान हो गई।

'आदित्य। आदित्य नहीं है इसमें आदि। सब कुछ अकेले अकेले ही करना है? प्यार भी अकेले औैर पुण्य भी अकेले ही कमाना है? अब कहीं मुझे अपना भागीदार बनने दो आदि।'

इतना बोलते ही इशिता आदित्य के गले लगकर ज़ोर से रोने लगी, पहली बार आदित्य के आंसु का मज़बूत बांध भी टूट गया।

आगे अगले अंक में....


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