झंझावात में चिड़िया - 19 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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झंझावात में चिड़िया - 19

बाजीराव मस्तानी में कुल दस गीत थे और एक से बढ़कर एक उम्दा नृत्य। पूर्णता यानी परफेक्शन के हामी संजय लीला भंसाली ने इसमें दीपिका के आकर्षक नृत्य के लिए निर्देशक के रूप में डांस के क्षेत्र के लीजेंड महान पंडित बिरजू महाराज की सेवाएं भी लीं। फ़िल्म का संगीत स्वयं संजय ने ही तैयार किया।
दीपिका पादुकोण ने इस फ़िल्म में बाजीराव पेशवा की प्रेमिका और दूसरी पत्नी मस्तानी का किरदार निभाया। बाजीराव की पहली धर्मपत्नी काशीबाई की भूमिका में प्रियंका चोपड़ा थीं। दीपिका का ये पात्र एक तरह से कुछ ग्रे शेड्स लिए हुए भी था क्योंकि एक तो मस्तानी बाजीराव पेशवा की पत्नी काशीबाई की सौतन भी थी दूसरे बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल की ये बिटिया उनकी फ़ारसी मुस्लिम प्रेमिका से उत्पन्न पुत्री थी। ऐसे में पारंपरिक आम दर्शकों की सहानुभूति प्रायः उनके किरदार के साथ होना सुनिश्चित नहीं था।
यहां दो बातों पर ध्यान दीजिए।
फ़िल्म जगत का इतिहास बताता है कि जब भी स्क्रीन पर दो लगभग एक स्तर की बड़ी अभिनेत्रियों की अभिनय - जंग हुई है तब दर्शकों को तो मज़ा आया ही है, निर्माता निर्देशकों के लिए भी ये साफ़ हुआ है कि नंबर गेम में कौन आगे और कौन पीछे?
ताज़्जुब इस बात का है कि ऐसा अभिनेताओं के मामले में नहीं होता। हीरोइनों के बारे में ही समीक्षकों को कहते हुए सुना है कि अमुक ने अमुक की छुट्टी कर दी या इसने उसको "खा" लिया। ये कहानी पिछली सदी से कई दशक से चली आ रही है।
सच पूछा जाए तो जिन एक्टर्स में ये निश्चित नहीं हो पाता कि इनमें कौन उन्नीस है और कौन बीस, वहां फ़ैसला तब ही हो पाता है जब दोनों एक साथ, एक ही फ़िल्म में, एक ही फ़्रेम में आएं।
और अगर एक बार ऐसा फ़ैसला दर्शकों की निगाह में हो जाए तो फ़िर उसे आसानी से बदल पाना संभव नहीं होता। कई बार तो ऐसी स्थिति में कलाकारों की फ़ीस तक इसी आधार पर ऊपर - नीचे होती देखी जाती है।
दूसरी बात ये है कि अगर तो प्रतिद्वंदियों की आपसी अभिनय- मुठभेड़ में एक का रोल आदर्शवादी "टच" लिए हुए हो और दूसरे का समाज विरोधी या अपने आप से विद्रोही, तो एडवांटेज ऐसे ही पात्र के पक्ष में जाता दिखता है जो कुछ नकारात्मक चरित्र लिए हुए हो। अर्थात "ग्रे - शेडेड" हो।
ऐसा क्यों होता है?
ऐसा इसलिए होता है कि आम इंसान मन से ऐसे चरित्र के साथ होता है जो बिगड़ गया। समाज ने जिसे खराब कर दिया। क्योंकि ये सभी जानते हैं कि खराब या ग़लत आदमी पैदा नहीं होते। इंसान अपाहिज़ या "दिव्यांग" पैदा हो सकता है पर बिगड़े किरदार का नहीं। ऐसा आदमी यहीं गढ़ा जाता है। हम या हमारा समाज ही उसे ऐसा बनाता है।
इस विवेचन से आपको ये अनुमान हो ही गया होगा कि करियर की दौड़ में एक साथ दौड़ती प्रियंका चोपड़ा और दीपिका पादुकोण के बीच ज़्यादा मुनाफा कहां गया?
निस्संदेह ये कोई खैरात नहीं है, वहीं जाता है जहां उसकी पात्रता हो। भाग्य या संयोग भी होते हैं किंतु ये अंतिम रूप से निर्णायक नहीं होते।
"टैलेंट्स आर बाउंड टू बी रिकॉग्नाइज्ड वन डे!"
ख़ैर, दीपिका पादुकोण की दुनिया कुछ और खिल गई।
वैसे भी प्रियंका का पूरा ध्यान इस समय प्रेम,विवाह और हॉलीवुड पर केन्द्रित था।
ये फ़िल्म उपन्यास पर आधारित थी जो कि एक पाठ्य सामग्री है, इसे फ़िल्म के रूप में लाने के लिए दृश्यव्य सामग्री के रूप में परिवर्तित करना पड़ता है इसलिए बड़े से बड़े फिल्मकार से भी लोगों को कुछ शिकायतें रह ही जाती हैं कि उन्होंने रचना में फेर - बदल किया है।
इसी बात को आपके लिए सद्भावना न रखने वाले लोग इस तरह कहते हैं कि आपने मूलकृति में तोड़- मरोड़ की है।
यहां तक कि आपके विरोधी खेमे में कहा जाता है कि आपने किताब की आत्मा को ही मार दिया।
ये लफ्फ़ाज़ी है। कोई किसी की आत्मा को नहीं मार सकता। पर कहने वालों को रोक भी नहीं सकता।
इस फ़िल्म के बारे में भी कहा गया कि उपन्यास से छेड़छाड़ करके इतिहास से खिलवाड़ किया गया है।
मराठी मूल के कुछ लोगों ने तत्कालीन संस्कृति का हवाला देकर कहा कि काशीबाई जैसी घरेलू और संजीदा महिला को नाच गानों में लिप्त बता दिया गया। कुछ लोगों ने ऐतिहासिक घटनाक्रम में फेरबदल को इंगित किया।
लेकिन सौ बातों की एक बात ये है कि फ़िल्म एक मनोरंजन का माध्यम है जहां लोग जेब से पैसा खर्च करके देखने आते हैं। फिल्मकार और कलाकार सैंकड़ों साल पुरानी बात आपके सामने री क्रिएट करते हैं तो इसमें कलात्मक अभिव्यक्ति भी होती है और मनोरंजन तत्व भी। फ़िर आपको भी तो पूरी तरह पता नहीं होता कि उस समय क्या हुआ था, क्यों हुआ था, कैसे हुआ था।
आप भी किसी तत्कालीन लेखक द्वारा शब्दों में बांधे गए "सच" की जानकारी ही तो रखते हैं! आपके पास प्रामाणिकता का अंतिम पैमाना क्या है?
अतः फ़िल्म को फ़िल्म की तरह ही देखा जाना चाहिए।
पर हमारी अति प्रतिक्रियात्मकता और राजनैतिक सोच ने आज विवादों को अपने पक्ष - विपक्ष में ढाल लेने की आदत डाल ली है।
फासीवादी सोच, साम्प्रदायिक संकीर्णता और नकारात्मक वृत्ति आज हमें बेवजह बेचैन रखती है।
किंतु कुछ लोगों ने ये भी कहा कि इस फ़िल्म के माध्यम से तत्कालीन मराठा संस्कृति पूरे देश में तो गई, ये बड़ी उपलब्धि है।
बाजीराव मस्तानी फ़िल्म में प्रियंका चोपड़ा के नृत्य के समय उनकी पहनी हुई पोशाक पर भी लोगों ने आपत्ति जताई कि काशीबाई जैसी महारानी को ये शोभा नहीं देता। इससे ज़ाहिर होता है कि बहती गंगा में सभी ने हाथ धोए।
यद्यपि इसका एक सकारात्मक पक्ष ये भी है कि फ़िल्म को खूब देखा गया और फ़िल्म सुपरहिट हुई।
कहावत है कि जो पेड़ जितना ज़्यादा फलों से लदा हुआ हो उस पर उतने ही पत्थर फेंके जाते हैं। वरना ढेर सारी फ़्लॉप फ़िल्मों में क्या आया क्या गया, किसी को क्या ख़बर।
फ़िल्म में तन्वी आज़मी, मिलिंद सोमन और वैभव तत्ववादी की भी प्रभावशाली भूमिकाएं थीं।
इसी साल एक एनजीओ, इंडियन साईट्रियाटिक सोसायटी ने दीपिका पादुकोण को अपना ब्रांड एंबेसडर बनाया। दीपिका अपनी तमाम फिल्मी व्यस्तता के बावजूद अपने मिशन पर भी पूरा ध्यान देती रहीं।
मानसिक स्वास्थ्य के प्रति उनका दृष्टिकोण सकारात्मक बना रहा।
उन्हें इसी वर्ष में एक बार फ़िर "वूमन ऑफ़ द इयर" चुना गया।
ये एक विचित्र बात ही थी कि एक ओर वो मनोरंजन उद्योग का सबसे नामचीन चेहरा बनी हुई थीं तो दूसरी ओर उनकी पूरी गंभीरता तनाव और अवसाद से लड़ने में भी बनी हुई थी।
सच में दीपिका "ब्यूटी विद परपज़" की अवधारणा को चरितार्थ कर रही थीं।