असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 25 Yashvant Kothari द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 25

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विज्ञापन एजेन्सी के कर्ता - धर्ता उर्फ मुख्यकार्यकारी अधीकारी के दादा जी गांव में ब्याज का छोटा मौटा धन्धा करते थे । आसामी थे । बोरगत थी । दादाजी चल बसे । ब्याज का धन्धा डूब गया । पैसा डूब गया । मा - बेटा जमा पूंजी लेकर ष्शहर आ गये । मां ने कठिनाई से पाल पोस कर बड़ा किया । बेटे ने भी मेहनत की । पहले एक छोटे अखबार में विज्ञापन लाने - ले जाने - देने का काम काज ष्शुरू किया । अपने तेज दिमाग के कारण जल्दी ही इस लधु समाचार के कुख्यात सम्पादक - प्रकाशक, मुद्रक सेठजी की नजरों में चढ़ गया । सेठजी ने उसे अधिक कमीशन पर विज्ञापन का काम सोंपा । लड़का तेजी से सीढ़िया चढ़ गया और स्वयं की एजेन्सी लगा ली । पिछले चुनाव से भी उसने सबक सीखा और इस बार भी जीतने वाली पार्टी का प्रचार काम पकड़ लिया । अब बड़ा दफतर था । स्टाफ था । बड़े अखबार लघु समाचार पत्र तथा चैनलों के विज्ञापन मैनेजर उसके चक्कर लगाते थे कि उनके अखबार, चैनलो को विज्ञापन मिले । समय पर भुगतान मिले । अच्छा कमीशन मिले । मगर विज्ञापन गुरू भी कुछ कम न थे । वे सबसे पहले अपना स्वार्थ - अपना हित चिन्तन करते थे, जो स्वाभाविक भी था । पिछली सरकार की जीत की कृपा का प्रसाद उन्होने भी जी भरकर जीमा था । प्रसाद स्वरूप उन्होने खेल परिपद पर कब्जा किया था । एक बड़ी निर्माण कम्पनी को अत्यन्त महंगी जमीन सस्ती दरों पर उपलब्ध कर वादी थी । और सबसे उपर एक पार्टी - कार्यकर्ता को एक राजनीतिक कुर्सी दिलाने के लिए उसके बेहद आलीशान मकान की रजिस्टी अपने परिजन के नाम करवा दी थी ओर ये सब सत्ता के शीर्प पर बैठे बैठे । इस समय एड- गुरू अपने भव्य कार्यालय के दिव्य कक्ष में बैठे थे ।

उनके प्रबन्धक उन्हें मिलने आये ।

‘ ष्शुभ प्रभात सर । ’

‘ हूॅं । ष्शुभ प्रभात । बोलो क्या काम है ?’

‘ सर ये कुछ विज्ञापन बनवाये है । देख ले ।

‘ दिखाओं । ’

‘ सर ये इस नई पार्टी के पक्ष में है । ’

‘ लेकिन ये तो पुरानी पार्टी का विज्ञापन है । ’

‘ इसे ही अब नई पार्टी के लिए भी बनाया है । ’

‘ नहीं । नहीं ऐसे नहीं चलेगा । चार कदम सूरज की ओर । सुशासन । भूख । भय । गरीबी। के दिन गये । कुछ नया लाओ । ’

‘ सर आप बताये नया क्या ? ’

‘ अरे सब मुझे ही करना है तो इस फौज की जरूरत ही क्या है । ’

‘ मैनेजर ने चुप रहने में ही भलाई समझी ।

सुनो । इस बार बेरोजगारी और आंतकवाद पर फोकस करो । ’

‘ जी अच्छा । ’ लेकिन ये तो राजस्तरीय चुनाव है ।

ल्ेकिन रोटी -कपड़ा -मकान, सबको चाहिये । नई सरकार सबको रोटी -कपड़ा -मकान देगीं ।

‘ ऐसे लुभावने विज्ञापन बनाओं । ’

‘ जी अच्छा । ’

ओर कुछ अच्छे गीत बताओ । विकास के गीत । प्रगति के गीत । नई अर्थव्यवस्था के गीत । उनका फिल्मी करण कराओ और स्थनीय चैनलो पर जारी करवा दो । एक मास में सभी अखबारो, चैनलो पर हमारी पार्टी के कैसेट, झिगंल्स, । ष्शुरू करवा दो ।

प्रिन्ट मीडिया में आकंडो की खेती ष्शुरू करवा दो । आज का वोटर पढ़ा लिखा समझदार है उसे ष्शब्दो के मायाजाल में उलझा दो । ’

जी सर ।

और सुनो । ये जो लड़किया रखी है ये क्या काम करती है । केवल दफतर में चीयर गर्ल ही है न ये सब ।

जी नहीं इनसे भी काम ले रहे है । डोर- टू डोर व माउथ पब्लिसिटी में ये बड़ी काम आ रही है । गांवो में भीड़ इकठ्ठा करने में भी ये सहयोग दे रही है । बडे नेताओ की मिटींग से पहले इनके डांस, लटके, झटके, गाने, गीत, हाव-भाव बडे काम आ रहे है । सब खुश है । ’’

‘ अच्छा । लेकिन खर्चा बहुत है । बदनामी भी हो सकती है ।

नहीं सर अपन तो व्यापारी है । अपन अपनी कमाई पर ही ध्यान दे रहे है ।

‘ यदि जरूरी हो तो मुम्बई से आर्टिस्ट बुक कर लो । किसी भी कीमत पर पार्टी - प्रचार में कमी नहीं रहने पाये । सामने वाली राजनैतिक पार्टी ने भी काफी बडी एड कम्पनी को बुक किया है ।

‘ अच्छा । सर । किसे । ’

‘ तुम अपने काम पर ध्यान दो ।

‘ जी अच्छा । ’

और सुनो । किसी भी लड़की के साथ कोई एसी वैसी घटना नहीं धटे । ओर जो भी हो आपसी सहमति और सांमजस्य से हो । कास्टिगं काउच के झझंाल से बच के रहना - खुद भी ओर कम्पनी को भी बचाये रखना ।

‘ आप बेफिक्र रहे सर । ’

मैनजर ने बाहर आकर कापी राईटर को बुलाया । प्रिन्ट मीडिया में नये विज्ञापन बनाने को कहा । एक गीतकार से पार्टी के विकास पर गीत बनवाये । गीत संगीत - विजुल्स बनाने के निर्देश दिये ।

चीयर गर्ल्स को बुलाकर पार्टी मीटिंग से पहले भीड़ जमा करने के नुस्खे बताये ।

चुनावी चकल्लस धीरे धीरे बढ़ने लगी थी । दोनो प्रमुख र्पािर्टयां चुनावी महाभारत में उतर चुकी थी । अन्धे धृतराप्ट ओर कलयुगी कृप्ण सब देख समझ रहे थे ।

 

चुनाव की चर्चा हर गली मोहल्ले में थी । छुट भैये नेता और कार्यकर्ता पार्टी के टिकट धारियो से मोल भाव कर रहे थे । कुछ नखरे कर रहे थे । कुछ ने प्रचार के बाद की सौदे बाजी करना ष्शुरू कर दिया था । पार्टियां अपनी जीत के प्रति आश्वस्त न थी मगर उपर से आत्मविश्वास से लवरेज दिखती थी । खूब पैसा था । खूब ऐशो आराम थे । कार्यकर्ताओं क ेमजे थे । वे चाहते सोेे पाते । चुनाव का अर्थशास्त्र भी उनके पक्ष में था । चुनाव आयोग की आर्थिक खर्च की सीमा को कोई नहीं मानता था । सब खर्चे पेटियों स ेचल कर खोकों तक पहुॅच गये थे । खेाके के खर्चे के बाद भी जीत सुनिश्चित नहीं थी । जीत जाये तो निवेश हार जाये तो बरबादी मगर राजनीति तो एक नशा है जो ष्शराब, भांग, चाय, काफी, डग्स, की तरह चढ़ता है और चुनाव के समय तो यह नशा अपने चरम पर रहता है ।

चुनावी चकल्लस से सब व्यस्त थे । हालत ये थी कि यदि एक पार्टी से टिकट न मिले तो बन्दा तुरन्त दूसरी पार्टी के कार्यालय की ओर जेट-गती से दौड़ पड़ता था । दूसरी पार्टी से निराशा हाथ लगने पर तीसरी पार्टी में प्रयास करता था ं और अन्त में अपनी नाक बचाने के लिए निर्दलीय तक लड़ने को तैयार हो जाता था । आखिर जो काली लक्ष्मी बन्दे ने इकठ्ठी कर रखी है उसका कोई तो सदुपयोग हो । चुनाव लड़ने का एक फायदा ये भी है कि यकायक कोई सरकारी अधिकारी हाथ नहीं लगाता अपने व्यवसायिक हितों के लिए भी चुनावों में खड़े होने की परम्परा रही है । एक प्रसिद्ध उधोगपति तो हमेशा चुनाव में कुछ राशि खर्च करके आयकर के करोड़ो रूप्ये बचा लेते है और एक अन्य व्यवसायी का पूरा ब्यापार ही चुनावों पर आधारित था । वे चुनाव - सामग्री का ठेका लेते है । हर पार्टी की चुनाव सामग्री तैयार और उचित दर पर जरूरत पड़ने पर उधार भी । चुनाव के दिनो के क्या कहने । चुनावी कार्यकर्ता के क्या कहने । चुनाव मनोरंजन भी करता है और गली - मौहलें को व्यस्त भी रखता है ।

 

 

च्ुानाव एक नशे की तरह छा गया है । सत्ता की चंादनी के सब दीवाने । सत्ता का चांद सबको चाहिये । चुनाव के दिन । रूठने मनाने के दिन । चुनाव के दिन । टिकट के दिन । आश्वासनों के दिन । वादेों के दिन । चुनाव के दिन हॅंसने - मुस्कुराने के दिन । झूठ बोलने के दिन । वादे करके भूल जाने के दिन । पार्टी मुख्यालय में चक्कर लगाने के दिन । पैसा पानी की तरह बहाने के दिन । चुनाव के दिन मतदाताओं के मनुहार के दिन । चुनाव के दिन विरोधी की धोती खोलने के दिन । चुनाव के दिन । जूतम पैजार के दिन । चुनाव के दिन लत्ती लगाने के दिन । चुनाव के दिन । धोती फाड़ने के दिन । चुनाव के दिन चोराहों पर कपड़े फाड़ने के दिन । चुनाव के दिन मतदाताओं को सामूहिक शेज देने के दिन । चुनाव के दिन पत्रकारों केा पटाने के दिन । चुनाव के दिन विरोधियों को हराने के दिन । चुनाव के दिन खुशी, अंासू, उदासी - के दिन । चुनाव के दिन पोस्टरों, झण्ड़ेां, बैनरो के दिन । चुनाव के दिन जुलूसों, रेलियों, सभाओं के दिन । चुनाव के दिन हाथी के दांतो के दिन - दिखाने के और खाने के ओर । चुनाव के दिन गिरगिट की तरह रंग बदलने के दिन । सियार द्वाराष्शेर की खाल पहनने के दिन । चुनाव के दिन शिखण्डी बनने के दिन । निर्दलीय बनकर पार्टी फण्ड खाने के दिन । चुनाव के दिन मान - मनुहार - अपमान के दिन । चुनाव के दिन सब को रिझाने के दिन । चुनाव के दिन आंधी - तूफान, लहर, हवा के दिन । हर पार्टी अपनी लहर बताती है। चुनाव के दिन कर्मचारियों - अधिकारियों के लिए मुसीबत के दिन चुनाव के दिन चुनाव आयोग की परेशानी के दिन । पुलिस - प्रशासन के खटने के दिन । लाल बत्ती और लाल पट्टी वालो के लिए चुनाव के दिन याने दुख के दिन । कल तक जो मजे कर रहे थे, उनके धूल खाने के दिन । चुनाव के दिन कुर्सी के दिन । धरती चूमने के दिन । आसमान पर उठने के दिन । चुनाव के दिन । गुट बनाने के दिन । लंगर चलाने के दिन । जातिवाद के दिन ।

चुनाव के दिनो के क्या कहने । हर एक की जेब में एक आश्वासन एक वादा एक वचन एक वरदान । बोलो क्या चाहते हो । राजनीतिक पार्टीयेां के पास जाने से ही आदमी स्वयं को महफूज समझने लगता है । चुनाव के दिन प्रजातन्त्र रूपी कामदेव के दिन । चुनाव के दिन मखमली कालीनों के दिन । टाट के दिन । ठाट के दिन । सुबह सुहानी ष्शाम मस्तानी । चुनाव के दिनो में दिन ही नहीं चुनाव की राते राते नहीं सुहाग का सिदूंर है । चुनावी काम देव किसे वरण करेगा । किसे श्स्म कर देगा ये सब तो चुनावी दिन ही तय करेगा । चुनाव है तो प्रजातन्त्र है । ये उत्सव के दिन । उल्लास के दिन । नारे लगाने और नारे गढने के दिन ।

च्ुानाव के दिन रूठी जनता रूपी प्रेमिका को मनाने के दिन । चुनाव के दिन झूठ, बेईमानी, मक्कारी, काला बाजारी के दिन । नलों में पानी, तारों में बिजली आने के दिन । सड़क बनाने के दिन । चुनाव के दिन डीजल, पेटोल फूकने के दिन । धूआं उड़ाने के दिन । चुनाव के दिन कमजोर उम्मीदवार को अपने पक्ष में बिठाने के दिन । चुनाव के दिन अन्धों का हाथी बनने के दिन । चुनाव के दिन चिन्ता, चिन्तन, मनन करने के दिन । चुनाव के दिन चैनलों, अखबारों के दिन । चुनाव के दिन सम्पादकों, संवाददाताओं के दिन । चुनाव के दिन बस चुनाव के दिन । ये दिन ठीक ठाक निकल जाये फिर सब को देख लेंगे ।

च्ुानाव के दिन अपराधियों, उठाईगिरों, स्मगलरों के दिन । जेल से छूटकर आये हिस्टीशीटरों के दिन । नारों के दिन। हवाओं में जहर घोलने के दिन । चुनाव के दिन अच्छी श्ूगोल और खराब इतिहास की बालाओं के दिन । चुनाव के दिन गेाली, लाठी, तलवार चलाने के दिन । चुनाव के दिन प्रजातन्त्र की जय बोलने के दिन । चुनाव के दिन हंसने खिलखिलाने - मुस्कुराने के दिन । जीतने - हारने जमानत जब्त कराने के दिन । चुनाव के दिन चुल्लू श्र पानी में डूब मरने के दिन । चुनाव के दिन स्वस्थ मनोरंजन के दिन । सच में चुनाव के दिन याने प्रजातन्त्र रूपी कामदेव के वाण चलाने के दिन । चुनाव के दिन घात, प्रतिघात, ष्शोपण, अन्याय के दिन । चुनाव के दिन मस्त मस्त दिन । मौजा ही मौजा । खाने - खिलाने के दिन । कम्बल, रोटी, कपड़ा बांटने के दिन । चुनाव के दिन हारकर जीतने के दिन । जीत कर हारने के दिन । चुनाव के दिन सब मिलकर प्रजातन्त्र को सफल बनाने के असफल दिन ।

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चुनाव हुए और खूब हुए । हमारे बूढे नेताजी की नाव डूब गई । कल्लू मेाची का लड़का जीत गया । नेताजी के खेमे में उदासी, खामोशी तारी हो गई । कल्लू माची एम.एल.ए. का बाप बन गया । सरकार बनी मगर कल्लू मोची के लड़के का नम्बर मंत्रि पद पर नहीं आया । वैसे भी पहली बार एम.एल.ए. बना था । उसे विधानसभा, पार्टी के तौर तरीके सीखने थे । चमचे उसे धीरे धीरे सब सिखा रहे थे । वो सीख रहा था । राजनीति, कूटनीति, घूसनीति । अफसरों से बात करने के तौर-तरीके । विधानसभा में भापण देने, प्रश्न पूछने की व्यवस्थाएॅं । धीरे धीरे उसने अंग्रेजी बोलने का अभ्यास भी ष्शुरू कर दिया था । एक अंग्रेजी का मास्टर भी रख लिया था जो उसे अंग्रेजी बोलना सिखा रहा था । कल्लू मोची की बीरादरी व गांव में पैठ जम गई थी वह सबसे बड़ा लीडर बन गया था । बिरादरी में उसे हर तरह से मान सम्मान मिलने लग गया था ।

कल्लू पहली बार राजधानी आया । लड़के की बड़ी सारी कोठी नौकर-चाकर देख कर उसका दिल बरबस लड़के के ममत्व में पगा गया । सब उसे अच्छा लग रहा था । गाड़ी बंगला, टेलीफोन, नौकर -चाकर, चमचे, छुटभैया, अफसर सब उसे सलाम ठोकते थे । वो सब को जैरामजी की करता था । धीरे धीरे उसे सब समझ आ रहा था । गांव में नेताजी के दरबार में जमीन पर बैठने वाला कल्लू यहॉं पर सर्वे सर्वा था । हर कोई उसकी सिफारिश चाहता था । मगर अभी कल्लू का लड़का जिसे सब एम.एल.ए. साहब कहते थे राजनीति में रमा नहीं था । वो महत्वाकांक्षी था । उसे उपर जाने की इच्छा थी । अब पांच साल गांव से क्या काम था । अगला - चुनाव आयेगा तब देखेंगे । तब तक राजधानी में जमे रहो । राजधानी को भोगो । पार्टी कार्यालय भी अब कोई नहीं जाता था । सब अगले विधानसभा चुनाव तक मस्त थे । एम.एल.ए. साहब व्यस्त थे । बाकी गांव में सब अस्त - व्यस्त थे, कल्लू जानता था कि गांव में बिरादरी के काम करने से ही अगले चुनाव में साख जमी रह सकती थी । इसी बीच गांव में राप्टीय ग्रामीण रोजगार योजना ष्शुरू हुई । एम .एल. ए. साहब ने कल्लू को इस योजना का स्थानीय कर्ता धर्ता बनवा दिया । कल्लू गांव लौट आया और पूरी योजना में अपनी जाती - बिरादरी के आदमियों और लुगाईयों - छोरे छोरियों को भर दिया । सब खुश । बिना काम के वेतन । साल में सौ दिन की मजदूरी । एक जाओ । चार के नाम लिखाओं । तीन का पैसा पाओ । एक का पैसा खर्चे - पानी में लग जाता था । मगर किसी को शिकायत नहीं थी । गांव के सवर्ण चुप रहने में ही अपनी भलाइ्र समझते थे, वैसे भी हारे को हरिनाम । नेताजी चुप थे । उनके चमचे अब कल्लू के इजलास में हाजरी बजाते थे । तहसीलदार बीडिओ, सरपंच, ग्रामसेवक, पटवारी, इन्सपेक्टर,मास्टर, मास्टरनियां, नर्स - कम्पाउण्डर, वैध, हकीम, सब कल्लू मोची की सेवा में बिना नागा उपस्थित होते थे ं गांव के बनिये, ब्राहमण, राजपूत, सब एम. एल ए. साहब की चौखट चूमते थे ।

ऐसे ही माहोल में गांव के अन्दर एक टयूबवेल में एक बच्चा गिर गया । बच्चें को बचाने के सभी उपाय असफल रहे । बच्चे को बचाने के समाचार सभी चैनलो पर छा गये । बच्चा सवर्ण था और कुंआ एक निम्न जाती के किसान के खेत में खुद रहा था । सब हैरान परेशान । चैनलो - समाचार पत्रों में खूब छपा । प्रसारित हुआ । बच्चा जिंदा नहीं बचाया जा सका ।

एम. एल. ए. साहब पहुॅचे । बच्चे के मॉ बाप के घर । खूब रोना-धोना मचा । मुआवजा मिला । सब ष्शान्त हो गया । एम.एल.ए. साहब राजधानी चले गये । गांव में पूरे वक्त सब तरफ ष्शान्ती छाई रहीं । मगर नेताजी के खेमे ेमे इस धटना को खूब उछाला ओर अगले चुनाव तक इस धटना को जनता के जेहन में जिंदा रखने के लिए एक दिन का अनशन भी किया । नेताजी ने अपने स्तर पर मामले को पार्टी के मुखिया तक पहुॅचाया । विधान सभा में भी हो हल्ला मचवाया, मगर दलित को बचाने के लिए सभी दलो के दलित एक हो गये । विधावसभा का सत्र पहले स्थ्गित हुआ फिर सत्रावसान कर दिया गया ।

एम.एल.ए. साहब इस धटना से अन्दर ही अन्दर दुखी थे । मुआवजा बांटने वे स्वयं गये । फिर सब ष्शान्त हो गया । लेकिन एम.एल.ए. साहब यह समझ गये कि राजनीति तलवार की धार है और उस पर सफलता पूर्वक चलना आसान नहीं । वे एक कुशल राजनेता बनना चाहते थे । मगर आज की भारतीय राजनीति के कीचड़ में खिलना या खिल खिलाना क्या इतना आसान था । राजनीति के दल दल में दल दल ही दलदल था । कीचड़ ही कीचड़ था । हाथ पकड़ कर खींचने वाले लगभग नहीं थे, सब कुछ अनिश्चित था मगर एम.एल.ए. साहब के भाग्य का छींका कभी भी टूट सकता था और कहते है न कि भगवान देता है तो छप्पर फाड़कर देता है ओर कई बार यह फटा हुआ छप्पर लगातार कुछ न कुछ देता रहता है । साहब मेहरबान तो गधा पहलवान या यों भी कहा जा सकता है कि गधा पहलवान तो साहब को मेहरबान होना पड़ता है । ऐसी ही कुछ हमारे कल्लू पुत्र एम.एल.ए. साहब के साथ हुआ । उन्हें साहित्य का कुछ भी अता पता नहीं था और उन्हे चुप करने के लिए प्रान्तीय साहित्य अकादमी का अध्यक्ष बना दिया गया । पहली बार कल्लू पुत्र को अपने नाम की सार्थकता नजर आई अब एम.एल.ए. साहब मोहनलाल असीम अध्यक्ष साहित्य अकादमी थे । उन्होने साहित्य के पुरोधाओं की किताबों के नाम रट लिए और उन्हें इधर उधर मंच पर उच्चारण के साथ बोलने लगे । कबीर,तुलसी, मीरा, रैदास से लगाकर चन्द्रकुमार वरठे तक की दलित कविताएं बोलने लगे । अकादमी का कार्य भार ग्रहण करने के बाद वे स्वयं उच्च कोटि के साहित्यकार मान लिए गये । साहित्य के उद्भव, विकास, इतिहास, भूगोल के झरने उनके श्री मुख से अविरल बहने लगे । लेकिन एम.एल.ए. साहब को साहित्य रास नहीं आया । कुल बजट पच्चीस लाख का । वेतन भत्तेा को बांटने के बाद बची हुई योजना मद की राशि की बंदर बांट में लेखकों, कवियों के बीच रोज फजीहत होने लगी । हर लेखक के पास अखबार - पत्रिका थी, वे रोज कीचड़ उछालने लगे । कीचड़ ूसे एम.एल.ए. साहब अपनी जेब भरने के प्रयास में असफल हो ्रगये । बदनामी हुई सो अलग । उन्होने साहित्य का दामन छोड़ना ही उचित समझा, मगर जिस तरह रीछ और कम्बल का किस्सा है उसी तरह इस बार साहित्य ने एम.एल.ए. साहब को छोड़ना उचित नहीं समझाा । एक जांच हमेशा के लिए उनके पीछे लग गई जो स्तीफे के बावजूद नहीं सुलझी । इस जांच के कारण विधानसभा में बड़ी किरकिरी हुर्इ्र । यंे तो भला हो विधानसभा अध्यक्ष का जिन्होने सब ठीक-ठाक करवा दिया । कल्लू पुत्र ने साहित्य से हमेशा के लिए तोबा कर ली । साहित्य राजनीति में से एक चुनने का अवसर आये तो आदमी को क्या चुनना चाहिये ये गम्भीर बहस का विपय है ।

 

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