झंझावात में चिड़िया - 12 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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झंझावात में चिड़िया - 12

ओम शांति ओम की देश विदेश की जबरदस्त कामयाबी के बाद अगले वर्ष दीपिका की केवल एक फ़िल्म आई। इसमें उनके साथ नायक रणबीर कपूर थे जो नई पीढ़ी के दर्शकों में तो उस समय लोकप्रिय थे ही, पुरानी पीढ़ी भी ऋषि कपूर और नीतू सिंह के बेटे के रूप में उन्हें जानती थी।
वे कई सफ़ल फ़िल्में दे चुके थे।
"बचना ऐ हसीनो" फ़िल्म का शीर्षक एक पुराने लोकप्रिय गीत "बचना ऐ हसीनो लो मैं आ गया" से लिया गया था और पर्याप्त आकर्षक तथा कैची था।
फ़िल्मों के उस दौर में एक के बाद एक कई मिस यूनिवर्स, मिस वर्ल्ड, मिस एशिया या मिस इंडिया रही लड़कियां भी पदार्पण कर चुकी थीं। माना जा रहा था कि बॉलीवुड अभिनय का मैदान नहीं बल्कि हसीनों का जमावड़ा ही रह गया है।
ऐसे में दीपिका जैसी भावप्रवण अभिनेत्री का शायद ये ग्लैमर की इन हसीनाओं को ये कोई संकेत भी था। उन्हीं की तरह विद्या बालन जैसी हीरोइनें भी महिला प्रधान स्क्रिप्ट्स की ओर बढ़ रही थीं।
इस फ़िल्म में रणबीर और दीपिका दोनों ही एक आकर्षण की तरह थे किंतु इसने कोई बड़ी सफ़लता अपने नाम नहीं की। ये एक औसत सफ़लता वाली फ़िल्म ही साबित हुई।
इससे अगले साल दीपिका की दो फ़िल्में रिलीज़ हुईं, "चांदनी चौक टू चाइना" तथा "लव आज कल"।
चांदनी चौक टू चाइना में दीपिका की दोहरी भूमिका थी और फ़िल्म हिंदी के साथ - साथ कैंटोनी में भी थी। इसका विषय अच्छा होते हुए भी फ़िल्म सफ़ल नहीं हुई। इसके साथ ही दीपिका पादुकोण के लिए फ़िल्म के प्रोड्यूसर को इस फ़्लॉप फ़िल्म में एक "अच्छी नायिका के मिसयूज़" का आरोप भी झेलना पड़ा।
लेकिन इसी वर्ष आई फ़िल्म लव आज कल हिट हुई और इस वजह से दीपिका की शोहरत जस की तस बनी रही। दीपिका की मांग और लोकप्रियता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि इसी बीच उन्हें दो और फ़िल्मों में मेहमान कलाकार के तौर पर विशेष भूमिका में भी दिखाया गया। ये फिल्में थीं - "बिल्लू" और "मैं और मिसेज खन्ना"।
मेहमान कलाकार के रूप में दी जाने वाली विशेष भूमिका के भी कई कारण होते हैं, जैसे -
कभी - कभी कहीं दूर किसी ख़ास लोकेशन पर शूटिंग हो रही हो और संयोग से वहीं कहीं आसपास कोई अन्य बड़ा सितारा भी अपनी किसी अन्य फ़िल्म में काम कर रहा हो तो एक फ़िल्म का निर्माता सद्भाव और शिष्टाचार के चलते उसे अपनी फ़िल्म में भी दर्शा देता है। उसके लिए या तो कोई छोटी सी भूमिका तत्काल जोड़ दी जाती है या फिर उसे उसकी वास्तविक भूमिका "फ़िल्म स्टार" के रूप में ही दिखा दिया जाता है।
कभी - कभी किसी सितारे की कोई ख़ास छवि बन जाती है और वो बेहद सफ़ल व लोकप्रिय हो जाती है। ऐसे में वैसा कोई सीक्वेंस होने पर उस सितारे को मेहमान कलाकार के रूप में ले लिया जाता है।
फीमेल स्टार्स प्रायः आइटम नंबर करने के लिए भी कैमियो रोल में होती हैं। जहां केवल एक गाने के लिए उनकी छवि को भुनाया जाता है।
अगला वर्ष दो हज़ार दस दीपिका पादुकोण के लिए काफ़ी ठंडा और जोखिमभरा सिद्ध हुआ।
इस साल उनकी कुल पांच फ़िल्में रिलीज़ हुईं।
इससे उनके प्रति दर्शकों की ये भावना खंडित हुई कि वो केवल चुन- चुन कर अच्छी फ़िल्में ही ले रही हैं।
इस साल आई उनकी केवल एक फ़िल्म "हाउसफुल" हिट हुई। शेष सभी फ़िल्मों ने भारी असफलता का मुंह देखा। "कार्तिक कॉलिंग कार्तिक" और "ब्रेक के बाद" फ़्लॉप सिद्ध हुईं। "लफंगे परिंदे" औसत से भी कम सफ़लता अर्जित कर सकी। "खेलें हम जी जान से" तो बॉक्स ऑफिस पर धड़ाम से गिरने वाली फ़िल्म रही। इस फ़िल्म की नाकामयाबी का न तो कारण ही किसी को पता चल सका और न ही ये पता चला कि इतने ख़र्च व मेहनत के बाद कमी कहां रह गई।
किंतु दर्शक सिनेमाघर से कोई हिट फ़िल्म देख कर निकलता है तो उसे इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि इस कलाकार की बाक़ी फ़िल्में कैसी रहीं।
हाउसफुल के सहारे ही दीपिका का बाज़ार बना रहा। चर्चा भी बनी रही।
बड़े बजट और बड़े सितारों की महत्वाकांक्षी फिल्म का औंधे मुंह गिरना भी उससे जुड़े स्टार्स की चर्चा कम नहीं होने देता। कुछ सितारे ऐसे मुकाम पर पहुंच जाते हैं कि लोग "कोई क्यों जीता" से ज़्यादा रुचि इस बात में लेने लग जाते हैं कि "ये क्यों हारे"? दीपिका पादुकोण भी ऐसा ही नाम बन चुका था।
दीपिका की तुलना अपने समय की टॉप ब्रैकेट एक्ट्रेसेज प्रियंका चोपड़ा, करीना कपूर, विद्या बालन आदि से ही होती थी।
दीपिका का अगला वर्ष भी कोई बहुत अच्छा नहीं गया। दो हज़ार ग्यारह में उनकी दो फ़िल्में आईं। दोनों के ही नाम में पर्याप्त आकर्षण और वाइब्रेंस थी।
"आरक्षण" तो अपने नाम से ही पूरे देश का एक संवेदनशील मामला था। लोग इसके पक्ष में भी थे और विरोध में भी। इस मुद्दे में इतना दम था कि चाहे तो सरकारें पलट दे, चाहे किसी को सत्तारूढ़ कर दे। इसने राजा भी बनाए और रंक भी।
लेकिन फ़िल्म नहीं चली। दीपिका के खाते में एक और फ़्लॉप फ़िल्म की प्रविष्टि दर्ज़ हो गई।
इस साल आने वाली दूसरी फ़िल्म थी "देसी ब्वॉयज़"। इस फ़िल्म में इंडस्ट्री के ट्रेड पंडितों के हिसाब से सुपरहिट होने वाले तमाम मसाले थे। लेकिन न जाने क्यों, ये फ़िल्म भी नहीं चली।
देसी ब्वॉयज़ विदेशों में भारतीय लोगों के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला एक लोकप्रिय संबोधन है। जिसकी उत्पत्ति भी भारतीय दिमाग़ से ही हुई है और लोकप्रियता भी इसे भारतीय ज़बान ने ही बख़्शी है। फ़िल्म मल्टी स्टारर थी पर मुनाफा नहीं कमा सकी।
इस वर्ष के दौरान दीपिका पादुकोण एक अन्य फ़िल्म "दम मारो दम" के एक गीत में मेहमान कलाकार की हैसियत में ज़रूर दिखाई दीं।
दम मारो दम का शीर्षक भी एक पुरानी देवानंद - ज़ीनत अमान स्टारर फ़िल्म "हरे राम हरे कृष्ण" के शीर्षक गीत से ही लिया गया था। जिस गीत से कभी धूम मचाते हुए ज़ीनत अमान ने अपार शोहरत पाई थी।
कुल मिलाकर ये स्थिति दीपिका पादुकोण जैसी समर्थ अभिनेत्री के लिए चिंताजनक ही बन गई कि उनके दमदार अभिनय और पर्याप्त मेहनत के बावजूद उनकी फ़िल्मों का ग्राफ संतोषजनक स्तर पर नहीं दिखाई दे रहा था।
वस्तुतः यही किसी कलाकार के लिए परीक्षा की घड़ी होती है। उसका आत्मविकास डोल सकता है। लेकिन यहां ये बात वज़न रखती है कि आप भीतर से कितने स्ट्रॉन्ग हैं, आपको अपने भाग्य के ठहराव को सफ़लता में बदल पाना आता है या नहीं। आपका अपना मानसिक दमखम कैसा है।
लेकिन आख़िर वो दीपिका पादुकोण थीं।