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मुठ्ठी भर एहसान


आज कुलीना तीन दिन बाद काम पर आई थी। उसे देखते ही दीप्ति का माथा ऐसे छनका, जैसे गर्म तवा पानी का छींटा मारने पर छनकता है।
" तुम कहाँ थी तीन दिन ? बताकर तो जाना चाहिए था !"
" शांति रखो मेम साहब, सब बताती हूँ।" उसने एक गिलास पानी पिया और दीप्ति के सामने पसरकर बैठ गई।
" मेम साहब परसों मेरी शादी थी।"
" और कितनी शादी करोगी तुम, अब तक कितनी शादी कर चुकी हो?"
"यह मेरा पांचवा पति है मेम साहब, अब अगर इसकी बात नहीं मानती तो यह किसी और के पास चला जाता। चार साल छोटा जो है मुझसे, उसे तो अभी बहुत लड़कियां मिलेंगी पर मुझे अब कौन मिलेगा। एक बेटी है मेरी, बड़ी हो रही है। कुछ सालों में जब उसकी शादी हो जाएगी फिर मैं अकेले ही हो जाऊँगी न" , कह कर वह उदास हो गई।
"अरे, मिलेगा क्यों नहीं.. तू अभी भी अठारह की दिखती है। जरा देख अपने को आईने में, कितनी खुबसूरत है तू.. कोई भी तुझे देखकर अपना दिल दे दे !"
" क्या मेम साहब, आप भी मेरा मजाक उड़ाने लगी",
कह कर वह शरमा गई..!
" एक बात बता, पाँचवा कैसे..? शादी तो तुमने दो बार ही की है न.."
"अरे मेम साहब, कैसी बातें करती हो आप.. पाँच के साथ सोई तो पाँचों मेरा पति ही हुआ न..!! मैं बड़े लोगों की तरह झूठ नहीं बोलती। आपको पता है, मेरे दूसरा पति, उस बिल्डर की बीवी आज भी उसे भगवान मानकर पूजती है। साले में इतनी हिम्मत नहीं कि अपनी लुगाई को यह बता सके कि वह मेरे साथ भी सोता था। मेरा तीसरा पति, जिसकी जेब में मैंने एक चुड़ैल की तस्वीर देखी थी और फिर मैंने एक दिन रंगे हाथों पकड़ कर दोनों की खूब धुनाई की थी और उसके बाद उसे कभी अपने घर में कदम नहीं रखने दिया था।"
दीप्ति चुपचाप कुलीना की बातें सुन रही थी।
"मेमसाहब, यह मेरा पाँचवा पति तो है परंतु कभी भी एक के साथ रहते हुए मैंने दूसरे के साथ संबंध नहीं बनाए। मैं खुद कमाती हूं और अपना पेट पाल सकती हूँ.. फिर किसी की धोखेबाजी क्यों सहूं। कुछ सालों में यह प्रवीण भी मुझे छोड़ जाएगा तो कोई दूसरा मिल जाएगा। जब तक यह जवानी रहेगी, कोई न कोई तो मिल ही जाएगा। जब यह जवानी ढ़ल जाएगी तो उसके बाद समय भी किसी न किसी तरह कट ही जाएगा ।"
"मेरी बेटी पढ़ने में होशियार है, उसे मैं खूब पढ़ाऊंगी मेमसाहब.. ताकि उसे मेरी तरह घर-घर घूमकर काम नहीं करना पड़े !"
" हां कुलीना, खूब पढ़ाना उसे.. जितना बन पड़ेगा मैं भी सहायता करूंगी तुम्हारी।"
" मेम साहब आपके पहले ही बहुत उपकार हैं मुझ पर। ये एहसान मैं कभी नहीं उतार पाऊँगी!"
" चल अब ज्यादा मस्का मत मार, अपना काम कर.. मैं भी थोड़ा आराम कर लेती हूँ। तीन दिन से काम कर-कर के बहुत थक गई हूँ!"
दीप्ति आई तो थी आराम करने पर, लेकिन दिमाग में कुलीना ही चल रही थी। कितनी आसानी से कुलीना पति बदल लेती है और उसे यह सब स्वीकार करते हुए भी कोई हिचक भी नहीं होती। यहाँ तक कि शारीरिक संबंध रहे रिश्तो को भी बेहिचक स्वीकार करती है।
एक वह खुद है, जो अपने सत्ताइस साल के वैवाहिक रिश्ते को सहेजने की कोशिश में उसे ढो़ती आ रही है। साथ ही पति हेमल के गैर महिलाओं से अवांछित रिश्तों को भी सह रही है।
शादी के पहले से टीचिंग जॉब कर रही दीप्ति, जब हेमल संग सात फेरों के बंधन में बंधी तो बहुत खुश थी। कुछ समय तक सब ठीक-ठाक प्रतीत हुआ, परंतु इंसान की फितरत ज्यादा दिन नहीं छिपती.. आदत से जकड़ा इंसान अपना असली रंग दिखा ही देता है।
कुछ ही समय बाद हेमल का दिलफेंक स्वभाव सामने आने लगा‌, उत्श्रृंखलता उसका पैशन था और ऐसे नाजायज कहे जाने वाले वाले संबंध मर्दानगी का प्रतीक.. कुछ समय के अंतराल पर नई-नई लड़कियों और महिलाओं से करीबी के उसके किस्से दीप्ति के सामने आने लगे थे।
शुरू-शुरू में वह इन सब बातों को नकारता रहा, फिर धीरे-धीरे उसकी बेशर्मी सामने आने लगी।
उसने साफ साफ कह दिया "यार, रोज-रोज एक ही तरह का खाना खाकर तो जानवर भी उब जाता है। मैं तो एक इंसान हूं।"
इसे सुनकर पहली बार दीप्ति की खुद्दारी और समर्पण पर कुठाराघात हुआ था। उसने अपनी माँ से यह बात बताई।
माँ ने भी आम महिलाओं की तरह कह दिया, "पुरुष भले ही कितने भी घाट का पानी पीए। अंततः अपने घर ही वापस लौटता है।"
उसके बाद दीप्ति ने हेमल के अय्याशियों के किस्से कड़वी दवाई की तरह गटकने की आदत डालनी शुरू कर दी। स्वाभिमान तो कब का घुटकर अपना अंतिम संस्कार करवा चुका था। एक इस को संजोने का उसे संवारने का श्रेय भले ही एक महिला को मिले या नहीं मिले, परंतु उसके बर्बादी का पूरा श्रेय उसे ही मिलता है। इन सब बातों को सोचते हुए दीप्ति ने हेमल की आदतों को नजरंदाज करना सीखने लगी थी।
पति भगवान होता है और भगवान का भोग अनछुआ होना चाहिए। दीप्ति ने माँ की इसी सीख को आत्मसात करते हुए चौबीस साल की उम्र तक खुद को सामाजिक सोच के अनुसार पवित्र रखा था, वह पवित्रता.. जिसका मानक बस स्त्री शरीर हुआ करता है।
उम्र के नाजुक दौर में पनपने वाले हर सतरंगी सपने को होने वाले पति की अमानत समझकर दिल में दबाती चली आई थी।
जब कुछ ही महीने की शादीशुदा जिंदगी में यह सब अरमान टूटते से नजर आने लगे तो कई बार मन में आया इस अधूरे और अविश्वास भरे दगाबाज दांपत्य जीवन की नैया से छलांग लगाकर बाहर कूद जाए, लेकिन हमेशा संस्कार नाम की पिलाई गई घुट्टी हर बार दीप्ति के कदमों को बढ़ने से पहले ही, उसके हौसले में ब्रेक लगा दिया करते।
देर रात शराब के नशे में घर आना और दीप्ति पर हक जमाते हुए अपने पति होने का डंका पीटकर नींद के आगोश में चले जाना.. दीप्ति को अंदर तक चकनाचूर देता था।
कुछ समय बाद में मिहिर का जन्म हुआ। उसकी जरूरतों को देखते हुए दीप्ति ने हेमल के कहने पर मातृत्व अवकाश पूरा होने के बाद भी स्कूल जाना शुरू नहीं किया। अब उसकी पहली प्राथमिकता उसका बच्चा हीं था।
हेमल में कुछ सुधार तो नहीं हुआ पर मिहिर के जन्म के बाद रात को वह और देर से आने लगा था। दीप्ति भी मिहिर के साथ व्यस्त रहने लगी, इसलिए उसे भी हेमल के देर आने से पहले की तरह फर्क नहीं पड़ता था।
उसने मिहिर को क्रेच में डालकर फिर से स्कूल जॉइन कर लिया। अब वह अपने फिगर को पहले की तरह मेंटेन करने पर ध्यान देने लगी थी।
उस रात हेमल शराब के नशे में चूर देह के स्तर पर समझौता करने के लिए दीप्ति के पास आया। आवेगित पलों का लिसलिसापन लिए हेमल की अंगुलियां दीप्ति के शरीर पर कीड़े की भांति रेंग रहे थे, तभी हेमल उस निजी पलों में किसी रिद्धिमा का नाम लेकर दीप्ति को पुकारा।
अचानक दीप्ति ने उसे धक्का देते हुए कहा, "चले जाओ अपने उसी रिद्धिमा के पास.. तुम्हारे साथ मेरे सारे अरमान जलकर खाक हो गए। तुमसे मिले अपमान और तिरस्कार की गांठे फफोले बनकर नासूर देते हैं इस दिल को।"
हेमल पर उसकी बातों का कोई फर्क नहीं पड़ा। शराब के नशे से दबा हुआ वो इंसान दूसरी करवट लेकर सो गया।
रात का गुस्सा सुबह होते होते माँ की दी गई सीखो से दबकर परिस्थिति से समझौता कर लेती। दीप्ति की सोच और व्यक्तित्व के सामने हर बार उन सीखों का पलड़ा भारी रहता।
कानूनी अधिकार और सामाजिक मर्यादा की छत मिलने की चाहत एक औरत को कितना कमजोर बना देती है और अपने बच्चों को पिता का साया मिलता देखकर, वह कमजोर बनकर कैसे परिस्थितियों से समझौता करने की आदत डाल लेती है.. इसका जीता जागता उदाहरण दीप्ति थी
हेमल के रसिकपन की कहानियाँ, अब तो वह लोगों के सामने पर्दे डालकर छिपाना भी अच्छी तरह सीख गई थी। एक आम पत्नी की तरह अपने घर को बिखरने से बचाने की कोशिश में अपनी बेचारगी को छिपाना सीख लिया था उसने। हेमल की बेवफाई उसे स्वीकार थी पर लोगों का सहानुभूति दर्शाना उसे गवारा नहीं था।
समझौते पर टिका उसका यह रिश्ता कदम-कदम पर उससे कुर्बानी मांग रहा था और यह कुर्बानियाँ देते-देते उसके अंदर का स्वाभिमान कब का दम तोड़ चुका था। हर रोज उसकी अस्मिता लहुलुहान होती थी, कभी हेमल के तानों से तो कभी उसकी उत्श्रृंखलता को देखते हुए।
मुक्ति के प्रकाश की उम्मीद को एक कमजोर पत्नी ने नाउम्मीद कर दिया था, उसका दम घोंट दिया था।
समय गुजरता रहा, मिहिर बड़ा होकर मेडिकल की पढ़ाई करने चला गया। हेमल को ब्लड शुगर ने जकड़ लिया, उसका घर से लगाव बढ़ गया है। अब दीप्ति को हेमल का बदला व्यवहार पसंद आने लगा है। अतीत के चुभते घाव पर वर्तमान का मरहम लगाने लगा है।
अब सब कुछ ठीक होने लगा है, परंतु बीते सालों में किए गए समझौतों के बीच दीप्ति की खुद्दारी और स्वाभिमान उसी तरह दम घुटकर मर चुका है, जिस तरह रेशम का निर्माण करने वाला कीड़ा रेशम बनते-बनते अंदर ही अंदर घुटकर दम तोड़ देता है।
आज दीप्ति अपनी कामवाली बाई कुलीना के सामने अपना कद बेहद छोटा महसूस कर रही है। समझौते पर टिकी हुई उसकी यह जिंदगी उसे मुट्ठी भर अहसान दिलाकर उसकी गृहस्थी को बचा तो लिया, परंतु उसके अंदर के उस दीप्ति को मार दिया, जो किशोरावस्था से ढ़ेरों सपने देखते हुए मजबूत व्यक्तित्व की स्वामिनी बनने के ख्वाब बुना करती थी। भले ही दीप्ति अपने घर को बिखरने से बचा चुकी है, लेकिन सामाजिक मान्यताओं को ढ़ोते हुए अपने प्रेम-विहीन घर को बचाने की कोशिश में वह अपने स्वाभिमान की बलि चढ़ाकर, अपने वजूद का गला घोंटकर एक जीती जागती लाश बनकर रह गई है। आज वह कुलीना के सामने अपने आपको बेहद बौना महसूस कर रही है.. और वह जिंदा लाश अपने आप में सिमटकर सोच रही है कि काश ! इन भौतिक सुख-सुविधाओं का मोह न रखकर करके अपने आप को जीवित रख पाती तो कम से कम अपने आप से तो नजरें मिला पाती.. उसे इस मुट्ठी भर एहसान की बहुत महंगी कीमत चुकानी पड़ी..!!

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