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एक उदास सांझ। सांझ कभी-कभी बहुत उदास होती है। सांझ चाहे गर्मी की हो चाहे सर्दी की या चाहे बारिश की हो। उदासी है कि दूर ही नहीं होती।
ऐसी ही उदास सांझ ढले मां घर के ओेसारे मंे बैठी हुई थी। पुराने अच्छे दिनांे की याद मंे उसकी आंखांेे मंे आंसू आ गये थे। उसी के मौहल्ले मंे कुछ मांए ऐसी भी थी कि दुःख ही दुःख। उसने सोचा एक मां पांच-पांच बेटों को पालती हैं और पांच बेटे मिलकर मां को नहीं पाल पाते। कैसा निष्ठुर है समय। बेटे अमावस से पूनम तक मां को इधर-उधर करते रहते और एकम हो जाने पर गरियाते। मगर मां का क्या है। वह तो मां ही रहती है।
ओसारे मंे अन्धेरे मंे उसे कुलदीपक आता दिखा। पांव लड़खड़ा रहे थे, उसे कुछ बुरा लगा। मगर कुलदीपक ही मां का एकमात्र सहारा था।
झपकलाल कोे डांटना आसान था, मां ने उससे ही कहा
‘अरे झपक ये सब क्या करते हो तुम लोग ?’
क्या करें मां ये सब तो इसकी पुस्तक छपने पर हुआ है।
‘कविता की पुस्तक बिकती नहीं और तुम लोग कुछ का कुछ कर डालते हो।’
‘मां मैं........बड़ा कवि हूं।
‘बड़ा कवि है मेरी जूती।’
रोटी खा और सो जा।
मां ने आंसू पांेछते हुए कुलदीपक को सुला दिया।
मां फिर पुराने दिनों मंे खो गई। बापू की यादंे। घर की यादें। मां बाप की यादें। बापू की अच्छी नौकरी की यादंे। यशोधरा की यादंे। यादंे और बस यादंे। मां फिर फफक पड़ी मगर अन्धेरी रात मंे काले साये ही उसके साथ थे। मां मन ही मन खूब रो चुकी थी। प्रकट मंे भी रो चुकी थी। उसे केवल कुलदीपक की शादी की चिंता थी। एक बहू हो तो घर मंे रौनक हो और कामकाज आसान हो।
दामाद की खोज उसे नहीं करनी पड़ी थी, मगर बहू की खोज मंे वो दुबली हो जा रही थी। समय ने उसके चेहरे पर अपने हस्ताक्षर कर दिये थे। वो रोज कई बरस बुढ़ा जाती थी। बापू के जाने के बाद अकेलेपन के कारण उसे जल्दी से जल्दी दुनिया छोड़ने की इच्छा थी मगर राम बुलाये तो जाये या बहूं आ जाये तो जाऊं, यही सोचते-सोचते बूढ़ी मां की आंख लग गई।
कुलदीपक रात मंे उठे तो देखा मां सोई पड़ी है। उन्हांेने मां को कम्बल ओढ़ाया खुद भी कथरी ली और सो गये। बाहर कहीं कुत्ते भौंक रहे थे, मगर कुलदीपक घोड़े-गधे सभी बेचकर सो रहे थे।
सुबह चेत होने पर मां ने कुलदीपक को प्रेम से उठाया। उनका सर भन्ना रहा था। धीरे-धीरे ठीक हुआ। मां ने चाय के साथ नाश्ते मंे बहू का राग अलापा।
कुलदीपक इस आलाप से दुःखी थे। प्रलाप की तरह समझते थे और आत्मालाप करना चाहते थे, सो बोल पडे़।
‘मां अभी तो मुझे आगे बढ़ना है। कुछ नया अच्छा करना है।’
‘वो सब पूरी जिन्दगी भर चलता रहेगा।’
‘अभी नही मां। शीघ्र ही चुनाव हांेगे उसके बाद देखंेगे।’
‘चुनाव से तुझे क्या लेना-देना है। बहू का चुनाव से क्या सम्बन्ध है।’
‘कभी-कभी सम्बन्ध हो जाता है मां। पीढ़ियांे का अन्तराल है मां, तुम नहीं समझोगी।’ ये कहकर कुलदीपक ने अखबार मंे आंखे गड़ा ली।
मां बड़बड़ाती हुई अन्दर चली गई।
कुलदीपक खुद शादी के लिए तैयार थे। मां तैयार थी, रिश्ते मंे दूर के मामाजी को भी कुलदीपक ने आचमन के सहारे पटा लिया था। मगर कमी थी तो बस एक अदद लड़की की। एकाध जगह मामाजी ने बात चलाई पर कुलदीपक के लक्षण देखकर लड़की वाले बिदक गये। एक अन्य लड़की वालांे ने स्पष्ट कह दिया लड़की के नाम पर एफ.डी. कराओ। कुलदीपक की स्थिति एफ.डी. की नहीं थी, मामू की हालत और भी पतली थी। मां की जमा पूंजी से निरन्तर खरच होता रहता था।
अखबार मंे लिखने से जो आता उससे कुलदीपक के खुद के खर्च ही पूरे नहीं पड़ते थे। कुलदीपक की बहन यशोधरा का आना-जाना लगभग बन्द था। उसके पति ने एक नये खबरियां चैनल मंे घुसने का जुगाड़ बिठा लिया था। इस समाचार से कुलदीपक की स्थिति और बिगड़ गयी। समीक्षा का कालम साप्ताहिक से मासिक हो गया। हास्य-व्यंग्य की जगह लतीफांे ने ले ली।
कुलदीपक लगभग बेकार की स्थिति को प्राप्त हो गये। ऐसे दुरभि संधिकाल मंे कुलदीपक मकड़जाल की तरह फंसे हुए थे। क्या करूं, क्या न करूं के मायामोह मंे उलझे कुलदीपक के भाग्य से तभी छीकां टूटा।
मामू ने पड़ोस के एक गांव की एक सधःविधवा से बात चलाई। और बात चल पड़ी।
ग् ग् ग्
यशोधरा के पति-सम्पादक अविनाश जिस खबरिया चैनल मंे घुसने मंे सफल हो गये थे उसकी अपनी राम कहानी थी। सेठजी पुराने व्यापारी थे, खबरिया चैनल के सहारे उनके कई धन्धे चलते थे। सरकार कोई सी भी आये वे देख-संभलकर चलते थे। चैनल की टी.आर.पी. बनाये रखने के हथकड़ांे के वे गहरे जानकार थे। टीम भी चुन-चुनकर रखते थे। प्रतिद्वन्दी की टीम के चुनिन्दा पत्रकारांे को उच्च वेतन पर तोड़कर बाजीगरी दिखाते रहते थे। कभी-कभी उनके चैनल के पत्रकार भी भाग जाते थे, मगर वे पहले से ही ज्यादा स्टाफ रखते थे। भागने वाले पत्रकार को थोड़े दिनों के बाद दूसरी जगह से भी निकलवाने के तरीके वे जानते थे।
इन परिस्थितियांे मंे अवनिाश को अपना प्रिंट मीडिया का अनुभव काम मंे लेते हुए अपना वर्चस्व सिद्ध करना था। अविनाश ने एक शानदार न्यूजस्टोरी बनाने के लिए कन्या भू्रण हत्याआंे का मामला हाथ मंे लिया। अविनाश अपने साथ एक विश्वस्त कैमरामेन लेकर शहर-दर-शहर निजि नर्सिगहोमांे मंे जाने लगा। धीरे-धीरे उसे पता चलने लगा कि पर्दे के पीछे क्या खेल है। अक्सर गर्भवती महिलाएंे, उनके पति व घर वाले सोनोग्राफी कराते, कन्या होने पर भू्रण नष्ट करने के बारे मंे कहते। डॉक्टर शुरू मंे मना कर देती, मगर उच्च कीमत पर सब कुछ करने को तैयार हो जाती। डॉक्टरांे का एक पूरा समूह इस काम मंे हर शहर मंे लगा हुआ था। अविनाश ने छोटे शहरांे को पकड़ा। आश्चर्य कि वहां पर भी यह गौरखधन्धा खूब चल रहा था। खूब फल-फूल रहा था।
अविनाश ने नर्सिग होमांे मंे कैमरे के सामने डॉक्टरांे को पकड़ने के प्रयास शुरू किये। स्टींग ऑपरेशन किये। एक महिला को गर्भवती बताकर उसके बारे मंे बातचीत डॉक्टरांे से की। रिकार्डिंग की। सोनोग्राफी वाली दुकान पर भी रिकार्डिंग की ओर एक पूरी न्यूज स्टोरी बनाई जिसमंे लगभग बीस केसेज थे। फुटेज को देखकर चैनल सम्पादक प्रसन्न हुआ। उसे जारी करने का अन्तिम फैसला सेठजी को करना था। सेठजी ने स्वयं फुटेज देखे। एक डॉक्टर उनकी रिश्तेदार थी। उसका फुटेज रोक दिया गया। शेष न्यूज स्टोरी यथावत हुई। पूरे देश मंे धमाका सा हुआ। मेडिकल काउन्सिल ने कुछ समय बाद डॉक्टरांे का पंजीकरण रद्द कर दिया। केस चला। डॉक्टर गिरफ्तार हुए। मगर सब बेकार क्यांेकि कुछ समय बाद मेडिकल काउन्सिल ने पंजीकरण रद्द करने का प्रस्ताव वापस ले लिया।
अविनाश बड़ा निराश हुआ। पहले प्रिन्ट मीडिया मंे भी गुर्दे बेचने के प्रकरणो मंे मीडिया को अपेक्षित सहयोग नही मिला था। इस संताप के चलते अविनाश कुछ दिनांे से उदास था। घर पर ही था। उसे दुःखी देख यशोधरा ने पूछा।
‘क्या बात है ?’
‘देखो कितनी मेहनत से और कितना समय लगाकर हम लोगांे ने कन्या भू्रण हत्याआंे पर यह कथा तैयार की थी और हमंे सफलता भी मिली थी। मगर सब गुड़ गोबर हो गया।’
‘अब नियमांे के सामने कोई क्या कर सकता है।’
‘नियमांे का बड़ा सीधा-सा गणित है आप व्यक्ति बताइये मैं नियम बता दूंगा। हर व्यक्ति के लिए अलग नियम होते है। प्रभावशाली व्यक्ति के लिए नियम अलग और गरीब, मजलूम, लाचार, मोहताज के लिए अलग नियम।’
‘अब ये सब तो चलता ही रहता है।’
‘लेकिन कब तक...........कब तक.........ये सब ऐसे ही चलता रहेगा।’
‘अविनाश ये प्रजातन्त्र की आवश्यक बुराईयां है। हमंे प्रजातन्त्र चाहिये तो इन बुराईयांे को भी सहन करना होगा।’
‘मगर इन सबसे प्रजातन्त्र की जड़ंे खोखली हो रही है।’
‘ऐसा नही है, इस महान देश की महान परम्पराआंे मंे प्रजातन्त्र बहुत गहरे तक बैठा हुआ है।’
‘लेकिन व्यवस्था मंे सुधार कब होगा।’
‘‘व्यवस्था जैसी भी है हमारी अपनी तो है। पास-पड़ोस के देश को देखो उनसे तो बेहतर है हम।’
‘हाँ यहाँ मैं तुमसे सहमत हूं।’
अविनाश काम पर जाना ही नहीं चाहता था। मगर काल ड्यूटी पर उसे जाना पड़ा। यशोधरा ने उसे भेजा और अविनाश को एक नये काम मंे जोत दिया गया। अविनाश इस त्रासदायक स्थिति मंे भी अपना संतुलन बनाये रखना चाहता था सो उसने एक नई बीट पर काम करना शुरू कर दिया।
यशोधरा को बहुत दिनांे के बाद मां की याद आई। उसने मां से फोन पर बात की।
‘कैसी हो मां।’
तुम तो हमंे भूल ही गई। तेरे बापू के जाने के बाद हमारी स्थिति ठीक नहीं है बेटी। कुलदीपक कुछ करता-धरता नहीं कविता से रोटी मिलती नही।
‘ऐसी बात नहीं है मां सब ठीक हो जायेगा, तुम अपनी सेहत का ध्यान रखना। मैं किसी दिन इनको लेकर मिलने आऊंगी। यशोधरा ने फोन रख दिया।
अविनाश के सेठजी राज्यसभा मंे घुस गये थे। एक अन्य पत्रकार मित्र ने रक्षा मंत्रालय मंे व्याप्त भ्रष्टाचार पर एक कथा शुरू की थी, उसे एक बड़े चैनल को देकर सेठजी विपक्ष की सीट पर राज्यसभा में घुस गये थे। अविनाश का मन वितृष्णा से भर गया था। मगर हर क्षेत्र मंे अच्छे और बुरे लोग है ऐसा सोचकर मन मसोसकर रह गया। अविनाश को भी लगता खबरिया चैनल से प्रिंट मीडिया अच्छा है, कभी लगता खबरिया चैनल में जो रोबदाब है वो वहां-कहां। इधर इन्टरनेट पर भी चैनल चलने लगे थे।
ऐसे ही एक इन्टरनेट साइट ‘पर्दाफाश डॉट काम’ पर नियमित रूप से अच्छी सामग्री आ रही थी, अतिरिक्त आय के साधन से रूप मंे अविनाश ने इस साइट पर सामग्री देना शुरू किया। इन्टरनेट पर तहलका से सभी परिचित थे। रक्षा मंत्रालय के सौदांे मंे व्याप्त अनाचार की रपटांे ने एक पूरी केन्द्रीय सरकार को लील लिया थ। पर्दाफाश डॉट काम इतनी कामयाब नहीं थी मगर इन्टरनेट पर मशहूर थी। अविनाश अपने काम से खुश तो रहता मगर इतने दवाबांे के कारण मनमर्जी का लिखना पढ़ना मुश्किल था, उसे कभी-कभी अपनी स्थिति पर बेहद दुःख होता। दुःखी अविनाश यशोधरा को अपने मन की बात बताता और हल्का हो जाता।
यशोधरा उसे लाड लड़ाती और वो दुगुने उत्साह से काम मंे लग जाता। उसके सेठजी ने एक शॉपिग माल बनाने का निश्चय किया, शहरी विकास प्राधिकरण से सब कामकाज निकलवाने मंे अविनाश की कथा का बड़ा योगदान रहा, माल बना। खूब बना। शानदार बना। अविनाश की प्रोन्नति हुई, मगर उसे यह रिश्वत का ही एक प्रकार लगा। यशोधरा भी उससे सहमत थी। मगर वे चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते थे। ईमानदारी से सिर्फ रोटी खाई जा सकती है, भौतिक समृद्धि के लिए नियमांे मंे ऊंच-नीच आवश्यक है। अविनाश को ये सब समझ मंे आ गया था।
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आजादी के बाद प्रजातन्त्र के नारांे के बीच एक बड़ा नारा उभर कर ये आया कि भविष्य का युग गठबन्धन सरकारांे का युग है। नेहरू, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी का करिश्माई युग समाप्त हो गया और गठबन्धन के सहारे सरकारंे घिसटने लगी। घिसटने वाली ये सरकारंे बड़ी नाजुक चीज होती है। कोई भी चाबुक मारे तो चलने का नाटक करती है, वरना सत्ता की सड़क पर खड़ी-खड़ी धुंआ देती रहती है।
एक बार तो एक ऐसी गठबन्धन सरकार बनी जिसके एक और वामपन्थी बैठते थे और दूसरी और धु्रव दक्षिणपन्थी। गठबन्धन सरकारांे का जीवन अल्प होता है, मगर अकड़ भंयकर होती है। एक दल ने तीन बार सरकारंे बनाई मगर कामयाबी नही मिली। दो-दो प्रधानमंत्री ऐसे बने जिन्हांेने संसद का चेहरा तक नहीं देखा।
आजकल भी ऐसी ही एक गठबन्धन सरकार का जमाना है। सरकार के बायंे हाथ मंे हर समय दर्द रहता है। कभी-कभी यह दर्द पूरी सरकार के शरीर मंे हो जाता है। कभी सरकार गिरने का नाटक करती है और कभी सरकार को गिराने का नाटक किया जाता है। कभी हनीमून खत्म का राग तो कभी तलाक की धमकी।
सरकार को बाहर से समर्थन अन्दर से भभकी। तुम चलो एक कदम। पीछे आओ दो कदम। सरकार की कदमताल से जनता हैरान। परेशान। दुःखी।
पानी, बिजली, सड़क, स्वास्थ्य, आतंकवाद सभी पर सरकार का एक जैसा जवाब अकेली सरकार क्या-क्या करें। कितना करे। सरकार के बस मंे सब कुछ नहीं। मन्दिर-मस्जिद पर हमला। सरकार का स्पष्ट जवाब सब जगह सुरक्षा नहीं की जा सकती । अल्पसंख्यकांे पर अत्याचार, हत्या, सरकार का जवाब जनता अपनी सुरक्षा स्वयं करें।
गठबन्धन सरकारांे की नियति है सड़क पर धुआं देना। अपनी साख देश-विदेश मंे बिगाड़ना। नई अर्थव्यवस्था के नाम पर गठबन्धन सरकारांे नेे ऐसे ताव खाये कि पूछो मत। हत्यारंे तक मंत्री बन जाते है और मुखिया कुछ नहीं कर पाते। ले-देकर एकाध ईमानदार आदमी को कुर्सी पर बिठा दिया जाता है वो निहायत शरीफ व्यक्तित्व होता है। उसको चलाने वाले दूसरे होते है, ये दूसरे संगठन-सत्ता, समाज सब पर काबिज रहते है। ईमानदार शरीफ सरकार का मुखिया बेईमानी पर चुप्पी साध लेता है और अपराधी को बचाने की अन्तिम कोशिश मंे लगा रहता है, सरकार जो चलानी है। मुखिया की केबिनेट मंे किसे रखना है ये सहयोगी दल तय करता है। घोषणा कर देते है और मुखिया को मानना पड़ता है।
राज्य सरकारांे की स्थिति तो और भी दयनीय है। वहां पर हर काम के लिए केन्द्र का मुंह ताकना पड़ता है। कई गठबन्धन सरकारंे तो एक सप्ताह भी नहीं चली। प्रजातंत्र के मुखिया के रूप मंे एक बार एक राज्य में कुछ दिनांे तक दो-दो मुख्यमंत्री रहे। जो हारा उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया।
प्रजातन्त्र मंे जनता की कौन सुनता है आजकल चुनाव जीतने के नये-नये हथकण्डे आ गये है और जीतने के बाद जनता के दरबार मंे जाने की परम्परा समाप्त हो गई है।
ऐसी ही स्थिति मंे चुनाव आये। राज्यांे के चुनावांे से ठीक पहले साम्प्रदायिक दंगांे पर एक चैनल ने जोरदार ढंग से स्टिंग ऑपरेशन किये। व्यक्ताआंे ने जोर-शोर से आतंक के जौहर दिखाये। गर्भवती महिलाआंे के पेट चीरने की घटना का सगर्व बखान किया गया। चुनावी दावपंेच मंे मानवता खो गई। जमीन और आसमान को शरम आने लगी मगर कलंक नहीं धुले।
चुनाव आयोग नमक संस्था का राजनीतिकरण कर दिया गया। संविधानिक संस्थाआंे का भंयकर विघटन शुरू हो गया। प्रेस मीडिया पर हमला आम बात हो गयी। मीडिया को मैनेज करने वाले स्वयं की मार्केटिंग करने लगे।
माधुरी को अपने स्कूल के मैनेजमंेट की मिटिंग बुलानी थी। शुक्लाजी को स्थायी प्राचार्य बनाना था। शुक्लाईन से राजनीति की सीढ़ी चढ़नी थी।
उसने अपने कमेटी की मिटिंग बुलाने के लिए शुक्लाईन से बात की।
‘बोलो तुम क्या कहती हो ?’
‘मै क्या कहूं। मैं तो आपके साथ हूं। शुक्लाजी को पक्का करना है।’
‘वो तो ठीक है मगर स्कूल मंे काफी गड़बड़िया है।’
‘वो पुरानी है। शुक्लाजी धीरे-धीरे सब ठीक कर देगंे।’
‘मगर एम.एल.ए. भी तो सदस्य हैै।’
‘उन्हंे तो आप ही मना-समझा सकती है।’
‘मै अकेली क्या-क्या करूं?’
‘फिर आपको टिकट भी तो लेना है। चुनाव आ रहे है।’
‘हां यही चिन्ता तो खाये जा रही है?’
‘आप एक काम करे। शाम को मीटिंग से पहले नेताजी से मिल ले?’
‘उससे क्या होगा। मेरे अकेले मिलने से कुछ नहीं होगा।’
‘पार्टी फण्ड मंे पैसा दे देना।’
‘वो तो मैं पहले ही कर चुकी हूं।’
‘फिर डर किस बात का है ?’
डर है कि नेताजी किसी अपने आदमी को फिट करने को न कहे।
‘हाय राम। ऐसा हुआ तो मैं तो बेमौत मर जाऊंगी। शुक्लाजी का क्या होगा।’
‘यही तो मैं भी सोच रही हूं। ऐसा करो चाय पीकर अपन नेताजी के बंगले पर चलते है। वो ही कोई रास्ता निकालंेगे।’
‘ठीक है।’
माधुरी और शुक्लाईन नेताजी के बंगले पर पहुंची। शाम गहरा रही थी। नेताजी सरूर मंे थे। घर मंे सन्नाटा था। यह बंगला शहर से कुछ दूरी पर एक फार्म हाऊस पर था।
‘कहो भाई कैसे आई आज दो-दो चांद एक साथ..........।’ हो-हो कर नेताजी हंसे।
दोनो चुप रही। शर्माई।
नेताजी फिर बोले। ‘जरूर कोई बात है। ठीक है बताओ।’
माधुरी ने मैनेजमंेट की मीटिंग और शुक्लाजी को प्रिन्सिपल बनाने की बात की।
नेताजी बोले। ‘बस इतनी सी बात.........ठीक है। मैं मीटिंग मंे नहीं आऊंगा। तुम शुक्लाजी का प्रस्ताव पास कर देना।’
‘हां यही ठीक रहेगा। मगर आप नाराज तो नहीं होंगे।’
‘इसमंे नाराजगी की क्या बात है। आपने पार्टी फण्ड दिया है। अगला चुनाव सिर पर है। हमंे भी वोट चाहिये। और फिर शुक्लाजी भी तो हमारे ही आदमी है। मुझे अपने किसी आदमी को फिट नहीं करना है।’ नेताजी ने कुटिलता के साथ शुक्लाइन को देखते हुए कहा।
शुक्लाइन कांप गई। माधुरी ने उसका हाथ दबाकर चुप रहने का इशारा किया। शुक्लाइन चुप ही रही।
चुप्पी का लाभ भी उसे स्पष्ट दिखाई दे रहा था। शुक्लाजी को प्रिन्सिपल की स्थायी पोस्ट। माधुरी को टिकट और कुछ वर्षों मंे एक अदना स्कूल, एक निजि विश्वविद्यालय। ये सपने माधुरी भी देख रही थी। शुक्लाईन भी देख रही थी। सपनांे को हकीकत मंे बदलने के लिए नेताजी की जरूरत थी। नेताजी को शुक्लाईन की जरूरत थी। माधुरी उसे छोड़ कर गई। वापसी मंे सुबह शुक्लाईन जब नेताजी की कार मंे लुटी-पिटी लौट रही थी तो उसने देखा कि मंत्री की कार से नेताजी की धर्मपत्नी भी लगभग वैसी ही स्थिति मंे उतर रही थी। उसे देखकर शुक्लाईन के चेहरे पर मुस्कान थी। दोनांे की आंखे मिली। और कार आगे बढ़ गई।
मैनेजमंेट की मिटिंग हुई। शुक्लाजी प्रिंसिपल हुए। शुक्लाईन स्थायी टीचर बन गई। मगर चुनावांे के दौर मंे माधरी को टिकट विपक्षी पार्टी से लेना पड़ा वो तो बाद मंे पता चला कि विपक्षी पार्टी से भी टिकट तो नेताजी ने ही दिलवाया था। माधुरी ने चुनाव मंे ज्यादा खर्चा नहीं किया। जो पक्के वोट थे। वो आये। वो हार गई। मगर इस हार मंे भी उसकी जीत थी।