असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 9 Yashvant Kothari द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 9

9

कुलदीपक और झपकलाल हिन्दी के परम श्रद्धेय मठाधीश आचार्य के आवास पर विराजमान थे। आचार्यश्री आलोचक, सम्पादक, प्रोफेसर थे। छात्राआंे मंे कन्हैया थे और छात्रांे मंे गोपियांे के प्रसंग से कक्षा लेते थे। अक्सर वे कक्षा के अलावा सर्वत्र पाये जाते थे। कई कुलपतियांे को भगाने का अनुभव था उनको। ऐसे विकट विरल आचार्य के शानदार कक्ष मंे ढाई आखर फिल्मांे के पर चर्चा चल निकली।

आचार्य बोले।

‘आजकल कि फिल्मांे को क्या हो गया है। न कहानी, न गीत, न अभिनय।’

‘सर इन सब के तालमेल का नाम ही फिल्म है। और मनोरंजन के नाम पर देह-दर्शन ही सब कुछ है।’ झपकलाल बोले।

‘सर वास्तव मंे देखा जाये तो या तो अश्लीलता बिकती है या फिर आध्यात्मिकता।’

‘तुम ठीक कह रहे हो।’साहित्य मंे भी यही स्थिति है। अश्लील साहित्य धडल्ले से बिकता है या फिर आध्यात्मिक साहित्य। वैसे भी इहलोक और परलोक दोनांे सुधारने का इससे बेहतर रास्ता नहीं है। आचार्य ने अनुशासन दिया।

मगर कुलदीपक कब मानने वाले थे। इधर ओम शान्ति ओम और सांवरिया फिल्मांे के प्रोमो और विज्ञापन बजट देख, सुनकर उनके दिमाग मंे फिल्मी समीक्षा का कीड़ा फिर   कुलबुलाने लगा था। बोले पड़े।

‘सर कल तक फिल्मांे मंे अमिताभ बिकते थे। आज शाहरूख का जमाना है।’

‘यह अफलातून हीरो आज की पीढ़ी का आदर्श है।’ झपकलाल बोले।

‘मगर देवदास मंे तो फ्लोप रहा।’

‘देवदास की बात कौन करता है। दिलीप कुमार के बाद वैसी एक्टिंग संभव भी नहीं है।’ न भूतो न भविष्यति। वो तो ट्रेजेडी किंग था, है और रहेगा। आचार्य ने फिर छौंक लगाया।

आचार्य के ज्ञान के छौंक से दोनांे युवा त्रस्त हो गये थे। फिल्मी ज्ञान के मामले मंे कुलदीपक अपने आपको विश्व प्रसिद्ध समीक्षक समझते थे। मगर इन दिनों उनका फिल्मी समीक्षा का कालम बन्द पड़ा था। फिर भी वे फिल्मांे के फटे मंे अपनी टांग अड़ाया करते थे। शहर मंे वैसे भी फिल्मांे, मॉडलांे, संगीत, लाफ्टर चैलेज जैसे मनोरंजक कार्यक्रमांे मंे मुफ्त पास के चलते वे अक्सर नजर आते थे। आचार्यजी के पास केवल सैद्धान्तिक ज्ञान था प्रायोगिक कार्य वे पी.एच.डी. की शोध छात्राआंे का मार्ग निर्देशन करके करते थे। बोले।

‘कभी मधुबाला, बाद मंे हेमा, माधुरी दीक्षित, मीना कुमारी और श्रीदेवी जैसी हिरोईने थी।’

‘मगर आज कल वो बात कहां.........।

अब फिल्मांे मंे आर्ट वर्क नहीं रहा। कल्चर नही रहा। अब तो सब तकनीक का कमाल है।

‘जी सर और तकनीक में कम्प्यूटरांे के विशेष प्रभावांे से मिलकर फिल्म बन जाती है अब फिल्मी गानांे की हालत ये है कि एक गायक अपनी लाइन गाकर आ जाता है और दूसरा गायक अपनी सुविधा से बाद मंे गाकर कम्प्यूटर की मदद से सम्पादक द्वारा गाना पूरा हो जाता है।

और यही स्थिति अभिनय की है। कुलदीपक ने टांका भिड़ाया।

आचार्यजी फिल्मांे के शौकीन तो थे, मगर सामाजिकता के कारण घर पर ही सब देख लेते थे। श्रीमती आचार्य वैसे भी उनके व्यवहार और क्रियाकलापांे से बहुत दुःखी, परेशान रहती थी, मगर बड़ी होती बच्चियांे की खाातिर सब सहन कर जाती थी।

झपकलाल भी बेकार थे और कुलदीपक भी। दोनांे आचार्य की सेवा मंे काम की तलाश मंे आये थे।

इधर आचार्य जी विश्वविद्यालय की कई कमेटियांे के सदस्य थे। हर कमेटी को दुधारू गाय समझते थे। अक्सर अपनी पुस्तक, लेख, कविता, कहानी, नाटक आदि को कोर्स मंे घुसाने मंे लगे रहते थे। वैसे भी विश्वविद्यालय मंे प्रसिद्ध था कि आचार्यजी कक्षा के अलावा सर्वत्र पाये जाते है। कुलदीपक ने बात छेड़ी।

‘सर सुना है इस बार आपकी पुस्तक र्कोर्स मंे लगेगी।’

‘तो इसमंे क्या खास बात है। पुस्तक अच्छी है। मैरिट मंे है। प्रकाशक अच्छा है और प्रकाशक ने थैली का मुंह खोल दिया है।’

‘लेकिन सर सुना है दूसरा प्रकाशक भांजी मारने को तैयार बैठा है।’

‘सब अपनी-अपनी कोशिश करते है। सफलता किसे मिलती है यह भाग्य का नही कुलपति से जान-पहचान का खेल है। वर्तमान कुलपति हमारी जाति का है, हमारे क्षेत्र का है और मेरे उनके सम्बन्ध बहुत अच्छे है। और वैसे भी सबसे बड़ी रिसर्च यही है कि चांसलर आपको व्यक्तिगत रूप से जानता है या नहीं। पेपर लिखने मंे क्या रखा है।

‘हां सर।’

पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ पण्डित भया न खोय,

ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय।

सब हो-हो कर हंस पड़े। मगर कुलदीपक का काम अभी हुआ नही था। बोला।

‘सर कुछ लिखने-पढ़ने का काम हो तो बताईये।’

‘हां है, एक प्रकाशक कुंजी लिखवाना चाहता है, पचास रूपये पेज देगा। मेरे नाम से छप जायेगी।

‘आपके नाम से।’

क्यांे क्या हुआ। सांप क्यांे सूंघ गया।’

‘नही सर। लेकिन कुल कितने पेज का काम है।’

‘यही कोई तीन सौ पृष्ठ ।’

‘अच्छा आपकी दक्षिणा क्या होगी।’ झपकलाल ने स्पष्ट पूछ लिया।

‘मैं कोई दक्षिणा-दक्षिणा नही लूंगा। स्काच हो तो ठीक है वरना कौन धर्म भ्रष्ट करेें।

दोनो समझ गये। सांयकालीन आचमन आचार्यजी के प्रकाशक के कार्यालय मंे सम्पन्न हुआ। कंुजी लिखी गयी। आचार्यजी के नाम से छपी। कुलदीपक, झपकलाल को प्रकाशक ने पारिश्रमिक दिया। जिसे प्रकाशक ने पुरस्कार कहा और दोनांे लेखकांे ने मजदूरी। इस मजदूरी की बदौलत कुलदीपक कई दिनांे तक मस्त रहे।

अचानक एक रोज मामू आ धमके। मामू पास के गांव मंे ही रहते थे और कुलदीपक के विवाह चर्चा मंे अक्सर भाग लेने के लिए बिना टिकट आते-जाते रहते थे। वापसी का इन्तजाम कुलदीपक के जिम्मे था। आज भी मामू ने कहा।

‘प्यारे भानजे। तुम्हारी सगई का राष्ट्रीय कार्यक्रम अब सम्पन्न होने ही वाला है। मैंने लड़की के घर वालांे से सब बातचीत कर ली है। बस एक अड़चन है।’

‘क्या।’

‘लड़की विधवा तो है ही, लेने-देने को भी कुछ नही है।’

‘अब मामू लेने-देने की बात छोड़ो जमाना कहां से कहां चला गया है। जैसे-तैसे घर बस जाये बस। मां बेचारी कही बहू की शक्ल देखे बिना स्वर्ग नही सिधार जाये।

‘मां को स्वर्ग जाने की इजाजत ही तब मिलेगी जब तुम्हारे हाथ पीले हो जायेंगे बच्चू।’

‘मामू अब अधिक ना सताओ। हमारा ब्याह कराओ।’ कुलदीपक ने लाड़ से कहा। मगर मामू पर इन सबका कोई असर नहीं हुआ।

मामू चुपचाप घर की ओर चल पड़े। मां से बातचीत की। गली-मोहल्ले मंे दुआ-सलाम की ओर ओसारे मंे बैठकर मां से बतियाने लगे।

‘छुटकी अब समय बदल गया है कुलदीपक का ब्याह उसी छोटी से करना पड़ेगा।’

‘तुम उसको छोटी बोलते हो। वह कुलदीपक से उम्र मंे बड़ी है।’

‘उससे क्या फर्क पड़ता है बहना बड़ी बहू बड़ा भाग।’

‘लेकिन विधवा भी तो है।’

‘वो तो मैंने तुमसे पहले ही कह दिया था।’

‘अब जैसा हमारा भाग्य भैया तुम डोल जमाओ।’

‘बहना डोल जमाने के लिए कुछ चाहिये।’ मां से हजार रूपये खींचकर मामू लौटती रेल से भावी बहू के घर गये। मामला फिट फाट कर वापस आये तो खुश थे।

मगर कुलदीपक के मन मंे फांस थी। वे मजबूर थे। मजबूत बनना चाहते थे। मां भी खुश न थी । लेकिन सब ठीक-ठाक करनेका ठेका भी मामू के पास नहीं था।

एक रोज अच्छी साइत देखकर मामू, झपकलाल, कुलदीपक और एक-दो बिरादरी वालांे के साथ जाकर उस विधवा का उद्धार कर कुलदीपक अपने कस्ब मंे लौट आये। हनीमून के चक्कर मंे पड़ने के बजाय वे नून तेल लकडी़ के चक्कर मंे फंस गये। यथासमय मां बहू का मुंह देखकर स्वर्ग सिधार गई। प्रगतिशील जनवादी कुलदीपक ने सिर मुंडवां कर मां का पूरा विधि विधान से श्राद्ध किया ताकि मां और बाबूजी की आत्मा को एक साथ शान्ति मिले।

शान्ति मिली या नही, यह कुलदीपक नही जान सके।

ग् ग् ग्

कल्लू मोची अपने ठिये पर बैठा था। तथा जबरा कुत्ता चाय की आस लिये पास मंे कूं-कूं कर रहा था। इसी समय पास की बिल्डिंग मंे रहने वाली सेठानी अपनी चप्पले ठीक कराने के लिए आई।

कल्लू मोची ने पहले तो सेठानी का मुआईना किया। फिर टूटी चप्पलांे को निहारा और हाथ से उसके टूटे हिस्से को झटका दिया। फलस्वरूप चप्पल का तला और टूट गया। सेठानी ने मरम्मत के दाम पूछे।

‘कितने लोगे।’

‘पांच रूपये लगेंगे।’

एक मामूली सिलाई के पांच रूपये।

‘आप इसे मामूली कहती है देखिये। यह कहकर कल्लू ने चप्पल को जोर से मरोड़ा चप्पल चरमरा गई।

‘सेठानी बोली ये तुमने क्या किया। मेरी अच्छी भली चप्पल तोड़ दी।’

‘अच्छी थी तो मरम्मत के लिए क्यांे लाई थी।’

‘अरे भाई मामूली काम था, तुमने तो काम ही बढ़ा दिया।’

‘अब सेठानी जी कभी-कभी गरीबांे को भी बख्क्षो। आज मुझे भी कमा लेने दो।’

‘तुम लोगांे मंे यही तो खराबी है। एक दिन मंे लखपति बनना चाहते हो।’

‘आजकल लखपतियांे को कौन पूछता है सब खोखापति बनना चाहते है।’

‘ये खोखापति क्या है।’

‘खोखा याने करोड़पति।’

सेठानी कल्लू के ज्ञान से प्रभावित हुई। मरम्मत कर चप्पल बंगले पर पहुंचाने का हुक्म देकर चली गयी।

कल्लू ने दो चाय मंगवाई। एक झबरे कुत्ते को पिलाई एक खुद पी।

ठीक इसी समय कल्लू के चौराहे पर झपकलाल और कुलदीपक आये। वो आचार्यश्री के व्याख्यान से दुःखी थे। दाम कुछ मिले थे। कुलदीपक ने कल्लू मोची से पूछा।

‘और सुनाओ प्यारे शहर के क्या हाल-चाल है।

‘शहर की स्थिति दयनीय है। चुनाव हुए है माधुरी चुनाव हार गई है और आजकल अपने स्कूल को कॉलेज बनाने के पुण्य कार्य मंे लगी हुई है।’

‘हँू।’ कुलदीपक बोले।

और कुछ। झपकलाल बोले।

‘ताजा समाचार ये है कि शहर मंे गुर्दे बेचने वालांे का एक गिरोह पकड़ा गया है। कल के अखबारांे मंे छपेगा। शायद जल्दी ही कुछ लोग जेल मंे होंगे।’

‘यार ये डॉक्टर भी पता नही क्या-क्या करते रहते है। इतने पवित्र पेशे मेे ऐसे राक्षस।’

‘भैया सबसे बड़ा रूपैया।’ कल्लू बोला। झबरे कुत्ते ने कूं....कूं कर सहमति प्रकट की।

वास्तव मंे मुद्राराक्षस के सामने सब फीके है। हर काम मंे सुविधा शुल्क हर काम मंे कमीशन। रिश्वत। डॉली। शगुन। कट। उपहार। भंेट। नकद। कुछ भी बस। मुद्रा का राक्षस सबसे बड़ा है भईया। झपकलाल उवाचे।

कल्लू ने फिर कहा।

‘कुछ केवल भांेकते है। कुछ केवल गुर्राते है। कुछ भौंकते भी है और गुर्राते भी है। प्रजातन्त्र मंे यही सब चलता रहता है। अब इन चप्पलांे वाली सेठानी को ही देखो। हर साल छापा पड़ता है मगर गुर्राती रहती है। चप्पलांे की मरम्मत के पैसे देने मंे जान जाती है, वैसे सौ तौला सोना लाद के चलती है। पति अक्सर विदेश जाता रहता है।

‘विदेश.........?’ कुलदीपक ने पूछा।’

‘अरे भाई साहब विदेश मतलब जेल। गैर कानूनी कार्य करेगा टेक्स चोरी करेगा तो विदेश तो जायेगा ही ना और ये लोग विदेश के नाम पर समाज मंे अपनी कटी नाक बचाने के प्रयास करते है। कल्लू उवाचा।

झबरे कुत्ते को कहीं पर मांस के टुकड़े की गन्ध आई, वो उस दिशा मंे दौड़ पड़ा। थोड़ी देर बाद वापस आया तो उसके मुंह मंे एक मांस का टुकड़ा था। वो उसे चगल रहा था। झपकलाल, कुलदीपक, कल्लू मोची सभी चौराहे की सांझ का आनन्द ले रहे थे कि चौपड़ पर कुछ लोगांे ने धमाल मचाना शुरू किया। वे किसी भी प्रकार की बदमाशी के लिए तैयार थे, मगर कोई अवसर नही मिल रहा था।

कल्लू मोची अपने ठीये के पास रखी पेटी मंे अपना सामान समेटकर रख रहा था। जबरे कुत्ते के डिनर मंे अभी काफी देर थी। वो इधर-उधर टहलने लग गया।

बाजार मंे रौनक शुरू हो गई थी। कल्लू अपने ठीये से उठा और घर की और चल पड़ा। कुलदीपक और झपकलाल ने ठेले पर खड़े-खड़े ही आचमन का पूर्वाभ्यास किया और चल पड़े।

कुलदीक ने कंुजी लेखन के कार्य को हल्के रूप मंे नहीं लिया था। वो जानते थे कि एक विश्वविद्यालय के प्राध्यापक को निचोड़ो तो एक-दो कुन्जियां अवश्य निकल आती है। इन कुंजियांे की शिंकजी बनाकर पी जा सकती है। यही ज्ञान जब उन्हांेने झपकलाल को दिया तो झपकलाल ने भी इस ज्ञान को विस्तारित किया।

अध्यापक को निचोड़ने पर कुंजी निकलती है और पत्रकार को निचोड़ने पर ससुर की पुस्तकांे की रायल्टी निकलती है।

‘वो कैसे ?’

‘वो ऐसे जैसा कि इस कथा मंे है। हमारे एक पुराने मित्र लेखक थे। लिखते-लिखते मर गये। वास्तव मंे भूखे मरते-मरते मर गये लेकिन लिखा छोड़ गये। उनकंे एक कन्या थी। कन्या ने एक पत्रकार से शादी की। शादी के बाद पत्रकारिता तो चली नही, मगर अनुभव काम आया और ससुर की पुस्तकांे के सम्पादक-प्रकाशक- रायल्टी धारक बन गये। बरसांे वे यही खेल खेलते रहे। खेल-खेल मंे उन्हांेने लाखांें बनाये। कन्या यानि पत्नी से पिण्ड छुड़ाया और जीवन के आनन्द लेने लगे।’

‘मगर अध्यापक की कुंजी...?’

‘अरे बेचारे अध्यापक का क्या है। या तो ट्यशन या कुंजी लेखन। अब कुंजियां तो तुम भी लिख रहे हो। बल्कि घोस्ट बनकर लिख रहे हो।’

‘इसमंे बुरा क्या है।’

‘बुरा कुछ भी नहीं है। लेकिन तुम्हारे नाम से कुछ छपता नहीं।’

‘अब क्या करंे। वैसे भी रोज हजारांे शब्द घोस्ट राइटिंग के नाम से नहीं छप रहे है क्या।’

‘और हर भाषा मंे।’

‘हां यह सत्य है।’

‘नही, यह अर्धसत्य है।’

‘पूर्ण सत्य ये है कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी।’

नहीं, मजूबरी का नाम गान्धिगिरी, चलो गान्धिगिरी करते है।

अब गान्धी का नाम क्यांे बदनाम करते हो। चलो रात गहरा गई है।

दोनांे एक थड़ी मंे जाकर आचमन करने लगे।

झबरा कुत्ता भी डिनर मंे व्यस्त था। आज उसकी कड़ाही मंे भी खुरचन ज्यादा थी। वो खा पीकर भट्टी की गरमी मंे सो गया।

रात्रि का दूसरा प्रहर। झबरा कुत्ता सोया पड़ा था। राख ठण्डी हो चुकी थी। चारांे तरफ सन्नाटा था। गल्ली-मोहल्लांे मंे शान्ति पसरी पड़ी थी।

मगर कुछ हिस्से आबाद थे। झबरे की नींद खुली। वो भौंका। गुर्राया। खुरखुराया। और एक तरफ दौड़ पड़ा। उसकी आवाज सुनकर पूरे इलाके के कुत्ते भौंकने लगे। गुर्राने लगे। खुरखुराने लगे। इस समवेत कोरस गान को सुनने के बाद सभी कुत्ते हलवाई की दुकान के सामने एकत्रित हो गये। इस सभा के स्थायी सभापति का कार्यभार झबरे कुत्ते ने संभाल लिया। वो बोलना चाहता था। मगर चुप था। दूसरे कुत्ते आपस मंे फुसफुसा रहे थे मगर जोर से बोलने की हिम्मत किसी की भी नही हो रही थी। कुत्तांे के इस हजूम मंे कुछ कुतियाएं भी थी। वे भी हिनहिना रही थी। कुछ युवा कुत्ते उनकी ओर देखकर आंखांे मंे आंखंे मंे डाल रहे थे। मगर कुत्तियाएं देखकर भी अनजान बनी हुइ थी। वे चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रही थे। बुजुर्ग कुत्ते उन पर निगाह रखे हुए थे।

जबरे कुत्ते ने आसमान की ओर मंुह करके जोर से दहाड़ मारी, सभी कुत्तांे-कुत्तियाआंे ने उसका अनुसरण किया।

कुछ कुत्ते इधर-उधर खाने का सामान ढूंढने लगे। धीरे-धीरे झबरा कुत्ता एक ओर खिसक गया। कुत्तांे का यह उपवेशन बिना किसी एजेन्डे केे, बिना किसी निर्णय के समाप्त हो गया। प्रजातन्त्र मंे ऐसा होता रहता है। कुत्तांे ने सोचा और सुबह होने का इन्तजार करने लगे।मगर सुबह क्या ऐसी आसानी से और इतनी जल्दी होती है। कुत्ते बेचारे इसको क्या समझे, वे तो घूरे पर खाने का सामान ढंूढते रहते है और मौका मिलने पर भौंकनंे या गुर्राने या गिड़गिड़ाने का काम करने लग जाते है।

मुर्गो और कुत्तों की यह नियति होती है, बांग दो और घूरे पर मिले दाने खाओ।

ग् ग् ग्

कल्लू मोची नगरपालिका के कार्यालय मंे था। जबरा कुत्ता भी उसके साथ था। उसे अपने मरे हुए बाप का मृत्यु प्रमाण-पत्र बनवाना था। मामला पुराना था, मगर कल्लू मोची को न जाने क्यांे अपने आप पर विश्वास था कि वो यह काम आसानी से करा लेगा। उसने स्वागतकर्ता से पूछा उसने टका सा जवाब दिया।

‘आगे जाओ।’

कल्लू मोची आगे गया। उसे एक बड़े हाल मंे कुछ अहलकार बैठे दिख गये। वो उनके पास गया एक अहलकार की तरफ देखकर उसने पूछा।

‘मृत्यु प्रमाण-पत्र कहाँ बनता है।’

अहलकार ने चश्में के पीछे की आंखंो को सिकोड़ा और कोई जवाब नहीं दिया। कल्लू ने फिर पूछा।

‘मृत्यु प्रमाण-पत्र वाले कहां मिलंेगे।’

‘मत्यु प्रमाण-पत्र वाला बाबू आज नहीं आया है।’

‘तो उनका काम कौन करेगा।’

‘कोई नहीं करेगा। सरकार मंे जिसका काम उसी को साजे बाकी करे तो मूरख बाजे।’ बाबू नेे चश्मे के पीछे से घूर कर जवाब दिया।

कल्लू दुःखी होकर एक तीसरे बाबू की शरण मंे गया। कहा ।

‘बाबूजी मुझे मेरे मृत बाप का प्रमाण-पत्र बनवाना है।’

‘तो बनवाओ न कौन मना करता है।’

‘मगर कौन बनाता है?’

‘मैं तो नहीं बनाता हूं। मेरा काम जन्म प्रमाण-पत्र बनाना है। मृत्यु प्रमाण-पत्र नहीं।’

‘तो मृत्यु प्रमाण-पत्र कौन बनाता है।’

‘ये तो लाख टके का सवाल है। वैसे कभी-कभी मैं बना देता हूँ।’

‘कब बना देते है आप ?’

‘जब सरकार चाहे या अफसर कहे।’

‘अफसर कब कहते है।’

‘जब ऊपर से दबाब हो या फिर दरख्वास्त पर वजन हो।’

‘प्रार्थना-पत्र तो मैं साथ लाया हूं।’ ‘आप इसे लेकर बना दें।’

‘क्या बना दूं।’

‘मृत्यु प्रमाण पत्र।’

‘मगर ये काम मेरा नही है।’

‘अच्छा, बाबूजी आप तो मेरा प्रार्थना-पत्र ले ले।’

‘प्रार्थना-पत्र अफसर की चिड़िया बैठेगी तभी तो लिया जा सकता है।’

‘चिड़िया कब और कैसे बैठती है।’

‘वो उस चतुर्थ श्रेणी व्यक्ति से पूछो।’

कल्लू स्टूल पर बैठे चतुर्थ श्रेणी अधिकारी के पास गया। वो खैनी मल कर खा रहा था। पिच्च से थूका और शून्य मंे देखने लगा। कल्लू ने उससे कहा।

‘मुझे दरख्वास्त पर साहब की सही करानी है।’

‘तो करा लो न कौन मना करता है।’ ये कहकर वो फिर थूकने चला गया।

‘मगर साहब तो है नही।’

‘इसमंे मैं क्या कर सकता हूं ?’ चपरासी फिर बोला।

‘लेकिन मुझे मृत्यु प्रमाण पत्र लेना है।’

‘अरे तो ये बोलो न।’

‘वही तो कह रहा हूं।’

‘ऐसा करो तुम बाबूलाल से मिल लो।’

‘ये बाबूलाल कौन है।’

‘अरे वहीं जो कौने मंे बैठे हैं।’

‘उनसे तो मिल चुका हूं।’

एक बार फिर मिल लो।

कल्लू प्रार्थना-पत्र लेकिर फिर बाबूलाल के पास आ गया। बाबूलाल ने कोई ध्यान नहीं दिया। कल्लू परेशान हो गया। उसने बाबूलाल का ध्यान अपनी ओर खींचने का पूरा प्रयास किया। असफल रहा। बाबूलाल ने पान की पीक छोड़ी। महिला सहकर्मी की ओर देखा। कल्लू का धैर्य जवाब दे रहा था। फिर भी हिम्मत कर कहा।

‘बाबूजी मेरा प्रार्थना-पत्र ले लीजिये।’

‘मगर तुम तो साहब के पास गये थे न। क्या हुआ।’

‘साहब नहीं है।’ कल्लू ने मासूम-सा उत्तर दिया।’

‘तो मैं क्या कर सकता हूं। बताआंे मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं ?’

‘आप मुझे मृत्यु प्रमाण पत्र बनवा दे। तहसील मंे जमा होना है।’

‘अच्छा। तहसील के लिए चाहिये। तब तो बहुत मुश्किल है।’

‘आप ही कोई रास्ता दिखाईये।’ कल्लू ने फिर कहा।

‘ऐसा करो तुम सोमवार को आ जाओ। तब तक मृत्यु प्रमाण पत्र वाला बाबू भी छुट्टी से वापस आ जायेगा।’

‘लेकिन तब तक मेरा केस ही बिगड़ जायेगा।’

‘इसमंे तो मैं क्या कर सकता हूं ?’

‘बाबूलाल ने यह कहकर फाइल पर नजरंे गड़ा दी।’

कल्लू थक हार गया था। उसे सूचना के अधिकार का तो पता था मगर ये मृत्यु प्रमाण पत्र...........। कल्लू ने अन्तिम प्रयास के रूप मंे कहा।

‘बाबूजी कुछ करिये। मेरे बच्चे आपको दुआ दंेगे।’

‘अरे भाई हमारे भी तो बाल-बच्चे है।’

‘बताईये क्या करूं।’

‘करना क्या है। इस प्रार्थना पत्र पर चांदी का वजन रखो।’

‘कितना।’

‘पचास रूपये।’

फिर हो जायेगा।

‘हां।’

‘लेकिन वो बाबू तो छुट्टी पर है।’

‘होगा। सरकार थोड़े ही छुट्टी पर है।’

‘अफसर भी नहीं है।’