TANABANA - 25 books and stories free download online pdf in Hindi

तानाबाना - 25

25

फरीदकोट लौटने के बाद के कई दिन उसी यात्रा के खुमार में बीते । दोनों पति – पत्नि जब बैठते, आपस में इस सफर की छोटी से छोटी बातें याद करते । धर्मशीला की सहेलियाँ जब तब हरिद्वार के घाटों की बात पूछती, गंगा की लहरों के बारे में जानना चाहती । वहाँ के मंदिरों की बातें करती । संध्या आरती की एक एक बात । वहाँ के हाट बाजारों की बातें । कचौरी और रबङी की बातें । जो चूङियाँ और मालाएँ वह इन लङकियों के लिए खरीदकर वह लाई थी . उनकी बातें । बातें थी कि खत्म ही न होती थी । बातें थी कि पुरानी ही नहीं होती थी । इसी खुमारी में एक महीना कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला । सबकी आँखों में पतितपावनी गंगा और गंगा स्नान के सपने बस गये थे । धर्मशीला के मन में अपूर्व शांति भर गयी थी ।

डेढ महीना बीता न था कि बच्चे की आमद की आहट सुनाई देने लगी । इस खुशखबर का अहसास होते ही दोनों पति पत्नि को खन्ना काकी की बातें याद हो आई । अगले दिन ही उन्होंने सुबह नहा धोकर बाबा खेतरपाल के प्रसाद के लिए हलवा बनाया । चाची के बताए पूरे विधि विधान के साथ माथा टेका । अपने वंश के कुलदेवता को शीश झुकाकर आनेवाली संतान की सलामती की दुआ मांगी ।

अगले दिन रविवार की छुट्टी थी तो उन्होंने बाबा फरीद की दरगाह पर माथा टेकने जाने का फैसला किया । सुबह नहाने धोने और नाश्ता करने के बाद वे दरगाह के लिए निकले । साथ में कक्कङ झाई, उसकी दोनों बेटियाँ, तार ताई, उसके बेटा बहु, अम्मा जवाई भी चले । कक्कङ झाई पैंतीस- चालीस वर्ष के बीच के उम्र की गठे बदन वाली औरत थी जो गृहस्थी की चिंताओं के चलते अपनी उम्र से कहीं बङी लगने लगी थी क्योंकि उसकी बेटियाँ वीरां और भागभरी अट्ठारह और सोलह साल की हो चली थी । उनसे छोटे तीन लङके थे । सब मिलकर दुकान पर बैठते, तब दो रोटी का जुगाङ होता । बङे बङे फूलोंवाला छींट का सूट पहने वह चलने की जगह लगभग भाग रही थी ताकि बाकी लोगों के साथ कदम मिलाकर चल सके । यही हाल तार ताई का था । तार ताई का पूरा नाम करतार कौर था जिसे मायके या ससुराल में शायद ही किसी ने लिया हो । वह सबके लिए तार थी । हाँ सब अपनी सुविधा के अनुसार नाम के साथ अपना रिश्ता जोङ लेते थे और इस तरह वह किसी की तार भाभी थी तो किसी की तार ताई । उसका बेटा कपङे की फेरी लगाता था । चार साल पहले ही उसकी शादी ङुई थी और तीन साल पहले गौना ।

धर्मशीला ने बाबा फरीद का नाम भर सुना था, उसने सवाल किया – “ ये फरीद बाबा कौन है ? कैसी करनी थी उनकी ? नाम तो बङा सुना है “ ।

जवाब दिया तार ताई ने – “ कुङिए तू बाबे को नहीं जानती ? बहुत बङे संत थे । रमते जोगी । जहाँ बैठ जाते, वहीं समाधी लग जाती । चमत्कारी पुरष थे “ ।

“ इतने बङे संत “ ?

“ तुम्हें पता है ! बचपन में वह भी आम बच्चों जैसे थे । पढने के नाम से भाग जाते । मुल्ले से उन्हें बहुत डर लगता । माँ बहुत धार्मिक महिला थी । पाँच वक्त की नमाजी और फरीद नमाज की राह पर ही न जाय । एक दिन उसने फरीद से पूछा – “ बेटा सक्कर खाएगा “ ।

सक्कर का नाम सुनते ही फरीद के मुँह में पानी आ गया ।

“ लाओ ! लाओ, मुझे शक्कर बहुत पसंद है “ ।

“ लेकिन बेटा, शक्कर तो अल्लाह देता है, वह भी तब, जब हम उसको नमाज पढकर सजदा करते हैं “ ।

“ सच में “ !

“ हाँ बेटा ! तुम प्रार्थना करोगे तो अल्लाह तुम्हे शक्कर जरुर देगा “ ।

माँ ने जाजिम नमाज बिछा दिया था । फरीद ने माँ के साथ नमाज पढी । जैसे ही दरी तहाई, नीचे से एक कागज की पुङिया निकल आई जिसमें कटोरी भर शक्कर थी । फरीद खुश हो गया । उसने चटकारे लेकर शक्कर खायी । अगले दिन फिर से नमाज के बाद शक्कर मिली । तो फरीद नमाज नियमित पढने लगा । माँ हमेशा दरी के नीचे शक्कर रख देती और नमाज पढकर फरीद शक्कर खा लेता । कई महीने बीत गये । एक दिन वह नमाज पढ रहे थे कि माँ को याद आया कि आज तो वह दरी के नीचे शक्कर रखना भूल गयी । अब क्या हो सकता था ? सामने से रखने से तो सारा भेद खुल जाना था । पर माँ खङी की खङी रह गयी । फरीद के जाजिम से आज भी शक्कर की पुङिया निकल आई थी । माँ के दोनों हाथ परवरदिगार के सजदे में झुक गये । आँखें नम हो गयी । उसकी दुआ धुर दरगाह में कबूल हो गयी थी । उसने बेटे को गले लगा कर सौ सौ आशीष दीं । दोनों ने उस अदृश्य को हाथ जोङकर माथे से लगाए “ ।

“ अच्छा ! इसी घटना की याद में आज तक बाबा फरीद को शक्कर का भोग लगाया जाता है ? “ – भागभरी बोली ।

धर्मशीला ने पूछा – “ ताईजी, बाबा फरीद का घर यहीं है क्या फरीदकोट में “ ?

“ फकीरों के घर कहाँ होते हैं बहु, ये तो रमते जोगी होते हैं । जहाँ दिन में खाना मिल गया,खा लिए । नहीं मिला,भूखे रह लिए । जहाँ रात हो गयी, वहीं सो गये । वैसे पैदा हुए थे पाकपटन में “ ।

“ अरे वाह ! फिर तो भाभी, ये तुम्हारे ससुराल से हुए “ ।

“ तब ये फरीदकोट कैसे आए “ ?

“ फरीद के गुरु ख्वाजा बख्तियार काकी दिल्ली रहते थे । फरीद उनकी सोहबत में कई साल दिल्ली रहे । वहाँ से पंजाब आए । घूमते घूमते यहाँ पहुँचे तब यहाँ मोहकम सिंह का राज था । उसका राज कहलाता था – मोहकमपुर । राजा ने यहाँ किला और महल बनाना शुरु किया । राजकर्मचारी लोगों को पकङकर ले जाते और बेगार करवाते । विरोघ का कोई सवाल ही नहीं ।जो पकङा जाता,शाम तक काम करता ।

बाबा फरीद एक पेङ के नीचे बैठे माला फेर रहे थे कि राजा के नौकरों ने बेगार पर लगा लिया । पर अगले ही पल वे जमीन पर लेट साष्टांग दण्डवत कर रहे थे क्योंकि बाबाजी अपनी माला फेरते चल रहे थे और तसले अपनेआप भर कर उनके सिर से कई इंच ऊपर अपनेआप चल रहे थे । राजा को खबर पहुँची तो नंगे पाँव दौङा आया । बाबा से अनेक बार माफी माँगी । जहाँ बाबा बैठे थे, वहाँ अपनी पोटली टांगी थी । उस जगह गोदङीसाहब स्थान है और जहाँ उन्होंने मिट्टी वाले हाथ पेङ से रगङकर साफ किए, वहाँ मुख्य स्थान बना है ।

लो बातों में रास्ता कब कटा,पता ही नहीं चला । ये रहा राजा का किला और ये बाबा फरीद का थान “ ।

सबने माथा झुकाया । चढाने के लिए सरसों का तेल और शक्कर खरीदा । दरगाह और गुरद्वारे में माथा टेका । वहाँ के लंगर से पीले जर्दा चावल खाए । और बाबा फरीद के चमत्कारों की चर्चा करते हुए घर लौट आए ।

इससे पहले दो तीन बार हाथ आयी हुई खुशियाँ आने से पहले ही खो गयी थी । इस बार अतिरिक्त सावधानी बरतने की आवश्यकता थी । धर्मशीला का ज्यादा समय अब पूजापाठ में बीतता । सुबह उठकर वह मौसी की दी हुई रामायण का सस्वर पाठ करती –

मंगल भवन अमंगल हारी । द्रवहु सो दशरथ अजिरबिहारी ।।

दीनदयाल बिरद संभारी । हरहु नाथ मम संकट भारी ।।

फिर चंडीस्तोत्र का पाठ – चंडी चंड रूप पुनि धारौ । चुनि चुनि शतरु हमारे मारौ ।।

गायत्री मंत्र का जाप कर तुलसी को जल चढाती, तब जाकर उसके हलक से पानी उतरता ।

तीसरा महीना बीतते बीतते उसके पैर हाथ सूज गये तो उसका नाम महाराजा बलबीरसिंह अस्पताल में लिखा दिया गया । डाक्टर नियमित जाँच करती । तरह तरह की रंग बिरंगी गोलियाँ थमा देती । अम्मा जंवाई अलग उसकी देखभाल करती । खाने पीने का पूरा ध्यान रखा जाता । चाय तो तब चलन में ही नहीं थी । कभी कभार दवा की तरह ही लोग पीते थे या कोई विशेष पढा लिखा मेहमान आता तो उसकी खातिरदारी में चाय बनती थी । ज्यादातर घरों में दूध और लस्सी ही पी और पिलाई जाती । गर्मी में सुघङ गृहणियाँ बेल, खस, केवङे का शरबत बनाकर रखती या आम का पन्ना । यही मेहमानों को परोसे जाते । धर्मशीला के लिए अङोस पङोस की औरतें कोई न कोई मुरब्बा या शरबत बनाकर ले आती । सबको यही चिंता रहती कि इस बार कोई बाधा नहीं आनी चाहिए ।

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