जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 3 Neerja Hemendra द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 3

कहानी -3-

आदमकद दर्पण के सामने खड़ी हो कर वह स्वयं को ध्यानपूर्वक देख रही थी। उसने अपना चेहरा अनेक कोणों से घुमा-घुमा कर देखा। पुनः स्वयं को नख से शिख तक देखा। भरपूर दृष्टि व हर कोण से देखने के पश्चात् वह स्वयं पर मुग्ध होती हुई सोचने लगी , ’’ वह तो आज भी आज भी अत्यन्त आर्कषक लगती है। उसका आर्कषक लम्बा कद, गेंहुआँ रंग, तीखे नाक-नक्श, तथा इस उम्र में भी शारीरिक गठन में यथोचित् कटाव व लचीलापन! ’’ वह स्वयं से बातें करती हुई बुदबुदा उठी,’’ वाह, मोनिका चन्द्रवंशी! तुम तो आज भी गज़ब की लगती हो। इसीलिए तो हर पुरूष तुमसे बातें करने के लिए उत्सुक रहता है। तुमसे बातें कर लेने मात्र से अपने पुरूषार्थ को सार्थक समझता है। ’’ कुछ क्षणों तक स्वंय को मुग्ध दृष्टि से देखने के पश्चात् वह अपनी माँ के कक्ष में आ गई तथा उनसे कार्यवश बाहर जाने की बात कह कर निकल पड़ी।

आज वह अपनी महिला मित्र माधुरी के घर जा रही है। उसके साथ वह आज घूमेगी-फिरेगी। अपने लिए कुछ खरीदारी करेगी। तत्पश्चात् घर आ कर सो जाएगी। कल से पुनः काॅलेज जाने-आने की वही नियमित दिनचर्या आरम्भ हो जायेगी। आज उसने काॅलेज से अवकाश ले रखा है। क्यों कि आज उसका पैंतालिसवां जन्मदिन है। यद्यपि उसे आज भी अवकाश की कोई विशेष आवश्यकता नही थी किन्तु काॅलेज के सहकर्मियों ने उसे बार-बार उसके जन्मदिन की याद दिला कर उसे अवकाश लेने व जन्मदिन मनाने को विवश कर दिया।

माधुरी उसके बचपन की मित्र है। वह उसके घर से चन्द कदम की दूरी पर रहती है। उसके घर में उसके पति व उसकी दो बेटियाँ हैं। एक पुत्री का वह ब्याह कर चुकी है। दूसरी पुत्री उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही है। वह गृहणी है, तथा बच्चों का उत्तरदायित्व भी कमोवेश पूर्ण हो चुका है अतः माधुरी के पास भी समय का अभाव नही रहता। उसे जब कहीं अकेले जाना होता है तो वह माधुरी को फोन कर के उसे साथ चलने के लिए कह देेती है।

आज भी उसे माधुरी के साथ जाना है। माधुरी जानती है कि आज मेरा जन्मदिन है। वह यह भी जानती है कि प्रतिवर्ष की भाँति इस वर्ष भी मैं अपने जन्मदिन पर निरर्थक घूम-फिर कर प्रसन्न हो लेना चाहती हूँ। कभी उसके साथ तो कभी अकेले।

मााधुरी के घर पहुँच कर मैं उसके घर के दरवाजे की घंटी बजाकर दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा करने लगी। कुछ ही क्षणों में माधुरी दरवाजे पर खड़ी थी। वह सलीके से तैयार थी व आर्कषक लग रही थी। मुझे देखते ही मेरा हाथ पकड़कर मुझे ड्राइंगरूम में ले गयी व मेरे साथ सोफे पर बैठ कर मेरी तरफ देखते हुए बोली ’’वाह मोनिका! यह शिफाॅन की गुलाबी साड़ी तो तुम्हारे ऊपर खूब अच्छी लग रही है। तुम अब भी एक युवती का भाँति दिखती हो। तुम्हारा आकर्षण, तुम्हारा सौन्दर्य इस उम्र में भी कम नही हुआ है। मोनिका! आज तो तुम्हारे प्रशंसकों के बहुत सारे फोन आ रहे होंगे? तुम्हारे प्रशंसक........तुम्हारी कविताओं के प्रशंसक। क्यों है न ? ’’ कह कर माधुरी मुझसे तुरन्त व सकारात्मक उत्तर की अपेक्षा में मेरी तरफ मोहक मुस्कान के साथ देखने लगी। मैं भी माधुरी की बातों के समर्थन में सिर हिलाते हुए अपने चेहरे पर उसके जैसा मोहक मुस्कान लाते हुए बोल पड़ी ’’हाँ, सुबह से कई फोन आए हैं। मेरी कविताओं के अनेक प्रशंसकों ने मुझे मेरे जन्म दिन की शुभ कामनाएँ दी हैं। ’’ माधुरी मेरी बातें सुन कर मुस्कुराते हुए, ’’अभी आती हूँ ’’ कह कर किसी कार्यवश घर के अन्दर चली गई।

कुछ ही मिनटों में वह वापस आ गई। वह मेरे साथ चलने को तैयार थी। माधुरी ने गााड़ी बाहर निकाली व मुझसे पूछा, ’’कहाँ चलना है ?’’

मैंने जाने के लिए किसी विशेष स्थान का चयन नही किया था। अतः बोल पड़ी, ’’ कहीं भी.....जहाँ तुम चाहो।’’

माधुरी ने गाड़ी एक माँल के बाहर ला कर रोक दी और मेरी तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। मैंने स्वीकृति में सर हिला दिया।

मैंने सोचा कि मुझे आज कोई विशेष खरीदारी करनी नही है। अतः कहीं भी थोडा़ घूमने टहलने के पश्चात् शापिंग की जा सकती है।

मैं माधुरी के साथ उस माॅल में इधर-उधर घूमने के पश्चात् अन्ततः उसी स्टोर में पहुँच गई जो कभी उसका पसंदीदा स्टोर हुआ करता था। वो जो किसी अखबार में पत्रकार था व स्वंय को बुद्धिजीवी की श्रेणी में रखता था......किन्तु मेरी दृष्टि में वह एक सामान्य आदमी की श्रेणी में भी रखने योग्य नही था। प्रथम बार यहीं से उसने मुझे कुछ उपहार खरीद कर दिये थे। आज उस स्टोर के सामने आ कर उसका स्मरण आना तो स्वाभाविक था, किन्तु मैं उसको याद करना नही चाहती थी। मैं शीघ्रता से स्टोर के अन्दर आ कर चीजांे को देखने में व्यस्त होना चाहती थी। उसे विस्मृत करने का प्रयत्न करने लगी, किन्तु यह इतना सरल न था। उसे भूलने के प्रयत्न में उसकी स्मृतियाँ और करीब आने लगीं। भूली स्मृतियों ने मस्तिष्क में आ कर विगत् दिनों के पन्ने पलटने प्रारम्भ कर दिये। स्मृतियों ने पलटा प्रथम पृष्ठ, सामने था, उससे दूरभाष पर हुई बातचीत की वो प्रथम घटना। किसी पत्रिका में प्रकाशित मेरी रचना के साथ छपा था मेरा दूरभाष नम्बर तथा मेरी एक आकर्षक तस्वीर । उसने मेरी तस्वीर देखी, फोन नम्बर लिया और मुझे फोन किया। मेरी रचना की प्रशंसा करते नही थक रहा था वो।

बाद में फोन पर मेरी लिखी पुस्तक भी पढ़ने की इच्छा भी व्यक्त करता था। मुझसे पूछता था ’’कहाँ मिलेगी मेरी कोई भी पुस्तक!’’

उसकी बातों से मुझे ऐसा लगा जैसे पुस्तक लेने के बहाने वह मेरे घर का पता जानना चाहता है और मुझसे मेरे घर आने की इजाज़त। ऐसे एक नही अनेकों प्रशसकों के फोन मेरे पास आते रहते थे। कुछ मेरी कविताओं के सच्चे प्रशंसक, तो कुछ मेरी रचनाओं के साथ छपे मेरे आकर्षक चित्र से प्रभावित् हो कर मुझे फोन करते।

मैंने उसे भी कुछ इसी प्रकार का प्रशंसक समझा। मेरे पास उसके फोन प्रति दिन, दिन में कई-कई बार आने लगे। वह मुझसे मेरे व्यक्तिगत् जीवन की जानकारियाँ प्राप्त करता रहा। न जाने किस सम्मोहन के वशीभूत मैं उसे सब कुछ बताती रही।

मैं उससे एक बार भी नही मिली थी, किन्तु उसके फोन की प्रतीक्षा मुझे रहने लगी थी। उसकी बातों में, ऐसा आकर्षण व अपनापन था कि मैंने दूरभाष से बातचीत में अपने बचपन से ले कर विवाह व विवाहोपरान्त की अनेक घटनाओं से उसे अवगत् कराया।

उसने बताया था कि वह किसी समाचार-पत्र के प्रकाशन विभाग में कार्यरत है तथा स्वयं भी पत्रकार है। उसने यह भी बताया कि वह विवाहित है तथा उसके दो बच्चे हैं। एक दिन उसका फोन आया और वह मुझसे मिलने की अपनी तीव्र इच्छा प्रकट करने लगा। लगभग सात माह से मेरी उससे बातें हो रही थीं। किन्तु मैंने उसे देखा नही था। मेरी उससे मिलने की इच्छा भी नही थी। मैं उससे बातें कर के ही संतुष्ट थी।

किन्तु उसके अत्यन्त आग्रह पर तथा उसके शब्दों में किसी सच्चे प्रशंसक की भाँति व्याकुलता देख कर मैंने उसे मिलने का समय दे दिया। उस दिन मैंने काॅलेज से अवकाश ले लिया था। मैं शालीन व शोख पहनावे में विशेष बनाव, ऋंगार के साथ तैयार हो कर पहले से तय स्थान पर पहुँच गई। वह मुझसे पहले उस स्थान पर पहुँच कर अपनी गाड़ी में बैठा मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। मैं जैसे ही उसकी गाड़ी के समीप पहुँची वह प्रथम बार में मुझे पहचान गया। उसने अभिवादन में अपने दोनांे हाथ जोड़ लिए। प्रत्युत्तर में मैंने।

मैंने उस पर एक सरसरी-सी दृष्टि डाली। उसने मुझे अपनी जो तस्वीर मेल की थी उस तस्वीर में व उसमें अन्तर था। वह तस्वीर उसके जवानी के दिनों की थी। जब उसने गाड़ी का दरवाजा खोल कर अपनी बगल वाली सीट पर मुझसे बैठने का आग्रह किया तो मैं बैठ न सकी। एक झिझक व एक वितृष्णा-सी मेरे हृदय में भर गयी। कारण, वह उम्रदराज तो था ही़, मुझे अत्यन्त गम्भीर रोगी या हृदय रोगी सदृश्य लगा। उसने आँखों पर बड़े नम्बर का चश्मा पहन रखा था तथा बाँई आँख बीमारी से प्रभावित हो कर छोटी हो चुकी थी। आँखों के चारों तरफ गड्ढे व काले घेरे थे। मेरा अनुमान सही था बाद में उसकी बातों से मुझे यह प्रमाण मिल गया था कि वह हृदय रोगी है। किसी भी प्रकार का तनाव उसके लिये घातक है। फोन पर उसकी बातों में जितनी वाकपटुता, चपलता व गाहे-बगाहे रोमांस भरे शब्द प्रकट होते थे, उसके प्रत्यक्ष व्यक्तित्व से वो सभी चीजें नदारद थीं। मैं उसकी बगल की सीट पर न बैठ सकी। मैंने कार के पीछे की सीट का दरवाजा खोला व पीछे की सीट पर बैठ गयी। वह पलट कर मेरी तरफ देखने लगा। मैंने कहा, ’’बताईये! मैं आपकी बात रखने के लिए आप से मिलने आ गई हूँ। ’’ कह कर मैं न चाहते हुए भी पुनः उसकी तरफ एक सरसरी-सी दृष्टि डाली। वह शरीर से शिथिल लग रहा था। यद्यपि उसकी उम्र पचास के आस-पास थी किन्तु उसमें पचास के उम्र वाली सक्रियता भी न थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उसका पूरा जीवन नीरसता में डूबा हुआ हो और वही नीरसता उसके नेत्रों में भी भर गयी हो। मैं पैंतालिस वर्ष की आकर्षक महिला थी। यह तो जानती थी कि मैं अत्यन्त सुन्दर न सही किन्तु आकर्षक अवश्य हूँ। गेंहुआं रंग, लम्बा कद, बड़ी कजरारी आँखें, खूबसूरत होंठ, श्वेत दंतपक्ति में लिपटी आकर्षक मुस्कान मेरे व्यक्तित्व की घनात्मक बिन्दु थीं। उसने मुझे देखा तो मोटे चश्में की आँखों से अपलक देखता ही रह गया। कुछ देर तक पीछे मुड़-मुड़ कर बातें करने के उपरान्त वह आगे की सीट से उठ कर पीछे की सीट पर मेरे समीप आ कर बैठ गया। उस समय मैं मात्र उससे बातें करती रही। उसके प्रति अन्य किसी प्रकार के आकर्षण का अनुभव मैंने नही किया। हम यूँ ही सहित्य पर, पत्रकारिता पर बातें करते रहे। चूँकि वह एक लेखक व पत्रकार था इसलिए उसकी व मेरी बातों में निरसता नही थी। दो घंटे का समय उसके साथ सरलता से व्यतीत हो गया।

मैं उससे मिल कर घर आ गई व उसे विस्मृत कर अपनी दिनचर्या में व्यतीत हो गयी। किन्तु उसके फोन लगातार मेरे पास आते और न चाहते हुए भी मैं उससे बातें कर लेती, और यही मेरी बड़ी भूल थी कि मैं उसे मना नही कर पायी थी कि वह मुझे फोन करना बन्द करे। मैं सोचती कि वह जैसा भी है मात्र फोन पर बातें कर लेने में मुझे कोई हानि नही है। आखिर वह भी मेरे जैसा लेखक वर्ग से है। जैसा कि वह मुझसे कहता था कि मुझसे बातें करने से उसे ऊर्जा मिलती है। मैं यह समझ गई थी कि अपनी बीमारी से उत्पन्न तनाव दूर करने के लिए उसने मुझे अपने मनोरंजन का साधन बनाया हैं। इसीलिए वह मेरा पीछा नही छोड़ रहा है। बातों का तारतम्य आगे बढ़ता रहा। कभी इच्छा से कभी अनिच्छा से, बातों में मैं उसका साथ देती रही। उससे बातें करना मेरी आदत में समाहित होता रहा। मैं इस तथ्य से अनभिज्ञ रही कि उससे नियमित बातें करने की यह आदत मेरे अन्दर एक दिन अवसाद का निर्माण कर देगा। यही हुआ, उससे पीछा छुड़ाने में ,इस आदत से उबरने में मुझे अत्यन्त कठिनाई हुई। उसके कारण मैं महीनों अवसाद में रही। मेरा मानसिक रूप से उससे जुड़ना मेरे तनाव व अवसाद का कारण बन गया। अवसाद से उबरने के लिए मुझे दवाओं का सहारा लेना पड़ा।

वह बार-बार फोन पर मुझसे मिलने की इच्छा प्रकट करता रहा। और एक बार उसके बुलाने पर मैं उससे मिलने पुनः उसी स्थान पर गयी। न जाने क्यों यह आज तक नही समझ पायी कि मैं क्यों गयी उससे मिलने? उसने मेरे साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाना चाहा। मना करने पर मेरे वैवाहिक जीवन को लेकर मुझ पर तंज कसे। मुझसे कटु शब्दों में बहुत कुछ कहा उसने। मैं हतप्रभ थी उसका वो रूप देख कर व उसके तल्ख़ शब्दों को सुन कर। इससे पहले ये आदमी अत्यन्त व्यस्तता के बाद भी मेरा फोन उठाता। मुझे पूरा समय पूरा सम्मान देता। मेरे लिए आदरसूचक शब्दों में प्रेम व अपनत्व भर कर, जब तक मैं चाहूँ तब तक मुझसे बातें करता। उसने मुझे अपने स्वस्थ्य लाभ के लिए अपने मनोरंजन का साधन बना कर मुझे सात महीनों तक बातों के सम्मोहन में फँसा कर रखा। मैं उस कमजोर व बीमार आदमी के शरीर को अनदेखा कर उसके छल व सतही प्रेम के कल्पनालोक में फँसती चली गई। उस दिन के बाद मैंने उसे फोन नही किया। उसका उद्देश्य पूरा नही हुआ था अतः एक दो बार और उसका फोन मेरे पास आया था। उस पर इस घटना का प्रभाव पड़ा या नही ये मैं नही जानती। किन्तु मैं तो महीनों तक मानसिक कष्ट झेलती रही । धीरे -धीरे मैं सामान्य हो पाई।

उससे मोह छूटा, किन्तु उसकी स्मृतियाँ तो गाहे-बगाहे चली आती हैंै। मै क्या करूं? एक स्त्री हूँ, जिसका हृदय भावनाओं व संवेदनाओं से भरा होता है।

’’मोनिका ये ड्रेस कैसी लग रही है।’’ माधुरी के स्वर से मेरी तन्द्रा भंग हो गयी। ’’उफ्फ! सोचते-सोचते मैं भी किस अवांछित व्यक्ति के लिए सोचने लगी। ’’

’’ये डेªेस तो अच्छी लग रही है। इसका रंग भी आकर्षक है। यह तुम्हारे ऊपर अच्छी लगेगी । ’’ मैंने मोनिका से कहा।

’’ ये मैं अपने लिए नही, तुम्हारे लिए देख रही हूँ। ’’ माधुरी ने कहा। मैंने देखा कि माधुरी के हाथों में मैचिंग कलीदार कुत्र्ता व चूड़ीदार का सेट है। माधुरी की पसन्द का वह सूट मैंने ले लिया। सूट मुझे भी पसन्द था। हमने कुछ अन्य खरीदारी भी की। मैं माधुरी के साथ काफी देर तक घूमती रही। शाम ढल चुकी थी। रात्रि गहराने के पूर्व मैं माधुरी के साथ घर आ गई। मेरा जन्मदिन मन चुका था।

घर आ कर मैं बिस्तर पर निढाल पड़ी रही कुछ देर तक । माँ के बार-बार किए जा रहे आग्रह पर मैंने हाथ मुहँ-धो कर खाना खाया। यद्यपि उस समय मुझे भूख बिलकुल नही थी। किन्तु माँ की बात न मान कर मैं उन्हें दुःखी करना नही चाहती थी। मेरी माँ जिनकी आयु सम्भवतः सत्तर वर्ष की होगी। मैं अब तक उनको अपने उत्तरदायित्व के बोझ से मुक्त नही कर पाई थी। बोझ, जिसे वे उठा रहीं थीं।

खाना खाने के पश्चात् मैं अपने कमरे आ गई। सोने से पूर्व आज खरीद कर लायी अपनी ड्रेस पहन कर देखना चाहा। ड्रेस पहन कर ज्यों ही दर्पण के समक्ष खड़ी हुई स्वंय को देख कर मेरे मन-मस्तिष्क में पुनः वही प्रश्न उठने लगे जो अब से पूर्व अनेकों बार उठ चुके हैं। ’’ अब मैं आत्मनिर्भर हूँ। हिन्दी साहित्य की एक चर्चित कवयित्री हूँ। नारी समस्यायें और उनके समाधान मेरे प्रिय विषय हैं। जिन पर मेरे शब्द मुखर रहते हैं। मेरा अपना स्वतंत्र अस्तित्व व व्यक्तित्व है फिर भी जीवन के खाली व एकाकी क्षणों में एक सूनापन व्याप्त हो जाता है। क्यों ? उन एकाकी क्षणों में मेरे समक्ष अपने जीवन की तीस वर्ष पूर्व की वो घटनायें किसी दुखान्त चलचित्र की भाँति आने लगती हैं।

’’ .......उस समय मैं ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ती थी। सब कहते थे मैं आकर्षक हूँ। उस समय मैंने कशोरावस्था से युवावस्था में प्रवेश किया था। शिक्षा पूरी नही हुई थी कि माँ मेरे लिए विवाह योग्य वर की तलाश में लग गयी। कारण था, मेरा निर्धन परिवार, जहाँ पैसों के अभाव से माँ-पिताजी को प्रतिदिन जूझना पड़ता था। जहाँ बेटियों का विवाह खुशी का अवसर नही, बल्कि उत्तरदायित्व निपटाने का अवसर होता था। ऊपर से मेरा उभरता सौन्दर्य व देहयष्टि भी माँ की चिन्ता के कारण थे। उन दिनों मेरे कच्चे-पक्के जर्जर मकान के बाहर ही चबूतरे पर मेरे पिता चाय, बिस्कुट, पकौडि़यों की दुकान लगाते थे। जिसकी आमदनी से घर का खर्च चलता था। माँ भी उनके साथ दुकान में हाथ बँटाती थी। घर में माँ की ज्यादा चलती थी। पिता का मानना था कि माँ को सांसारिक बात-व्यवहारों का सही अनुभव है। अतः माँ का बच्चों के प्रति जो भी निर्णय होता वह ही अन्तिम होता। हम दो बहनें व दो भाई थे। मुझसे बड़ी बहन का भी व्याह माँ ने किशोरावस्था में कर दिया था। आधी-अधूरी अक्षर ज्ञान की शिक्षा हो पायी थी उसकी। वह इस समय अपने ससुराल में है तथा तीन बच्चांे की माँ है। वह युवती बन पायी या नही, अब महिला अवश्य बन चुकी है तथा वैवाहिक जीवन जी रही है।

मेरा भी विवाह तय हो गया। मुझे स्मरण है, उन दिनों मैं सपनों के पंख लगा कर उड़ा करती थी। मेरे सपने मेरी इच्छाओं से सजे होते थे। कभी डाॅक्टर बनने की इच्छा, कभी अध्यापिका बनने की, कभी पुलिस आॅफिसर तो कभी पायलट बनने की इच्छा। और तो और कभी सौन्दर्य प्रतियोगिता में भाग ले कर विश्व -सुन्दरी बनने के सपने देखा करती थी मैं। विवाह तो उन सपनांे....उन इच्छाओं में कभी था ही नही। मैं एक और सपने अनेक। सपने तो सपने ही होते हैं। यदि पूरे हो जाते तो इन्हंे सपने क्यों कहते हम? मुझे यह भी भलिभाँति स्मरण है कि उन दिनों मैं फिल्मों के प्रेम गीत बहुत गाने-गुनगुनाने लगी थी। कभी सखियों सहेलियों के अनुरोध पर तो कभी यूँ ही। कल्पनाओं में मेरा काल्पनिक हीरो मेरे पति के रूप में विद्यमान रहता।

माँ के तय किये समयानुसार मेरा विवाह भी शीघ्र ही हो गया। अब मेरे सपनों में मेरा पति मेरा नायक था। मैं उसके इर्द-गिर्द सपने बुनने लगी। जिसके साथ मेरा विवाह हुआ वह एक मध्यमवर्गीय घर का लड़का था। घर में की जा रही चर्चा-परिचर्चा के द्वारा मुझे ज्ञात हुआ था कि वह वो किसी काॅलेज से उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहा है। हमारे समाज में शालीन, संस्कारी लड़कियाँ माँ-पिता द्वारा तय किए गये वैवाहिक रिश्ते के विषय में पूछताछ नही कर सकतीं। अतः मेरे पूछने का प्रश्न ही उत्पन्न नही होता। मेरे पति के बारे में मुझे शनै- शनै जानकारी मिल रही थी।

विवाह पश्चात् प्रथम बार विदा हो कर ससुराल गई तो सब कुछ अच्छा था। उस समय मैं वहाँ मात्र चार दिनांे तक रही। दूसरी बार, पाँच माह पश्चात् मैं वहाँ गई, मेरी परीक्षायें खत्म होने पर। मेरा पति भी शिक्षा ग्रहण कर रहा था अतः उसकी भी परीक्षायें समाप्त हो गई थीं। दूसरी बार ससुराल जा कर मैं पूरी तरह बहू बन गई थी। ऐसी बहू जिसे प्रताडि़त हो कर भी सबकी आशाओं पर खरा उतरने की विवशता होती है। मेरे सपने भरभरा कर तब टूट गये जब दूसरी बार में ही मेरे पति ने मुझ पर हाथ उठाना प्रारम्भ कर दिया। मेरे पति को मेरी कोई विशेषता, कोई योग्यता, अच्छी नही लगी। न मेरा सौन्दर्य, न मेरा सुरीला गायन, न मेरी देह यष्टि कुछ भी नही। बल्कि ये सभी चीजें मेरे प्रति उनकी घृणा व शक का कारण बन गयी।

समय कभी किसी के रोकने से न तो ठहरा है, न ही कहने पर किसी के भाग्य को परिवर्तित ही किया है। मेरी अधूरी शिक्षा छूट गयी थी। शनैः शनै जीवन के धूप-छाँव में जैसे -तैसे एक वर्ष व्यतीत हो गए। मेरी गोद में एक बेटा आ गया। सुना था कि बेटा होने पर रूढि़वादी, बुद्धिहीन व अशिक्षित प्रकार के लोग बहू को स्नेह करने लगते हैं। किन्तु यहाँ स्थिति विपरीत थी। मेरी प्रताड़ना बढ़ती गई। पति द्वारा गाहे-बगाहे पिटना तो आम बात थी। मेरी स्थिति दयनीय होती गई। दूसरे वर्ष वर्ष मैं एक बच्चा गोद में व एक कोख में ले कर वापस माँ के घर आने को मजबूर हो गई।

मैं माँ के घर रहने लगी। ऋतुएँ परिवर्तित होती रहीं। किन्तु मेरी स्थिति में परिवर्तन असंभव-सा था। मेरा बेरोजगार पति अपने घर वालों की आज्ञा से कभी- कभी मुझसे मिलने आ जाता था। मेरा दूसरा बेटा भी मेरी गोद में आ गया। मेरे घर वालों विशेष कर मेरी माँ के चाय-पकौड़े बेच कर जुटाये पैसों से मेरे दोनांे बेटे पलने लगे। मैं मानसिक रूप से अस्वस्थ होती जा रही थी। अत्यन्त व्याकुलता भरे दिन थे वे मेरे।

माँ के पास रहते हुए मुझे दो वर्ष हो गये। यदा-कदा मेरा पति मेरे पास आता व मुझसे घर चलने को कहता। दो छोटे बच्चों के साथ वहाँ रहने की बात सोच कर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते। मैं उसके साथ जाने को मना कर देती किन्तु कब तक? हमारी परम्पराएँ तो यह कहती हैं कि विवाहित लड़की का अस्तित्व ससुराल में ही है। ससुराल ही उसका सर्वस्व है। मैंने परम्परायें मानने का प्रयत्न किया, परम्परायें निभाने का प्रयत्न किया। किन्तु मेरे धैर्य व साहस लड़खडाते चले गये, टूटते चले गये।

माँ के घर रहते हुए मुझे तीन वर्ष हो गये। समय आगे बढ़ता रहा, किन्तु मेरे जीवन में सब कुछ ठहरा हुआ था। माँ के घर यदा-कदा मुझसे मिलने मेरे साथ पढ़ने वाली काॅलेज की लड़कियाँ चली आती थीं।। उनको देख कर , उनसे पे्ररित हो कर व स्वंय के प्रयत्नों से मैंने ग्रेजुएशन में प्रवेश ले लिया। भविष्य को सवाँरने व आत्म निभर्रता हेतु शिक्षा की आवश्यकता व महत्व को मैं समझती थी। अतः स्वयं को पुनः खड़ा करने व बच्चों के भविष्य हेतु मैंने अधूरी शिक्षा को पूर्ण करने का निश्चय किया। जीवन में, विशेष रूप से लड़कियों के जीवन में शिक्षा का महत्व व अनिवार्यता मैं समझती तो पहले भी थी। किन्तु भाग्य का अभाव सदा मेरे साथ रहा। अतः न चाहते हुए भी शिक्षा से दूर होना पड़ा।

मेरे ससुराल वालों को जैसे ही यह बात ज्ञात हुई कि मैंने काॅलेज में प्रवेश ले लिया है, वे मेरे पति को मेरे पास मुझे बुलाने के लिए लगातार भेजने लगे। मेरा पति अब तक नौकरी नही पा सका था वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने पिता पर निभर््ार था। जो व्यक्ति स्वंय दूसरो पर निर्भर है वो दो बच्चों का पालन-पोषण कैसे करेगा? मैं उसके साथ रहने पर जीवन में उत्पन्न आर्थिक कठिनाइयों को भलि-भाँति समझ रही थी। अतः उसके साथ जाना नही चाहती थी। मेरा पति परिवार पालने के लिए पैसों की आवश्यकता से अनभिज्ञ नही था, किन्तु समझना नही चाहता था। मेरे प्रति उसका क्रूर व हिंसक व्यवहार संवेदनाओं के स्तर पर मुझे उनसे जुड़ने नही देता था। उसके बार- बार मुझे बुलाने आने के कारण मैं पुनः बी0ए0 द्वितीय वर्ष की परीक्षायें समाप्त होने के बाद ग्रीष्मकालीन अवकाश में ससुराल चली गई। परम्पराओं का पालन जो करना था मुझे। पुनः मैंने जो यातनायें सहीं वो मानसिक रूप से मुझे असंतुलित करने के लिए पर्याप्त थीं। प्रथम तो उन्हांेने मुझे वापस भेजने से मना कर दिया। मैंने स्नातक पूर्ण करने हेतु अनुमति मांगी तो वह भी न मिली। मेरे अत्यन्त आग्रह तत्पश्चात् मेरे हठ को देख कर मुझे जाने की आज्ञा उन्हांेने यह कह कर दी कि ’’अब कभी न आना यहाँ ’’। मुझे यह भी स्वीकार था। मेरी प्रति उनके पशुवत् व्यवहार व छल की अन्तिम सीमा यह थी कि उन्हांेने मेरे दोनों बेटों को मेरे साथ भेजने से मना कर दिया। मैं अपने पति से मिन्नतें करती रही किन्तु वह मेरे प्रति कठोरता की हदें पार करता रहा। मेरे बहुत मिन्नतें करने तथा यह कहने पर कि, ’’ बड़े बेटे को यहाँ रख लो, किन्तु छोटे बेटे को मेरे साथ भेज दो। वह अभी अत्यन्त छोटा है। उसे मेरी आवश्यकता है, वह मेरी ममता पर द्रवित हुआ।’’ आखिर मैं इन परिस्थितियों में और क्या कर सकती थी? मेरे साथ कोई कोई मजबूत संबल नही था मात्र मेरी निर्धन व बूढ़ी माँ के। मेरे पिता का साया तो मेरे सर से पहले ही उठ चुका था। अपनी शिक्षा व बच्चों के भविष्य के लिए मैं छोटे बेटे को साथ ले कर अपनी माँ पास वापस चली आई। बड़े बेटे की कमी मेरा हृदय खोखला कर रही थी। इस त्रासदी पर मैंने बड़े ही यत्न से विजय प्राप्त की, हृदय को यह समझा कर कि सब कुछ ठीक हो जाने पर हम पुनः साथ में रहेंगे। मैं, मेरे दोनांे बेटे व मेरा पति भी।

मुझे स्मरण है, कई महीनों पश्चात् उस दिन मेरा पति पुनः मुझसे मिलने आया था। एक दो दिन माँ के पास रूका। माँ भी क्या करती न रखती तो, परित्यक्ता पुत्री को घर मे रखने का शर्मनाक बोझ ले कर समाज में वह कैसे रहती? उसका आना मैं समझ न सकी। वह मेरे छोटे बेटे के साथ घुल-मिल गया और एक दिन उसे घुमाने के बहाने अपने साथ ले गया। आज बाइस वर्ष हो गये वह लौट कर नही आया। मैं पास पड़ोस की चाचियों, काकियों चाचाओं सबसे रो-रो कर अपनी व्यथा कहती रही। कोई क्या कर सकता था ? मैं कठोर हो गई। जीना सीख गयी।

मैं आगे की शिक्षा जारी रखते हुए नौकरी के लिए प्रयत्न करने लगी। एक समय था जब मुझे कविताये अत्यन्त अच्छी लगती थीं। विशेषकर जिन कविताओं में प्रकृति के साथ तालमेल बिठाते हुए प्रेम के भाव हाते थे, उनमें मैं डूब जाती थी। वे विवाह पूर्व के दिन थे जब मैं कवितायें लिखने लगी थी। विवाह पश्चात् तो सब कुछ समाप्त ही हो गया था । अब मैंने साहित्यिक अभिरूचियों को अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया और लेखन की तरफ मुड़ने लगी। मेरी कविताओं में प्रेम व प्रकृति का स्थान विद्रोह ने ले लिया था। रचना संसार मेरे अकेलेपन का साथी होने लगा। अब पुस्तकें मेरी मित्र थीं और शब्द तथा अभिव्यक्ति मेरे संबल। धीरे-धीरे मैं साहित्य के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने लगी। मैं एक मिशनरी इण्टर काॅलेज में शिक्षिका की नौकरी करने लगी। जिससे प्राप्त आमदनी मुझ अकेले के लिए पर्याप्त थी।

माँ के घर से व माँ के उत्तरदायित्व की सीमा रेखा से मैं दूर होना चाहती थी। माँ को अपनी चिन्ता से मैं मुक्त कर देना चाहती थी, क्यों कि पास रहते हुए माँ हर समय मेरे विषय में सोचा करती। मेरी तरफ देखती माँ व उसके कातर नेत्र मुझे चुभन देने लगे थे। मैं माँ को इस त्रासदी से निजात देना चाहती थी। इसके लिए मैंने प्रथम कदम यह उठाया कि स्वंय के रहने के लिए एक छोटा-सा घर किराये पर ले लिया।

अलग रहते हुए जीवन व समाज को अत्यन्त निकट से जो देखा व अनुभव किया, वह यह था कि समाज में औरत मात्र देह है। उसकी भावनाओं और संवेदनाओं को कोई समझाना नही चाहता। यदि समझने का ढोंग करता है तो भी अन्ततः उसकी इच्छाएँ कामेच्छा पर आ कर समाप्त हो जाती हैं।

मैं माँ को चिन्तामुक्त करने के लिए अलग तो रहने लगी। किन्तु माँ को कितना चिन्ता मुक्त कर पायी ये मैं नही जानती। अलग रहते हुए ही मैं शान्तनु के सम्पर्क में आई थी। वह एक डिग्री काॅलेज में शिक्षक था। विवाह की उम्र निकल जाने पर भी वह अविवाहित था। क्यों ? क्या कारण रहा? यह मंैने न जानना चाहा न उसने बताना। बस, एक दूसरे का साथ अच्छा लगने लगा था। काॅलेज के पश्चात् हम मिलते, किसी पार्क में या रेस्त्रां में। कभी- कभी कोई मूवी भी देख लेते। एक दूसरे से कोई वादा नही, कोई वचन नही, कोई सौगन्ध नही, कोई अपेक्षा नही। साथ.....साथ......साथ.....सिर्फ साथ...और एक दूसरे के समीप होने का एहसास। यही रिश्ता था हम दोनों के मध्य। शान्तनु कब ?कैसे ? मेरे छोटे-से घर में आकर रहने लगा। यह मैं न जान पायी न उसे मना कर पायी। मैंने अपना शरीर व हृदय शान्तनु को सौंप दिया। मेरे दिन और रात सुनहरे रंग में सराबोर हो कर श्वेत फ़ाख़्ता के पंखों को लगा कर उड़ने लगे। उस समय जि़न्दगी बहुत खूबसूरत लगी थी मुझे।

जि़न्दगी में अनेक चीजें छूटती गयीं, या मुझसे छिनती गयीं, किन्तु मैंने कलम और काग़ज का साथ कभी नही छोड़ा। शब्दों के माध्यम से भावनाओं के चित्र उकेरती रही। जि़न्दगी अपनी गति, अपनी लय के साथ आगे बढ़ती रही। मैं भी जि़न्दगी का हाथ थामे आगे बढ़ती रही । लेखन के क्षेत्र में लोग मुझे जानने लगे थे। मेरी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं। मैं अपने जीवन के अत्यन्त बुरे दौर से निकल कर यहाँ तक आयी थी। मेरी भावनायें बार-बार कुचली गई थीं। माँ के घर से भावनायें आहत होनी प्रारम्भ हुईं। विवाहोपरान्त ससुराल में मेरे मातृत्व को तार-तार किया गया। मैंने स्वंय को किस प्रकार खड़ा किया व चलने योग्य बनाया यह मैं ही जानती हूँ। उस समय मैंने प्रण कर लिया था कि मैं अब किसी भी भावनात्मक रिश्ते में नही बधूँगी। मेरी भावनाएँ आहत कर सुख प्राप्त करने का खेल अब कोई और मुझसे नही खेल सकेगा।

मैंने शान्तनु को अपना सब कुछ समर्पित किया, किन्तु अपनी भावनाओं से दूर रखा। मैं सीख गई थी कि कठोर रह कर ही जिया जा सकता है। भावनात्मक लगाव व प्रेम तो आहत कर के मार ही देता है। शान्तनु के साथ अनाम रिश्ते में रहते हुए मुझे चार माह हो गये थे। एक दिन मुझे ज्ञात हुआ कि मैं गर्भवती हूँ। गर्भपात कराने की अनेक बार उठी मेरी इच्छा के विपरीत शान्तनु की इच्छा थी कि बच्चे को आने दिया जाये। मैंने भी बच्चे को संसार में आने देने का निर्णय लिया। नियत समय पर मैंने एक पुत्री को जन्म दिया। शान्तनु मेरे साथ ’’लिव इन रिलेशनशिप’’ टाइप के रिश्ते में रहते हुए अब विवाह कर के मेरे साथ घर बसाना चाहता था। इस अनाम रिश्ते को नाम देना चाहता था। मेरी भावनायें अनेकों बार लहूलुहान हो कर कठोर हो चुकी थीं। अतः मैंने शान्तनु का प्रस्ताव ठुकार दिया। छः माह तक माँ के उत्तरदायित्व को वहन किया। मेरे मातृत्व की भावनायें भी कदाचित् समाप्त हो चुकी थीं या मैं स्वतंत्र व स्वच्छन्द रहना चाहती थी ये मैं नही जानती। मैं अब किसी भी भावनात्मक बन्धन में बँधना नही चाहती थी। छः माह पश्चात् मैं शान्तनु व उसकी बेटी को छोड़ कर पुनः माँ के पास आ गई।

स्त्री विमर्श, स्त्री अधिकारों, स्त्री की स्वतंत्रता, बालिका शिक्षा व शोषण पर बेबाक लिखने वाली मैं ! मैं सही हूँ या ग़लत? यह मैं जानने का प्रयत्न नही करना चाहती। माँ के घर वापस आ कर पुनः पीछे मुड़ कर नही देखना चाहती थी। शान्तनु की बेटी को भी नही। मैंने सुना है कि वह इस छोटे-से शहर में रहने वाले मेरे परिचितों व रिश्तेदारों के पास जा कर मेरे छोड़ कर चले जाने की बात कहता है। शान्तनु मुझे कुछ भी कह सकता है, कहता रहे। मैं किससे कहूँ? मेरे साथ इस समाज के पुरूषें ने कदाचित् इनमें स्त्रियों का भी योगदान है, क्या-क्या किया? मेरा व्याहता पति, वो बीमार लेखक-पत्रकार, ये शान्तनु जो विवाह की उम्र गुज़र जाने पर स्वार्थवश मुझे अपनाना चाहता है....... सब के सब स्वार्थी, कलुषित मानसिकता वाले। एक समय था जब ऐसे रिश्तों में मैं कैद होना चाहती थी, किन्तु अब नही। मेरे दोनों बेटे बड़े हो गये हैं। कभी- कभी मुझसे मिलने आते हैं। मैं उनसे मिल लेती हूँ..... निर्लिप्त-सी।

अब मैं कलम और कागज के साथ ही जीना चाहती हूँं। मैं माँ के घर कुछ समय तक ही रहूँगी। पुनः कोई किराए का घर ले कर अलग रहूँगी। उम्र की अधिकता के कारण माँ की सक्रियता भी कम होती जा रही है। शरीर साथ नही दे रहा है। वह भाई के साथ हैं व उसकी गृहस्थी में अपनी खुशी तलाश लेती है। मैं ही हूँ जो उन्हंे तकलीफ देती रहती हूँ। शान्तनु को छोड़े हुए आठ वर्ष हो गए हैं। सुना है इस शहर से उसका स्थानान्तरण कहीं और हो गया है।

उफ्फ! पुराने दिनों को स्मरण करते- करते न जाने कब आँख लग गई थी। बाहर खिड़की से चिडि़यों के चहचहाने के स्वर सुनाई दे रहे हैं। प्रतीत हो रहा है सवेरा होने वाला है। मैं काॅलेज जाने की तैयारियों में व्यस्त हो गई। मैं चल पडूँगीं। जि़न्दगी की राहें जिस तरफ मुड़ेंगी, मैं भी उन राहों पर मुड़ जाऊँगी। मेरी कलम, मेरे शब्द मेरे साथ हैं। लोग मुझे स्वार्थी, चरित्रहीन या अन्य कोई भी लाँछन लगा सकते हैं.......स्वतंत्र हैं वह। मैं जानती हूँ इस संसार में अकेली स्त्री का रहना, जीना, अपने अस्तित्व को स्थापित करना खेल नही है......खेल नही है।

नीरजा हेमेन्द्र