मूर्ति का रहस्य तीन
फरवरी का महीना था । बसन्त ऋतु थी एक दिन एक जीप सालवाई गाँव के हनुमान चौराहे पर आकर रूकी। जीप पर लिखा था-‘‘पुरातत्व सर्वेक्षण दल ग्वालियर’’
जीप देखकर लोग सिमट आये। पता चला-किले की खोज में पुरातत्व विभाग वाले अफसर आये हैं।
लोगों ने पहचाना उनमें एक व्यक्ति तो वो था जो इस गाँव में पिछले एक वर्ष से चक्कर काट रहा है। यहाँ के लोग इन्हें त्यागी जी के नाम से जानते हैं। इनका पूरा नाम है विश्वनाथ त्यागी। वे इस वक्त खादी का पाजामा एवं कत्थई रंग का नेताओं जैसे बनोक का लम्बा कुरता पहने हैं। उनके सिर के बाल गर्दन पर हैं। किन्तु दाढ़ी मूंछे साफ हैं। पुरातत्व विभाग में अधिकारी हैं।
वे गाँव के रामचरन ओझा वगैरह से परिचित हैं। इन्हें देखते ही विश्वनाथ त्यागी ने उत्सुकता से पूछा - ‘‘कहो ओझा जी, अपने इस किले के क्या हालचाल हैं ?’’
इधर-उधर सिमटी भीड़ देखकर रामचरण ओझा जोर से बोला - ‘‘जी हालचाल तो ठीक नहीं है। इस किले में भूतों के चीखने-चिल्लाने की आवाजें अब तो रोज रात को सुनाई देती हैं।’’
‘‘अरे ! अरे ! यह क्या कहते हो ?’’ विश्वनाथ जी ने उत्सुकता से पूछा।
‘‘कभी-कभी मुझे लगता है ऊपर किले में भूतनियाँ नृत्य करती हैं। उनके घुँघुरूओं की आवाजें मुझे कई बार सुनाई पड़ी हैं।’’ बात को रामचरण ओझा ने ही बढ़ाया।
विश्वनाथ त्यागी गाँव वालों को सुनाते हुए बोला -‘‘भई...ओझा जी, क्या करें? हमें इस किले में सरकारी काम से आना-जाना पड़ता है...किन्तु किले के ऊपर चौक में पहुँचकर तो मुझे भी भय लगता है। वह तो हमारे साथ पण्डित दीनदयाल शर्मा जी रहते हैं। इसलिए हमें उनसे डरने की बात नहीं है। ये भूतों से लड़ जाते हैं। इनके मारे तो बड़े-बड़े नामी भूत भाग जाते हैं क्यों शर्मा जी...?
जीप से उतरे व्यक्तियों में पं.दीनदयाल शर्मा, सफेद धोती-कुरता पहने, गले में बनारसी गमछा डाले थे। उन्होंने विश्वनाथ त्यागी की बात का उत्तर देने के लिए हनुमान जी के मंदिर की तरफ हाथ जोड़कर कहा -‘‘सब बजरंग बली की देन है। मैं कुछ नहीं जानता, किन्तु इनकी मुुुझ पर बड़ी कृपा है। मेरे पास जो कुछ है सब इन्हीं की मेहरबानी है।’’
रमजान अपने दोस्तों के साथ यहाँ आकर खड़ा हो गया था। वह इन सब की बातें पूरे ध्यान से सुन रहा था।
पं. दीनदयाल ष्शर्मा ने बच्चों को सम्बोधित करके कहा -‘‘बच्चों तुम लोगों में से कोई भूत को देखना चाहे तो वह हमारे साथ किले में चले। उसे वहाँ हमारे साथ रात्रि में रूकना पड़ सकता है। तुम लोगों में से कोई आज तक किले में गया क्या?’’
उनकी यह बात सुनकर रमजान अपना सीना फुलाते हुए बोला -‘‘मैं प्रत्येक महीने के आखिरी जुमे के दिन ऊपर जो दरगाह बनी है उस पर अगरबत्ती लगाने जाता हूँ। मैंने पूरा किला देखा है। मुझे तो वहाँ कोई नहीं मिला। ’’
यह सुनकर पं. दीनदयाल शर्मा क्रोध प्रकट करते हुए उससे बोले -‘‘इसीलिए तो तुझसे कह रहा हूँ ,यदि तू भूतों से मिलना चाहे तो चल मेरे साथ।’’
‘‘मैं चलने को तैयार हूँ। मैं भूतों से मिलना चाहता हूँ।’’
विश्वनाथ त्यागी रमजान के साहस को तोड़ने के उद्देश्य से बोला-‘‘पण्डित जी यही रमजान लड़का है जो बड़ा बहादुर बनता है। इसे ले जाकर इसकी बब्बर भूत से कुश्ती करा दो। ’’
इतना कह वे ठठाकर हंस पड़े। रमजान ने इत्मीनान प्रगट करते हुए कहा-‘‘सच मानिये मैं भूतों से मिलना चाहता हूँ।’’
उसकी ऐसी बातें, सुनकर रामचरण ओझा ने पैंतरा बदला- ‘‘रहने दे बेटा, रहने दे। इतना बहादुर मत बन। ये लोग तुझे साथ ले गये और तुझे कुछ हो गया तो तेरा फौजी बाप इन्हें जिन्दा नहीं छोड़ेगा।’’
विश्वनाथ त्यागी ने रामचरण ओझा की बात का आशय समझ कर कहा-‘‘पण्डित जी इस छोकरे की परीक्षा लेना ही पडे़गी। ऐसे बहादुर लड़के हमने बहुत कम देखे हैं।’’
पण्डित दीनदयाल शर्मा ने बात को इस मुद्दे से हटाकर दूसरी ओर किया-‘‘बेटा रमजान तुम बहुत बहादुर लड़के हो। पहले थोड़ा बहुत पढ़ लिख लो फिर इन बातों में पड़ना। बोलो, तुम्हारे गाँव का कोई और लड़का, तुम्हारे साथ किले के ऊपर चलने को तैयार है ? ‘‘
रमजान ने अपना चेहरा घुमाकर इधर-उधर दृष्टि डाली। ...और सोचते हुए बोला- ‘‘मेरी एक साहसी बहन जरूर है, वह मेरा साथ दे सकती है।’’
‘‘कौन लड़की ?’’ दीनदयाल शर्मा ने पूछा।
‘‘चन्द्रावती ! ...सेठ बैजनाथ गुप्ता जी की बेटी।’’ विश्वनाथ त्यागी ने उत्तर दिया।
सहसा इसी समय सेठ बैजनाथ हनुमान चौराहे पर आते दिखे। उन्हें देखकर, विश्वनाथ त्यागी ने कहा-‘‘ससुरे बैजनाथ की उम्र लम्बी है । इधर नाम लिया उधर हाजिर हो गया।‘‘
दीनदयाल ष्शर्मा सेठ बैजनाथ गुप्ता जी का स्वागत करते हुए बोला -‘‘अरे ! आइये सेठ बैजनाथ जी, हम आपकी ही याद कर रहे थे।’’
‘‘आज्ञा करें पण्डित जी।’’ सेठ बैजनाथ ने कहा।
‘‘सेठ जी इस छोकरे को समझाओ। हमारे मुँह लगता हैं। यह नहीं जानता कि हम...।’’ पण्डित दीनदयाल बोले।
‘‘रमजान बेटा, चलो हटो यहाँ से। बेटा बड़ो के मुँह नहीं लगना चाहिए।’’ सेठ बैजनाथ उससे लाड़ में बोले।
रमजान चन्द्रावती के कारण उनका लिहाज करता था। उनकी बात को वह टाल नहीं सका और वहाँ से चला गया। रमजान के वहाँ से हटते ही गाँव के अन्य लड़के भी वहाँ से चले गये।
पुरातत्व सर्वेक्षण दल किला भ्रमण के लिए निकला। किले का बुरा हाल था। प्रवेश द्वार फूटा पड़ा है, नीचे से ऊपर तक टूटी-फूटी सीढ़ियाँ। पूरा दल किले के ऊपर पहुँचा। राजमहल की ढहती दीवारें और छतें देख वे लोग किले की प्राचीनता के बारे में अनुमान लगाते हुए बतियाने लगे।
किले के चारों कोनों पर विशाल गोल बुर्जें थीं। किले के बीचों-बीच लम्बा चौड़ा चौक था। बीच चौक में पाँच मीटर लम्बा और इतना ही चौड़ा चबूतरा बना है। लोग कहते हैं यह यहाँ के महाराजा का बैठका है।
सभी उस चबूतरे पर बैठकर थकान मिटाने के लिए सुस्ताने लगे। चबूतरे के बीचों-बीच एक पत्थर का शिलालेख पण्डित दीनदयाल शर्मा को दिखा। वे धोती सभाँलते हुए पन्जों के बल उसके पास जा बैठे और उसे घूरने लगे। शिलालेख पर काई सी जमा हो गई थी। इसलिए लिखावट पढ़ने में नहीं आ रही थी। उन्होंने इधर-उधर दृष्टि डाली और पत्थर की एक नोंकदार कांतर उठा लाये। दल के अन्य लोग उनके इस कार्यकलाप को गौर से देखने लगे। वे शिलालेख को कांतर से साफ करने लगे।
विश्वनाथ त्यागी ने कहा - ‘‘पण्डित जी, यह यहाँ के महाराजा बदन सिंह का बैठका है। गाँव के लोग तो इसके ईंट पत्थर ही खींच कर ले गये। वैसे भी आप देख ही रहे हैं कि इस राजमहल के सुन्दर नक्काशी वाले पत्थर और ईंटें वगैरह लोग अपने घरों को सजाने के लिए ले गये हैं। गाँव में घर-घर जाकर उन अवशेषों को देख सकते हैं।’’
वे कुछ देररूके फिर पं. दीनदयाल शर्मा की ओर देखकर बोले, ‘‘पण्डित जी, एक अपने मतलब की जन श्रुति इस गाँव में फैली है। कहते हैं जिस आदमी ने इस चबूतरे की ईटें निकालीं थीं वह आदमी यहीं से बीमार हो गया और उसी रात उसकी मृत्यु हो गई।’’
अब तक शिला लेख पूरी तरह साफ हो चुका था। उस पर लिखे अक्षर साफ-साफ दिखने लगे। वहाँ लिख हुआ दिख रहा था ‘‘इस किले को उलट दो।’’
दीनदयाल ने उस इबारत को अनेक बार दोहराया, ‘‘इस किले को उलट दो।’’
वे जोर-जोर से बड़बड़ाये- ‘‘क्या होगा इस किले को उलटने का अर्थ ! इसकी खुदाई क्यों न कराई जावे। निश्चय ही कुछ तथ्य हाथ लग सकते हैं।’’
विश्वनाथ त्यागी ने सार की बात कही-‘‘पंडित जी हमें इधर-उधर के तथ्यों से क्या लेना-देना। मैं तो आप लोगों को यहाँ खजाने की खोज में लाया हूँ। इधर-उधर पुरातत्व अन्वेषण के लिए तो मैं अकेला ही बहुत हूँ।‘‘
त्यागी की बात सुन वे सब चेते और त्यागी के बताये अनुसार दिशा मंें चल पड़े। आपस मेंबातचीत करते हुए वे किले के उत्तर पूर्व में बने मन्दिर पर जा पहुँचे। मन्दिर में श्वेत संगमरमर की गणेश जी की सुन्दर प्रतिमा थी।
पं. दीनदयाल ष्शर्मा ने कहा, ‘‘यहाँ गणेश प्रतिमा का अर्थ है, राज परिवार गणेश जी का भक्त रहा है।’’
सर्वेक्षण दल के साथ आये दुबला-पतला पेन्ट-शर्ट पहने युवक से प्रतीत हो रहे, पैतीस वर्षीय सेठ रामदास, नीचे से मौन साधे दल के पीछे-पीछे चला आ रहा था। वह चुपचाप ध्यान से सभी की बातें भी सुनता आ रहा था। उसने गणेश जी की प्रतिमा को देखकर उत्सुकता से पूछा- ‘‘पण्डित जी, इस मन्दिर का पुजारी कौन है?’’
उत्तर विश्वनाथ त्यागी ने दिया -‘‘पण्डित कैलाशनारायण शास्त्री ! वे अपने ही आदमी है, उनसे इस बारे में विस्तृत चर्चा हो चुकी है।’’
पण्डित दीनदयाल शर्मा ने अपनी बात रखी -‘‘भई त्यागी जी, यह काम बड़ा खतरनाक है। मैं और हमारे सेठ रामदास तो कभी ऐसे चक्करों में पड़े नहीं हैं, इसलिए हम लोग डरते हैं। ये तो बड़ी मुश्किल से मेरी वजह से तैयार हुए हैं।’’
विश्वनाथ त्यागी बोला, ‘‘पण्डित जी आप चिन्ता नहीं करें। हम सब समझ रहे हैं। सेठ रामदास जी सीधे सच्चे आदमी हैं। ये आपके परामर्श से ही पैसा लगाने को तैयार हुए हैं।’’
विश्वनाथ त्यागी की बात सुनकर सेठ रामदास बोला, ‘‘मेरा जीवन तो पूरा अस्त-व्यस्त हो गया है। चार बच्चों को छोड़कर पिछले साल पत्नी चल बसी है। उसकी बीमारी में सारा पैसा स्वाहा हो गया। मुझे तो मेरे बड़े भाई सेठ नारायण दास जी का भरोसा है। उनके कोई बाल बच्चा है नहीं। सो उनके भरोसे ही अपनी गाड़ी चल रही है। वे मेरी बात को टालते नहीं हैं। इस काम के लिये उनकी कृपा हो गई है।
पण्डित दीनदयाल शर्मा ने अपने अनुभव से अवगत कराया -‘‘भई त्यागी जी, आपने अभी तक यहाँ की भूमिका तो अच्छी तैयार कर दी है। सेठ जी आप अपने त्यागी जी की बात कर विश्वास रखें।’’
रामदास बोला -‘‘पण्डित जी मुझे तो आपकी बात का पूरा भरोसा है आप यदि कुंआ में कूदने की कहोगे तो मैं उसमें भी कूद जाऊँगा।’’
विश्वनाथ त्यागी ने बात पूरी की -‘‘हम सब को एक दूसरे पर विश्वास करना ही पड़ेगा। सेठ जी, मुझे भूमिका बनाने में पूरा एक साल लग गया। आज यह हालत है कि गाँव के लोग इस किले की तरफ देखने में भी डरते हैं।’’
दीनदयाल शर्मा ने प्रश्न किया-‘‘त्यागी जी, यह किला गाँव के बीचों-बीच है। हम लोगों का यहाँ हर समय आना जाना कैसे सम्भव है ? उत्तर विश्वनाथ त्यागी ने दिया -‘‘इस किले के पश्चिम में सुनसान मरघट है। पीछे बावड़ी के पास से यहाँ आने का रास्ता है। आज के बाद अब यहाँ आना होगा तो रात में ही, वह भी मरघट की ओर से। मरघट तक जीप आ जाती है। इसीलिये यहाँ आने-जाने के लिए चिन्ता करने की जरूरत नहीं है।’’
पं. दीनदयाल शर्मा ने आश्चर्य प्रगट किया -‘‘किन्तु त्यागी जी, उस छोकरे रमजान की उद्दण्डता तो देखो।’’
विश्वनाथ त्यागी ने उन्हें संतुष्ट किया -‘‘आप उसकी चिन्ता न करें। वह अपने सेठ बैजनाथ गुप्ता जी हैं ना, वह उनकी बात टालता नहीं है। जब बड़े-बड़े हार मान कर बैठ गये हैं फिर ये छोकरा किस खेत की मूली ठहरा।’’
सेठ रामदास ने अपना निर्णय सुनाया - ‘‘ठीक है त्यागी जी, मुझे आज आप लोगों की बातों का पूरा भरोसा हो गया है। आप काम शुरू कर दें।‘‘
विश्वनाथ त्यागी ने सेठ को और अधिक विश्वास में लेने के उद्देश्य से कहा -‘‘सेठ जी अभी तो कुछ ऐसे तथ्य और भी हैं जिन्हें देखकर आप दंग रह जायेंगे। चलो उठो पहले इस ढहते राजमहल में चलें। ’’
सभी राजमहल के अंदर प्रवेश कर गये।
रामदास ठोक पीट कर दीवालों की स्थिति देख रहे थे कि वे कहाँ-कहाँ पोली हैं और कहाँ-कहाँ नीवर। अब वे ऐसे स्थान पर पहुँच गये जहाँ दीवार पर रंग बिरंगे भित्तिचित्र बने थे। यही एक कक्ष राजमहल का साबुत बचा था। हर दीवार पर राजा और रानियों को बगीचे में टहलते हुए या श्रृंगार करते हुए बताया गया था।
चित्रों में महिलाओं को खूब-खूब आभूषण पहने हुए भी दिखाया गया था। तरह तरह के सुन्दर आभूषण ! विश्वनाथ त्यागी ने मौन तोड़ा- ‘‘हम ऐसे ही आभूषणों की तलाश में हैं । शायद हमारा भाग्य उदय हो जाये।’’
सभी को उन चित्रों को देखकर विश्वास हो गया कि ऐसे ही सुन्दर आभूषण यहाँ के खजाने में रखे होना चाहिए, क्योंकि चित्रकार ने रानी को देख कर ही तो चित्र बनाए होंगे। यह सोचते हुए वे राजमहल से बाहर निकल आये।
पण्डित दीनयालय शर्मा बोले, - ‘‘त्यागी जी इन सब लोगों को नीचे बावड़ी वाली गुफा तो दिखला देते जो एक बार आपने मुझे दिखाई थी।’’
विश्वनाथ त्यागी बोला, ‘‘हम वहीं चल रहे हैं। पण्डित जी आप यहाँ से जाने आने का रास्ता पूछ रहे थे। देखो, यहाँ से भितरवार हरसी रोड दिख ही रहा है। वो जो बड़ा सा पेड़ दिख रहा है वहाँ यदि अपनी जीप छोड़ भी दें तो हमारे आने-जाने की किसी को हवा भी नहीं लगेगी।...फिर यह मरघट देख ही रहे हैं यहाँ रात में पूरा सुनसान रहता है।‘‘
बातें करते हुए वे बावड़ी के पास पहुँच गये। मैदान से जहाँ यह बावड़ी कुंए की तरह थी वहीं एक दिशा से नीचे खूब गहरे पर पानी के स्तर तक सीढ़ियाँ जाती दिख रही थीं। वे सब सीढ़ियों से नीचे बावड़ी में उतरने लगे। सीढ़ियों पर दोनों ओर पतली पुरानी ईंटों की दीवारें बनी थीं। सहसा एक जगह रूक कर दांयी दीवार में उभरे एक पत्थर को विश्वनाथ त्यागी ने पकड़ कर दबाया तो वहां की दीवार पीछे को खिसकने लगी और उन सबको अंधेरे में डूबा एक दरवाजा दिखा, उन्होने पाया कि वे सब एक गुफा के दरवाजे पर आकर खड़े थे। विश्वनाथ त्यागी बोला, ‘‘ मजदूरों से इस गुफा की सफाई करा लेंगे। यहाँ से कहीं जाने आने का रास्ता होने का अंदाज लगता है।’’
वे सब बड़ी देर तक घूर घूर कर उसका निरीक्षण करते रहे, फिर लौट पड़े।
वे सब किले के चौक में लौट आये और चबूतरे पर गड़े पत्थर में लिखी पंक्ति पर विचार करते हुए, खजाने की खोज रचते सीढ़ियों से उतर कर पहाड़ी की ढलान पर आ गए। ढलान से थोड़ा आगे चलने पर हनुमान चौराहे पर उनकी जीप खड़ी थी। जीप के पास गाँव के लोगों की भीड़ जमा थी।
सर्वेक्षण दल को सकुशल आया हुआ देखकर बैजू नाई बोला, ‘‘इतैक देर हो गई, हमें तो जों लग रही कै काऊ चक्कर में तो नहीं फंस गए।’’
विश्वनाथ त्यागी समझ गया कि हमें क्या कहना है ? वह सोचकर बोला, ‘‘वह तो हमारे साथ पण्डित दीनदयाल शर्मा जी थे इसीलिए बचकर सकुशल आप लोगों के दर्शन कर रहे हैं नहीं तो आप लोग हम सब की लाशें देखते। पण्डित जी का राम भला करंे। हम पर इतने सारे भूत टूट पड़े कि सब के सब बेहोश हो गए। हमे तो पंडितजी ने बचाया। अब हम इस किले के ऊपर जाने का कभी नाम नहीं लेंगे। मैं तो इस जगह से अपना तबादला ही करवाये लेता हूँ। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।’’
पण्डित दीनदयाल शर्मा इस बात को सुनकर समझ गये कि मुझे क्या कहना है, वे बोले-‘‘भाईयों...मेरी तो आप लोगों को ये सलाह है, गाँव का कोई भी व्यक्ति इस किले के ऊपर जाने का दुस्साहस न करें। गलती से कोई वहाँ गया और कुछ हो गया तो फिर हमें दोष न देना कि पण्डित जी ने सचेत नहीं किया। भैया इस किले में एक दो भूत नहीं बल्कि भूतों की बारात है। चलो सब जीप में बैठो, हमें तो अब इस गाँव में रूकने में ही डर लग रहा है।’’
सब सहमे होने का नाटक करते हुए जीप में बैठ गये। जीप चली गई।
...जो हवा वे बांध गए थे, उसकी कमान अब रामचरन ओझा ने सभाँली, ‘‘मैं तो पहले से ही कहता था कि इस किले में मत जाओ। देख लिया जाकर। लेने के देने पड़ गए। बड़े आये थे अधिकारी बनकर, अब कर लओ सर्वेक्षण। ...भागते गैल मिली।’’
पण्डित कैलाशनारायण शास्त्री ने अपनी सफाई दी -‘‘भैया मोय तो मन्दिर की पूजा करिवे जानों ही पत्तो। भूत सब जानतयें कि जे गणेश जी के पुजारी हैं। जइसे वे मोसे नहीं बोल्त। ऊपर पहुँच कें तो डर मोय सोऊ लगतो। चाहे मरूँ, चाहे जिऊँ। आगे से दो बेर नहीं तो एक बेर मन्दिर की पूजा करिवे जानो ही परैगो।’’
गाँव के लोग अपने गाँंव के पण्डित जी की ये बातें सुनकर भीतर ही भीतर डर गये और उन्हें बिना कुछ उत्तर दिए वहाँं से खिसकने लगे।
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जिस दिन से गाँंव में वो सर्वेक्षण दल आया था किले के बारे में लोगों में भय बढ़ गया था। उसके तीसरे दिन ही इस गाँव के दो लोग गायब हो गये। उनमें एक थे पं. कैलाशनारायण शास्त्री दूसरे थे रामचरन ओझा।
कोई कह रहा था -’’उसने इन दोनों को साथ-साथ किले के सिंह द्वार की ओर जाते देखा था। जब से गये हैं ये दोनों लौट कर नहीं आये। शास्त्री जी तो पूजा करने रोज ही जाते, उस दिन ओझा काका साथ गए तो अब तक लौटे नहीं।‘‘
सारा गाँव भय से सहम गया था उस दिन से।
कुछ कह रहे थे-’’ क्या पता इन्हें भूतों ने मार डाला हो। नहीं तो ऊपर रूककर वहाँ क्या करते? क्या खाते? क्या पीते? कहाँ सोते? वहाँ कोई बिस्तर थोड़े ही लगे हैं जो आराम करते। फिर भूता खाने में कौन भला आदमी जाकर रहेगा।‘‘
सभी को उत्सुकता थी कि ये दोनों गायब कैसे हो गए? घटना से सम्पूर्ण गाँव में एक बार फिर आतंक छा गया।
जिस दिन से ये लोग गायब हुए थे उस दिन से किले के ऊपर से छम्म... छम्म... छम्म... की आवाजें गाँव में स्पष्ट सुनाई पड़ने लगीं। रात्रि के समय तो ये आवाजें और भी स्पष्ट सुनाई देतीं थीं। लोगों को लगता...महाराजा बदनसिंह के भुतैले दरबार में भूतनियाँ नृत्य करती हैं।
कुछ वसीर खान जैसे जाग्रत और पढ़े-लिखे लोग इस घटना की असलियत की खोज में थे। एक दिन रमजान ने उत्सुकता प्रगट की-’’चचा जान, गाँव के दो बुजुर्ग लोगों का गायब होना और किले की ओर से रात के वक्त ये छम्म... छम्म... छम्म... की आवाजें आने का क्या मतलब है?‘‘
‘‘बरखुरदार, मुझे तो इस कायरों की बस्ती में रहना अखर रहा है। क्योकि गाँव का हर आदमी इतना डरा हुआ है कि किले और भूतों की बात भी नहीं करना चाहता। इन भूतों की बातों का रहस्य जानना चाहता हूँ मैं भी।’’
‘‘चचाजान, मैं किले के ऊपर जाकर देखना चाहता हूँ।‘‘
’’ तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो। नहीं तो तुम्हारे अब्बाजान नूर मोहम्मद कहेंगे कि भाई के भरोसे लड़का छोड़ा सो बिगड़ गया। इस गाँव में इस काम के लिए और लोग भी तो हैं। हमें तो यहाँ के लोग मुसलमान होने के कारण, किसी गिनती में नहीं गिनते। वैसे, मै यहाँ की सारी बातों की सूचना थाने पहुँचा चुका हूँ...किन्तु दरोगा सिटपिटा ही नहीं रहा है। शायद इन लोगों ने पुलिस को भी डरा दिया होगा। ‘‘
इसी समय रमजान की चाची आमना ने आवाज दी -‘‘अरे ! सुनो तो चचा भतीजे जाने किस मुद्दे की गुफ्तगू में मशगूल हैं। चलो उठो, खाना खालो...और हाँऽऽ बेटा रमजान, आज चन्दा अपनी अंग्रेजी की कापी माँगने आई थी। तुमने अपना गृहकार्य पूरा कर लिया है तो उसे कापी वापस देआ।’’
‘‘जी चाची जान, गृहकार्य तो निपट गया है। अब खाना खाकर उसकी कापी दे आता हूँ।’’
यह कहते हुए चचा भतीजे दोनों खाना खाने बैठ गए।
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