असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 2 Yashvant Kothari द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 2

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जैसा कि अखबारों की दुनिया में होता रहता है, वैसा ही यशोधरा के साथ भी हुआ। अखबार छोटा था मगर काम बड़ा था। धीरे-धीरे स्थानीय मीडिया में अखबार की पहचान बनने लगी थी। शुरू-शुरू में अखबार एक ऐसी जगह से छपता था जहां पर कई अखबार एक साथ छपते थे। इन अखबारों में मैटर एक जैसा होता था। शीर्षक, मास्टहेड, अखबार का नाम तथा सम्पादक, प्रकाशक, मुद्रक के नाम बदल जाया करते थे। कुछ अखबार वर्षों से ऐसे ही छप रहे थे। कुछ दैनिक से साप्ताहिक, साप्ताहिक से पाक्षिक एवं पाक्षिक से मासिक होते हुए काल के गाल में समा गये थे। कुछ तेज तर्रार सम्पादकों ने अपने अखबार बन्द कर दिये थे। और बड़े अखबारों में नौकरियां शुरू कर दी थी। कुछ केवल फाइल कापी छापकर विज्ञापन बटोर रहे थे। कुछ अखबार पीत पत्रकारिता के सहारे घर-परिवार पाल रहे थे। कुछ इलेक्ट्रोनिक मीडिया में घुसपैठ कर रहे थे। एक नेतानुमा सम्पादक विधायक बन गये थे।

एक अन्य सम्पादक नगर परिषद में घुस गये। एक और पत्रकार ने क्राईम रिपोटिंग के नाम पर कोठी खड़ी कर ली थी। एक नाजुक पत्रकार ने अपनी बीट के अफसरों की सूची बनाकर नियमित हफ्ता वसूलने का काम शुरू कर दिया था। एक सज्जन पत्रकार ने मालिक के चरण चिन्हों पर चलते हुए अपना प्रेस खोल लिया था। मगर ये सब काम प्रेस की आजादी, विचार, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर हो रहे हैं। समाचारों का बीजारोपण प्लाटेशन ऑफ न्यूज पिछले कुछ वर्षों में एक बड़ा उद्योग बनकर उभरा था, मगर इस सम्पूर्ण क्रम में फायदा किसका हो रहा था इस पर कोई विचार करने के लिए तैयार नहीं था कभी-कदा कोई नेता-मंत्री कहता प्रेस की स्वतन्त्रता का मतलब लेखक या पत्रकार की स्वतन्त्रता। मालिक भी स्वतन्त्रता का कोई मतलब नहीं है।

अखबार इस आवाज पर चुप लगा जाते। कई बडे़ अखबारों के स्वामी अपने अखबार का उपयोग अपने अन्य उधोग-धन्धे विकसित करने में लग रहे थे और समाज, सरकार, मीडिया देखकर भी अनदेखा कर जाते थे। पत्रकार मंत्री के कमीशन एजेन्ट बनकर रह गये। वे सी.पी. (चैम्बर प्रेक्टिस करने लग गये) बहुत सारे पत्रकार तो राजनीतिक दलों की विज्ञप्तियां छापने में ही शान समझने लगे। दलों की हालत ये कि अपना पत्रकार डेस्क पर नहीं हो तो विज्ञप्ति भेजते ही नहीं। एक सम्पादक नेता ने अपने मीडिया हाऊस से संसद की सीढ़िया चढ़ ली। दूसरा क्यों पीछे रहता उसने खेल जगत पर कब्जा कर लिया। तीसरे ने विकास प्राधिकरण से प्लाट लेकर माल बना लिया। कलम का ऐसा चमत्कार। एक प्रदेश के मुख्यमंत्री बोले-

‘‘हर चीज की कीमत होती है। मैं कीमत लेकर काम कर देता हूं। पचासों पत्रकार उद्योगपतियों से पगार पाते है।लोग इनको पत्तलकारकहने लग गए हैं.

मीडिया ने फिर चुपी साध ली। एक अखबार ने लाभ कमाने वाले पत्रकारों के नाम और राशि छाप दी। बेचारे मुंह छिपाते फिर रहे है। कुछ ने कहा-थोडे बहुत गलत आदमी सब जगहों पर है।

मगर यारां यहां तो पूरी खान में ही नमक है। बड़ों की बात बड़ी। बड़े पत्रकारों को जाने दीजिये। अपन अपनी छोटी दुनिया में लौटते है।

जिस खण्डहरनुमा जगह में यशोधरा सपरिवार रह रही थी उसी के पास वाली बड़ी बिल्डिंग के एक फ्लेट में सम्पादक जी रहने आ गये। उसके अखबार के सम्पादक जी ठेके पर आ गये। ठेके का मकान। ठेके की कार। ठेके की कलम..............सब कुछ ठेके पर। आते-जाते दुआ सलाम हो गई। सम्पादकजी ने पूछा।

‘तुम यही रहती हो।’

‘जी हां।’

‘अच्छा।’

‘और घर में कौन-कौन है।’

‘माँ -बापू, भाई...............।’

‘ठीक है।’

‘कोई काम हो तो बताना।’

‘जी, अच्छा.................।’

यह औपचारिक सी मुलाकात यशोधरा को भारी पड़ गई। कुछ ही दिनों में उसे दफ्तर के आपरेटर सेल से हटाकर सम्पादक जी के निजि स्टाफ में तैनात कर दिया गया। काम वहीं टाईपिंग। मगर धीरे-धीरे यशोधरा ने अखबारी दुनिया के गुर सीखने शुरू कर दिये थे। उसे समाचारों के चयन से लेकर प्लांटेशन तक की जानकारी रहने लगी थी। कुछ बड़े समाचारों के खेल में सम्पादक, मालिक और राजनेता भी शामिल रहते थे। बात साफ थी। खेलो। खाओ। कमाओ। क्यों कि प्रजातन्त्र का चौथा स्तम्भ था मीडिया। खोजी पत्रकारिता, स्टिंग ऑपरेशन के नाम पर नित नये नाटक। यहां तक कि सत्यांश जीरो होने पर भी समाचार का पूरे दिन प्रसारण। एक मीडिया ने अध्यापिका के स्टिंग ऑपरेशन के नाम जो किया उसे देख-सुनकर तो रोंगटे खड़े हो गये। गलाकाट प्रतिस्पर्धा के कारण क्या कुछ नहीं किया जा सकता।

वो जल्दी से इस दुनिया के बाहर की दुनिया के बारे में सोचने लगी। मगर विधना को कुछ और ही मंजूर था।

 

ये उत्सवों के दिन। त्यौहारों के दिन। मुस्लिम भाईयों के रोजे और ईद के दिन। हिन्दुओं के लिए नवरात्री, दशहरा, पूजा, दुर्गा, दिवाली के दिन। और दिसम्बर आते-आते ईसाईयों के बड़े दिन क्रिसमिस। नववर्ष । सब लगातार। साथ-साथ।

इन उत्सवी दिनों में मनमयूर की तरह या जिस तरह का भी वो होता है नाचने लग जाता है। शहरों -गांवों-कस्बों में सब तरफ आजकल डाण्डियां-डिस्कों का क्रेज चल पड़ा है। तरह-तरह के डांडियां और ड्रेसज। युगल। कपल। विवाहित। अविवाहित जोड़े। मस्ती में झूमते-झामते नव धनाढ्य। देखते, इतराते मंगतेर। नाचते गाते लोग। कौन कहता है भारत गरीब है ? देखो इस डिस्को-डांडियां को देखो। मां की पूजा अर्चना का तो बस नाम ही रह गया है।

ऐसे खूबसूरत मन्जर में कुलदीपकजी ने सुबह उठकर अपना चेहरा आईने में देखा तो अफसोस में मुंह कुछ अजीब सा लगा। अफसोसी नेत्रों में कुलदीपकजी को भी नई फिजा का ध्यान आया। टी.वी, अखबार, चैनल सब उत्सवी सजधजके साथ तैयार खड़े थे। रोकड़ा हो तो परण जाये, डोकरा की तर्ज पर कुलदीपकजी मस्त-मस्त होना चाहते थे। क्रिकेट और फिल्मी नायकों के मायाजाल से स्वयं को मुक्त करने के लिए कुलदीपकजी ने भरपूर अंगडाई ली और अपनी कमाऊ बहिन को मिलने वाले वेतन का इन्तजार करने लगे। इधर उनका मन रोमांटिक हो रहा था और तन की तो पूछो ही मत बस धन की कमी थी। क्या कर सकते थे कुलदीपकजी। उन्हों ने सब छोड़-छाड़कर अपनी पुरानी रोमांटिक कविताओं वाली डायरी को पढ़ना शुरू कर दिया। डायरी में खास था भी नहीं । असत्य के साथ उनके प्रयोगों का विस्तृत वर्णन था। गान्धीवाद से चलकर गान्धीगिरी तक पहूँचने के प्रयास जारी थे। मगर फिलहाल बात उनकी रोमांटिक कविताओं की।

जैसा कि आप भी जानते है कि जीवन के एक दौर में हर आदमी कवि हो जाता है। वो जहां पर भी रहता है बस कवियाने लग जाता है। आकाश, नदी, पक्षी, चिड़िया, खेत, पेड़, प्रेमिका, समुद्र, प्यार, इजहार, मान, मुनव्वल, टेरेस, आत्मा शरीर, जैसे शब्द उसे बार-बार याद आते है। वो सोचता कुछ ओर है और करता कुछ ओर है। कुलदीपकजी ने खालिस कविताएं नहीं लिखी। कवि सम्मेलनों में भी नहीं सुनाई। प्रकाशनार्थ भी नहीं भेजी लेकिन लिखी खूब। पूरी डायरी भर गई। कविताओं से भी और प्रेरणाओं से भी।

वे हर सुबह शहर कि किसी न किसी प्रेरणा के नाम से एक-दो कविता लिख मारते। सायंकाल तक उसे गुनगुनाते। रात को प्रेरणा और कविता के सपने देखते, अधूरे सपने, अधूरी प्रेरणाएं कभी सफल नहीं होते। ये सोच-सोचकर वे दूसरे दिन एक नई प्रेरणा को ढू ढते। मन ही मन उससे प्रेम करते। कविता लिखते। कभी मिलने पर सुनाने की सोचते। मगर तब तक बहुत देर हो चुकी होती। कुछ प्रेरणाओं की शादी हो गई। उनके बच्चे हो गये। उन्हों ने ऐसी कविताओं को फाड़कर फेंक दिया।

पूरे कस्बे की प्रेरणाओं पर उन्होने कविताएं लिखी। खण्डकाव्य लिखे। प्रेम के विषयों पर महाकाब्य लिखने की सोची, मगर तब तक प्रेरणाएं, शहर छोड़कर प्रियतम के साथ चली गई।

हालत ये हो गई कि कई डायरियां भर गई, मगर कुलदीपकजी की असली प्रेरणा तक कविता नहीं पहुँच पाई। कविता का लेखा-जोखा और एक बैचेनी सी जरूर उनके मन मस्तिष्क में बन गई।

कविता बनाने का यदि कोई सरकारी टेण्डर निकले तो कुलदीपकजी अवश्य सफल हो मगर सरकार को कविता से क्या मतलब। सरकार को तो सड़कों, नालियों और मच्छरों को मारने के टेण्ड से ही फुरसत नहीं। कुलदीपकजी की डायरी के कुछ पृषठों पर नजर दौड़ाने पर स्पष्ट हो जाता है कि कविता कितना दुरूह कार्य है।

सोमवार-समय प्रातः 9 बजे वो नहाकर छत पर आई। मैंने नयन भर देखा और कविता हो गई।

मंगलवार-समय दोपहर वे असमय बाजार में दिखी और कविता हो गई।

बुधवार-समय सायं प्रेरणा नं 102 मन्दिर के बाहर दिख गई। कविता हो गई।

गुरूवार-सुबह से ही प्रेरणा नं. 105 की तलाश में घूम रहा हूं। पार्क में दिखी और कविता हो गई।

शुक्रवार-प्रेरणा नं. 110 बुरके में थी, मगर मेरी पैनी निगाहें से कुछ भी नहीं छुप सका और कविता हो गई।

शनिवार-पूरा दिन प्रेरणा नं. 220 को ढूढंता रहा चर्च के बाहर दिख गई और कविता हो गई।

रविवार-अवकाश के बावजूद प्रेरणा नं. 300 पर कविता कर दी।

कुलदीपकजी को कविता और प्रेरणा में अन्तर करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वे सम्पूर्ण पुरुष जगत को कवि और नारी जगत को प्रेरणा मानते है। उम्र जाति, रंग, रिश्ते आदि के सांसारिक बंधनों को वे नहीं मानते और इसीलिए वे हर प्रेरणा पर एक कविता कर सकते थे। न प्रेरणाओं की कमी थी और न ही कविताओं की। क्योंकि ये सब इक तरफा व्यापार था। लेकिन इस प्रणय-व्यापार में भी कुलदीपकजी धोखा ही धोखा खा रहे थे। उनकी प्रेरणा और सृजन के बीच अद्भुत साम्य था जो उनके अंधकारमय भविष्य की ओर इंगित करता था। कुलदीपकजी कस्बे के साहित्य संस्कृति और कला के क्षेत्र में भी अपनी टांग अड़ाना चाहते थे। मगर सीट पर कुछ ऐसे मठाधीश थे जो मंच छेककर बैठे थे। कुलदीपकजी हिम्मत हारने वालों में नहीं थे। मगर अभी माईक लाने या जाजम बिछाने के अतिरिक्त कोई महत्वपूर्ण योगदान वे नहीं कर पाये थे। कुछ सेठाश्रयी लोगों से भी उन्हों ने दुआ-सलाम की कोशिश की। मगर उन्हों ने इस कविनुमा प्रजाति को चारा डालने से इन्कार कर दिया।

कुलदीपकजी ने अपने अभिन्न मित्र झपकलाल से पूछा-

‘यार इस साहित्य के क्षेत्र में कुछ नया करना चाहता हूं।’

‘नया करना चाहते हो ?’

‘हां।’

‘तो फिर इस क्षेत्र में घास खोदना शुरू कर दो?’

‘तुम मजाक कर रहे हो।’

‘मजाक की बात नहीं है यार। यहां पर महान प्रतिभा को भी सौ-पचास साल इन्तजार करना पड़ता है।’

‘क्यो।’

यार इस क्षेत्र मंे आदमी को गम्भीर ही पचास की उम्र के बाद माना जाता है।

‘और जो प्रतिभाएंे तब तक दम तोड़ देती है उनका क्या।’

उनकी लाशांे पर ही नवांेदितांे के सपनांे के महल खड़े होते हैं।

‘ऐसा क्यांे ?’

‘यही रीति सदा चली आई है।’

कुलदीपकजी इस बहस से कतई हताश, निराश दुःखी नहीं हुए। वे जानते थे कि प्रतिभा का सूर्य बादलांे से कभी भी निकल सकता था। कुलदीपकजी ने एक नये क्षेत्र मंे हाथ आजमाने का निश्चय किया। उन्हांेने अपनी बहिन के अखबार मंे फिल्मी समीक्षा का कालम पकड़ने का निश्चय कर लिया। इस निश्चय को हवा दी शहर की बिगड़ती फिल्मी दुनिया ने। कुलदीपकजी को फिल्मांे का ज्ञान इतना ही था कि वे फिल्मांे के शौकीन थे और मुफ्त मंे फिल्म देखने के लिए यह एक स्वर्णिम प्रयास था। लेकिन सब कुछ इतना आसान नहीं था।

 

अब जरा इस कस्बे की बात। शहर-शहर होता है, गांव-गांव होता है लेकिन कस्बा शहर भी होता है और गांव भी। कस्बा छोटा हो या बड़ा उसकी कुछ विशेषताएं होती है। इस कस्बे की भी है। कस्बे के बीचांे-बीच एक झील है जो कस्बे को दो भागांे मंे बांटती है। कस्बे मंे अमीर, गरीब नवधनाढ्य झुग्गी, झोपड़ी वाले सभी रहते है।

कस्बा है तो जातियां भी है और जातियां है तो जातिवाद भी है, आरक्षण की आग यदा-कदा सुलगती रहती है जो कस्बे के सौहार्द को कुछ समय के लिए बिगाड़ती है। कस्बे मंे पहले तांगे और हाथ ठेले चलते थे। फिर साइकिल रिक्शा आये और अब टेम्पो का जमाना है। कस्बे के बाहरी तरफ स्कूल है, लड़कियांे का स्कूल है। मन्दिर है, मस्जिद है और एक चर्च भी है। लोग लड़ते है, झगड़ते है। मार-पीट करते है। बलात्कार करते है। कभी-कभी हत्या भी कर देते है। मगर कस्बे की सेहत पर इन सबका कोई असर नहीं पड़ता। लोग जीये चले जाते है। मौत-मरण, मांद-हाज पर एक-दूसरे को सान्त्वना देने का रिवाज है।

कस्बे के दूसरे हिस्से मंे बस स्टेण्ड है। बस स्टेण्ड पुराना है। ठसाठस भरी धूल उड़ाती बसे आती जाती रहती है। सरकारी बस स्टेण्ड के पास ही प्राइवेट बस स्टेण्ड है, वहीं पर टेम्पो व आटो स्टेण्ड भी है। टीनशेड के नीचे थड़ियां है। जहां पर ताजा चाय, काफी, दूध, पानी, गन्ने का जूस, नमकीन मिलते है। एक कचौड़े वाला भी बैठता है। जो सुबह के बने कचौड़े देर रात तक बेचता है। इन सब खाद्य पदार्थो पर मक्खियांे के अलावा धूल भी जमी रहती है। स्थानीय वैद्यजी के अनुसार धूल पेट को साफ रखती है, वैसे भी इन चीजांे को खाने से किसी गम्भीर बीमारी के होने की संभावना नहीं रहती है।

बस स्टेण्ड के आस पास आवारा गायंे, बैल, भैसे, सूअर, कुत्ते, मुर्गे आदि पूरी आजादी से घूमते रहते है। आवारा साण्डांे की लड़ाई का मजा भी मुफ्त मंे लिया जा सकता है। कुत्ते और मुर्गियांे की आपसी दौड़ भी देखी जा सकती है।

बस स्टेण्ड पर छाया का एकमात्र स्थान टिकट खिड़की के पास वाला शेड है। सुबह-सुबह आसपास के गांवांे मंे नौकरी करने वाली मास्टरनियां, नर्से, बाबू, स्थानीय झोलाझाप डॉक्टर यहां पर खड़े मिल जाते है। बसे आते ही ये लोग उसमंे ठंुस जाते है। रोज की सवारियां टिकट के चक्कर मंे नहीं पड़ती । कण्डक्टर और इनके बीच एक अलिखित समझौता होता है। टिकट मत मांगो। आधा किराया लगेगा। इस नियम का पालन बड़ी सावधानी से किया जाता है। इस ऊपरी कमाई का एक हिस्सा ड्राइवर तक भी पहुंचता है।

अब भाईसाहब बस स्टेण्ड है तो यहां पर भिखारियांे का होना भी आवश्यक है। भारतीय प्रजातन्त्र का असली मजा ही तब आता है जब सब तालमेल एक साथ हो। लूले, लंगड़े, अन्धे, काणे, कोढ़ी, अपाहिज, विकलांग और महिला भिखारी सब एक साथ सुबह होते ही ड्यूटी पर उपस्थित हो जाते है। एक पुश्तेनी भिखारी सपरिवार भीख मांगता है। एक बूढ़ा भिखारी अपने पोते को भीख मांगने की ट्रेनिंग यही पर देता है। सब साथ-साथ चल रहा है।

सरकारी बसंे सर्दियांे मंे धक्के से चलती है। प्राइवेट बसंे मालिक के इशारे पर चलती है। मालिक स्थानीय विधायक के इशारे पर चलता है क्यांेकि विधायक का फोटो लगाने पर टेक्स माफ हो जाता है और यही असली कमाई है वरना बसांे के धन्धे मंे रखा ही क्या है।

बस स्टेण्ड पर प्याऊ है, हैण्डपम्प है जिसमंे पानी कभी-कभी ही आता है। बस स्टेण्ड पर ड्यूटी पर रोडवेज का ठेके का बाबू, एक होमगार्ड और एक पुलिसवाला ड्यूटी पर रहता है, मगर लड़ाई-झगड़े के समय पुलिस वाला और होमगार्ड वाला दिखाई नहीं देता। चोर-उचक्के, चैन खींचने वाले, ड्राइवर, क्लीनर भी बस स्टेण्ड पर चक्कर लगाते रहते है।

अब बस स्टेण्ड के सात किलोमीटर की दूरी पर रेलवे स्टेशन है जो कस्बे के नाम का ही है क्यांेकि रेलवे स्टेशन से कस्बे मंे आना-जाना बड़ा मुश्किल है। कस्बे के विकास के साथ बसांे का भी बड़ा विकास हुआ है और इस कारण रेलवे स्टेशन आना-जाना घाटे का सौदा हो गया है।

बस स्टेण्ड के दूसरे सिरे पर एक आटा चक्की है और उससे लगती हुई दुकान मंे ब्यूटी पार्लर चलता है। ब्यूटी पार्लर के सामने ही पान की दुकान है, जिस पर इस वक्त झपकलाल खड़े-खड़े जांघे खुजा रहे है क्यांेकि शाम की लोकल बस से कुछ स्थानीय अध्यापिकाएं उतरकर घर की ओर जा रही है। झपकलाल अपने दैनिक कर्म मंे व्यस्त थे तभी उन्हांेने देखा एक कुत्ता कीचड़ मंे सना भगा-भगा आया। कुत्ता फड़फड़ाया और इस फड़फड़ाहट के छीटंे झपकलाल पर पड़े। उन्हांेेने कुत्ते की मां के साथ निकट के सम्बन्ध स्थापित किये। मगर कुत्ते ने इस ओर ध्यान नही दिया। वो एक तरफ भाग गया। ठीक इसी समय एक उठाईगीर ने एक महिला की चेन पर हाथ साफ कर दिया। महिला चिल्लाई, झपकलाल ने यह स्वर्णिम अवसर हाथ से नही जाने दिया और चेन चोर को दौड़कर पकड़ लिया। दो झापट मारकर चेन वापस ले ली। महिला ने धन्यवाद के साथ कहा.................‘माफ करना भाई साहब आपने बेकार ही तकलीफ की। यह चैन तो नकली है। बीस पैसे के सिक्के से बनवाई थी।’

झपकलालजी को ऐसी चोट की उम्मीद नही थी। महिला को प्रभावित करने का स्वर्णिम अवसर हाथ से निकल गया था। मन ही मन दुःखी होकर एक मूंगफली के ठेले वाले से मूंगफली ली और टूंगने लगे। उन्हंे ठेले पर खड़े देखकर एक साण्ड ने उन्हंे अपनी सींग के जौहर दिखाये। झपकलाल भागकर शेड पर चढ़ गये। लेकिन साण्ड भी खानदानी था। झपकलाल को चौराहे तक दौड़ा ले गया। इस दौड़ को देखकर बस स्टेण्ड पर खड़ी जनानी सवारियां हंसने लगी।

इधर एक कुत्ता कहीं से एक हड्डी का टुकड़ा ढूंढ लाया था। वो उसे उसी तरह चूस रहा था जैसे नेता देश को चूस रहे है। एक मुर्गा भी दाने की तलाश मंे भटक रहा था। वह मुद्दाविहीन नेता की तरह कसमसा रहा था।

इसी बीच एक प्राइवेट बस को चेक करने के लिए आर.टी.ओ. वाले आये। बस के कण्डक्टर ने आर.टी.ओ. के ठेके के कर्मचारी की बात नेताजी से करवा दी। नेताजी की डांट खाकर कर्मचारी ने कण्डक्टर से चाय-पानी ली और उस प्रकार चल दिया जिस प्रकार गठबन्धन सरकारंे चल रही है। राजधर्म का निर्वाह करने के चक्कर मंे गठबन्धन धर्म को भी निभाना ही पड़ता है।

बस स्टेण्ड का रात्रिकालीन दृश्य अत्यन्त मनमोहक होता है। आसपास की दुकानंे रोशनी से सज जाती है। देशी दारु की थैलियां, विदेशी शराब की बोतलें बीयर की बोतलंे, अण्डे की भुज्जी, आमलेट, मछली, मीट की खुशबू और इन सबके बीच से गुजरती-तैरती सवारियां।

रात्रि के दूसरे और तीसरे प्रहर मंे रिक्शा, आटो मंे ‘खून’ करने वाली सवारियां, दलाल, दल्लें, देह व्यापार के सरगना भी बस स्टेण्ड की शोभा बढ़ाने लग जाते है। सुबह का प्रथम प्रहर आते ही सब कुछ शान्त, सुन्दर लगने लगता है।

कस्बे के बीचांे-बीच जो झीलनुमा तालाब था उसका अपना महत्व था दिनभर भैंसे उसमंे पड़ी रहती थी। सूअर पड़े रहते थे। दूसरे घाट पर स्नान किया जाता था। सभी प्रकार की रद्दी, कूड़ा, करकट, मालाएंे, मूर्तियां, ताजिया आदि विसर्जन का भी यह एकमात्र स्थान था। पूरा दिन गंधाती थी झील। झील के एक ओर विराना था। जंगल था। जंगल मंे बकरियां चरती थी। गाये-बैल, भैसें चरती थी। गडरिये घूमते थे और इनकी नजरे बचाकर मनमौजी लोग गांजा, सुलफा की चिलमंे लगाते थे। कच्ची दारू खींचते थे। थोड़ा घना जंगल होने पर किसी पेड़ के नीचे बतियाते अधनंगे प्यार करने वाले जोड़े भी दिख जाते थे। कहां करे प्यार इस कस्बे की शाश्वत समस्या थी और नये-नये प्रशिक्षु पत्रकार अक्सर इस पावन विषय पर कलम चलाकर धन्य होते थे।