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झील के घाट पर एक प्राचीन मन्दिर था। क्यांेकि यहां पर, जल, मन्दिर और सुविधाएंे थी सो श्मशान भी यहीं पर था। झील मंे वर्षा का पानी आता है। गर्मियांे मंे झील सूखने के कगार पर होती थी तो शहर के भू-माफिया की नजर इस लम्बे चौड़े विशाल भू-भाग पर पड़ती थी। उनकी आंखांे मंे एक विशाल मॉल, शापिंग कॉम्पलैक्स या टाऊनशिप का सपना तैरने लगता था। मगर वर्षा के पानी के साथ-साथ आंखांे के सपने भी बह जाते थे। झील मंे मछलियां पकड़ने का धन्धा भी वर्षा के बाद चल पड़ता था। जो पूरी सर्दी-सर्दी चलता रहता था।
स्थानीय निकाय ने झील के किनारे-किनारे एक वाकिंग ट्रेक बना दिया था जिस पर सुबह-शाम बूढ़े, वरिष्ठ नागरिक, दमा, डायबीटीज, ब्लड प्रेशर, हृदयरोगी आदि घूमने आते थे। बड़े लोग कार या स्कूटर से आते, घूमते और कार मंे बैठकर वापस चले जाते। मनचले अपनी बाईक पर आते। घूमते। खाते। पीते। पीते। खाते। और देर रात गये घर वापस चले जाते।
झील से थोड़ा आगे जाये तो कस्बा समाप्त हो जाता है। खेत-खलिहाल शुरू हो जाते। मगर कुछ ही दूरी पर नेशनल हाईवे शुरू हो जाता। प्रधानमंत्री योजना के अनुसार विकास के दर्शन होने लग जाते। ग्रामीण रोजगार योजना के चक्कर मंे लोग सड़क खोद-खोद कर मिट्टी उठाकर देश के विकास मंे अपना योगदान करते।
इसी सड़क पर हुआ था आई.जी के लड़के की कार का एक्सीडंेट मगर सब ठीक-ठाक से निपट गया था। लड़का काफी समय से वापस नहीं दिखा था। लड़की अध्यापिका थी। पुलिस की कृपा उस पर बनी रही। वो कहां गई कुछ पता नहीं चला। क्यांेकि भीड़ की याददाश्त बहुत कमजोर होती है। अचानक बस स्टेण्ड की ओर से वही कार आती दिखी। इस बार कार वह अध्यापिका चला रही थी। एक अन्य युवक उसके पास बैठा था। कार की गति कम हुई। युवती ने कार रोकी ओर युवक को नीचे उतारा। युवक कुछ कहता उसके पहले ही कार तेजी से मुड़कर हाईवे पर दौड़ गई। युवक बेचारा क्या करता। युवक बस स्टेण्ड पर आकर खड़ा हो गया। यह पूरा नजारा कुलदीपकजी ने स्वयं अपनी नंगी आंखांे से देखा था। उसने युवक को सिर से पैर तक देखा और कहा-
‘कहो गुरु कहां से.................कहां तक....................का सफर तय कर लिया।’
‘तुम्हे मतलब.......................।’ युवक ने चिढ़कर कहा।
‘अरे भाई हमंे क्या करना है मगर जिस कार से तुम उतरे हो उसे एक केस मंे पुलिस ढूंढ रही है। ‘कहो तो पुलिस को खबर करे।’ पुलिस के नाम से युवक परेशान हो उठा।
‘अब मुझे क्या पता। मुझे तो हाईवे पर लिफ्ट मिली। मैं आ गया। बस..........।’
‘...............छोड़ो यार...............। वो मास्टरनी कई चूजे खा चुकी है।’
‘होगा....................मुझे क्या ?
‘सुनो प्यारे चाहो तो इस कामधेनु को दुह लो।’
‘नही भाई मुझे क्या करना है ?’
‘शायद ये कार उसी लड़के ने मुंह बन्द करने के लिए गिफ्ट की है।’
‘हो सकता है।’ युवक सामने से आती हुई बस मंे चढ़ गया।’
ग् ग् ग्
कुलदीपकजी अभी-अभी अखबार के दफ्तर मंे अपनी फिल्मी समीक्षा देकर आये थे। पिछली समीक्षा के छपने पर बड़ा गुल-गुपाडा मचा था। पूरी समीक्षा मंे केवल नाम-नाम उनका था उनकी लिखी समीक्षा मंे आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया गया था। उपसम्पादक ने स्पष्ट कह दिया यह सब ऊपर के आदेश से हुआ था। कुलदीपकजी खून का घूंट पीकर रह गये। न उगलते बन रहा था और न निगलते। उपसम्पादक को उनकी औकात का पता था। सम्पादकजी की पी.ए. का भाई यही उनकी एकमात्र योग्यता थी, इधर उपसम्पादक को पूर परिवार के लिए फिल्म के पास और शानदार डिनर मिल चुका था। अतः वहीं समीक्षा छपी जो ऐसे अवसर पर छपनी चाहिये थी।
लेकिन इस बार कोई गड़बड़ नहीं हो इस खातिर कुलदीपकजी ने पूरी समीक्षा सीधे सम्पादक को दिखाकर टाइप सेटिंग के लिए दे दी साथ मंे दर्शक-उवाच भी लिखकर दे दिया। एक महिलादर्शक की प्रतिक्रिया भी सचित्र चिपका दी। उन्हंे पूरी आशा थी कि इस बार पहले की तरह नहीं होगा।
कुलदीपकजी बस स्टेण्ड का जायजा ले रहे थे कि उन्हंे प्रेरणा-संख्या 303 दिख गई। उन्हंे पुरानी कविता की बड़ी याद आई, अभी डायरी होती तो वे तुरन्त कविता करते, कविता सुनाते, कविता गुनगुनाते मगर अफसोस इस समीक्षा के चक्कर मंे डायरी और कविता कहीं पीछे छूट गई थी।
कुलदीपक ने प्रेरणा संख्या 303 का पीछा किया। उसे गली के मोड़ तक छोड़कर आये और ठण्डी आहंे भरते रहे। उन्हंे अपना जीवन बेकार लगने लगा। वे झील के किनारे उदास बैठे रहे। उधर से एक पागल की हंसी सुनकर उनका ध्यान टूटा। वे उठे और उदास कदमांे से घर की ओर चल पड़े। घर तक आने मंे उन्हंे काफी समय और श्रम लगा। बस स्टेण्ड वीरान था। केवल कुछ कुत्ते भौंक रहे थे। रात्रिकालीन वीडियांे कोचेज का आना-जाना शुरू होने वाला था। एक पगली इधर से उधर भाग रही थी।
पगली को देख कर उन्हंे कुछ याद आया। मगर वे रूके नही, घर पहुंचकर ठण्डी रोटी खाकर सो गये।
कस्बे और झील के सहारे ही एक पुराना महलनुमा रावरा था। राजा-रजवाड़े, राणा, रावरा राव, उमराव तो रहे नही। गोलियां, दावड़िया, दासियां, पड़दायते भी नहीं रही। मगर ये खण्डहर उस अतीत के वैभव के मूक साक्षी है। इस महलनुमा किले मंे दरबार-ए-खास, दरबार-ए-आम, जनानी ड्योढी, कंगूरे, गोखड़े, बरामदे, बारादरियां, टांके, कंुए अभी भी है जो पुरानी यादांे को ताजा करते है। प्रजातन्त्र के बाद ये सब सरकारी हो गये। सरकार भी समझदार थी। इस किले मंे सभी स्थानीय सरकारी दफ्तर स्थानान्तरित कर दिये। अब यहां पर कोर्ट है। कचहरी है। तहसील है। पुलिस थाना है। एक कोने मंे एक छोटी सी डिस्पेन्सरी भी है। तहसील मंे तहसीलदार, नायब, पटवारी, हेणा, चपरासी, मजिस्ट्रेट सभी बैठते है। फरीकांे को सरकारी फार्म बांटने वाले एक-दो स्टॉफ वेन्डर भी बैठे रहते है। काम अधिक होने तथा जगह कम होने के कारण पटवारी अपनी मिसलांे के साथ बाहर बैठे रहते है। इतना सरकारी अमला होने के कारण चाय, पान, गुटका, तम्बाकू की दुकानंे भी है और वकीलांे का हजूम तो है ही।
सूचना का अधिकार मिल जाने के कारण एक-दो स्वयंसेवी संगठनांे के कार्यकर्ता भी यही पर विचरते रहते है, जरा खबर लगी नही कि अधिकार का उपयोग करते हुए प्रार्थना-पत्र लगा देते है। लेकिन अभी भी नकल प्राप्त करने मंे समय लग जाता है। चाय की थड़ी के पास ही एक पगला, अधनंगा पागलनुमा व्यक्ति लम्बे समय से अपनी जमीन का टुकड़ा अपने खाते मंे कराने के लिए प्रयासरत है।
मगर पटवारी, नायब, तहसीलदार, वकील, स्वयंसेवी संगठन के कर्ता-धर्ता कोई भी उसके काम को पूरा कराने मंे असमर्थ रहे है। कारण स्पष्ट है कि वह गान्धीवादी तरीके से खातेदारी नकल पाना चाहता है, जो संभव नही है। गान्धीगिरी से भी काम नही चल रहा है। रेवेन्यू विभाग मंे लगान माफ कराना आसान है। खातेदारी बदलवाना बहुत मुश्किल है।
इसी तहसील रूपी किले को भेदने मंे कभी कुलदीपकजी के बापू को भी पसीने आ गये थे। काम छोटा था, मगर दाम बड़ा था। बापू ने दिन-रात एक करके एक जमीन के टुकड़े पर एक कमरा बना लिया था। सरकार ने इसे कृषिभूमि घोषित कर रखा था यह ग्रीन बैल्ट था। बापू का कमरा तोड़ने के लिए नोटिस चस्पा हो चुका था। बापू तहसील मंे चक्कर लगाते-लगाते थक चुके थे। तभी एक स्थानीय वकील ने बड़ी नेक सलाह दी, तहसील के बजाय ग्राम पंचायत से पट्टा ले लो। सरपंच ने अपनी कीमत लेकर एक पुराना पट्टा जारी कर दिया, जो आज तक काम आ रहा है। और बापू, मां, यशोधरा और कुलदीपकजी आराम से रह रहे है। अतिक्रमण का यह खतरा बाद मंे स्वतः समाप्त हो गया। नई बनी सरकार ने सभी बने हुए मकानांे का नियमन कर दिया। यहां तक की पार्टी फण्ड मंे मोटी रकम देने वालांे को रिहायशी इलाके मंे दुकानंे तक लगाने की मंजूरी दे दी।
तहसील मंे वैसे भी गहमागहमी रहती है और यदि इजलास पर कोई सख्त अफसर हो तो और भी मजा आ जाता है। इधर कस्बे के आसपास के मंगरो, डूंगरो पर पत्थर निकालने के ठेकांे मंे भारी गड़बड़ियांे के समाचार छपने मात्र से ही गरीब मजूदरांे की मजदूरी बन्द हो गई थी। आज ऐसी ही एक मजदूर टोली का प्रदर्शन तहसील पर था। तहसीलदार ने ज्ञापन लेने के लिए अपने नायब को भेज दिया था। उत्तेजित भीड़ ने नायब से घक्का-मुक्की कर दी थी, फलस्वरूप तहसील कार्यालय के आसपास धारा एक सौ चवालीस लगा दी गई थी। पुलिस प्रशासन ने एकाध बार लाठी भांज दी, कुछ घायल भी हुए थे।
इसी तहसील से सटा हुआ एक अस्पताल भी था। अस्पताल मंे एक डॉक्टर, एक नर्स, एक चतुर्थ श्रेणी अधिकारी थे, जो बारी-बारी से शहर से ड्यूटी पर आते थे। सोमवार को डॉक्टर आता था। मंगलवार को नर्स और बुधवार को चपरासी, गुरूवार अघोषित अवकाश था। शुक्रवार को वापस डॉक्टर ही आते थे और यह क्रम इसी प्रकार चलता रहता था। दवाआंे के नाम पर पट्टी बांधने के सामान के अलावा कुछ नही था। समान्यतया रोगी को बड़े अस्पताल रेफर करने का चलन था। मलेरिया के दिनांे मंे मलेरिया, गरमी मंे उल्टी-दस्त आदि के रोगी अपने आप आते और दवा के नाम पर आश्वासन लेकर चले जाते।
कस्बे के ज्यादातर रोगी एक पुराने निजि अस्पताल मंे जाते जहां का डॉक्टर आयुर्वेद होम्योपैथी, एलोपैथी, झाड़ाफूंक, तंत्र, मंत्र, इन्जेक्शन आदि सभी प्रकार का इलाज एक साथ करता था। मामूली फीस लेता था। उसने अपनी दुकान पर एक एक्स-रे देखने का बक्सा ओर एक माइक्रोस्कोप भी रख छोड़ा था। लेकिन उसने आज तक कोई टेस्ट नहीं किया था। रोगी सामान्यतया भगवान भरोसे ही ठीक हो जाते थे। जो ठीक नहीं होेते वे बड़े अस्पताल चले जाते और जो और भी ज्यादा गम्भीर होते थे वे सबसे बड़े अस्पताल की राह पकड़ लेते। डॉक्टर भगवान का रूप होता है, ऐसी मान्यता थी, मगर चिकित्सा शास्त्र मंे वैद्यांे को यमराज का सहोदर कहा गया है और इस सत्य से कौन इन्कार कर सकता है।
कस्बे की डिस्पेसंरी मंे आज डॉक्टर का दिन था। वे ही नर्स चपरासी का काम भी देख रहे थे। ऐसा सहकार सरकारी कार्यालयांे मंे दिखना बड़ा अद्भुत होता है। पास ही उनका अलेशेशियन भी बैठा था जिसे वे शहर से अपने साथ ही लाते-ले जाते है।
ठीक इसी समय मंच पर झपकलालजी अवतरित हुए। डॉक्टर ने उनको देखकर अनदेखा किया। सुबह से वो बीस मरीजांे मंे सिर खपा चुके थे। बारह बज चुके थे। एक बजे की बस से उन्हंे वापस जाना था। ऐसे नाजुक समय पर झपकलाल जी कराहते हुए आये तो डॉक्टर ने स्पष्ट कह दिया।
‘अस्पताल का समय समाप्त हो चुका है, आप कल आईये।’
‘अरे भईया डिस्पेसंरी खुली है और आप समय समाप्ति का रोना हो रहे है।’‘
डॉक्टर को गुस्सा आना ही था सो आ गया। उन्हांेने झपकलाल को देखा एक गोली दी और शून्य की ओर देखने लगे।
झपकलाल ने गोली वहीं कूड़ेदान मंे फंेकी, हवा मंे कुछ गालियां उछाली और बस स्टेण्ड की ओर चल दिये। डॉक्टर ने चैन की सांस ली क्यांेकि झपकलाल डॉक्टर के बजाय डॉक्टर के कुत्ते से ज्यादा डर गये थे।
बस स्टेण्ड पर एक शानदार नजारा था। एक सेल्स टेक्स इन्सपेक्टर, एक दुकानदार से टेक्स नही देने के कारणांे की विस्तृत जांच रिपोर्ट ले रहा था। झपकलाल उसे तुरन्त पहचान गये। वह कस्बे का ढग था, उन्हंे देखते ही ढग ने अपना परचम लहराया। हाय हलो किया और बचाने की गुहार मचाई। झपकलाल खुद कड़के थे, कण्डक्टर को तो समझा सकते थे, मगर सेल्स टेक्स वाला साहब नया-नया आया था। अचानक झपकलाल ने ढग को आंख मारी ढग समझ गया और बेहोश होकर गिर पड़ा। बस फिर क्या था पूरा बस स्टेण्ड इन्सपेक्टर के गले पड़ गया। जान छुड़ाना मुश्किल हो गया। झपकलाल ने इस्पेक्टर से दवा-दारु के नाम पर सौ रूपया ले लिया। भविष्य मंे नहीं छेड़ने की हिदायत के साथ इन्सपेक्टर को जाने की मौन स्वीकृति प्रदान की। उसके जाते ही ढग ओर झपकलाल ने रूपये आधे-आधे आपस मंे बांट लिये।
डॉक्टर, इन्सपेक्टर से लड़ने से झपकलाल का मूड ऑफ हो गया था। वे झील के किनारे-किनारे टहलने लगे। ठीक इसी समय सामने से उन्हंे वे तीनांे आती दिखाई दी। वे तीनांे यानि मास्टरनीजी, नर्सजी और आंगनबाड़ी की बहिनजी।
उन्हंे एक साथ देखकर उन्हंे खुशी और आश्चर्य दोनांे हुए। वे जानते थे, ये बेचारी सरकार मंे ठेेके की नौकरी करती थी, यदि इमानदारी से टिकट खरीदे और नौकरी पर जाये तो पूरी तनखा जो मुश्किल से हजार रूपया थी, बसांे के किराये और चायपानी मंे ही खर्चे हो जाती। सो तीनांे चूंकि एक ही गांव मंे स्थापित थी, अतः बारी-बारी से जाती, सरकारी काम को गैर सरकारी तरीके से पूरा करती। सरपंच जी, प्रधानजी, जिला प्रमुखजी, ग्राम सचिव जी, बी.डी.यो. आदि की हाजरी बजाती और वापस आ जाती। वैसे भी अल्प वेतन भोगी सरकारी कर्मचारी होने के कारण तथा महिला होने के कारण वे सुरक्षित थी।
आज तीनांे एक साथ कैसे ? इस गहन गम्भीर प्रश्न पर झपकलाल का दिमाग चलने लगा । मन भटकने लगा। तब तक तीनों मोहतरमाएं उनके पास तक आ गई थी।
झपकलाल इस स्वर्णिम अवसर को चूंकना नहीं चाहते थे। उन्हांेने आंगनबाड़ी वाली बहिन जी को आपादमस्तक निहारा और पूछ बैठे-
‘आज सब एक साथ खैरियत तो है।’
‘खेरियत की मत पूछो।’ हम बस परेशान है क्यांेकि आज सेलेरी डे था और सेलेरी नहीं मिली।’
‘क्यांे। क्यांे।’
‘बस सरकारी की मर्जी और क्या।’
‘आज केशियर ने छुट्टी ले ली।’
‘तो क्या हुआ सरकार को कोई व्यवस्था करनी चाहिये थी। झपकलाल ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा।’
‘सरकार के बाप का क्या जाता है।’ बच्चे तो हमारे भूख से बिलबिला रहे है।’ नर्स बोली।
‘और मेरे वो तो बस सुनने के बजाय ऐसी पूजा करंेगे कि कई दिनांे तक कमर चटकेगी,’ मास्टरनीजी बोली।
’हड्डिया चटकाने मंे तो मेरे वो भी कुछ कम नहीं है।’ आंगनबाड़ी बहिन जी ने अपना दुखड़ा रोया।
झपकलालजी द्रवित हो गये। काश उनके पास सेलेरी दिलाने की पावर होती तो वे अवश्य यह नेक काम कर इनका दुःख दूर करते। मगर उनके पास ऐसी कोई सरकारी शक्ति नहीं थी। वे बोले-
‘जो काम करना चाहते है उनके पास पावर नही और जिनके पास पावर है वे कुछ करना नहीं चाहते। अजीब प्रजातन्त्र है इस देश मंे।’
तीनांे महिलाआंे को देश की प्रजातन्त्र मंे कुछ खास रूचि नहीं थी, उन्हंे तो घर मंे गठबन्धन धर्म निभाना था और देहधर्म के अलावा वे क्या कर सकती थी। उन्हंे जाते हुए उदास निगाहांे से झपकलाल देर तक देखते रहे। उन्हांेने झील मंे कुछ कंकड़ फंेके। कुछ लहरंे उठी। फिर सब शान्त हो गया।
ग् ग् ग्
कस्बा मोहल्लांे मंे बंटा हुआ है। कस्बे के शुरुआती दिनांे मंे मोहल्लंे जातियांे के आधार पर बने थे। मगर समय के साथ, आधुनिक जीवन के कारण, नौकरी पेशा लोगांे के आने के कारण जातिवादी मोहल्ले कमजोर जरूर पड़े मगर समाप्त नहीं हुए। आज भी किसी भी मोहल्ले मंे नया आने वाला मकान मालिक या किरायेदार सबसे पहले अपने जात वालांे को ढंूढ़ता है। फिर गौत्र वालांे से मेल मुलाकात करता है, दुआ सलाम रखता है। जरूरत पड़ने पर रोटी-बेटी का व्यवहार भी कर लेता है। मुस्लिम मौहल्ले की भी यही स्थिति है जो गरीब हिन्दू इसाई धर्म की शरण मंे चले गये वे अवसर की नजाकत को समझकर इधर-उधर हो जाते है।
चुनाव के दिनांे मंे जाति मंे वोटांे के लिये बंटने वाले कम्बल, शराब, मुफ्त का खाना-पीना आदि सभी उम्मीदवारांे से जाति के नेता लेकर बांट-चूंटकर खा जाते है। कभी बूथ छापने का ठेका भी ले लिया जाता है। मगर यह सब दबे-के रूप मंे ही चलता है। खुले आम प्रजातन्त्र की रक्षा की कसमंे खाई जाती है।
मोहल्लेदारी जरूर कमजोर हुई है, मगर अभी भी भुवा, काकी, दादी, नानी, मासी, भाभी आदि के रिश्ते जिंदा है। बूढे-बुजर्ग मोहल्ले के नुक्कड पर चौपड़, ताश, शतरंज खेलते है। हुक्का-बीड़ी, सिगरेट, खैनी, तम्बाकू का शौक फरमाते है और आने जाने वालांे पर निगाह रखते है। मजाल है जो कोई बाहरी परिंदा पर भी मार जाये।
इसी प्रकार के माहौल मंे कुलदीपकजी के घर के पास मंे नये किरायेदार के रूप मंे शुक्लाजी आये। शुक्लाजी स्थानीय जूनियर कॉलेज मंे अध्यापक होकर आये थे। मगर उन्हंे प्रोफेसर कहना ही आज के युग का यथार्थ होगा। जाति बिरादरी का होने के कारण मां बापूजी ने उन्हंे हाथांे-हाथ लिया। शुक्लाजी मुश्किल से तीस वर्ष के थे। शुक्लाइन की गोद मंे एक बच्चा था। गोरा चिट्टा, मुलायम, सुन्दर, प्यारा। इसी की वजह से दोनो परिवार एकाकार होने की कगार पर आ गये।
शुक्लाईन दिन भर खाली ही रहती थी। मां को उसने सास मां बना लिया फिर क्या था। बापू ससुर का दर्जा पा गये। कुलदीपकजी देवर हो गये और यशोधरा दीदी। दीदी का रोबदाब अब दोनांे घरांे मंे चल निकला था। वे अपनी नौकरी से खुश थी। घरवाले उसकी पगार से खुश थे। सम्पादकजी महिला सहकर्मी के साहचर्य से खुश थे। कुलदीपकजी अपनी समीक्षा लेखन से खुश थे। उनकी दूसरी फिल्मी समीक्षा जब छपकर आई तो सब कुछ ठीक था बस दर्शक उवाच महिला दर्शक के चित्र के साथ छप गया था और महिला दर्शक के स्थान पर एक पुरूष दर्शक का चित्र छप गया था। कुलदीपकजी इस बात को पी गये। उन्हंे समीक्षाआंे के खतरांे का आभास होने लगा था। कभी-कभी तो वे समीक्षा के स्थान पर वापस काव्य जगत मंे लौटने की सोचते मगर कविताआंे का प्रकाशन बहुत तकलीफदेह था। इधर पिछली समीक्षा का पारिश्रमिक ‘पचास रुपये’ पाकर कुलभूषणजी सब अवसाद भूल गये और इस पारिश्रमिक को सेलीब्रेट करने के लिये झपकलाल को साथ लेकर बस स्टेण्ड की ओर चल पड़े।
सायं सांझ धीरे-धीरे उतर रही थी। बस स्टेण्ड पर रेलमपेल मची हुई थी। कुलदीपकजी ने एक थड़ी के पिछवाड़े जाकर सायंकालीन आचमन का पहला घूंट भरा ही था कि झाड़ियांे मंे कुछ सरसराहट हुई। सरसराहट की तरह ध्यान देने के बजाय झपकलाल ने आचमन की ओर ध्यान देना शुरू किया। मगर सरसराहट फुसफसाहट और फुसफुसाहट बाद मंे चिल्लाहट मंे बदल गई। अब एक जागरूक शहरी नागरिक होने के नाते इस पर ध्यान दिया जाना जरूरी था। कुछ सरूर का असर, कुछ शाम का अन्धेरा, उन्हंे कुछ साफ दिखाई नहीं दे रहा था, मगर कुछ ही देर मंे सब कुछ साफ हो गया।
बस स्टेण्ड के पास नियमित घूमने वाली पगली बदहवास सी भाग निकली और उसके पीछे-पीछे कुछ आवारा लड़के, आवारा कुत्तांे की तरह भागे। इस भागदौड़ मंे पगली बेचारी और भी नंगी हो गई। इस नंगी और नपुंसक दौड़ को देख-देखकर बस स्टेण्ड की भीड़ हंसने लगी। लड़के शहर वाली साइड मंे भाग गये। आचमन का कार्य पूर्ण करके कुलदीपकजी ने एक लम्बी डकार ली और कहा-
‘इस देश का क्या होगा ?’
‘देश का कुछ नहीं होगा। यह महान देश हमारे-तुम्हारे सहारे जिन्दा नहीं है। ये कहो कि हमारा-तुम्हारा, इस पीढी का क्या होगा।’
‘पीढी का क्या होना-जाना है। खाओ-पीओ। बच्चे जनो। परिवार नियोजन का काम करो और मर जाओ यही हर एक की नियति है।