(व्यंग्य -उपन्यास)
समर्पण
अपने लाखों पाठकों को, सादर । सस्नेह।।
-यशवन्त कोठारी
1
इस बार महाशिवरात्री और वेलेन्टाइन-डे लगभग साथ-साथ आ गये। युवा लोगों ने वेलेन्टाइन-डे मनाया। कुछ लड़कियों ने मनाने वालों की धज्जियां उड़ा दी और बुजुर्गों व घरेलू महिलाओं ने शिवरात्री का व्रत किया और रात्रि को बच्चों के सो जाने के बाद व्रत खोला।
इधर मौसम में कभी गर्मी, कभी सर्दी, कभी बरसात, कभी ठण्डी हवा, कभी ओस, कभी कोहरा और कभी न जाने क्या-क्या चल पड़ा हैं। राजनीति में तूफान और तूफान की राजनीति चलती हैं। कुछ चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पाते, भटकते हुए भी कुछ नहीं होता। शिक्षा व कैरियर और प्यार के बीच लटकते लड़के-लड़कियां................।
मोबाइल, बाइक, गर्ल-फ्रेण्ड और बॉयफ्रेण्ड के बीच भटकता समाज..........।
जमाने की हवा ने बड़े-बूढ़ों को नहीं छोड़ा। तीन-तीन बच्चों की मांएं प्रेमियों के साथ भाग रही है और कभी-कभी बूढ़े प्रोफेसर जवान रिसर्च स्कालर को ऐसी रिसर्च करा रहे है कि बच्चे तक शरमा जाते हैं। गठबंधन सरकारों के इस विघटन के युग में पुराने गांवनुमा कस्बे और कस्बेनुमा शहरों की यह दास्तान प्रस्तुत करते हुए दुःख, क्षोभ, संयोग-वियोग सब एक साथ हो रहा हैं।
सरकारे किसी पुराने स्कूटर की तरह सड़क पर धुंआ देती हुई चल रही हैं। मार-काट मची हुई है, हर गली-चौराहें पर शराब की दुकानें खुल चुकी हैं। मध्यमवर्गीय परिवारों की लड़कियां भी अधनंगी होना ही फैशन समझ रही हैं।
गली-गली प्यार के नाम पर नंगई-नाच रही है। टीवी चैनलों पर अश्लीलता के पक्ष में दलीले दी जा रही हैं। न्यूज पेपर्स, अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। चारों तरफ पैसों का युद्ध चल रहा है। सोवियत संघ विघटित हो चुका हैं। अमेरिकी साम्राज्यवाद (जो आर्थिक है) छाया हुआ है। सर्वत्र हाहाकार मचा हुआ है। ऐसी स्थिति की कहानी कहने की इजाजत चाहता हूँ ।
कहानीकार बेचारे क्या करे । महिला लेखन के नाम पर अश्लील लेखन चल रहा हैं। देहधर्मिता के सामने सब धर्म फीके पड़ गये हैं।
हां तो पाठकान! इन्हीं विकट परिस्थितियों में उपन्यास का नायक-नुमा खलनायक या खलनायक नुमा-नायक मंच पर अवरतित होने की इजाजत चाहता हैं।
ये सॉहबान एक आलीशान कार में है। इनके पास ही एक स्कूल टीचर बैठी है, शराब है, महंगी गिफ्ट है, और प्यार के नाम पर चल रही अश्लील सी.डी. है।
अचानक कार एक गरीब रिक्शा चालक को टक्कर मार दे देती है। युवती उतरकर भाग जाती है, युवक को पुलिस पकड़ने का प्रयास करती है,मगर अफसोस युवक आई.जी. का लड़का है। पुलिस मन मसोस कर रह जाती हैं। युवक कार में बैठकर नई युवती की तलाश में चल पड़ता है। ऐसा ही चलता रहता है.
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वह घर है या मकान या खण्डहर या तीनों का मिलाजुला संस्करण। घर के मुखिया इसे अपनी पुश्तैनी जायदाद समझकर वापरते थे मगर नई पीढ़ी इस खण्डहर में रह कर चेनलों के सहारे अरबपति बनने के सपने देखती थी।
इस कस्बेनुमा शहर या शहरनुमा कस्बे की अपनी कहानी है। हर-दो नागरिकों में तीन नेता। किसी के भी पास करने को कोई काम नहीं है। अतः दिनभर इधर उधर मारे-मारे फिरते है। कभी चाय की दुकान पर बैठे है, कभी नुक्कड़ वाले पान की दुकान पर बतिया रहे है और कभी गली के नुक्कड़ पर खड़े-खड़े जांघें खुजलाते है, हर आती जाती लड़की, महिला को घूर घूरकर अपनी दिली तमन्नाएं पूरी करने की सोचते रहते हैं।
जिस घर की चर्चा ऊपर की गई है उसका एक मात्र कुलदीपक अपनी तरफ से कोई काम नहीं करता। पढ़ाई-लिखाई का समय निकल चुका है पिताजी ने अवकाश ले लिया है और कुलदीपकजी के भरोसे शेष जीवन पूरा करना चाहते है। इसी घर में एक मजबूरी ओर रहती है जिसका नाम यशोधरा है वो पढ़ना चाहती है। बाहर निकलना चाहती है मगर घर की मध्यमवर्गीय मानसिकता के चलते उसे यह सब संभव नहीं लगता। अचानक एक दिन सायंकालीन भोजन के बाद यशोधरा ने नुक्कड़ वाली दुकान पर कम्प्यूटर सीखने की घोषणा कर दी। घर में भूचाल आ गया। मां ने तुरन्त शादी करने की कहीं। पिताजी चुप लगा गये और कुलदीपक स्लीपर फड़फड़ाते हुए बाहर चले गये।
यशोधरा की इस घोषणा से घर में तूफान थमने के बजाय और बढ़ गया। पिताजी को एक अच्छे वर के पिता का पत्र मिला। लड़की सुन्दर-सुशील और कामकाजी-नौकरी करती हो तो रिश्ता हो सकता है।
पिताजी ने मरे मन से ही कम्प्यूटर सीखने की स्वीकृति प्रदान कर दी। यशोधरा ने फीस भरी और काम सीखने लगी। टाईपिंग, ई-मेल से चलकर वह सी प्लस प्लस तक पहुंच गई। कुलदीपक जी ने कई परीक्षाएं दी मगर वहीं ढाक के तीन पात।
मां-बाप बुढ़ापे के सहारे जी रहे थे या जी-जी कर मर रहे थे। यह सोचने की फुरसत किसे थी?
जीना-मरना ईश्वर के हाथ में है। इस सनातन ज्ञान के बाद भी कुलदीपकजी के पिता लगातार यशोधरा के ब्याह की चिन्ता में मरे जा रहें थे। मां की चिन्ता समाज को लेकर ज्यादा थी। कब क्या हो जाये ? कुछ कहा नहीं जा सकता। वो अक्सर बड़बड़ाती रहती। नाश हो इस मुंऐ बुद्धु बक्से का, चैनलों का,मोबइलोंका, जिस पर चौबीसों घन्टे फैशन, हत्या, बलात्कार, अश्लीलता परोसी जाती है व लड़कियां भी क्या करे, जो देखेगी वो ही तो सिखेगीं। समाज पता नहीं कहां जा रहा है। बापू इस सनातन संस्कृति के मारे घर के बाहर निकलने में भी डरते हैं।
इधर यशोधरा ने कम्प्यूटर पर डी.टी.पी. के सहारे एक जगह फार्म भर दिया था। किस्मत की बात या लड़की की जात उसे अखबार में ऑपरेटर की नौकरी मिल गई मां-बापू ने हल्ला मचाया मगर पांच हजार रूपये वेतन सुनकर मां-बापू चुप लगा गये। पेशंन के पैसों से क्या होना जाना था। कुलदीपकजी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी। बहरहाल उनके चेहरे पर जरूर कष्ट के चिन्ह दिखे। मगर पहली पगार से जब उनहें कड़कड़ाते सौ के कुछ नोट मिले पॉकेट मनी के रूप में तो उनहोने यशोधरा की चोटी खींचने का कार्य स्थगित कर दिया।
अब घर में बड़ी और कमाऊं बिटिया की बात ध्यान से सुनी जाने लगी थी यहां तक कि मां सब्जी भी उसकी पसंद की बनाने लग गई थी। बापू अब गली, मौहल्ले में गर्व से सीना-ताने निकलते थे। मगर यह मर्दानगी ज्यादा दिन तक न चली। एक रोज बिटिया घर देर से आई। फिर यह सिलसिला बन गया। बिटिया की देरी का कारण चर्चा का विषय बन गया। उसकी चाल, ढाल, हाव-भाव, नखरे बढ़ने के समाचारनुमा अफवाहें या अफवाहनुमा समाचार सुनाई देने लगे। बापू ने वापस वर के लिए दौड़ धूप शुरू कर दी, मगर हुआ कुछ नहीं।
खानदान में पहली बार किसी लड़की के कारण परेशानी खड़ी होने की संभावना लग रही थी। पिछली पीढ़ी में बुआ, बहन या बड़ी बुआ का जमाना सबको याद आ रहा था। मगर सबके सब चुप थे। आखिर एक दिन लड़की ने मुहं खोला।
‘बापू। क्या बात है क्या आपको मेरी नौकरी पसन्द नहीं।’
‘नही बेटे।’ बापू अचकचा कर बोले। ‘ऐसी बात नहीं है।’
‘तो फिर क्या बात है।’
‘वो.............वो..................तेरी...................मां कह रही थी कि....................?’
‘क्या कह रही थी। मैं...................जरा मैं भी तो सुनू।’
‘वो तुम्हारी शादी की बात..............।’
‘शादी की बात भूल जाईये, बापू जी।’
‘शादी मैं अपनी मरजी से जब चाहूंगी तब करूंगी और यही सबके लिए ठीक रहेगा।’
यह सुनकर मां बड़बड़ाती हुई रसोई घर में चली गयी। बापू जी ने रामायण खोल ली। कुलदीपकजी साइकिल के सहारे शहर की सड़क नापने चल दिये।
इसी खण्डहरनुमा मकान या घर या ठीये के पास ही एक नई आलीशान बिल्डिंग में, बड़े आलीशान फ्लेट बन रहे थे। इस बिल्डिंग के कुछ हिस्से आबाद हो गये थे। एक सम्पूर्ण टाउनशिप। इसमें जिम थे। टेनिसकोर्ट थे। बच्चों के लिए पार्क थे। छोटे बच्चों के लिए क्रेश थे। चौड़ी चिकनी सड़क थी। सुन्दर, खूबसूरत पेड़-पौधे झाडियां थी। सब था। हर फ्लेट में पति-पत्नी थे और दोनों कमाते थे। बच्चे या तो नहीं थे या फिर एक-एक था। फ्लेट-संस्कृति के फैलते पांवों ने शहर को अपनी गिरफ्त में ले लिया था। कुलदीपकजी इन फ्लेटो को हसरतों से निहार रहे थे। कभी मेरा भी फ्लेट होगा। इसी तमन्ना के साथ वे साइकिल पर पैडल मारे जा रहे थे कि अचानक उनकी साइकिल एक रिक्शे से जा भिड़ी। रिक्शे वाले ने एक भद्दी गाली दी। कस्बे के नियमानुसार कुलदीपकजी ने गाली का जवाब गाली से दिया और आगे बढ़ गये। लेकिन गाली तो बस नाम की थी। बाकी सब ठीक-ठाक था।
शहर में उग आये सीमेंट, कंकरीट के जंगल से गुजर कर कुलदीपकजी ने साइकिल अपने पुराने गावनुमा शहर की संकड़ी गलियों की ओर मोड़ दी। हर मोड़ पर मुस्तेद खड़े थे नवयुवक जो स्कूल जाने वाली बालिकाओं, कॉलेज जाने वाले नवयोवनाओं तथा दूध साग-सब्जी लाने वाली भाभियों, चाचियों, मामियों का इन्तजार कर रहे थे। कुछ प्रौढ़ अपने चश्मे के सहारे मन्दिर जाने वाली प्रौढाओं को टटोल रहे थे। कुल मिलाकर बड़ी ही रोमांटीक सुबह थी।
कुलदीपकजी ने साइकिल अपने प्रिय पान वाले की दुकान के सहारे खड़ी की। एक रूपये का गुटका मुंह में दबाया और जुगाली करने लगे। अपने परम प्रिय मित्र झपकलाल को आते देख उनकी बांछे खिल गई। झपकलाल सुबह की चाय पीकर घर से इस उम्मीद से चल पड़े थे कि दोपहर के खाने तक अब घर में कोई काम नहीं था। इधर कुलदीपकजी भी ठाले थे। दो ठाले मिलकर जो काम कर सकते थे, वहीं काम दोनों ने मिलकर पान की दुकान के सहारे शुरू कर दिया। हर आने-जाने वाली लड़की, युवती, महिला, युवा, काकी, मासी, भाभी के इतिहास और भूगोल की जानकारी एक-दूसरे को देने लगे। इधर पान वाला भी उनका स्थायी श्रोता था तथा पान गुटका लगाते-लगाते अपनी बहुमूल्य राय से उन्हें अवगत कराता रहता था।
‘सुनो जी कुछ सुना क्या ?’
‘क्या हुआ भाई जरा हमें भी सुनाओं ।’ झपकलाल बोल पड़े।
‘अरे मियां कल का ही किस्सा है ये जो नुक्कड वाली ब्यूटी पार्लर है उसके यहां बडा गुल-गपाड़ा मचा।’
‘क्यो................क्या हुआ।’ कुलदीपक जी ने अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ पूछ डाला।
‘क्या बताये भगवन।’ सवेरे-सवेरे ही वहां पर कुछ लड़कियां आई थी, फैसिशियल, मेनीक्योर, पेडीक्योर करवाने।’
‘तो इसमें क्या खास बात है ?’ कुलदीपक बोले।
‘अरे धीरज धर। सब्र का फल मीठा होता है। झपकलाल बोले।
‘हां तो भई ये हम बता रहे थे कि लड़कियां अन्दर अपना काम करवा रही थी और बाहर उनका कुछ लड़के अपनी मोटर साइकिल पर बैठे-बैठे इन्तजार कर रहे थे।’
‘सो कौनसी नई बात है ? कुलदीपक ने अपनी टांग फिर अड़ाई।
‘अरे भईये, जब काफी देर तक लड़कियां बाहर नही आई तो दोनों लड़के अन्दर चले गये। अब लगी चीख पुकार मचने। मगर चीख पुकार से क्या होता है। दोनो लड़कों ने लड़कियों को जबरदस्ती बाहर निकाला, मोटर साइकिल पर बैठाया, और फुर्र हो गये।’
‘अरे भाई ऐसा हुआ क्या।’
‘और नहीं तो क्या।’
‘इस सभ्य और शालीन समाज में ऐसा ही हुआ।’
‘लेकिन पुलिस-पड़ोसी..................सब क्या कर रहे थे।’
‘अरे भाई मियां बीबी राजी तो क्या करे काजी।’ हम तो चुपचाप तमाशा देखते रहे।
‘लेकिन ये सब तो गलत है।’ कुलदीपक बोले।
‘प्रजातन्त्र में ऐसी गलतियां होती ही रहती है। सुना नहीं कल ही प्रधानमंत्री बोले थे कि हर जगह सुरक्षा संभव नहीं और एक राज्य के मुख्यमंत्री ने तो साफ कह दिया जनता अपनी रक्षा खुद करे।’ झपकलाल ने बहस को एक नया मोड़ देने की कोशिश की।
‘मारों गोली राजनीति को फिर क्या हुआ ?’
‘होना-जाना क्या था। सायंकाल लड़कियां अपने घर पहुँच गई। खेल खत्म पैसा हजम...…........है............है...............है..................।’
कुलदीपकजी का गुटका खत्म हो चुका था। झपकलाल को चाय की तलब लग रही थी। दोनों कालेज के सामने वाली थड़ी पर जाकर बैठ गये। वहां पर चाय के साथ गपशप का नाश्ता करने लगे।
कुलदीपकजी को बापू प्यार से आर्यपुत्र कहते थे। वो अक्सर कहते ‘कहो आर्यपुत्र कैसे हो ?’ ‘आज जल्दी कैसे उठ गये।‘ ‘आपके दर्शन हो गये। ’ वगैरह-वगैरह। कुलदीपकजी को बाप की बात पर गुस्सा तो बहुत आता मगर पिताजी को पिताजी मानने की भारतीय मानसिकता के कारण कुलदीपकजी मनमसोस कर रह जाते। इधर कुलदीपकजी यह सब सोच ही रहे थे कि झपकलाल ने सामने की ओर इशारा किया।
सामने कालेज के गेट से लड़कियों का एक झुण्ड आ रहा था। खिलखिलाती। झूमती। नाचती। गाती। इस झुण्ड के दर्शन मात्र से ही कुलदीपकजी अपनी पिताजी वाली पीड़ा भूल गये। सबसे सुन्दर और सबसे आगे अपने वाली कन्या का कुलदीपकजी ने सूक्ष्म निरीक्षण करना शुरू कर दिया। एक्स-रे,एम.आर.आई, सी.टी.स्केन, अल्ट्रा सोनाग्राफी के साथ-साथ कुलदीपकजी ने ई.सी.जी. और ई.ई.जी. भी एक साथ कर डाले ? उनका खुद का ई.सी.जी. गड़बड़ाने लगा था। झपकलाल ने अपने ज्ञान का निचोड़ प्रस्तुत करते हुए कहा-
‘‘भाई मेरे यह जो मोहतरमा नाभिदर्शना जींस में सबसे आगे और सबसे खूबसूरत है वो बड़ी तेज तर्रार भी है। छोटी-मोटी बात पर ही लड़कों का सेण्डलीकरण और चप्पलीकरण कर देती है। संभल कर रहिये।’’
कुलदीपकजी इस बकवास को सुनने के लिए कतई तैयार नहीं थे। उन्हों ने अपने आपसे कहा-
‘‘काश मैं कुछ समय पूर्व पैदा होता। कालेज में होता तो बस मजा आ जाता।’’
‘भाई मेरे कालेज में घुसने के लिए कई परीक्षाएं पास करनी पड़ती है। ’ झपकलाल ने फिर कहा-
‘परीक्षाओं का क्या है ? कभी भी पास कर लें गे ? अभी तो पास से गुजर जाने दो, इस बहार को।’ वे कसमसाते हुए बोल पड़े।
वास्तव में कुलदीपक जी कस्बे की लड़कियों की चलती फिरती डायेरक्टरी थे। कौन कहाँ रहती है। कहाँ पढ़ती है। क्या करती है, से लगाकर शरीर के हिस्सों पर विस्तार से प्रकाश डाल सकते थे। मगर अभी अवसर अनुकूल नहीं था।
कुलदीपकजी का जीवन एक अजीब पहेली की तरह है। पढ़ाई अधूरी है, जीवन अधूरा है। हर तरफ इकतरफा प्यार करते रहते है और प्यार भी अधूरा ही रहता है। कई वार पिट चुके है, मगर मरम्मत भी अधूरी ही रही है। वे सुबह कवि बनने का सपना देखते हैं। दोपहर में किसी दफ्तर में बाबू बनकर जीवन बिताने की सोचते है और शाम होते-होते शहर की बदनाम बस्तियों में विचरण करने का प्रयास करने लगते है। मगर बावजूद इसके कुलदीपकजी एक निहायत ही शरीफ जिन्दगी जीना चाहते है। लेकिन शरीफों को जीने कौन देता है।
शहर रात में कैसा लगता है। यह जानने के लिए कुलदीपकजी झपकलाल के साथ शहर रात की बाहों में देखने निकल पड़े।
कभी ‘मुम्बई रात की बाहों में ’ की बड़ी चर्चा होती थी। आजकल हर शहर रात की बाहों में है और चर्चित है। इस मेगा शहर की रातें भी जवान, रंगीन, खुशबूदार और मांसल हो गई है।
शहर को आप दो तरह से देख सकते है। एक अमीर शहर और एक गरीब शहर। गरीब शहर की रातें फुटपाथ पर कचरा बीनते बीत जाती है और अमीर शहर की रातों का क्या कहना। होटल, पब, डिस्को, बार, केसिनो, जुआ घर, क्लब आदि में लेट नाइट डिनर, उम्दा विदेशी शराब की चुस्कियां और बेहतरीन खाना साथ में सुन्दर, नाजुक कामिनियां, दामनियां, कुलवधुएं, नगर वधुएं।
शहर के इस अमीर हिस्से की रातें भी बहारों से भरपूर होती है। कभी चांदपोल में गाना सुनने के लिए शहर के रईस, रंगीन तबीयत के लोग सांझ ढले इकट्ठे होते थे। कोठे पर गाना, बजाना, नाचना, चलता था। ठुमरी, दादरा, गजल, शेरों -शायरी के इस दौर में जो गरीब कोठे की सीढ़ियां नही चढ़ पाते थे वे नीचे बरामदे में खड़े होकर गाने का लुत्फ उठाते थे, मगर वे रंगीन महफिले कहीं खो गई। ठुमरी, दादरा, गजल के चाहने वाले चले बसे। अब तो डीजे का कानफोडू संगीत, रिमिक्स और सस्ते अश्लील, हाव-भाव वाले नाच-गाने चलते है। कथक, शास्त्रीय संगीत देखने समझने वाले ही नहीं रहे तो कौन किसके लिए गाये बजाये।
पूरा शहर रंगीन रोशनियों में नहाता रहता है। शहर के बाहर चौड़ी-चिकनी सड़कों पर सरपट भागती कारें या मोबाइक्स। इन कारों में कुलवधुएं, गर्लफ्रेन्डस, बॉयफ्रेन्डस, सब भाग रहे है, एक के पीछे एक...........। समझ नहीं आता ये सब कहाँ जा रहे हैं?
आजकल नई पीढ़ी शाम के पाँच बजे घर से चल देती है। रात को दो-तीन बजे तक पी खाकर या खा पीकर लौटती है। और शहर को रात की बाहों में समेटकर सो जाती है। इनकी सुबह बारह बजे होती है।
गरीब शहर में रात एक उदासी के साथ उतरती है। सर्दी के दिनों में रेन बसेरों में जगह ढूढ़ता फिरता है रिक्शा वाला, गरीब मजूदर, काम की तलाश में आया ग्रामीण अक्षय कलेवा का भोजन मिल जाये तो रात आराम से कट जाती है।
बड़े होटलों में डिस्को करते युवा, हसीन जोड़े शहर की रातों का भरपूर आनन्द उठाते है। उनके पास कई पीढ़ियां खाये जितनी सम्पत्ति जमा है।
शहर में रात चोरों, उचक्कों, डाकुओं, गिरहकटो आदि के लिए भी सौगाते लेकर आती है। अकेलेपन से ऊबे हुए बुजुर्ग दम्पत्तियों को शहर रात की बाहों में ले लेता है और चोर-उचक्कों की मौज हो जाती है।
रात की मस्ती, रंगीनी का पूरा इन्तजाम शहर में है। हर तरफ खुली शराब की दुकानें एक पेग अवश्य पीजिये और दबे छुपे सेक्स व्यापार के व्यापारी ओर ग्राहक सब ठिकाने जानते है या ढूढ़ लेते है। शहर में हर तरफ अमीरी की मौज मस्ती देखिये। दक्षिण के बड़े-बड़े माल, रेस्टांरेन्ट, होटल्स, लगता ही नहीं कि शहर उदास है। इनकी खोखली हंसी के पीछे छिपी पीड़ा को पहचानने की कोशिश कीजिये। मगर हुजूर छोडिये इस उदासी को।
निकल पड़िये शहर को रात में देखने। मैं अक्सर मौसम ठीक होने पर शहर को रात में देखने निकल पड़ता हूं। कभी चौपड़ को पढ़ने की कोशिश करता हूं, कभी शहर की सड़कों को पढ़ता हूं, कभी चार-दिवारी के बाहर के शहर को पढ़ता हूं और कभी अपने आप को पढ़ने की कोशिश करता हूं। रात में शहर सुन्दर लगता है। मेले, ठेले, चित्रकारियां, सुन्दर ललनाएं और रात के पहले दूसरे प्रहर में होने वाले नाटक, सम्मेलन, संगीत-संध्याएं सब अच्छी लगती है। मगर दूसरे और तीसरे प्रहर में चोर, उच्चके, नकबजनों से कौन बचाये। पुलिस का नारा है ‘हमारे भरोसे मत रहना’। कुलदीपक ने मन में कहा।
पुलिस को छोड़ो आजकल भाई-भाई को काटने पर उतारू है। रात को ये काम और भी आसान हो जाता है। शहर में हर तरफ सितारों की छितराई रोशनी में अपराध पनपते रहते हैं और अपराधी रात की बाहों में समा जाते है। शहर की रंगीनी देखने के लिए सत्ताईस डालर का चश्मा चाहिये। कुलदीपक ने अपने आप से कहा।
रात्रि के अन्तिम प्रहर में दूध वाले, अखबार वाले, स्कूली बच्चे, काम वाली बाईयों के आने-जाने से शहर की नींद टूटती है और शहर धीरे-धीरे रात की बाँहों से बाहर निकलकर अलसाया सा पड़ा रहता है। शहर चाय पीता है और काम पर चल देता है।¬
कुलदीपक जी रात ढलते घर पहुँचे। बापूजी सो गये थे ? लेकिन मां जाग रही थी। खाने के लिए मना करने के बावजूद मां ने जिद करके कुछ खिला दिया।
रात में कुलदीपकजी जल्दी सो गये। सपनों के सुनहरे संसार में खो गये। लेकिन सपने तो बस सपने ही होते है उन्हें हकीकत बनाने के लिए चाहिये बाईक, मोबाईल, जीन्स और पोकेट मनी। कुलदीपक जी के सपनों में इन चीजों ने आग लगा दीथी.
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