ठुल कुड़ी (बड़ा घर) डा.कुसुम जोशी द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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ठुल कुड़ी (बड़ा घर)

#ठुल_कुड़ी (बड़ा घर)

फिर उसने हमेशा कि तरह आमा से चिरौरी की "ठुल कुड़ी" दिखा दो आमा..परसों कॉलेज खुल जायेगा और वो शहर चली जायेगी", कितने सालों से वो चाहती थी कि पहाड़ी गांव के बीचों बीच बने 'रंगूनवालों की कुड़ी' देखने की ,
दो तल्ले का हवेलीनुमा घर था, जिसे उसके बूबू ने बर्मा में लकड़ी के कारोबार और ठेकों की कमाई से बनवाया था, जिसमें बड़े बड़े लकड़ी के बने झरोंखे , छज्जे खूबसूरत नक्काशी किये हुये थे जो उसे बहुत आकर्षित करते, चॉकलेटी रंग का पेन्ट कभी हुआ होगा उसकी चुगली भर बची थी अब, दीवारों में कई जगह प्लास्टर उधड़ने लगा था ।
जब भी वह मल्कोट जाती तो नानाबूबू जी बताया करते कि इस "पूरे इलाके में ऐसी कुड़ी किसी की नही थी ,अजब गजब के किस्से कहानियां हुये इस हवेली के, तेरे बूबू ने कभी इसे बड़े शौक से बनाया था, वर्मा से लौट कर वह शहर में नही बसे, अपने इस खूबसूरत से पहाड़ी गांव में रहने लगे थे, कुछ उनके अंग्रेज़ दोस्त थे जो इसी गांव के पास बने मिशन हास्पिटल और स्कूल के बंगलों में रहते थे,और भी उनके मित्र कॉलकोत्ता, दिल्ली से आया करते थे, बूबू ने बहुत पैसा बनाया, और बहुत पैसा उड़ाया, इस कुड़ी' में होने वाली दावतें , इस सामान्य जीवन शैली में खुश रहने वाले हम पहाड़ियां को अचम्भित करती थी ", जब मल्कोट वाले बूबू से ऐसी बातें सुनती तो और मन होता इस बार घर जाते ही उसे देखने का, पर घर के लोगों की अनिच्छा उसका उत्साह भंग कर देती, पर इस बार होस्टल से घर आते उसने ठान लिया था कि इस बार ठुल कुड़ी' देखने ही है।
"अमा प्लीज आज तो दिखा दो ना ठुलकुड़ी..अब मैं बड़ी हो गई हूँ, तुम कहती थी "ठुली है ज्यो तब दीखूंल" ,अब मैं एम.ए.कर रही हूं...जानती हो एम.ए मतलब...पन्द्रहवीं में आ गई हूं ,और कितनी बड़ी होना है मुझे" ,
"मां बाबू से कहती 'हवेली दिखाओ' तो वे कहते हैं 'अपनी अमा से कह, वे ही मालकिन हैं उस भुतहा हवेली की',
मां कहती 'शादी के इतने साल हो गये मैंने उस कुड़ी के आंगन में आज तक पांव नही रखा..न रखना चाहती हूं..तू भी क्या करेगी उसे देख कर', और अमा तुम टालती रहती हो.., खुदा न खास्ता अगर तुम्हें या मुझे कुछ हो गया तो ? हवेली के किस्से ऐसे ही मर जायेंगे ना"!
ये शब्द सुन कर अमा ने चौंक कर उसे देखा, उनकी आँखें पनीली हो आई, कुछ देर सोचती रही ..फिर धीरे से उठी और अपने लगड़ाते हुये पांव को सहारा देने के लिये अपनी लाठी और चाबी का बड़ा सा गुच्छा अपने बक्से से निकाला और बोली 'हिट',
वो खुशी खुशी अमा के साथ निकल पड़ी,अनमनी सी अमा बड़ी मुश्किल से पहाड़ी ढ़लान में उसका हाथ पकड़ कर धीरे धीरे उतरने लगी,
हवेली के चारों और बेतरतीब झाड़ियां,घास उग आई थी,कभी कभी गांव के लोग गाय के लिये घास काट लेते पर मां और आमा को कभी वहां से घास लाते किसी ने नही देखा,
इस कुड़ी' को लेकर तरह तरह की बातें इस गांव की हवा में बसी हुई हैं , बूबू के भूत को रात अंधेरे में घूमते देखने का दावा तो कई लोग करते थे, और कहकहो और रुदन की आवाज सुनने वालों की भी कमी नही थी, वर्मावाले का भूत चिपका है इस कुड़ी में,आधी रात को घूमते , कभी खिड़की से झांक कर सिगरेट पीते हुये देखने के किस्से , कभी कभार सिसकियों की आवाज सुनने का दावा बहुत लोग करते थे,
पर कभी किसी ने अमा का खामोश रुदन नही सुना, न उसके बाबू के लम्बे संघर्ष की कथा किसी को याद थी , वो अमा को कहती 'दुख तो आप लोगों के हिस्से आया.. फिर बूबू की आत्मा क्यों परेशान हैं? कभी मेरी भेंट हो बूबू की आत्मा से तो उनसे पूछूंगी कि तुम्हारे साथ उस रात हुआ क्या? किसने मारा तुम्हें?
अमा गुस्सा हो कर कहती "हमें दिये दुख का हिसाब तू भी मत मांगना उससे , अपने करम की मौत मरा है वो" कहते हुये चेहरा क्रोध और घृणा से भर उठता,
ठुलकुड़ी के बाहर से ऊपर तल्ले में जाने की सीढ़ीयां बनी थी, ऊपर चढ़ते हुये एक पल के लिये अमा के पांव कांप उठे, उसने आकर सहारा दिया,और हाथ पकड़ कर सीढ़ी चढ़ाने लगी, मुख्य द्वार पर जंग लगा ताला खोलना भी मेहनत भरा काम था, काफी मेहनत के बाद ताला खुल ही गया,
दरवाजा खुलते ही सीली सीली सी बदबू के झोंके से उसने सिरहन सी महसूस की,बीस बाय बीस के लाईन से बने छः कमरे और उतनी ही लम्बी चाख(कॉरीडोर) अन्तिम सातवां कमरा जो बहुत बड़ा था, उसमें कोई दरवाजा नही था खूब बड़ा सा आर्क खूबसूरत नक्काशीदार लकड़ी के पिलर से बना हुआ , कुछ पुराना धूल और मकड़ी के जाले से भरा फर्नीचर पड़ा था , जिसमें सबसे आकर्षक एक आराम कुर्सी और ऊपर टंगा झूमर था जिसमें कभी पचासों कैंडल साथ जलती होंगी, दीवारों में धुंधली हो आई ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें लगी थी, जिन में बूबू अपने गोरे मित्रों के साथ बंदूक लिये खड़े थे, एक खुली जीप में पांच खूंखार शिकारी कुत्तों के साथ बैठे हुये थे , एक फोटो में बूबू अपने दोनों भाइयों के साथ कुर्सी में बैठे थे, पीछे तीनों की पत्नियां खड़ी थी,
अमा की फोटो की ओर इशारा करके वो बोली "अमा ये तुम हो ना" अमा ने सर हिला के सहमति दी,
"अमा तुम तो बहुत सुन्दर थी अपने जमाने में..हंसते हुये कितनी प्यारी लग रही हो ना" , यह सुन कर अमा के चेहरे में एक करुण सी स्मित रेखा सी खिंच आई,
दोनों काकी भी कितनी सुन्दर हैं ना, उसके इन शब्दों के साथ आमा ने फोटो को अपने आंचल से पोछ लिया , और बोली "ये बड़ी बिन्दी लगाई ईश्वरी लला की घरवाली है प्रेमा..बहुत ही सुन्दर थी,काम की बहुत तेज, ये जयन्त लला की घरवाली है शील , जैसा नाम वैसा गुण, सुन्दर भी खूब थी, लखनऊ रहती थी, वही पढ़ाई भी करी", ये कहते अमा के चेहरे में गहरी आत्मीयता भरी चमक आ गई , बहुत देर तक एकटक फोटो को देखती रही,
अमा क्यों चले गये ये सब के सब..? लम्बे समय से उसने मन में उग आये प्रश्न को आज पूछ ही लिया,
अरे क्या कहूं .. इस घर में कोई इज्जतदार मनुष्य रुक सकता था,हमेशा तरह तरह के लोग आते थे, सुन्दर जवान जहान घर में बहुये ,कुछ लोगों की नजर ठीक नही थी, और तेरे बूबू एक नम्बर के बेशऊर आदमी,उसे तो घर परिवार से कोई मतलब ही नही,
एक बार कलकत्ता से बहुत लोग आये थे, गोरे भी थे और कुछ बंगाल के थे,एक ने एक बार शील का हाथ पकड़ लिया, मैंने अपनी आंखों से देख लिया, मैने ही ईश्वरी और जयन्त को को कहा "अपने परिवार की इज्जत बचाना है तो तुम दोनों ही लखनऊ चले जाओ
एक फोटो में जिसमें बूबू काफी कम उम्र की वर्मीज महिला के साथ खड़े थे, कुछ फोटो धूल धूसरित जमीन में पड़ी हुई थी,कईयों के शीशे टूटे हुये थे,
उसने मुस्कुराते हुये पूछा "आमा ये कौन?"
"ये ही तो है वो छिनाल... वहीं से लेकर आये तेरे बूबू इसे...इसी ने किया सर्वनाश सबका,यही बार बार प्रेमा और शील को मेहमानों के सामने जाने को मजबूर करती थी, पहले दोनों भाइयों को परिवार के साथ घर से बाहर करवाया, पूरा परिवार बिखेर दिया", कहते हुये अमा का गला भर्राने लगा,
जाने से पहले ईश्वर और जयन्त लला बहुत रोये थे मेरे पास आकर ,दोनों ने इस मकान को बनाने में बहुत पसीना बहाया था, तेरे बूबू तो सिर्फ पैसा खर्च करते और हुकुम देते,पहाड़ी पर इतनी बड़ी कुड़ी बनाना बहुत कठिन काम होता है, पर उस दुष्ट की चाल ने एक पल में ही दोनों भाईयों को भागने के लिये मजबूर कर दिया,
मेरे वश में भी कुछ नही था,कैसे परिवार की बहुओं की इज्जत जाने देती, कुछ सोने के गहने थे मेरे पास दोनों को चुपचाप दे दिये, उनका हिस्सा समझ कर।
ओह! तभी ईश्वर बूबू और जयन्त बूबू आपको इतना मान देते हैं,
यहां से जाकर अच्छा ही हुआ,दोनों पढ़े लिखे तो थे ही, नौकरी करने लगे,आज बच्चे भी सब अच्छी अच्छी नौकरी में लग गये,
"वो तो जा सकते थे, पर मेरे लिये तो कोई राह नही थी",
अमा ...फिर आपने क्यों छोड़ दिया इतना बड़ा घर, आप तो रह सकती थी?
इस प्रश्न के साथ अमा के चेहरे में दर्द और उदासी गहरा आई, गुस्से और शिकायती आवाज में बोली
"हुड़कानियों को बिठा कर गवाया,पतुरियों को नचाया,रातें बिताई... उस छिनाल का राज चलता था इस घर में,
सब सहा मैंने...चार बच्चे थे मेरे...कहां जाती मैं...पर उस दिन तेरे नन्का(छोटे चाचा) को बुखार था,दिन भर कहती रही मैं 'वैद्ध को दिखा दो.. अंग्रेजी डाक्टर को दिखा दो.. मरा वो रात की दावत की तैयारी में था,उसके जैसे आवारा यार दोस्त आने वाले थे ,
रात तक छुटके का बुखार सर में चढ़ गया, सब कुकूर जैसे पी पाके पतुरियों के साथ कमरों में बंद हो गये...मेरा छुटका चला गया उसी रात..फिर मैंने आपा ही खो दिया था , दरवाजे को हाथ-पांव से पीटती रही, उसी छिनाल ने खोला था दरवाजा...अपनी भाषा में कुछ कहां तेरे बुबू से...अधनंगा नशे में धुत्त दनदनाता हुआ आया और मेरी बात सुने बिना बहुत जोर से लात मारी थी मुझे, बोला "कल सुबह से इस घर में दिखी तो मुझसे बुरा कोई नही होगा, कल ही बच्चों को लेकर पुराने घर में चली जा",
पर मैंने भोर भी नही होने दी, उसी रात तेरे मरे नन्का को कंधे में डाला और बच्चों को लेकर अपनी पुरानी कुड़ी में आ गई ,
सुबह गांव वालों ने मदद की थी हमारी,तेरा बबा हरि तो चौदह साल का था, सब समझता था, एकदम बड़ा हो गया था उसी रात से , कम खाया गम खाया ..सब संभाला हरि ने ,मुझे, दोनों बहनों को,उनकी शादी की, अपना घर बसाया ..कभी बाप की सम्पत्ति की ओर आंख उठा कर भी नही देखा।
"चौतीस साल हो गये हैं कभी कदम नही रखा इस बड़ी कुड़ी में मैंने,आज तेरी जिद्द ने मेरी कसम तोड़ दी",
"मेरी और छुटके की आह तो लगनी ही थी,एक दिन वो छिनाल सब लटी पटी(धन दौलत) लेकर नौकर के साथ चम्पत हो गई , दो तीन दिन बाद ठुल कुड़ी से बास आने लगी तो गांव वालों को शक हुआ कि कुछ तो है गड़बड़ ,बड़ा द्वार खाली भिड़ा हुआ था,अन्दर इसी आराम कुर्सी में तेरे बूबू मरे पड़े थे...,गांव वालों ने बदनामी के भय से चुपचाप अन्तिम संस्कार करने की राय दी,
"तर गया था पापी उस दिन ... तेरे बबा का तो जनेऊ संस्कार भी नही हुआ था ...रिश्ते के भतीजे अम्बा ने अन्तिम काज किया उसका,पर इस कुड़ी में रहने को वो भी तैयार नही हुआ",
"और जो मेरा लंगड़ाता हुआ पांव देख रही है ना वो उसी रात का इनाम था मेरा",
अमा का चेहरा अपने दुखों से विदीर्ण हो आया, चेहरे की एक एक लकीर उनके अन्तहीन दुखों तकलीफों को प्रकट कर रही थी, पर आज उनके चेहरे में एक सूकून भी भरा महसूस हो रहा था, और उसके चेहरे पर भी।
उसे अपनी अमा में कितना गर्व हो आया, तुम सच में बहादुर अमा हो ये कहते हुये वह अमा के गले लग गयी,
डा.कुसुम जोशी
गाजियाबाद, उ.प्र