kursi sutr ki samiksha - 17 books and stories free download online pdf in Hindi

पुस्तक समीक्षा -17 - कुर्सी सूत्र

कुर्सी सूत्र की समीक्षा

‘कुर्सी-सूत्र’ श्री कोठारी की उन्नीस व्यंग्य रचनाओं का प्रथम संकलन है। इसके दो खंड हैं। प्रथम खं डमें चार व्यंग्य एकांकी और द्वितीय खं डमें पन्द्रह व्यंग्य निबन्ध है। संग्रह की अनेक रचनाएं देष की प्रतिप्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाषित हो चुकी है।

एकांकी खं डमें प्रथम रचना ‘एक जौर अंधा युग’ में राजनैतिक विद्रपताएं तथा ष्षेप तीन में षैक्षणिक संस्थाओं में व्याप्त विसंगतियां चित्रित की गयी हैं। द्वितीय खंड की तुलना में इम्पेक्ट की दृप्टि से यह खंड कमजोर पड़ता है। आषा है लेखक भविप्य में एकांकी रचनाओं में मंच के अनुरुप पात्रों की भापा वैदग्ध्यपूर्ण संवाद, प्रसगों की महानता और विद्रूपताओं के सहज अंकन पर अधिक ध्यान देंगे।

व्यंग्य-लेख खं डमें अनेक रचनाएं सषक्त और प्रभावषाली हैं। इनमें ‘क‘ कबाड़ी का, 79 में देष में, नव वर्प की षुभ कामनायें, कुर्सी-सूत्र, राग पराजय और एक खत आम पुलिस वाले के नाम उल्लेखनीय है। इन लेखों में विविध प्रकार के विपय लेकर व्यंग्यकार ने समाज की बहु आयामी विसंगतियों पर पैना प्रहार किया है।

एक व्यंग्यकार की अस्मिता के लिए अनिवार्य षर्त हैंकि उसमें सामाजिक विसंगतियों को पकड़ने की क्षमता के साथ उसे अपनी वैदग्ध्यपूर्ण षैली में अभिव्यक्त करने की पटुता हो। इस दृप्टि से श्री कोठारी व्यंग्यकार के रुप में अपनी पहचान बनाने में सफल हुए हैं। वे अपनी षैली के विकास की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। उनकी वैदग्ध्यपूर्ण षैली के नमूने के रुप में कुछ वाक्य प्रस्तुत है। वैसे भी लेखक परिवार की अन्तिम लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कड़ी रद्दी वाला यानी कबाड़ी ही है’ ‘पृप्ठ 38’ ‘जिन लोगों को डाक्टरेट प्राप्त बड़े आदमी बनते हैं ‘पृप्ठ 40’ ‘बाल वर्प के नाम पर देष के राजनैतिक बूढ़ों के बालोचित कार्य क्रम देखकर खुषी जाहिर की गई।’ ‘पृप्ठ 43’ ‘सेंसर ने फिल्मों पर अपनी कैची का प्रहार जारी रखा, परिणाम स्वरुप दर्षकों को सेक्स और हिंसा से भरपूर चित्र देखने पड़े। ‘पृप्ठ 44’, .....विदेष मंत्री कभी कभी भारत का दौरा करते रहे। ‘पृप्ठ 67 ’, विसंगतियों पर करारी चोट करने की उनकी क्षमता से श्री कोठारी के भविप्य के प्रति सहज ही आष्वस्त हुआ जा सकता है। षैली में पैनापन लाने के लिए यह व्यंग्यकार विभिन्न स्थलों पर कल्पना का सहारा भी लेता है।

लेखक की रचना-यात्रा में संकलन एक महत्वपूर्ण स्थायी निधि है। अतः यह आवष्यक है कि इसमें चयनित रचनाएं अधिक से अधिक चुस्त और प्रभावषाली हों। इसके लिए लेखक को चाहिए कि वह प्रत्येक रचना को कठोर सेल्फ सेंसरषिप से गुजारे। आषा है व्यंग्यकार आगामी संकलनों में इस बिंदु की ओर ध्यान देंगे। पत्र-पत्रिकाओं के स्तम्भों के लिए वे चाहे कुछ भी लिखते रहें हिन्दी में छपी पुस्तक में अरबी अंक स्वयं हिन्दी पर व्यंग्य कसते हुए नजर आते है। प्रूफ की अत्यधिक त्रुटियां संकलन के असावधानी पूर्ण मुद्रण की ओर इंगित करती हैं।

समीक्षक-महेश चन्द्र पुरोहित

सर्वोदय विष्व-वाणी 00000

पुस्तक: कुर्सी-सूत्र

लेखक: यश वन्त कोठारी

प्रकाषक: श्रीनाथजी प्रकाषन, जयपुर

मूल्य: 16 रु.

पृप्ठ: 76 ।

कोठारी जी का प्रस्तुत पुस्तक के साथ व्यंग्य के अखाड़े में नया पदार्पण है। पुस्तक पढ़ने से ज्ञात होता है कि मान्यवर महोदय को अभी बहुत दंड पेलने है। आज सौभाग्य से इस अखाड़े में बड़े-बड़े मल्ल विद्यमान हैं। वे परस्पर भले ही दावपेंच लड़ाते हों, उठापटक करते हों पर छोटे मल्लों के लिए वे इस मायने में आदर्ष रुप हैंकि उनके दाव पेंचों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। आप अखाड़े में उतरिये, वे आपसे छेड़-छाड़ नहीं करेंगे। ‘सम्पादक करते हैं, इसके लिए वे क्या कर सकते है भला!’ इस सूरत में नये पहलवान का यही-कर्तव्य हो जाता है कि वह मन से वरजिष करता रहे। लेखक में व्यंग्य दृप्टि है इसमें संदेह नहीं। इसी कारण वह सही विसंगतियों को पकड़ता है। व्यंग्य में षैली की पकड़ मजबूत होनी चाहिये। इसके लिए षब्द-चयन से लेकर रचना-विधानतक की चुस्ती और सटीकता की आवष्यकता होती है। यह मुहावरे से ही आती है। हमें विष्वास है प्रस्तुत लेखक षैली की दृप्टि से अवष्य ही मजबूती हासिल कर लेगा।

प्रस्तुत संग्रह में कुल 19 रचनाएं है। ये दो खण्ड़ों में विभाजित है। पहले व्यंग्य एकांकी खंड में 4 और दूसरे व्यंग्य लेख खंड में 15 रचनाएं है। चारों एकांकी कमजोर हैं। पहला एक और अन्धा युग आज की भ्रप्ट राजनीतिक, जिसमें कुर्सी-सूत्र केन्द्र बिंदु बनी हुइ्र है, कच्चा चिट्ठ प्रस्तुत करता है। षेप तीनों एकांकी षैक्षणिक क्षेत्र की विरुपताओं को प्रस्तुत करते है। इनमें मीटिंग में संदर्भ में कहा जा सकता हैकि व्यंग्य केवल विरुपताओं को प्रस्तुत कर देने में नहीं होता। इनको विदग्ध षैली में रखना जरुरी होता है।

व्यंग्य लेख खं डमें विपय और षैली दोनों में विविधता है। कुर्सी-सूत्र, राग-पराजय, चुनाव ऋतु आ गयी प्रिये! और आयोगजीवी राजनीतिक व्यंग्य है। कुर्सी-सूत्र, और चुनाव ऋतु आ गयी प्रिये! रचनाएं क्रमषः टीका सहित संस्कृत वचनावली में तथा मेघदूती सम्बोधन षैली में होने से प्रभावित करती है। षेप दोनों सामान्य है।

भ्रप्टाचार, लालफीताषाही, कामचोरी आदि के यद्यपि अन्य रचनाओं में भी दर्षन होते हैं, तथपि 79 के देष में, फाइलें और फाइलें, एक खत पुलिस के नाम जैसी रचनाएं मुख्यतः इन्हीं को लक्षित करके लिखा गया है। दो बहुत कुछ ठीक है। तीसरी सामान्य है।

‘क’ कबाड़ीका में साहित्य -समीक्षा-फिल्मी पात्र जैसी विसंगतियां चुस्त ढंग से प्रस्तुत है। नव वर्प की षुभकामनाएं में षुभकामनाओं के माध्यम से हमारी विकृत व्यवस्था की विभिन्न स्थितियों को पैने ढंग से कुरेदा है। वरवधू विज्ञापन व विवाह में विज्ञापनों के माध्यम से विभिन्न तबको, विभिन्न किस्म के व्यक्तियों के विवाह संबंधी दृप्टिकोणों को उधाड़ा गया है। रचना प्रभावषाली है। षीर्पक भी आनुप्रासिक है। ज्योंतिप चमत्कार में अंक-ज्योतिप के फलित को विषिप्ट प्रतिक्रियाओं के साथ प्रस्तुत किया गया है। इन प्रतिक्रियाओं में खासा व्यंग्य है। जैसे ‘झपकलाला जी का मूलाकं तीन है, वे केवल 3,12, 21,व 30 तारीख को ही दफ्तर जाते है, क्योंकि इनके लिए ये ही श्रेप्ठ है अन्य नहीं।’ ये आकाषवाणी है में आकाषवाणी की कार्य पद्धति और उसके कर्मचारियों की समीक्षा है जो आकाषवाणी की टॉंक षैली में है। पर इस तरह की टॉंक आकाषवाणी से हो सकना सम्भव है कभी ! फिर षैली में पैनापन हीं। षास्त्रीय संगीत में षास्त्रय संगीत सम्बन्धी गिरते रुझान की ओर संकेत हैं। यह आज मखौल का विपय बना हुआ है। रचना सामान्य है। काष ! मैं स्मार्ट होता ! आप अन्दर से कितने ही खोखले हो उपर से आपको स्मार्ट होना चाहिये, तभी अन्दर-बाहर आपकी पूछ हो सकती है। चिंतन षैली में लिखी गयी यह रचना स्मार्टनेस लिये हुए है। पति एक घरेलू नौकर व्यंग्य कम हास्य अधिक है।

ज्योतिप के चमत्कार, ‘क’कबाड़ी का, 79 के देष में, नव वर्प कीषुभकामनाएं, कुर्सी-सूत्र, वरवधू विाापन व विवाह, चुनाव ऋतु आ गयी प्रिये !कार्य विपय और षैली दोनों दुप्टियों से सफल रचनाएं कही जा सकती है। जैसा कि हमने उपर कहा है, लेखक मेहनत करता रहे .... व्यंग्य की श्रेप्ठ रचनाओं का धैर्य से अध्ययन करे तो वह अवष्य ही इस लेखन में आगे आ सकता है।

डा. शं कर पुणतांबेकर

‘प्रकर’-सितम्बर’ 80

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