संगम--भाग (५) Saroj Verma द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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संगम--भाग (५)

मास्टर जी को पूरा भरोसा था कि श्रीधर चोरी जैसा तुच्छ कार्य नहीं कर सकता, उन्हें अपने बेटे आलोक पर संदेह हो रहा था और सियादुलारी भी समझ तो रही थी लेकिन खुलकर नहीं बोल पा रही थी शायद उसकी ममता आड़े आ रही थी।
मास्टर जी ने पुलिस से कहकर बारीकी से फिर से सारी खोज-बीन करवाई,सारी जांच के बाद पता चला कि आलोक ही दोषी है,उसी ने गहने चुराये थे, कुछ गहनों से उसने कर्जा चुका दिया था और कुछ आगे के खर्चे के लिए बचाकर गौशाला में छुपा दिए थे, सोचा था बाद में जरूरत पड़ने पर निकाल लूंगा।
आलोक दोषी साबित हुआ, पुलिस चौकी से खबर आई और वही बाहर से ही पुलिस ने आलोक को पकड़ लिया।
मास्टर किशनलाल, आलोक के इस रवैए से बहुत ही ब्यथित हुए, बहुत ही गहरा आघात लगा उन्हें, आलोक ने खुद को बचाने के लिए एक निर्दोष को दोषी साबित करवा दिया, मास्टर जी फ़ौरन पुलिस चौकी गये,आलोक के सामने आते ही__
आलोक बोला, पिता जी आप ये अच्छा नहीं कर रहे, अपने बेटे से ज्यादा आप एक नौकर के बेटे को महत्व दें रहे हैं लेकिन मास्टर जी ने आलोक की बात नहीं सुनी उन्होंने कहा कि तुझ जैसे कपूत ने तो मेरी नाक कटवा दी समाज में,बहन का ब्याह होने वाला है और तू उसके गहने चुरा लाया,शर्म नहीं आई तुझे ऐसा करते हुए, नालायक! तूने खानदान का नाम मिट्टी में मिला दिया।
वो पुलिस चौकी से श्रीधर को छुड़ा लाए,श्रीधर घर आकर मास्टर जी के सामने उनके पैरों में सर रखकर बहुत रोया___
मास्टर जी,मैं दोषी नहीं था, मैंने कोई चोरी नहीं की, मैं ऐसा सपने में भी नहीं सोच सकता,आप मेरे पिता समान है, आपने मुझे आसरा दिया, रहने की जगह दी, खाना और कपड़े दिए, इतना बड़ा विश्वासघात मैं आपके साथ कैसे कर सकता हूं?
मेरे बाबा भी , मुझे दोषी समझकर इस दुनिया से चले गए,उनकी आत्मा को कितना कष्ट हुआ होगा, मेरी वजह से, मैं अपने आप को कभी क्षमा नहीं कर पाऊंगा,श्रीधर बोला।
नहीं,श्रीधर बेटा उठो, तुम्हें मैं दोषी नहीं मानता और ना ही पहले माना था इसलिए तो मैं तूम्हे छुड़ाकर कर लाया और आलोक को भी उसके किये की सजा मिलनी चाहिए, पुलिस ने उसे ही दोषी साबित किया है, उन्होंने कहा कि अभी इसकी उमर सत्रह साल है अठारह होने तक बालसुधारगृह में रखेंगे, मास्टर जी बोले।
लेकिन मेरी अंतरात्मा मुझे कचोट रही है,मेरा मन बहुत अशांत है, मेरे जीवन में कलंक लग चुका है और ये कलंक मुझे मिटाना ही होगा,श्रीधर बोला।
मास्टर जी बोले,श्रीधर बेटा नासमझी वाली बातें मत करो, जाकर स्नान करके भोजन करो और थोड़ी देर सोकर आराम करो, तभी तुम्हारा अशांत मन शांत होगा,कल तुम्हें दीनू की अस्थियों का विसर्जन करने भी तो जाना है।
श्रीधर,स्नान करके आया,प्रतिमा ने उसे भोजन दिया,श्रीधर ने थोड़ा सा ही भोजन किया और अपने गौशाला वाले बगल की कोठरी में चला गया।
रात को उसनेे भोजन नहीं किया, सुबह होते ही मास्टर जी के पास जाकर बोला, मैं पिता जी की अस्थियां हरिद्वार में विसर्जित करना चाहता हूं,अगर आपकी आज्ञा हो शायद उनकी आत्मा को शांति मिल सके।
मास्टर जी बोले हां ज़रूर,क्यो नही? तुम्हें अगर ऐसा ठीक लग रहा है तो वहीं उचित है।
श्रीधर तैयार हो कर आ गया, वो मास्टरजी और सियादुलारी के पैर छूकर बोला, अच्छा अब मैं चलता हूं, बुरा-भला माफ करना।
सियादुलारी बोली, मैं बहुत शर्मिन्दा हूं श्री बेटा।
आप शर्मिंदा क्यो होती है मां जी, ये तो सब ऊपर वाले की मर्जी थी शायद मेरी किस्मत में यहीं लिखा था, श्रीधर बोला।
मास्टर जी ने कुछ रूपए अपनी कुर्ते की जेब से निकाले और श्रीधर को देते हुए बोले,ये लो रख लो सफर में काम आयेगे।
सियादुलारी बोली, बेटा कुछ खाकर जाओ।
भूख नहीं मां जी,श्रीधर बोला।
वहीं खड़ी प्रतिमा ने सुना और भागकर अंदर से कुछ नाश्ता बांधकर ले आई और श्रीधर से बोली,लो जब भूख लगे तब का लेना और ब्याह तक तो वापस आ जाओगे ना!!
पता नहीं,श्रीधर बोला।
और इतना कहकर श्रीधर चला गया,जब तक श्रीधर आंखों से ओझल नहीं हो गया,प्रतिमा उसे आंसू भरी आंखों से निहारती रही।
कहते हैं ना जीवन में अचानक कुछ ऐसा हो जाता है कि उस दिन के बाद इंसान ज्यादा समझदार और गंभीर हो जाता है, ऐसा ही श्रीधर और प्रतिमा के साथ हुआ था, उन्हें एक-दूसरे से अपने मन की बात मुंह से बोलने की जरूरत नहीं थी, दोनों बस एक-दूसरे की आंखें देखकर ही एक-दूसरे की मन की बात समझ गये, दोनों ने पहले की तरह बहस नहीं की।
आज प्रतिमा का ब्याह है और श्रीधर उस दिन के बाद वापस नहीं आया,उस दिन उसकी बातों से प्रतिमा को यहीं लगा था कि वो शायद श्रीधर को आखिरी बार देख रही है,अब वो श्रीधर से शायद कभी नहीं मिल पाएगी,उसका मन उदास है।
शाम को प्रतिमा दुल्हन के रुप में बहुत ही सुंदर लग रही थी, सियादुलारी ने देखकर अपनी आंखें मूंद ली और बोली कहीं मेरी बेटी को मेरी नज़र ना लग जाए और फ़ौरन काजल लाकर काला टीका लगा दिया फिर अंदर गई और कुछ गहने लेकर आई बोली, मैं कुछ बचत करके तेरे लिए ही बनवाए थे बेटी, मुझे ग़लत मत समझना, बेटी, मुझे डर था कि दुनिया-जहान तेरे बारे में कुछ उल्टा-सीधा ना सोचें,सयानी बेटी को बहुत सम्भाल कर रखना पड़ता है, इसलिए मैंने तेरी पढ़ाई छुड़वा दी थी, मैं चाहती थी कि तू घर के काम-काज में पारंगत हो जाए इसलिए तुझसे ही काम करवाती थी, ताकि कल को ससुराल वाले ये ना कह पाए कि सौतेली मां थी तो बेटी को कुछ नहीं सिखाया, भगवान! तुझ जैसी बेटी सबको दे,मैं तो भगवान से यही प्रार्थना करती हूं कि तू अगले जन्म में मेरी ही कोंख से पैदा हो,धन्य! है तेरी मां जो तुझ जैसी लक्ष्मी को जन्म दिया, इतना कहकर सियादुलारी रोने लगी।
तभी प्रतिमा भी मां की इतनी प्रेम भरी बातें सुनकर सियादुलारी के गले लगकर फूट-फूट कर रोने लगी।
कल तू मेरा घर सूना करके चली जाएगी, बेटी ! मैं कैसे रहूंगी तेरे वगैर...... सियादुलारी बोली।

क्रमशः____
सरोज वर्मा___🥀