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पुस्तक समीक्षा - 14

यशवंत कोठारी की पुस्तकों की समीक्षाएं

दफ्तर में लंच

लेखक: यश वन्त कोठारी

प्रकाषक: हिन्दी बुक सैंटर, आसफ अली रोड, दिल्ली-2

पृप्ठ: 83

मूल्य: 60 रु. ।

राप्टदूत साप्ताहिक के पाठक व्यंग्यकार यषवन्त कोठारी से भलीभांति परिचित हैं। राजस्थान के जिन व्यंग्यकारों को प्रदेष के बाहर भी तीख ेलेखन के लिए जाना जाता है। जयपुर के यषवन्त कोठारी उनमें से एक नाम है। ‘कुर्सी सूत्र’, ‘हिन्दी की आखिरी किताब’, ‘यष का षिंकजा’, ‘राजधानी और राजनीति’, ‘मास्टर का मकान’, के बाद लेखक की यह ताजा व्यंग्य कृति ‘दफ्तर में लंच’ आई है। इस पुस्तक में व्यंग्य के तीखे तेवर है। समाज में व्याप्त विदूपताओं, विसंगतियों पर यषवन्त कोठारी गहरी चोट करते हैं। इस पुस्तक में उनकी कुल 31 व्यंग्य रचनाएं हैं।

संकलन की षीर्पक रचना ‘दफ्तर में लंच’ दफ्तरों में व्याप्त अकर्मण्यता, कार्य हीनता तथा भ्रटाचार की बानगी पेष करती है।

इसी संकलन की एक अन्य रचना ‘मिलए बुद्धिजीवी से’ में लेखक ने आज के छद्म, बुद्धिजीवियों पर कटाक्ष किये है। साहित्य के ‘सुपर मैन’ तथा ‘जारी है वर्कषॉपवाद’ भी सटीक लेख है। ‘एक सरकार का सवाल है बाबा’ ष्षीर्पक रचना में वे लिखते हैं- इस गरीब देष को एक सरकार चाहिये, सरकार कैसी भी हो, लेकिन चले, काम करे न करे और जरुरत के समय अपनों की मदद करे। कोठारी के व्यंग्य संक्षिप्त किंतु तीखी मार करने वाले होते हैं। आज के युगीन संदर्भों में इन लेखों का महत्व और भी बढ़ जाता है क्योंकि इनमें निषाना बनाया गया है उन कारगुजारियों को जिनकी अवांछनीयता के बावजूद हम जिनके आदि होते जा रहे हैं।

यषवन्त कोठारी में विपय ढूंढने की क्षमता है। मगर व्यंग्य का षल्य यदाकदा कुछ कमजोर हो जाता हैं जिसे और पैनेपन की जरुरत है। स्त्री-पुरुप संबंधों वाली रचना की इस पुस्तक में कोई आवष्यकता नहीं थी। कुल मिलाकर लेखक के भविप्य के प्रति आश्र्वस्त हुआ जा सकता है। इस पठनीय संग्रह का आवरण, गेटअप व मुद्रण सुन्दर है।

राप्टदूत 16-1-2000 बिपिन प्रसाद

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दफ्तर में लंच

लेखक: यषवन्त कोठारी

प्रकाषक: हिन्दी बुक संेटर, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली

मूल्य: 60 रु.

पृप्ठ: 83 ।

इकतीस व्यंग्य लेख अपने वजूद में खपाए, यषवन्त कोठारी की यह कृति उन पाठकों के लिए व्यंग्यमाला साबित होगी जो व्यंग्यमय होना चाहते हैं, जो व्यंग्ययित करने के आदि हों, व्यंगित होते हुओं की सद्गति पर जिनके क्यारी-क्यारी मन, बाग-बाग हो जाएं, ‘जो नाच न जाने आंगन टेढ़ा’ जैसे ‘आउटडेटेड’ मुहावरे का मरसिया पड़ते हुए ऐसे लोगों के कसीदे गाए जो थर्ड क्लास वक्रंाग होने के बावजूद फर्स्ट क्लास नचैयों के रुप में पुरस्कृत हो रहे हैं। जिन्हें यह तलाष हो कि विाान, कला साहित्य अथवा संगीत के क्षेत्रों में सत्यानाषी कमाल दिखाने वाली अकादमियों में बाबूगिरी करने वाले एवं षिक्षार्थियों की कृपा से प्राध्यापकीय दायित्व निभाने वाले अकादमी अध्यक्ष की कुर्सी तक कैसे पहुंचते हैं। उनका व्यंग्य पाट है-

उन्होंने साहित्यिक समारोहों में वक्तव्य और अकादमी की रपटें पढ़ी, रपटें महान हो गई। हालांकि‘वे एक मामूली हिन्दी अध्यापक थे। महान बनना चाहते थे, सो अकादमी में घुस गए। वे अब महान साहित्यकार हो गए-उन्होंने कविता लिखी, कविता महान हो गई। उन्होंने सम्पादन किया, सम्पादकीय महान हो गई।’ समीक्ष्य कृति में दर्ज रचनाएं ये प्रमाणित करती हैं कि यत्र-तत्र सर्वत्र पनपने वाली असंगतियां एवं कुसंगतियां जब-जब भी लेखक के सान्निध्य में आई वह उन्हें निरपेक्ष भाव से काटकर अपनी साहित्यिक जर्राही का कमाल दिखाने से नहीं चुका। सबूत निम्नांकित हैं। लंच में लेडी सेक्रेटरी साहब की कार में पांच सितारा या तीन सितारा होटल में चली जाती है और गरीब भीखाराम दो रुपल्ली की चाय के साथ सूखे टोस्ट कुतरता है।’ लेखक ने साहित्यिक सुपरमैनों की व्यंग्यवंदना भी की है। उसका कहना है- ‘ पृप्ठ 9 ’ वे किसी नए प्रतिभासम्पन्न लेखक को नप्ट करने में अपनी पूरी ताकत लगा देते हैं। ‘पृप्ठ-13’ जिस प्रकार मवेषियों की नस्लों के विषेपज्ञ गाय, भैंस, घोड़े, खच्चर, भेड़, बकरी और अवसर मिले तो उंट की भी पहचान संबंधित मवेषियों के गुण दोप देखकर करने में देर नहीं लगाते, इसी प्रकार इस कृति क ेलेखक ने विभिन्न प्रकार के बुद्धिजीवियों की पहचान उनमें पाए जाने वाले गुण-दोप के आधार पर की है। उसका कहना है- ‘बुद्धिजीवि जब गुस्से में होता है तो अंग्रेजी बोलता है-ज्यादा गुस्से में हो तो गलत अंग्रेजी बोलता है-हर समझदार बुद्धिजीवि अपने अलावा सभी को मूर्ख समझता है।’ इसी प्रकार लेखक की व्यंग्य परक बुद्धि इंसानी रिष्तों का विष्लेपण भी करती है। उसका मानना है कि ‘पोस्टमैन ही लेखक का सच्चा मित्र है।’ बिना पोस्टमैन क ेलेखक का जीवन अधूरा है। मगर उसे खेद है कि देष में पोस्टवूमैन नहीं है। ‘संक्ष्ेप में निपटाना हो तो यह कहकर पिंड छुड़ाया जा सकता है कि इस व्यंग्यकार की जर्राह षाला में अनगिनत जीवनियां अपनी षल्य चिकित्सा हेतु पंक्तिबद्ध है। व्यंग्य की जर्राह कलम फोडे-फुंसियों को काट भी रही है, मगर कलम रुपी नष्तर की धार कुछ कम पैनी है। कटने वाला रोता-चिल्लाता अथवा मिमियाता नहीं। विसंगति रुपी रोग के निदान के लिए, नष्तर की धार तेजी से काटती तो अधिक श्रेयस्कर होता।

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