सुलझे...अनसुलझे - 16 Pragati Gupta द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सुलझे...अनसुलझे - 16

सुलझे...अनसुलझे

बहुत मुश्किल नहीं

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मैं उस रोज बहुत सवेर-सवेरे अपने सेंटर पर आ गई थी| मुझे अंदाजा था कि सेंटर पर मरीजों की संख्या, और दिनों के अपेक्षा कहीं अधिक रहेगी| हमारा मेडिकल सेटअप सरकारी अस्पताल के सामने ही था| किसी विशेष विभाग की ओ.पी.डी. होने पर, न सिर्फ अस्पताल में मरीज़ों की संख्या बहुतायत में होती बल्कि मरीज़ों की संख्या आस-पास के सेंटर्स में भी बढ़ जाती थी|

सवेरे की बस से गाँव से आया हुआ मरीज़ दिखाने के बाद यही सोचता था कि सभी जांचे करवाकर, रिपोर्ट डॉक्टर को जल्द ही दिखा दे| ताकि वो इलाज़ लिखवाकर वापस गांव लौट सके। जो जाँचे अस्पताल में नहीं होती उनको मरीज़ अस्पताल के बाहर सेंटर्स पर करवाने की सोचता था| इसी वज़ह से आज जब मैं अपने सेंटर पहुंची तो वहां काफ़ी मरीज़ थे|

मैंने सेंटर पर पहुँच कर सबसे पहले पूजा की| फिर रोज की आदत के अनुसार जब मैं रिसेप्शन पर अपने स्टाफ से मरीज़ों की सभी जानकारी ले रही थी कि मेरी नज़र कलुआ पर पड़ी| मैं उसके बदहवास हाल को जरा भी नज़रअंदाज़ नहीं कर पाई। कलुआ बहुत बेचैनी के हालात में सेंटर की गली में घूमते हुए, शायद मरीज़ों की भीड़ में मुझ से संपर्क करने की कोशिश कर रहा था| कब मेरी नज़र उस पर पड़े, उसको वही इंतज़ार था। वो कभी भी मेरे सेंटर की सीढ़ियाँ बेवजह नहीं चढ़ता था|

कलुआ मेरे सेंटर और अस्पताल के बीच सड़क पर बने फुटपाथ पर मोचीगीरी किया करता था| साथ ही पास की एक दुकान में नौकरी भी करता था। दिमाग़ी तौर पर बहुत समझदार न होने से उसका मन पढ़ाई-लिखाई में नही रमा| उसने दुकान की नौकरी के साथ-साथ मोचीगिरी का काम करना काफ़ी बचपन से ही शुरू कर दिया था। उसकी ईमानदारी व समर्पण की वजह से उसका मालिक पिछले बारह-तेरह साल से उसको किसी दूसरी नौकरी पर भी नही जाने देता था। कई बार तो मैंने उसको अकेले दुकान भी संभालते देखा था। जब मैं रोज़ अपनी कार सड़क पर बने फुटपाथ पर खड़ी करती तो उसका मुझ से रोज़ ही सामना होता। मेरे सेंटर को खुले हुए भी तब पंद्रह सोलह साल हो गए थे।

इतने सालों से मैं कलुआ को अपने काम में मगन देखती थी| लगभग हर रोज़ सेंटर आते-जाते कलुआ मुझे सड़क पर जूते चप्पल सही करते हुए मिलता था। पर कभी मुझे नमस्कार करना भूला हो ,मुझे याद नही आता। कई बार तो उठ कर मेरे पास जरूर आता और कुछ अपनी-सी बातें बताता। शायद मेरा चुपचाप उसकी बातें सुनना उसको अच्छा लगता था। कभी कोई सलाह मांगता तो जरूर देती क्यों कि मेरा उसके साथ एक मानवता से जुड़ा रिश्ता बन गया था।

उसको इन हालातों में देखकर मैंने उससे पूछा....

‘क्या हुआ कलुआ..क्यों बदहवास घूम रहे हो...

मेरे प्रश्न पूछते ही मानो उसके आँसुओ की झड़ी ही लग गई हो।

‘कुछ नही डॉक्टर साहिबा मुझे अभी- अभी ख़बर मिली है कि मेरे मां-बाबा को एक तेज गति से चलती कार ने कुचल डाला है। वो दोनों किसी काम से बाज़ार गए हुए थे|

‘कहाँ जाऊं ,क्या करूँ ,मेरी विवशता ने मेरे सोचने समझने की शक्ति को बस गुम कर दिया है। आपको तो पता ही है मुझे बहुत समझ नहीं आता|

‘जब कुछ सुझा नहीं तो बस आपके सेंटर की तरफ दौड़ आया। कहीं अगर आप दिख जाए तो शायद कुछ सूझ से काम कर पाऊं।’

कलुआ की मासूमियत और उसका मुझ में विश्वास मुझे हिला गया। अचानक ही मेरा हाथ कब उठकर उसके कंधे पर पहुँच गया, इसका मुझे भान भी न हुआ।

‘हिम्मत से काम लो कलुआ मेरी जो भी मदद तुमको चाहिए हो मैं तुम्हारे साथ हूँ।’

अभी मेरे पास कुछ रुपया है तुमको दे देती हूं और भी मदद चाहिए हो तो बताना।

‘नहीं मुझे कोई रुपया नहीं चाहिए मैडम जी| बस इस दुर्घटना की ख़बर सुनते ही इतना घबरा गया था कि दिमाग़ ने काम करना बंद कर दिया था। कोई बहुत रिश्तेदार भी नही| कुछ है उनके पास अगर जाता तो यही सोचते रुपया माँगने आया हूँ| सो नहीं गया। पर आपका बस मेरे कंधे पर हाथ रखना ही मुझे जो हौसला दे गया है| वही मेरे लिए मेरा भगवान है मैडमजी।’

‘अब जाता हूँ बहुत कुछ करना है माँ -बाप को विदा करने से पहले।’

आज कलुआ के जाते ही मेरी नम हुई आँखों ने मुझे बहुत कुछ महसूस करा दिया.. कि कई बार किसी की दुआओं में शामिल होने के लिए बस सच्ची मानवता की जरूरत होती है....और ऐसा कर पाना शायद बहुत मुश्किल नही होता।।।

प्रगति गुप्ता