चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा - 16 Suraj Prakash द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा - 16

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा

अनुवाद एवं प्रस्तुति: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

(16)

अपने पाठक के प्रति उनका रवैया काफी शालीन और समाधान परक रहता था, और शायद यह आंशिक रूप से उनका गुण था जो उनके व्यक्तिगत मृदुल चरित्र को उन लोगों के सामने भी प्रस्तुत कर देता था, जिन्होंने उन्हें कभी देखा नहीं। मैं भी इसे एक उत्सुकता भरा तथ्य मानता हूँ कि जिसने जीव विज्ञान का रूप ही बदल दिया, और इन अर्थों में जो आधुनिकतावादियों का मुखिया बन गया, उसने इतने गैर आधुनिक तरीके और भावना से एकदम दकियानूसी बातें लिखी होंगी। उनकी किताबों को पढ़ कर आधुनिक घराने के लेखकों का कम और प्राचीन प्रकृतिवादियों का आभास अधिक मिलता था। पुराने मत से देखा जाए तो वे शब्दों के प्रकृतिवादी थे, अर्थात ऐसा व्यक्ति जो विज्ञान की कई शाखाओं पर शोध करे न कि किसी विशेष विषय पर। इस प्रकार उन्होंने विशेष विषयों के नए प्रभाग तय कर दिए थे, जैसे कि फूलों का निषेचन, कीट भक्षी पौधे आदि। जो कुछ अपने पाठक के सामने वे प्रस्तुत करते थे उससे यह आभास नहीं होता था कि यह किसी विशेषज्ञ का लेख है। पाठक को ऐसा मित्रवत लगता था जैसे कि कोई सज्जन उसके सामने बातें कर रहा हो न कि ऐसा कि शिष्यों के सामने कोई प्रोफेसर व्याख्यान दे रहा हो। ओरिजिन जैसी किताब की ध्वनि मनमोहक ही नहीं, एक तरह से भाव-प्रधान है। यह एक ऐसे व्यक्ति का बलाघात है जो अपने विचारों की सच्चाई के प्रति आश्वस्त है, लेकिन फिर भी इसमें ऐसी शैली हो, जो दूसरों को प्रभावित नहीं करना चाहते। यह तो पाठक पर अपने विचार लादने वाली किसी दुराग्रही की शैली से एकदम उलट है। यदि पाठक के मन में कोई भ्रम होता भी था तो इसके लिए उसे तिरस्कृत नहीं करते थे, बल्कि उसके संशयों का निवारण बड़े ही धैर्यपूर्वक किया जाता था। उनके विचारों में सदा ही संशयी पाठक या शायद कोई अज्ञानी पाठक सदा ही मौजूद रहता था। शायद इसी विचार का नतीजा था कि वे ऐसे स्थलों पर काफी श्रम करते थे, जिन पर उन्हें लगता था कि यह उनके पाठक को भ्रमित कर सकता है, और वहाँ पर वे ऐसी रोचकता लाते या उसे जूझने से बचाते कि पाठक पढ़ने के लिए लालायित हो उठता था।

इसी वजह से वे अपनी किताबों में चित्र या उदाहरण देने में भी काफी रुचि लेते। यही नहीं, मुझे लगता है उनकी नज़र में इनकी बहुत अहमियत थी। उनकी शुरुआती किताबों के चित्र व्यवसायी चित्रकारों ने तैयार किए थे। एनिमल्स एन्ड प्लान्टस, दी डीसेन्ट ऑफ मैन और द एक्सप्रेशन ऑफ इमोशन्स इन्हीं चित्रकारों के चित्र थे। दूसरी ओर, क्लाइंम्बिंग प्लान्टस, इन्सेक्टीवोरस प्लान्टस, दि मूवमेन्टस ऑफ प्लान्टस और फॉर्म्स ऑफ फ्लावर्स के चित्रों को उनके बच्चों ने तैयार किया था, जिनमें सबसे ज्यादा चित्र मेरे भाई जॉर्ज ने तैयार किए थे। उनके लिए चित्र बनाना बड़ी ही खुशी की बात हुआ करती थी, क्योंकि बहुत सामान्य सी मेहनत पर वे दिल खोल कर तारीफ किया करते थे। मुझे अच्छी तरह से याद है कि उनकी एक बहू ने जब एक चित्र तैयार किया तो उन्होंने सच्चे मन से तारीफ करते हुए कहा, `---- से कहना कि माइकल एंजेलो भी इसके आगे फीका पड़ गया है।' वे तारीफ के ही पुल बाँधकर नहीं रह जाते थे बल्कि चित्रों को बड़ी बारीकी से देखते थे और यदि कोई कमी या लापरवाही रह गई होती थे तो उसे भी पकड़ लेते थे।

पिताजी को काम के लम्बा खिंच जाने का भय भी रहता था। वैरिएशन ऑफ एनिमल्स एन्ड प्लान्टस का लेखन कार्य जब बढ़ता जा रहा था, तो मुझे याद है कि एक दिन वे कह उठे - ट्रिस्ट्रम शैन्डी के शब्द एकदम ठीक ही हैं,`कोई कुछ नहीं कहेगा, चलो मैं बारहपेजी लिखता हूँ।'

दूसरे लेखकों के बारे में भी वे ठीक उतनी ही फिक्र करते थे जितनी अपने पाठक की। दूसरे सभी लेखकों के लिए वे कहते थे कि इन्हें भी सम्मान की दरकार है। इसकी एक मिसाल पेश करता हूँ - ड्रोसेरा के बारे में श्री---- के प्रयोगों को देखते हुए उन्होंने लेखक के बारे में काफी सामान्य विचार बना रखे थे, लेकिन यदि कहीं भी उन लेखक महोदय के बारे में कभी कुछ कहना होता था तो पिताजी ऐसे विचार प्रकट करते थे कि किसी को भी उनके मनोभावों का आभास नहीं हो पाता था। दूसरे मामलों में वे लापरवाह किस्म के भ्रमित लेखकों के साथ ऐसा व्यवहार करते थे, मानो दोष लेखक का नहीं बल्कि स्वयं उन्हीं का हो कि वे विषय को समझ नहीं सके। आदर की इस सामान्य ध्वनि के अलावा वे उद्धृत लेख की मूल्यवत्ता पर अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करने का उनका अपना ही तरीका था या फिर किसी व्यक्तिगत जानकारी पर उनके अपने ही विचार थे।

वे जो कुछ पढ़ते थे उसके बारे में बहुत ही आदर की भावना रखते थे, लेकिन उनके मन में यह भावना भी जरूर रहती थी कि लेख को लिखने वाले भरोसेमन्द हैं या नहीं। वे जो भी किताब पढ़ते थे उसके लेखक की शुद्धता के बारे में एक खास विचार बना लेते थे और तर्क-वितर्क या उदाहरण के रूप में तथ्यों का चयन करते समय अपने विवेक का प्रयोग करते थे। मुझे तो यही लगता है कि किसी भी लेखक की विश्वसनीयता के बारे में अपनी इस विवेक शक्ति को वे बहुत ही अहमियत देते थे।

उनमें आदर करने की प्रबल भावना भी थी, जो कि अक्सर लेखकों में होती है। और यही नहीं, किसी भी दूसरे लेखक का उदाहरण देने में उन्हें डर भी लगता था। आदर और ख्याति के बारे में मोह का वे विरोध भी करते थे। अपने खतों में कई बार उन्होंने खुद को ही दोषी ठहराया है कि अपनी किताबों की सफलता से उन्हें कितनी खुशी मिलती थी, और यह तो एक तरह से अपने ही विचारों और सिद्धान्तों की हत्या करना था - क्योंकि वे मानते थे कि सच से प्रेम करो और ख्याति या प्रसिद्धि की चिन्ता हरगिज मत करो। सर जे. हूकर को लिखते समय कुछ एक खतों को उन्होंने शेखी बघारने वाला खत कहा है। एक खत में तो अपनी विनम्रता की भावना के लिए लालसा की भी हंसी उड़ाई है। `लाइफ' के दसवें अध्याय में ऐसा ही एक रोचक खत है जो मेरी माँ को उन्होंने समर्पित करते हुए लिखा और कहा कि यदि उनकी मृत्यु हो जाती है तो उद्विकास पर उनके पहले निबन्ध की पांडुलिपि को छपवाने के लिए उन्हें कितनी सावधानी से काम करना है। इस पूरे खत में केवल यही इच्छा प्रकट की गयी थी कि यह सिद्धान्त ज्ञान में योगदान करने वाला होना चाहिए। अपनी व्यक्तिगत प्रसिद्धि की तो कहीं कोई बात ही नहीं चलाई गयी थी। उनमें सफलता की प्रबल आकांक्षा थी जो कि एक व्यक्ति में होनी भी चाहिए, लेकिन ओरिजिन के प्रकाशन के समय यह स्पष्ट था कि वे लेयल, हूकर, हक्सले और एसा ग्रे जैसे विद्वानों से प्रशंसा पाकर वे बहुत खुश हुए थे, लेकिन बाद में जो नाम उन्होंने कमाया उसका सपना या इच्छा उन्होंने कभी भी नहीं संजोयी थी।

प्रसिद्धि के प्रति लगाव से तो उन्हें मोह नहीं ही था और साथ ही वे तरजीह के सवालों को भी उतना ही नापसन्द करते थे। ओरिजिन के प्रकाशन पर लेयल को लिखे खतों में उन्होंने अपने ऊपर खीझने का जिक्र किया और लिखा कि उन्हें खुद पर हैरानी है कि वे कई बरस की मेहनत पर मिस्टर पैलेस की पेशबन्दी पर निराशा को दबा नहीं पा रहे थे। इन खतों में उनकी साहित्यिक आकांक्षा और मान की भावना साफ तौर से सामने आयी है। यही नहीं, तरजीह के बारे में उनकी भावना उस तारीफ में सामने आयी है जो उन्होंने रीकलेक्शन में मिस्टर वैलेस के आत्म हनन के रूप में प्रकट की है।

अपने लेखन में संशोधनों के बारे में उनकी भावना बड़ी प्रबल थी और इसमें उनके लेखन पर हमलों के जवाब और सभी प्रकार की चर्चाएं भी शामिल थीं। फाल्कोनर (1863) को लिखे एक खत में उन्होंने इसका इशारा करते हुए लिखा : `यदि तुम्हारे जैसे काबिल दोस्त पर मैं कभी गुस्सा उतारूं तो सबसे पहले मुझे अपने बारे में यही सोचना होगा कि मेरा दिमाग ठिकाने नहीं है। मेरे लेखन में तुमने जो संशोधन किए उनके लिए मुझे खेद है, और मैं मानता हूँ कि हर हाल में यह गलती ही है पर हम उसे दूसरों के लिए छोड़ें। अब चिढ़कर यह मैं खुद ही करने लगूँ तो बात अलग ही है।' यह भावना कुछ तो बहुत ज्यादा नज़ाकत की थी और कुछ इस प्रबल आकांक्षा की कि समय, शक्ति की बरबादी हुई सो हुई मन में गुस्सा अलग से पैदा हुआ।

लेयल ने जब उन्हें सलाह दी तो उस पर उन्होंने कहा कि वे भी तर्क वितर्क में पड़ना नहीं चाहते - लेयल ने यह सलाह अपने उन दोस्तों को दी थी जो उस समय एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में लगे हुए थे।

यदि मेरे पिताजी के लेखकीय जीवन को समझना है तो उनकी सेहत की दशा को भी ध्यान में रखना होगा कि खराब सेहत के बावजूद वे लेखन में लगे रहे। अपनी बीमारियों को भी वे इतने शांत भाव से सहन करते थे कि उनकी संतानों को भी अहसास तक नहीं होने पाता था। संतानों के मामले में एक दुविधा और भी थी और वह यह कि हम बच्चों ने जब से होश संभाला था तो उन्हें बीमार ही पाया था - और इसके बावजूद उन्हें हमने हमेशा ही हंसता मुस्कराता और जीवट से भरपूर देखा था। इस तरह उनके बाद के जीवन में भी हम बच्चों के बचपन में उनकी दयालुता की जो छवि बनी थी वह कभी हट नहीं सकी, बावजूद इसके कि उनकी तकलीफों का एहसास हम सबको ज़रा सा भी नहीं हो पाता था। असलियत यह थी कि हमारी माँ के अलावा किसी को यह मालूम नहीं हो पाता था कि अपनी तकलीफों को सहन करने में उनकी ताकत गज़ब की थी। बाद के जीवन में तो माँ ने उन्हें एक रात के लिए भी अकेला नहीं छोड़ा और वे अपने सभी कामों की योजना कुछ इस तरह से बनाती थीं कि जो समय पिताजी के आराम का होता था, उस समय वे ज़रूर ही पास होती थीं। किसी भी तरह की घटना हो, वे पिताजी के सामने एक ढाल की तरह रहती थीं। उन्हें हर कठिनाई से बचातीं, या बहुत ज्यादा थकने से बचातीं या फिर ऐसी किसी भी गैर ज़रूरी, वाहियात किस्म की बात से दूर ही रखती थीं जो उनकी खराब सेहत में कुछ भी मुश्किल पैदा कर सकती थीं। मुझे ऐसी बात के बारे में कहते हुए संकोच सा होता है कि किस प्रकार से उन्होंने पिताजी की निरन्तर सेवा-टहल में अपना सारा जीवन अर्पित कर दिया था, लेकिन मैं फिर भी यही कहूँगा कि अपने जीवन के लगभग चालीस बरस उन्होंने एक भी दिन ऐसा नहीं गुज़ारा जबकि वे बीमार न रहे हों। उनका सारा जीवन ही बीमारी से जूझते ही बीत गया। और इसी तरह अंत तक जीवन संघर्ष में लगे रहे। एक अदम्य ताकत उनमें थी कि वे इस सारे कष्ट को सहन करते रहे।