चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा
अनुवाद एवं प्रस्तुति: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी
(17)
III
चार्ल्स डार्विन का धर्म
मेरे पिता ने अपने प्रकाशित लेखों में धर्म के बारे में एक मौन ही साधे रखा। धर्म के बारे में उन्होंने जो थोड़ा-बहुत लिखा भी तो वह प्रकाशन के प्रयोजन से कभी नहीं।
मुझे लगता है कि कई कारणों से उन्होंने यह चुप्पी साधी थी। उनका मानना था कि इन्सान के लिए उसका धर्म निहायत ही व्यक्तिगत मसला होता है और इसकी चिन्ता भी उसके अपने लिए ही होती है। सन 1879 में लिखे एक खत में उन्होंने इसी बात की ओर इशारा किया है :
`मेरे जो अपने विचार हैं उनका किसी और के लिए वैसे तो कोई मतलब नहीं है। लेकिन आपने पूछा ही है तो मैं यह कह सकता हूँ कि मेरा दिमाग भी अस्थिर ही रहता है। --- अपनी अस्थिरता की चरम अवस्था में मैं कभी भी नास्तिक नहीं हूँ, नास्तिक भी केवल एक ही अर्थ में जो ईश्वर के अस्तित्व में यकीन नहीं करता। मैं आम तौर पर ऐसा ही सोचता हूँ (और अब उम्र भी तो बढ़ती जा रही है) लेकिन हमेशा नहीं, शायद मेरे दिमाग के लिए सबसे ज्यादा सही जुमला होगा - संदेहवादी।
धार्मिक मामलों में वे दूसरों की भावनाओं को चोट पहुँचाने से दूर ही रहते थे, और उन पर इस चैतन्यता का भी प्रभाव था कि किसी इंसान को ऐसे विषय पर नहीं लिखना चाहिए जिसके बारे में उसने कभी खास तौर पर चिन्तन मनन नहीं किया हो। और यही नहीं, इस चेतावनी को उन्होंने धार्मिक मामलों पर विचार व्यक्त करते हुए अपने ऊपर लागू किया जैसा कि उन्होंने कैम्ब्रिज, यू एस के सेन्ट एफ.ई. ऐबट को लिखे खत में स्पष्ट किया था (सितम्बर 6, 1871)। खत में सबसे पहले उन्होंने यह बताया कि खराब सेहत के कारण वे मानव मन को प्रभावित करने वाले इस गहन, गम्भीर विषय पर उतना गहन, गम्भीर चिन्तन नहीं कर पाए जितना करना चाहिए। आगे वे यही कहते हैं कि - पहले लिखे हुए लेखों की विषय वस्तु को मैं पूरी तरह विस्मृत कर चुका हूँ। मुझे बहुत से खत लिखने हैं, और इन सब पर मैं प्रतिक्रिया कर सकता हूँ लेकिन सोचकर लिखना बहुत कम हो पाता है, फिर भी मुझे पूरी तरह से मालूम है कि मैंने ऐसा कोई शब्द नहीं लिखा है, जो मैंने सोच समझकर नहीं लिखा हो, लेकिन मैं समझता हूँ कि आप मुझसे असहमत भी नहीं होंगे कि जो कुछ भी आम लोगों के सामने छप कर जाना हो, उसका महत्त्व भी बड़ी ही परिपक्वता से तय करके सावधानी से प्रस्तुत करना चाहिए। मुझे यह कभी भी ध्यान में नहीं आया कि आप मेरे लेख में से कुछ सारांश निकालकर छापेंगे, यदि मुझे कभी यह अहसास हुआ होता तो मैं उनकी नकल रखता। मैं अपने ऐसे लेख पर आदतन निजी लिख दिया करता हूँ। हो सकता है जल्दबाजी में लिखे हुए मेरे किसी लेख में से यह अंश लिया गया है, और यह भी हो सकता है कि वह लेख छपने लायक रहा ही नहीं हो, या किसी अन्य प्रकार से आपत्तिजनक रहा हो। यह तो मानना निहायत ही बेहूदगी होगा कि मैंने जो लेख आपको पहले लिखे थे आप उन सब को मुझे लौटाएं, और जो आप उसमें से छापना चाहते हैं, उस पर निशान भी लगा दें, लेकिन यदि आप ऐसा करना चाहते हैं तो मैं फौरन यही कहूँगा कि मैं ऐसा एतराज क्योंकर करूँ। कुछ हद तक मैं धार्मिक विषयों पर अपने विचार खुलेआम जाहिर करने का इच्छुक नहीं हूँ क्योंकि मुझे नहीं लगता कि इस प्रकार के प्रचार को न्यायसंगत सिद्ध करने के लिए मैंने गहराई से चिन्तन मनन किया है।
डॉ. ऐबट को लिखे एक खत में (16 नवम्बर 1871) में मेरे पिता ने अपनी ओर से उन सभी कारणों को गिना दिया है कि वे धार्मिक और नैतिक विषयों पर लिखने में खुद को सक्षम क्यों नहीं महसूस करते।
`मैं पूरी सच्चाई के साथ कह सकता हूँ कि इन्डेक्स में योगदान करने के लिए आपके अनुरोध से मेरा सम्मान बढ़ा है, और जो ड्राफ्ट आपने भेजा उसके लिए मैं अहसानमंद भी हूँ। मैं पूरी तरह से इस बात पर भी मुहर लगाता हूँ कि यह हर एक का कर्त्तव्य है कि जिस सत्य को वह मानता है उसका प्रसार भी करे; और ऐसा करने के लिए मैं आपका पूरे उत्साह और निष्ठापूर्वक आदर करता हूँ। लेकिन मैं आपके अनुरोध को पूरा करने में स्वयं को असमर्थ पाता हूँ जिसके कारण मैंने आगे चलकर बताए हैं, और इन कारणों को इतने ब्यौरों के साथ बताने के लिए आप मुझे माफ करेंगे, और आपकी नज़रों में इतना गुस्ताख होने के लिए मुझे खेद है। मेरी सेहत गिरी गिरी रहती है; 24 घंटे में शायद ही ऐसा कोई समय होता होगा जो मैं आराम से निकाल पाता हूँ, शायद आराम के समय में कुछ और सोच सकूँ। यही नहीं, लगातार दो माह का समय मैं गंवा चुका हूँ। इस बेइन्तहा कमज़ोरी और सिर में भारीपन के चलते अब ऐसे नए विषयों पर सोचना बहुत कठिन है। इन विषयों पर गहराई से विचार करना ज़रूरी है, और मैं तो अपने पुराने विषयों पर ही सहज महसूस करता हूँ। मैं कभी भी बहुत तेज़ विचारक या लेखक नहीं रहा हूँ। विज्ञान में मैंने जो कुछ किया है उसके लिए एक ही वजह है कि मैंने इन विषयों पर लम्बे समय तक चिन्तन, अध्यवसाय और मेहनत की है।
``मैंने विज्ञान के संदर्भ में या समाज के परिपेक्ष्य में नैतिकता के बारे में सूत्रबद्ध रूप से कभी नहीं सोचा, और ऐसे विषयों पर अपनी दिमागी ताकत को लम्बे समय तक मैं लगा नहीं पा रहा हूँ, तो ऐसे में ऐसा कुछ नहीं लिख पाऊँगा जो इन्डेक्स में भेजने लायक हो।''
उनसे एक नहीं बल्कि कई बार धर्म पर विचार प्रकट करने के लिए कहा गया, और उन्होंने अपने विचार प्रकट भी किए लेकिन यह काम उन्होंने अपने व्यक्तिगत खतों में ही किया। अपने एक डच विद्यार्थी के खत का जवाब देते हुए उन्होंने लिखा था (2 अप्रैल 1873),`मुझे भरोसा है कि इतना लम्बा खत लिखने के लिए तुम बुरा नहीं मानोगे, खासकर यह बात जान कर कि मेरी तबीयत काफी समय से खराब चल रही है और इस समय घर से दूर रहकर आराम कर रहा हूँ।
``तुम्हारे सवाल का थोड़े में जवाब दे पाना संभव नहीं, और मुझे ऐसा नहीं लगता कि मैं कुछ लिख पाऊँगा। लेकिन इतना तो कह ही सकता हूँ कि हमारी चेतना इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है कि यह महान और आश्चर्यजनक ब्रह्मांड संयोगवश बन गया, और इसी प्रमुख तर्क के आधार पर ईश्वर का अस्तित्व कायम है, लेकिन यह तर्क वाकई में कोई मूल्य रखता है, मैं इस बारे में कभी भी निर्णय नहीं ले सका। मैं जानता हूँ कि यदि हम प्रथम कारण को स्वीकार कर लेंगे तो मन में पुन: यह सवाल पैदा होंगे कि यह कब हुआ, और कैसे इसका विकास हुआ। संसार में कष्टों और व्याधिओं की जो भरमार है, उसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती है। जो लोग पूरी तरह से ईश्वर में विश्वास करते हैं, उन योग्य लोगों के विवेक पर भी मुझे कुछ हद तक भरोसा नहीं है, लेकिन इस तर्क का खोखलापन भी मुझे मालूम है। मुझे सबसे सुरक्षित नतीजा यही लगता है कि यह सारा विषय ही मानव की प्रज्ञा के दायरे में नहीं आता। इन्सान तो बस अपना कर्म कर सकता है।''
इसी तरह से एक बार सन 1879 में अपने एक जर्मन विद्यार्थी के सवालों का जवाब देते हुए उन्होंने यही सब लिखा था। खत का जवाब पिताजी के पारिवारिक सदस्य ने लिखा था :
``मि. डार्विन ने मुझसे यह कहने का अनुरोध किया है कि उन्हें इतने खत मिलते हैं, जिनमें से सब का जवाब दे सकना कठिन है।
``वे मानते हैं कि उद्विकास का सिद्धान्त ईश्वर में विश्वास के साथ तुलनीय है; लेकिन तुम्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि ईश्वर का अर्थ अलग अलग लोगों के लिए अलग ही है।
इससे जर्मन युवक को संतोष नहीं हुआ और उसने फिर से मेरे पिता को लिखा और उसे इस प्रकार का जवाब दिया गया:-
``मैं एक बूढ़ा और बीमार व्यक्ति पहले ही बहुत से कामों को पूरा करने में लगा हुआ हूँ, और मेरे पास इतना समय नहीं है कि तुम्हारे सवालों का पूरा पूरा जवाब दे सकूँ और इनका पूरा जवाब दे सकना संभव भी नहीं है। विज्ञान को क्राइस्ट के अस्तित्व से कुछ भी लेना-देना नहीं है, सिवाय इसके कि वैज्ञानिक अनुसंधान की आदत के कारण व्यक्ति प्रमाणों को स्वीकार करने के मामले में सजग रहता है। मेरा अपना मानना है कि कभी कोई अवतार नहीं हुआ। और भविष्य के जीवन में हर इन्सान को झूठी संभावनाओं के बीच आपसी विरोधाभासों को खुद ही देखना और समझना होगा।
आगामी अनुच्छेदों में उनकी आत्मकथा से कुछ अंश दिए गये हैं। ये उन्होंने 1876 में लिखे थे। इनमें मेरे पिता ने धार्मिक दृष्टिकोणों का इतिहास बताया है:
अक्तूबर 1836 से लेकर जनवरी 1839 तक दो वर्ष के दौरान मुझे धर्म के बारे में सोचने के लिए प्रेरणा मिली। बीगेल से समुद्र यात्रा पर जाने तक मैं पूरी तरह से लकीर का फकीर था, और मुझे याद है कि नैतिकता के कुछ सवालों के जवाब में प्रमाण देते हुए बाइबल से कुछ उदाहरण देने पर जहाज के अफसर (हालांकि वे भी लकीर के फकीर ही थे) मेरी हँसी उड़ाते थे। मुझे लगता है कि तर्क प्रस्तुत करने की नवीनता उन्हें चकित कर देती थी। लेकिन इस समय अर्थात 1836 से 1839 के दौरान मुझे मालूम होने लगा था कि ओल्ड टेस्टामेन्ट पर भी उतना ही भरोसा किया जा सकता है, जितना कि हिन्दुओं की धार्मिक पोथियों पर। इसके बाद मेरा यह सवाल कभी भी खतम नहीं हुआ - क्या यह बात यकीन के लायक है कि यदि ईश्वर को हिन्दुओं में अवतार लेना ही था तो वह विष्णु, शिव आदि में विश्वास से ही जोड़कर देखा जाना चाहिए, ठीक उसी तरह जैसे कि ईसाईयत को ओल्ड टेस्टामेन्ट से जोड़ दिया जाता है। यह मुझे पूरी तरह से अविश्वसनीय लगता है।
``आगे यह भी दिखाया जा सकता है कि जिन चमत्कारों से ईसाईयत का समर्थन किया जाता है, उनमें किसी भी समझदार व्यक्ति को भरोसा करने के लिए स्पष्टतया कुछ तो प्रमाण चाहिए - और यह भी कि जैसे-जैसे हम कुदरत के निर्धारित नियमों के बारे में जानकारी प्राप्त करते जाते हैं, उतना ही अविश्वास चमत्कारों पर होने लगता है, उस समय इन्सान इतनी हद तक अनजान और भोला था कि आज हम कल्पना भी नहीं कर सकते। यह भी कि गोस्पेल के बारे में यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि घटनाओं की आवृत्ति के साथ ही इन्हें लिखने का काम भी कर दिया गया था। इनमें बहुत से महत्त्वपूर्ण विवरणों में अन्तर है, मुझे लगता है कि यह कम महत्त्वपूर्ण नहीं कि इन्हें प्रत्यक्षदर्शियों की सामान्य गलतियाँ मान लिया जाए। इन्हीं सब प्रतिबिम्बों के कारण मैं इन्हें कोई नावेल्टी या मूल्यवत्ता प्रदान नहीं करता, लेकिन जैसे-जैसे इन विरोधाभासों का मुझ पर प्रभाव पड़ता गया, वैसे-वैसे दैवी अवतार के रूप में इसाईयत के प्रादुर्भाव पर मेरा अविश्वास भी बढ़ता गया। सच तो यह है कि धरती के विशाल भू-भाग पर बहुत से मिथ्या धर्मों का प्रसार ठीक उसी तरह से हुआ है जैसे जंगल में आग फैलती है, और मुझे इसी पर पूरा यकीन है।
``लेकिन मैं अपने भरोसे को टूटने नहीं देना चाहता था, मैं इसके बारे में तो आश्वस्त था, क्योंकि प्रसिद्ध रोमनों के बीच हुए पुराने खतों के सूत्र तलाशते हुए और पोम्पेई या दूसरी किसी जगह से मिली पांडुलिपियों में दिवा स्वप्न देखते हुए बहुत ही मनोहर तरीके से वही सब बताया गया है जो गोस्पेल में लिखा हुआ है। लेकिन अपनी कल्पना को खुली छूट देने के बाद मेरे लिए यह कठिन से कठिनतर होता गया और मैं ऐसे प्रमाणों को तलाशने लगा जो मुझे प्रभावित कर सकें। इस तरह मुझ पर अविश्वास की धुंध गहराती चली गयी। हालांकि इसकी गति बहुत धीमी थी, लेकिन आखिरकार इसने मुझे पूरी तरह से ढंक ही लिया। एक बात ज़रूर कहूँगा कि इसकी गति इतनी धीमी थी कि मुझे कोई खास तकलीफ नहीं हुई।
``हालांकि अपने जीवन में काफी बाद तक भी मैंने किसी भी साकार ब्रह्म की मौजूदगी के बारे में नहीं सोचा, लेकिन मैं यहाँ कुछ मिथ्या निष्कर्ष प्रस्तुत करूँगा, जो कि मैंने अपने जीवन में निकाले। पाले ने प्रकृति में रूपरेखा के बारे में जो पुराना तर्क दिया था, और जो मुझे भी काफी निष्कर्षपरक लगा था, यहाँ विफल हो गया, क्योंकि अब प्राकृतिक चयन का सिद्धान्त खोजा जा चुका है। उदाहरण के लिए अब हम और ज्यादा समय तक यह तर्क नहीं दे सकते कि सीपियों के सुन्दर कपाटों को किसी बुद्धिमान शक्ति ने ठीक उसी तरह से बनाया होगा जिस तरह से इंसान द्वारा दरवाजों के कपाट बनाए जाते हैं। जीव-जगत में रूपरेखा में और प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया में कोई अदला-बदली प्रतीत नहीं होती है, और उससे अधिक तो बिल्कुल नहीं कि हवा किस दिशा में बह रही है। मैंने वैरिएशन ऑफ डोमिस्टिकेटेड एनिमल्स एन्ड प्लान्ट्स के अन्त में इस विषय पर विचार किया है, और मैं देखता हूँ कि उसमें दिए गए सवालों के अभी तक जवाब नहीं मिले हैं।
``लेकिन जिन अंतहीन सुन्दर संकल्पनाओं को हम हर जगह देखते रहते हैं, उनके बारे में यह तो पूछा ही जा सकता है कि संसार के इस आम तौर पर लाभदायक रूप का श्रेय किसे दिया जाए? कुछ लेखक संसार में दुखों की मात्रा से इतने पीड़ित हो जाते हैं कि यदि सभी चेतन तत्त्वों को देखें तो वे यह शंका करने लगते हैं कि अधिकता दुखों की है या सुखों की।
मेरे विचार से सुख भी काफी है, हालांकि यह सिद्ध करना कठिन है। यदि इस निष्कर्ष के सत्य को ले लिया जाए तो यह उन्हीं तत्त्वों के साथ सुसंगत हो जाता है जो हम प्राकृतिक चयन से अपेक्षा करते हैं। यदि किसी प्रजाति के सभी सदस्यों को चरम सीमा तक दुख उठाना पड़े तो वे अपने अस्तित्व से ही इन्कार करने लगेंगे, लेकिन हमारे पास यह विश्वास करने का कोई कारण नहीं है कि ऐसा कभी भी या यदा-कदा हुआ होगा। इसके अलावा कुछ अन्य विचारधाराओं में यह विश्वास प्रधान है कि सभी चेतन तत्त्वों को सामान्यतया सुखानुभव के लिए सृजित किया गया है।
"हर व्यक्ति जो मेरी ही तरह यह विश्वास करता है कि सभी प्राणियों को सभी दैहिक और मानसिक अंगों (उन इन्द्रियों के अलावा जो उनके अधिष्ठाता के लिए न तो लाभप्रद हैं और न ही लाभकारी) का विकास प्राकृतिक चयन के माध्यम से हुआ है, या श्रेष्ठतम ही जीवन यापन करेगा। जो जीता वही सिकंदर। इन सब के साथ ही अंगों का प्रयोग या आदतें भी शामिल होती हैं, जिनके आधार पर इन अंगों का गठन हुआ है, ताकि इन अंगों वाले प्राणी अन्य जीवों के साथ सफलतापूर्वक स्पर्धा कर सकें और इस प्रकार अपनी तादाद बढ़ा सकें। अब देखो, प्राणि मात्र तो उस संक्रिया की तरफ बढ़ते हैं जो उनकी प्रजाति के लिए सर्वाधिक लाभदायक होती है। यह संक्रिया पीड़ा, भूख, प्यास और डर जैसी व्यथाओं या खाने-पीने जैसी आनन्ददायक घटनाओं और प्रजाति विशेष के उत्थान को प्रेरित करती हैं; यह फिर व्यथा और आनन्द दोनों का संयुक्त रूप सामने आता है जैसे कि भोजन की तलाश करना। लेकिन किसी भी प्रकार की पीड़ा या व्यथा लम्बी अवधि तक बरकरार रहे तो वह अवसाद पैदा करती है और प्रक्रिया शक्ति को कम कर देती है, हालांकि यह भी उस जीव को किसी बड़ी या आकस्मिक विपत्ति से बचाने के लिए ही होता है। दूसरी ओर आनन्ददायक अनुभूतियाँ अवसाद को जन्म दिए बिना ही लम्बे समय तक कायम रह सकती हैं और यही नहीं बल्कि सारी जीवन प्रणाली की सक्रियता को बढ़ा देती हैं। वैसे तो यह मालूम ही है कि सभी या अधिकांश चेतन जीवों का विकास इस रूप में हुआ है कि उसका माध्यम प्राकृतिक चयन ही है, और आनन्द की अनुभूतियाँ उनकी आदतों की ओर इशारा करती हैं। हम देखते हैं कि अपने आप को झोंक देने से भी आनन्द प्राप्त होता है। बहुधा यह अर्पण शारीरिक या मानसिक रूप से हो सकता है। जैसे हम अपने दैनिक भोजन से जो आनन्द प्राप्त करते हैं, और कई बार जो आनन्द हम सामाजिकता और अपने परिवार जनों के लिए प्रेम से प्राप्त करते हैं। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि बार-बार या आदतन होने वाले आनन्द की गुणीभूत मात्रा अधिकांश चेतन प्राणियों को दुखों पर सुख की छाया प्रदान करती है, हालांकि कुछ प्राणी दुख ज्यादा भी उठाते हैं। इस प्रकार का दुख भोग पूरी तरह से प्राकृतिक चयन के विश्वास के साथ तुलनीय है, जो कि अपनी सक्रियता में दक्ष नहीं है, लेकिन इसकी प्रवृत्ति यही रहती है कि अन्य प्रजातियों के साथ जीवन संघर्ष की राह में हरेक प्रजाति को यथासंभव सफल बनाए, और यह समस्त क्रिया व्यापार सुन्दरता से लबालब भरे और हर समय बदलते रहने वाले परिवेश में होता है।
``संसार अपने आप में दुखों का विशाल पर्वत है और इस पर कोई विवाद नहीं। कुछ विचारकों ने इस तथ्य की व्याख्या मानव मात्र के बारे में करने का प्रयास किया है, और यह कल्पना की है कि वह अपने नैतिक विकास के लिए संसार में आया है। लेकिन संसार में मानव की संख्या की तुलना अन्य जीवों के साथ नहीं की जा सकती और नैतिक विकास के बिना वे दुख भी उठाते हैं। मुझे लगता है कि बुद्धिमत्तापूर्ण प्रथम कारण की मौजूदगी की तुलना में दुखों की मौजूदगी का यह प्राचीन तर्क बहुत ही मजबूत है, जबकि जैसा कि अभी बताया गया है, बहुत ज्यादा दुखों की मौजूदगी का साम्य इस दृष्टिकोण से अधिक है कि सभी जीवों का विकास विभंजन और प्राकृतिक चयन के माध्यम से हुआ है।
``आज के युग में बुद्धिमान ईश्वर की मौजूदगी के सबसे सरल तर्क का जन्म ज्यादातर लोगों के भीतरी अनुभवों और संकल्पनाओं के आधार पर हुआ है।
``इससे पहले मैं इसी अनुभव से प्रेरित था (हालांकि मैं नहीं समझता कि मुझमें कभी भी धार्मिक भावनाओं का प्रबल विकास हुआ), और मैं भी ईश्वर की मौजूदगी तथा आत्मा की अनश्वरता की ओर बढ़ा। अपने जर्नल में मैंने लिखा था कि ब्राजील के घने वनों की विशालता और विराटता के बीच खड़े होकर मैं यही विचार कर रहा था,`अचरज, श्रद्धा और समर्पण की ऊँची भावना को पर्याप्त विचार दे पाना संभव नहीं है, जो कि इस समय मेरे मन को आन्दोलित कर रही हैं, मैं अपनी इस संकल्पना को याद रखूँगा कि मानव में इस श्वास-प्रश्वास के अतिरिक्त भी बहुत कुछ है; लेकिन अब महानतम दृश्य भी मेरे मन में इस प्रकार की संकल्पनाओं को लेशमात्र भी अवकाश नहीं देगा। यह सत्य ही है कि मैं एक वर्णान्ध मनुष्य की तरह हूँ और लाली की मौजूदगी के बारे में मानव का विश्वास मेरी वर्तमान हानि को दुरुस्त करने के लिए कुछ भी सुबूत जुटा नहीं पाती है। यह तर्क तो एक मान्य तर्क तभी बन सकेगा जब सभी प्रजातियों के सभी लोग ईश्वर की मौजूदगी के बारे में एक जैसी संकल्पना रखते हों; लेकिन हम जानते हैं कि यह असलियत से बहुत दूर है। इसलिए मैं यह नहीं देख पा रहा हूँ कि इस तरह की अन्दरूनी संकल्पनाओं और भावनाओं के बलबूते पर यह प्रमाण नहीं दिया जा सकता है कि वास्तव में क्या प्राप्त है। इन विराट दृश्यों को देखने के बाद शुरू में मेरे दिलो-दिमाग में जो कुछ जागा, और जो कि ईश्वर के लिए गहरे विश्वास से जुड़ा हुआ है, यही नहीं बल्कि यह सब कुछ अलौकिकता की भावना से अलग नहीं था, और इस सबके बाद इस भावना के पैदा होने और बढ़ते रहने को समझाना कठिन है। ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए इस तर्क को ज्यादा आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है। यह तो संगीत सुनने के बाद पैदा हुई ताकतवर लेकिन डांवाडोल सोच से ज्यादा बड़ी बात नहीं है।