सुलझे...अनसुलझे
परेशानी का सबब
-----------------------
पहनावे से मां और बेटा सम्भ्रांत परिवार के लगते थे। बच्चे की उम्र यही कोई सात-आठ वर्ष की रही होगी। सेंटर की सीढ़ियां चढ़ते समय मां के मोबाइल पर किसी फ़ोन आ जाने से वह फ़ोन में व्यस्त हो गई| माँ के व्यस्त होते ही मानो बच्चे को स्वतंत्रता हासिल हो गई हो।
पहले तो उस बच्चे ने सेंटर की सीढ़ियों पर बार-बार चढ़ने फिर उतरने का खेल जारी रखा| जिसकी वज़ह से आने वाले मरीज़ों को असुविधा भी हुई| बच्चा जानकर कोई भी उससे तो कुछ नही बोला। पर फोन पर बात करती हुई माँ पर जरूर नज़र डाली| मानो सभी की नज़रें उल्हाना दे रही हो कि अपने बच्चे को संभालिए ताकि आने-जाने वाले मरीज़ों को असुविधा न हो|
फिर उस बच्चे ने रिसेप्शन के आस-पास पहुँच कर अपने हाथों से बनाई हुई कृत्रिम कार को दौड़ाना शुरू किया। उसकी यह कार बेंच और कुर्सी से होती हुई दूसरे मरीज़ों के आस-पास दौड़ना शुरू हो गई। स्टाफ ने उस बच्चे को दो-तीन बार टोका और उसको समझाने की कोशिश की| पर सारी बातें बच्चे के सिर के ऊपर से गुज़र रही थीं। जब भी उसकी माँ की नज़र कुछ देर फ़ोन से हटकर उस पर पड़ती तो वह अनायास ही बोलती –
“रौनक! शैतानी मत करो,कम्पाउण्डर अंकल सुई लगा देंगे।”.. अपनी बात बोलकर वह अपने फ़ोन में मगन हो जाती।
इन दोनों की बातों से मुझे अंदाज़ा हो चुका था कि बेटे का नाम रौनक है।
दूसरी ओर एक और बच्चा रौनक का लगभग हमउम्र ही होगा, चुपचाप आते-जाते मरीज़ों का अवलोकन करने में जुटा था। बीच-बीच में कुछ गाने गुनगुनाता तो कभी कुछ अपने स्कूल की बातें मां को सुनाता हुआ प्रतीत हो रहा था। ये दोनों माँ-बेटे पहनावे से साधारण परिवार से ही लगते थे। इस बच्चे की मां अपनी कुछ जांचों के लिए खून का सैंपल देने आईं थी। जब मां अपना ब्लड-सैम्पल दे रही थी तब बच्चे की आँखों में तैरती नमी को मैं बहुत अच्छे से देख पाई। सैंपल देने के बाद दोनों ही रिपोर्ट के लिए शाम को आने का बोलकर निकल गए।
अब तक रौनक की माँ का फ़ोन डिसकनेक्ट हो चुका था| सो उसने अब स्टाफ को अपना पर्चा देकर अपनी जांचों के लिए सैम्पल देने का आग्रह किया। इस मरीज़ा का नाम रीटा था....यह मुझे सुनाई पड़ गया था। जब तक मां अपना खून का सैंपल देती,रौनक अपनी कृत्रिम कार चलाता हुआ मेरे चेम्बर में आ गया। मेरे पास कोई मरीज़ न होने से मैंने उस बच्चे को गौर से देखना शुरू किया।
“आप कौन है? रौनक ने मुझे पूछा ..आप यहां क्यों बैठी है?” मेरे से प्रश्न पूछते-पूछते रौनक ने मेरी टेबल पर पड़े पेन-पेंसिल को छेड़ना शुरू कर दिया। उसकी लगातार चलती हुई शैतानियां अब स्टाफ के लिए भी परेशानी का सबब बनती जा रही थी। स्टाफ के बराबर रोकने और डांटने के बाबजूद भी वह अपनी ही धुन में मगन था। तभी रौनक की माँ ने मेरे चेम्बर में प्रवेश किया और हँसते हुए अपने बेटे से बोली -
“रौनक! आज तो तुमने बहुत शैतानियां की बेटा| तुम बहुत शैतान हो गए हो, पापा को बताऊँगी।”
फिर अचानक मेरी तरफ घूम कर बोली –
“मैम! आपको तंग तो नही किया मेरे बेटे ने ..बहुत एक्टिव है यह| कही टिक कर बैठ ही नही सकता है और इतना होशियार है मैम कि घर के सभी लोगों का मन लगा कर रखता है|... इसकी बातें आप भी सुनेगी तो आपको भी पता ही नही चलेगा कब दिन खत्म हो गया। बहुत लाड़ला बच्चा है हमारे घर का यह।”
अब रीटा की लगातार बातें सुनते-सुनते मुझे भी उसको बीच में ही टोकने के लिए मज़बूर होना पड़ा।
“रीटा जी किसी दिन थोड़ा समय लेकर आइये….हम रौनक के लिए जरूर से बातें करेंगे।अभी मुझे निकलना है।”
अगले ही दिन रीटा जब अपनी रिपोर्ट्स लेने आई तो मुझे सामने खाली देख पूछने आ गईं-
“मैम, अगर आप खाली हों तो कुछ देर आपसे से बातें करूँ?” रीटा ने पूछा।
“हाँ.. हाँ.. आइये बैठिए।” मेरे उत्तर देते ही रीटा मेरे पास आकर कुर्सी पर बैठ गई।
“कल आप रौनक के लिए कुछ कहना चाहती थी, अभी आपको खाली देखा तो सोचा थोड़ी देर आपके पास मिलती चलूँ।”
“रीटा जी! कितने बच्चे है आपके?” मैंने पूछा।
“रौनक हमारी एकलौती संतान है मैम| हम एक ही बच्चा चाहते थे ताकि बच्चे को बहुत अच्छे से पढ़ा-लिखा कर बड़ा आदमी बना सके। इसकी हर ख़्वाहिश पूरी करना चाहते है| ताकि जो कमियां हमारे बचपन में रहीं...वो इसको न रहे।
अब रीटा मेरे चेहरे की तरफ देखकर मेरी बात सुनने के लिए देखने लगी।
“रीटा जी! पहली बात तो यह कहना चाहूंगी कि आज आपने बहुत अच्छा किया कि रौनक को साथ नही लायीं क्योंकि मैं आपसे अकेले में ही बात करना चाहती थी। आज हमारे बीच जो भी बातचीत होगी उसको अगर आप समझ पायीं तो एक सकारात्मक परिवर्तन होगा और अगर आप समझने में असमर्थ रहीं तो हो सकता है कि हमारा एक मरीज़ आगे के लिए कम हो जाये।”...
मानी....रीटा ने पूछा|
“मानी यही कि हो सकता है आपको मेरी बातें पसंद न आए और आप यहाँ कभी न आने का फैसला ले लें| रीटा जी, रौनक उम्र के जिस दौर से गुज़र रहा है उसमें बच्चों का शारिरिक विकास तो खान-पान से स्वतः ही होता है मगर मानसिक विकास के लिए मूल्यों व संस्कारों की बुआई इसी समय सबसे ज्यादा होती है| वैसे तो यह सब सीखना सारी उम्र ही होता है पर बच्चों को किस जगह पर किस तरह का व्यवहार करना है….यह सीखना बहुत जरूरी है।....
बड़ा आदमी बनने की सबसे बड़ी शर्त यही है। उच्च पढ़ाई-लिखाई तब ही सार्थक सिद्ध होती है जब मूल्यों और संस्कारों की नींव बहुत मजबूत हो। कल आपने शायद गौर से रौनक के उस हमउम्र बच्चे को नहीं देखा, जो अपनी माँ के लिए चिंतित था। मानवीय संवेदनाएं जाग्रत तब होंगी जब ठहराव होगा।...
चंचलता बहुत अच्छी लगती है बच्चों में। इस एक गुण की वजह से ही तो बच्चे सबका मन मोहते हैं| पर हर स्थिति और परिस्थिति के लिए समझदारी विकसित करने की ज़िम्मेवारी आपकी है क्योंकि इसमें आपके परिवार का भविष्य सुरक्षित है। आप बहुत अच्छे परिवार से हैं। आप एक या दो बच्चों का भरण-पोषण बहुत अच्छे से कर सकती हैं। दूसरे बच्चे का सानिध्य बच्चे में न जाने कितने मानवीय गुणों को जन्म देता है| इस पर भी सोचकर देखिये।....
बच्चों को बहुत प्यार करिये क्योंकि वे होते ही प्यार करने के लिए हैं| प्रेम की भाषा ही इन नवांकुरों को सुदृढ़ वृक्ष बनाती है। अगर मेरी किसी बात ने आपको पीड़ित किया हो तो माफ करिएगा। सच यह है कि मैं जिस क्षेत्र में कार्यरत हूँ वहां इस नन्ही पौध के लिए इतनी चिंतित हो जाती हूँ कि खुद को टोकने से रोक नही पाती।.....
आपका और आपसे पहले मेरा समय इतना जटिल नही था| जितना कि आज की पीढ़ी के लिए है। यहां पर वही अच्छे से पनपेगा...जिसको रोपने से लेकर पनपने में खाद का विशेष घ्यान रखा गया हो। आप समझ रही हैं न जो मैं कहना चाहती हूं?”
इतना सब कुछ बोल मैं रीटा की ओर देखने लगी, शायद मेरी बातें सुनते-सुनते रीटा भी सोचने पर मजबूर हो गई थी।तभी वह बोली....
“शायद ठीक कहा आपने मैम! कभी इस तरह सोचा ही नही मैंने। बस बच्चे को पाकर इतना ख़ुश थे हम कि लाड़-प्यार से ऊपर सोच ही नही पाए। इसी वजह से बहुत सतही बातों पर हमारा घ्यान गया। अच्छे व्यक्त्वि के लिए मानवीय संवेदनाएं बहुत जरूरी हैं। उनको हमें ही महसूस करवाना सिखाना है और इसके लिए हमारा गुणात्मक समय बच्चे को देना शायद बहुत जरूरी है।....
“आपने ठीक ही कहा- संस्कारों को बोना भी एक कला है और यही बड़ा आदमी बनने के लिए जरूरी भी|”
“आपने ठीक कहा मैम...बहुत आभार आपका| अक्सर ही मां-बाप अपने बच्चे के लाड़ में इतने लिप्त होते है कि उनको उनमें विकसित होती कमियां नज़र नही आतीं और अगर आ भी जाती हैं तो उनको ढकने की कोशिशें करते है। आज आपकी वज़ह से मैं भी सोचने पर मजबूर हुई। शुक्रिया आपका पर मुझे समय-समय पर आपकी जरूरत पड़ेगी। क्या आप मुझे मदद करेगी?"
मेरे सर हिला कर उसको आश्वस्त करने से वह निश्चिंत हो गई।
“अब मैं चलती हूँ, फिर मिलूँगी आपसे।” कहकर रीटा चेम्बर से निकल गई।
रीटा के निकलते ही मैं सोचने पर मज़बूर हो गई कि अक़्सर ही मां-बाप अपने लाड़-प्यार में बच्चों को जो सच में देना चाहिए, उसको भूल जाते है। बचपन में बच्चों की उद्दण्डता के लिए माँ-बाप भी दोषी हैं क्योंकि छोटी उम्र में बच्चों का दायरा घर तक ही सीमित होता है। इसको सोचना न सिर्फ परिवार के लिए बल्कि समाज के लिए भी बहुत जरूरी है। यही उद्दंडता भविष्य में किस रूप में समाज में आएगी हम सोच भी नहीं सकते| इस बात को सोच कर देखिये जरूर।
प्रगति गुप्ता