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ख़ामोशी बोलती है

'रमेश..आगे एक मोड़ आएगा वहाँ एक चाय की गुमटी होगी, थोड़ी देर के लिए कार रोक लेना'.

'मैडम..आप की चाय की थर्मस ले कर आया हूं' रमेश थोड़ा चौंकते हुए बोला.

इस का चौंकना सही है मुझे कभी यूँ सड़क किनारे चाय या कुछ खाते पीते कभी देखा नही है..

'उसे रखें रहो, बाद में पी लूंगी..आज बाहर की चाय पी लेती हूं'

मैं ईशा राय आज लगभग 8 सालों के बाद अपनी जन्मस्थली जा रही हूं, दूरी बहुत है..रास्ता लंबा पर दिल पुरसुकून है, सोई हुई ख्वाहिशों की चादर हटा कर आसमान में अनगिनत तारे देखने की इच्छा जाग्रत हुई तो फिर चल पड़ी अपनो से मिलने उनकी सुनने.

' मैडम..आप के गांव जाने की बात सुन कर मैं यक़ीन नही कर पा रहा था..मैडम जी आप का भी गांव है?' रमेश ने कहा.

'कही ना कही जड़े तो सबकी होती है जहाँ उसके पूर्वजों ने ज़ीवन व्यतीत किया हो,

रमेश...जड़ो से दूर होना आसान है भूलना नही' मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा.

मैंने बहुत कोशिश की थी अपने जड़ो से दूर रहने की, उन्हें भूलने की..इतने साल कामयाब भी रही, लेक़िन जड़ो की टीस ने आख़िरकार मन को बेचैन कर ही दिया.

कुल्हड़ की चाय और साथ में गर्मा गर्म नानखटाई का स्वाद मेरी बरसों की अतृप्ता को तृप्ति दे रहे थे.

दिखावें की दुनिया से निकल कर मैं आठ साल पहले वाली ईशु हो गई थी..जिसकी जान नानखटाई, समोसे, खट्टी मीठी इमली, काली चूर्ण में बसती थी, घर में सबकी डाँट खाती लेकिन छुप कर खा ही लेती थी, जिस दिन ग़लती से भैया के हाथ में मेरा बैग आ जाएं तो घर में हंगामा निश्चित था.

कार ने अपनी गति पकड़ ली थी, हाईवे की शांत चौड़ी सड़क पर अन्य गाड़ियां निर्वाद्ध निर्विघ्न चली जा रही थी, सड़क अपनी मज़बूत बाहों के घेरे में यात्रियों को सुरक्षित उनके गंतव्य तक पहुंचाने की बड़ी जिम्मेदारी का निर्वहन बख़ूबी कर रहें थे..काश..मुझे मेरी भी मंजिल का पता होता,तो मैं भी इतने साल अपने गंतव्य की तलाश में भटकती ना रहती, मेरा ठिकाना था पर मंज़िल नही..तलाश करती थी अपना वजूद..हर रोज़, हर पल.

अतीत और उससे जुड़ी यादें यही ज़ीने का सहारा बन गया था.

रास्तें के किनारें लगे पेड़ तेज़ गति से पीछे छूट रहे थे उनके साथ मेरी स्मृतियां भी अतीत के गलियों में घूमने निकल पड़ी.

आठ साल पहले मेरी जतिन से शादी हुई, एक अमीर घराने के बेटे को मेरी जैसी मध्यमवर्गीय शिक्षक की बेटी से शादी करना लोगो की नज़र में मेरी लॉटरी लगने जैसा था, जितनी मुँह उतनी बातें..कोई क़िस्मत को सराहता तो कोई लड़का फंसाने की बात करता, सच तो ये था मेरी एक सहेली की शादी में जतिन ने मुझे देखा और मेरे रूप सौंदर्य रीझ कर अपने घर में बग़ावत कर दी, एकलौते बेटे की ज़िद मान कर घरवालों ने बेमन से रिश्ता भिजवाया, माँ पापा के लिए विश्वास करना कठिन था लेकिन दिल के किसी कोने में उन्हें भी मेरे रूप गुण पर भरोसा था.

बड़े ही धूमधाम से शादी हुई, सारे ख़र्चे जतिन के घरवालों ने किया, उन्हें अपनी प्रतिष्ठा पर सवाल मंजूर नही था और मेरे पिता पर भरोसा नही था..

महलनुमा हवेली की बहू बनकर जब मैं उनके चौखट पर पहुंची उनकी शानोशौकत देख कर मेरी आंखे फटी की फटी रह गई और उनकी मुझे देख कर.

मुझे देखते ही सासु माँ ने गर्व से कहा ' पिछले सात पुश्तों और आने वाली कितनी पीढ़ियों तक इतनी खूबसूरत बहु किसी की ना आई होगी और ना आएंगी'

उस दिन पहली बार मैं अपनी क़िस्मत पर रश्क़ कर रही थी, ख़ुश थी...इतनी ख़ुश की अपने माता पिता के आंखों के आंसू, दिल का दर्द मुझे नही दिखा ना मैंने जानने की कोशिश की..हा..अब मुझे अपने माता पिता के घर को हमेशा के लिए भूल जाना था.. विवाह की यही शर्त थी, जिसे मेरे घरवालों ने मेरी ख़ुशी, मेरे उज़्ज़वल भविष्य के लिए मान लिया था, दिल के किसी कोने में मां को आस थी, उनकी ज़िद्दी बेटी को कौन रोक सकता है वो तो मिलने आएगी ही..लेकिन अफ़सोस मेरी आंखों पर धन दौलत की चमक धमक, माँ के प्रेम पर भारी पड़ गया था.

ना प्रतिकार ना उदासी...बस ख़ुश थी अपने महल में, नौकरों की फ़ौज के बीच रानियों जैसे ठाठ थे, कुछ समय बाद अमीरों के चोंचले भी सीख ली..ब्रांडेड कपड़े, हीरे मोती के गहनों से अलमारी भरे हुए थे, बनावटी दुनिया की सजी धज़ी गुड़िया बन गई थी मैं.

इन अमीरों के नियम भी बड़े सख़्त होते है, शरीर का नाप ना बिगड़े इसके लिए आधा पेट ही खाना है, दुनिया इधर की उधर हो जाएं जिम तो जाना ही है, धीमी आवाज़, नज़ाकत भरी मध्यम चाल, अदायगी से उठना, बैठना, बोलना..ये गुण खून में डालना था, मैंने भी किया, कई बार लड़खड़ाई, गिरी, पर हाथ दे कर उठाने वाला कोई नही था, साथ चलेंगे लेकिन साथ देंगे नही..ऐसे रिश्तों के बीच मैं खुशियां ढूंढने चली थी.

बरस बीतते गए, धन दौलत की चमक कम होने लगी, माँ बाप की निःस्वार्थ प्रेम पाने के लिए तड़प बढ़ती जा रही थी..बीते इन सालों में मैं कृति और कार्तिक की माँ बन गयी, जतिन प्रेम तो बहुत करते थे लेकिन कभी मेरी आवाज़ नही बन पाएं, मुझे मेरे मायके से दूर करने की शर्त सहर्ष मान लिए कभी अपने पिता से इसके बावत सवाल पूछने की हिम्मत नही हुई, ऐसा नही था की जतिन अपने पिता से डरते थे..अगर ऐसा होता तो जतिन पिता का करोड़ो का बिज़नेस छोड़ प्राइवेट नौकरी ना कर रहे होते..ख़ुद के लिए कितनी बार पिता से सवाल जवाब करते मैंने ख़ुद देखा है फ़िर मेरे लिए क्यों कुछ नही बोले?.

लेकिन क्या मैं उनसे सवाल पूछने की हकदार थी ?

बंधन तो मुझ पर लगा था बेड़िया मेरे पैरों में बांधी गयी थी..और मैंने बिना प्रतिकार किये बंधने दिए फ़िर किस मुँह से जतिन से पूछती..धीरे धीरे मौन पसरने लगा था हमारे रिश्ते में, मेरा प्रेम औपचारिकता में बदलने लगा.

मुझे तेज़ बरसात में बेफिक्री से नाचने का मन करता, बेतरतीबी से धम्म से कूद कर बैठने का मन करता, रसोई के चूल्हें पर चढ़ी कड़ाही से निकाल कर कुछ अधपका खाने का मन था..मेरा मन इन शोशेबाजी से बेमन हो चला था.

माँ, भैया और पापा को चोरी छुपे चिट्ठियां भेजना शुरू किया इसमें सुलभा ने बड़ी मदद की, सुलभा घर में साफ़ सफ़ाई के लिए आती और चुपके से मेरी दी हुई चिट्ठियों को ले जाती, माँ की चिट्ठी सुलभा के पते पर आती..ये क़िस्सा भी कुछ एक साल चला..एक दिन सुलभा के आँचल की बंधी छोर पर जतिन की माँ की नज़र पड़ गयी और फ़िर सुलभा के साथ चिट्ठियों का किस्सा भी चला गया..

रोती रही पर किसी का दिल नही पसीजा..सिर्फ़ एक ही सवाल..तब नही तो अब क्यों?

जतिन के माता पिता के लिए सम्बोधन शब्द उसी वक़्त ख़त्म कर दिया था मैंने, जब मैं अपने माता पिता से रिश्ता नही रख सकती तो किसी और को उस जगह कैसे बिठाती..मेरे अंदर की नारी विद्रोह के लिए आकुल थी, जतिन के घर आते ही उनके पिता ने फ़ैसला सुनाया ' ईशा को या तो देश के बाहर ले जाओ या कंट्रोल में रखो'

लेकिन अच्छा हुआ जतिन ने मुझसे सवाल नही किया अगर करतें तो वो दिन इस रिश्ते का आख़िरी दिन होता.

प्रेम उनके तरफ़ से तो था, शायद इसलिए जतिन ने हवेली छोड़ने का प्रस्ताव रखा, जतिन का ये प्रस्ताव मेरे साथ उनके अपनों के लिए आश्चर्य करने वाला था, मान मनौव्वल का खेल चला लेकिन जतिन अपने फ़ैसले पर तठस्थ थे, बच्चों के साथ मेरा हाथ थामा और करोड़ो की दौलत छोड़ कर 2 रूम के एक छोटे फ़्लैट में आ गए, मेरे पूछने पर जतिन का जवाब था.

'ईशु..मैं आज के दिन का इंतज़ार कर रहा था, मैं इतने साल अगर तुम्हारे साथ हुए अन्याय के लिए चुप था उसकी वज़ह तुम थी, क्योकीं तुम चुप थी' मेरे सारे सवालों के जवाब मुझे मिल चुके थे.

कुछ दिन लोगो की ज़ुबान पर मेरे और जतिन के क़िस्से थे, हाई सोसायटी के निरर्थक लोगो के लिए ये मुद्दा कुछ दिन ब्रेकिंग न्यूज़ की तरह चला फ़िर धीरे धीरे शांत हो गए और मैं अपने परिवार के साथ अहम और विलासिता से दूर एक छोटे से फ़्लैट में बेहद ख़ुश थी..जतिन के लिए मेरा नज़रिया बदलने लगा, प्रेम पुनर्जीवित होने लगा था.

आज सुबह जतिन ने मुझसे कहा 'कब जा रही हो लखनऊ, मन तो मेरा भी है साथ चलने और माफ़ी मांगने का लेक़िन हिम्मत नही हो रही है, बच्चों को लेकर कल मैं आऊंगा आज तुम गाड़ी से रमेश के साथ चली जाओ..बहुत सी बातें होंगी जो सालों से तुम्हारें और उनके दिल में है, उनके सवालों का जवाब तुम्हें देना है,..जाओ ईशु..अब आरंभ करो अपनी ज़िन्दगी अपने तरीक़े से, मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं'

'मैडम..शायद यही घर है' रमेश ने कहा

'क्या पहुंच गए हम' ? मैं लपक कर कार बाहर निकली..

स्कूल जाती छोटी ईशु, कॉलेज जाती बड़ी ईशु, दुल्हन बनी ईशु मुस्कराते हुए मेरे स्वागत में खड़ी थी, आंखों में आंसू थे पर दिल उल्लास से भरा था..

'मैडम..आप ठीक है??'

' रमेश..आज मैं बहुत ख़ुश हूं, देखो..आज मैं ख़ुद से मिल रही हूं'

'ईशु..मेरी ईशु, तू आ गयी मेरी बच्ची' माँ, पापा, भैया आंसू भरे आंखों के साथ आरती की थाल लिए गेट पर खड़े थे..उनकी बेटी पहली बार मायके जो आयी है.


लेखिका

अनामिका अनूप तिवारी

नोएडा













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