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अर्थ पथ - 13 - प्रतिस्पर्धा: प्रगति का प्रतीक

प्रतिस्पर्धा: प्रगति का प्रतीक

मेरे एक उद्योगपति मित्र हैं। वे दो भाई हैं। उनमें से एक भाई के अनेक उद्योग होने के कारण उसके पास धन की प्रचुरता थी। उसने अपने दूसरे भाई के कारखाने को बर्बाद करने के लिये अपनी उत्पादन लागत से भी कम दामों में माल बेचना प्रारम्भ कर दिया। इससे उसके भाई के कारखाने का माल बिकना बन्द हो गया। दो तीन साल में ही उसका भाई कारखाने की हानि को बर्दास्त नहीं कर पाया और उसे परेशान होकर अपना उद्योग बन्द कर देना पड़ा। इससे दूसरे भाई का उस क्षेत्र पर एकाधिकार हो गया। फिर वह मनमाने दामों पर अपना माल बेचकर और अधिक धन कमाने लगा। व्यापारिक दृष्टि से इसमें कोई बुराई नजर न आती हो पर नैतिक दृष्टि से यह उचित नहीं कहा जा सकता।

हमारा दृष्टिकोण जियो और जीने दो का होना चाहिए अर्थात हम भी समृद्ध हों और दूसरे को भी समृद्ध होने दें। जीवन में बहुत सतर्क रहने की आवश्यकता है। जब किसी भी क्षेत्र में तरक्की करके ऊंचाई पर पहुँचने लगता है तो उसके निकट संबंधी ही उससे मन ही मन द्वेष रखने लगते हैं। एक उद्योगपति के बेटे को जिसकी बहुत अच्छी आमदनी थी उसके अपनों ने ही धीरे-धीरे जुआ, सट्टा, शराब और व्यभिचार की दिशा में मोड़ दिया। इससे उसका धन तो बर्बाद हुआ ही उसके परिवार में भी विवाद की स्थिति बन गई और उसकी प्रगति रूक गई। इसलिये उद्योग में प्रगति के साथ-साथ इस दिशा में भी सतर्क रहना चाहिए।

उद्योग एवं व्यापार में आपसी प्रतिद्वंदिता विकट रूप लेकर एक दूसरे का दुश्मन बना देती है और नैतिकता से अलग करके पतन की राह पर ले जाती है। मेरे एक मित्र और उसके निकट संबंधी दोनो के कारखाने में एक ही प्रकार का उत्पादन होता था उन दोनो के संबंध मित्रता से बदलकर प्रतिद्वंदिता की ओर बढ गए। उसमें एक कारखाने ऐेसे स्थान पर स्थित था जिसे कच्चे माल की उपलब्धि एवं उत्पादित माल की बिक्री सुलभ थी। उसे दूसरे कारखाने से कही अधिक लाभ प्राप्त होता था।

एक दिन उसके मालिक के मन में आया कि वह अपने मित्र के कारखाने को बर्बाद कर देगा और उसने अपने यहाँ उत्पादित माल को बिना किसी लाभ के कीमत कम करके बेचना प्रारंभ कर दिया। इसका दूरगामी परिणाम यह हुआ कि उसके मित्र का कारखाना घाटे में आने लगा वह मित्र बहुत चतुर एवं दूरदर्शी था इसके पहले कि उसका कारखाना घाटे के कारण बंद हो जाए उसने बिना प्रतिरोध के समर्पण कर दिया और सही समय पर यह कहकर कि उसे दूसरे उद्योग में धन की आवश्यकता है इसलिये वह इसे बेचना चाहता है और उसके प्रतिस्पर्धी के साथ मोलभाव करके उसे ही बेचकर दूसरे उद्योग में स्थापित हो गया। अब पहले व्यक्ति ने उस कारखाने को आधे दाम में खरीद लिया और उसका मुनाफा बहुत बढ गया क्योंकि प्रतिस्पर्धा समाप्त होने से उसने अपने उत्पादित माल का दाम बढा दिया। यह एक सकारात्मक उदाहरण नही है परंतु औद्योगिक जगत में यह एक सामान्य बात है और इसके लिए हमें सदैव सर्तक रहना चाहिए।

हमें देश के मूलभूत कानूनों का भी ज्ञान होना चाहिए और अपने कार्यों का निष्पादन कानून की सीमा में रहकर करना चाहिए। उदाहरण के लिये भविष्य निधि, ई एस आई, आयकर, संपत्तिकर, एक्साइज, सर्विस टैक्स आदि का भुगतान नियत समय पर करना चाहिए। इससे हम निश्चिन्तता के साथ अपना कार्य कर पाएंगे। इनके समय पर भुगतान न होने पर हम व्यर्थ ही कानूनी मामलों में उलझते हैं, जिससे आर्थिक हानि, श्रम व समय की बर्बादी, प्रतिष्ठा पर आघात और तनाव के कारण हमारा दैनिक कामकाज भी प्रभावित होता है।

हम कभी भी कोई भी शपथ-पत्र दे तो उसमें यह नहीं लिखना चाहिए कि मेरी जानकारी के अनुसार यह सत्य है वरन् लिखना चाहिए कि मुझे जो जानकारी प्राप्त हुई है उसके अनुसार यह सत्य है। इसी प्रकार किसी भी प्रकार की शंका होने पर गवाही देते समय न्यायालय से और अधिक समय की मांग कर लेना चाहिए। अनुमान से कोई भी गवाही नहीं देना चाहिए। समय मांगकर अच्छी तरह याद कर लेने के बाद ही गवाही देना चाहिए।

जब आप किसी उद्योग का स्थापित करते है तो समाज में सम्मान की दृष्टि से उद्योगपति के रूप में जाने जाते है और लोग आपसे धनवान होने के कारण कर्ज के रूप में धन की अपेक्षा करने लगते है। आज सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों की परिभाषा बदल गई है। आज कर्जदार वह नहीं है जो धन का कर्ज लेता है। आज गुनहगार वह है जो कर्ज देता है। वह घनचक्कर के समान कर्ज लेने वाले के पीछे चक्कर लगाता रहता है कि किसी प्रकार उसका धन वापिस मिल जाए।

एक समय था कि कर्ज लेना प्रतिष्ठा के विपरीत माना जाता था। समय पर कर्ज न चुकाना हमारी संस्कृति के विरूद्ध माना जाता था। समाज में ऐसे व्यक्ति को तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता था। अब चिन्तन में परिवर्तन हुआ है। धन की महिमा अपरम्पार हो गई है। वह कैसे किस तरह सही या गलत ढंग से कमाया गया है इसकी सोच अब समाप्त हो गई है। अब तो उल्टी गंगा बह रही है। कर्ज देने वाले को ही मदद क्यों की इसकी उलाहना मिल रही है। कर्जदार तो बेखौफ घूम रहा है और कर्जदाता रो रहा है। आज ऐसा ही हो रहा है। किसी को भी कर्ज देने के पहले इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए। मेरे कहने का अर्थ यह नहीं है कि दुनियां में सभी बेइमान होते हैं, कई अच्छे लोग भी होते हैं जो कर्ज को समय पर चुकाते हैं। ऐसे व्यक्तियो की समाज में मान-सम्मान व प्रतिष्ठा बनती है।

जबलपुर के पास एक स्थान है स्लीमनाबाद। वहां राममनोहर नाम के एक सम्पन्न किसान रहते थे। उनके पास खेती की काफी जमीन थी लेकिन पारिवारिक विवादों एवं पुत्रों की नासमझी के कारण धीरे-धीरे उनकी जमीनें बिकती चली गईं और एक दिन ऐसा भी समय आ गया कि घर की गुजर-बसर के लिये उन्हें निकट के गांव के मालगुजार मोहन सिंह से कर्ज लेना पड़ गया। वे जब भी कर्ज लेते उसे सदैव समय पर चुका दिया करते थे। एक बार उन्हें उनसे एक लाख रूपये कर्ज लेना पड़ गया।

कर्ज चुकाने की समय सीमा समाप्त हो चुकी थी। कुछ दिन रूक कर एक दिन मोहन सिंह राममनोहर के घर उनका हाल जानने के लिये पहुँच गये। वहाँ पहुँचकर वे स्तब्ध रह गये। बीती रात को ही राममनोहर का स्वर्गवास हो गया था। उन्होंने बिना लिखा-पढ़ी के रूपया दिया था क्योंकि उन्हें राममनोहर पर पूरा विष्वास था। उसकी अचानक मृत्यु हो जाने से यह सोचकर कि उनका रूपया डूब चुका है उनका दिल बैठा जा रहा था। लेकिन अब कुछ किया भी नहीं जा सकता था। उनके लड़कों से कुछ अपेक्षा रखना ही व्यर्थ था। वे भारी मन से अंतिम संस्कार में शामिल हुए।

शाम का समय था। मोहनसिंह अपने घर पर उदास बैठे थे। एक तो उनका सच्चा मित्र आज चला गया था। जिसे उन्होंने अपनी आंखों के सामन पंचतत्वों में विलीन होते देखा था और दूसरी ओर उनकी एक लाख की पूंजी भी डूब गई थी। राममनोहर का सबसे छोटा लड़का तभी उनके यहां आया और बोला कि माँ ने आपको याद किया है। मोहनसिंह यह सोचकर कि क्या पता भौजी को ऐसी कौन सी आवश्यकता आ पड़ी जो आज के दिन उन्होंने बुलाया है। वे छोटे लड़के के साथ ही उनके घर की ओर चल दिये।

जब वे उनके घर पहुँचे तो राममनोहर की पत्नी ने उन्हें एक पैकेट दिया और बतलाया कि राममनोहर वह पैकेट अपने सिरहाने रखे थे। उनकी बीमारी के कारण उनका आना-जाना बन्द हो चुका था। उन्होंने अपनी पत्नी को जता रखा था कि यदि किसी कारण से कोई अनहोनी हो जाए तो यह पैकेट मोहन सिंह तक पहुँचा देना है। यह कहकर उसने बतलाया कि मुझे नहीं पता कि इसमें क्या है।

जब मोहनसिंह ने वह लिफाफा खोला तो उसमें एक लाख रूपये रखे थे। यह देखकर उनकी आंखों के आगे राममनोहर का चेहरा झूल गया और उनकी आंखे छलक उठीं। उन्होंने उस रकम से राममनोहर के स्मृति में एक स्मारक के रुप में एक चबूतरा बनवा दिया जो आज भी ईमानदारी के स्मारक के रुप में प्रसिद्ध है।

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