स्वांग
मुंशी प्रेमचंद
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जन्म
प्रेमचन्द का जन्म ३१ जुलाई सन् १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे।
जीवन
धनपतराय की उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अपने जीवन के अन्त तक लगातार विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय को करना पड़ा। पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।
शादी
आपके पिता ने केवल १५ साल की आयू में आपका विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में आपसे बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने आपके जले पर नमक का काम किया। आप स्वयं लिखते हैं, ष्उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।.......ष् उसके साथ — साथ जबान की भी मीठी न थी। आपने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है ष्पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दियारू मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।ष् हालांकि आपके पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।
विवाह के एक साल बाद ही पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक आपके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो बच्चे पत्नी और स्वयं। प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने आपको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।
शिक्षा
अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में आप अपने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने — जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।
साहित्यिक रुचि
गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचन्द के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर नॉवल और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही सब नॉवल पढ़ गए। आपने दो — तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों नॉवेलों को पढ़ डाला।
आपने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए आपने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद ष्तिलस्मे — होशरुबाष् पढ़ डाली।
अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी — बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को पढ़ने के बावजूद प्रेमचन्द ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही महदूद रखा।
तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ — साथ रहा।
प्रेमचन्द की दूसरी शादी
सन् १९०५ में आपकी पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई फिर वह कभी नहीं आई। विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। सन् १९०५ के अन्तिम दिनों में आपने शीवरानी देवी से शादी कर ली। शीवरानी देवी एक विधवा थी और विधवा के प्रति आप सदा स्नेह के पात्र रहे थे।
यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात् आपके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। आपके लेखन में अधिक सजगता आई। आपकी पदोन्नति हुई तथा आप स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में आपकी पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।
व्यक्तित्व
सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा ष्हमारा काम तो केवल खेलना है— खूब दिल लगाकर खेलना— खूब जी— तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात् — पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, ष्तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।ष् कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी—शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।
जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं ष्कि जाड़े के दिनों में चालीस — चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।ष्
प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी—शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।
ईश्वर के प्रति आस्था
जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे — धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा ष्तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो — जा रहीं रहे पक्के भग्त बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।ष्
मृत्यू के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था — ष्जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।ष्
प्रेमचन्द की कृतियाँ
प्रेमचन्द ने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। १३ साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साकहत्यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन् १८९४ ई० में ष्होनहार बिरवार के चिकने—चिकने पातष् नामक नाटक की रचना की। सन् १८९८ में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय ष्रुठी रानीष् नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन १९०२ में प्रेमा और सन् १९०४—०५ में ष्हम खुर्मा व हम सवाबष् नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा—जीवन और विधवा—समस्या का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढंग से किया।
जब कुछ आर्थिक निजिर्ंश्चतता आई तो १९०७ में पाँच कहानियों का संग्रह सोड़ो वतन (वतन का दुख दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द नायाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय की खोज शुरु हुई। नायाबराय पकड़ लिये गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन आपके सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का बंधन लगा दिया गया।
इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये।
ष्सेवा सदनष्, ष्मिल मजदूरष् तथा १९३५ में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए ष्महाजनी सभ्यताष् नाम से एक लेख भी लिखा था।
मृत्यु
सन् १९३६ ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल में ही आपने ष्प्रगतिशील लेखक संघष् की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण ८ अक्टूबर १९३६ में आपका देहान्त हो गया। और इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण—कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।
स्वांग
राजपूत खानदान में पैदा हो जाने ही से कोई सूरमा नहीं हो जाता और न नाम के पीछे ‘सिंह' की दुम लगा देने ही से बहादुरी आती है। गजेन्द्र सिंह के पुरखे किस जमाने में राजपूत थे इसमें सन्देह की गुंजाइश नहीं। लेकिन इधर तीन पुश्तों से तो नाम के सिवा उनमें राजपूतो के कोई लक्षण न थे। गजेन्द्र सिंह के दादा वकील थे और जिरह या बहस में कभी—कभी राजपूती का प्रदर्शन कर जाते थे। बाप ने कपड़े की दुकान खालकर इस प्रदर्शन की भी गुंजाइश न रखी। और गजेन्द्र सिंह ने तो लूटीया ही डूबो दी। डील—डौल में भी फर्क आता गया। भूपेन्द्र सिंह का सीना लम्बा—चौड़ा था नरेन्द्र सिंह का पेट लम्बा—चौड़ा था, लेकिन गजेन्द्र सिंह का कुछ भी लम्बा—चौड़ा न था। वह हलके—फुल्के, गोरे—चिट्टे, ऐनाकबजा, नाजुक बदन, फैशनेबुल बाबू थे। उन्हें पढ़ने—लिखने से दिलचस्पी थी।
मगर राजपूत कैसा ही हो उसकी शादी तो राजपूत खानदान ही में होगी। गजेन्द्र सिंह की शादी जिस खानदान में हुई थी, उस खानदान में राजपूती जौहर बिलकुल फना न हुआ था। उनके ससुर पेंशन सूबेदार थे। साले शिकारी और कुश्तीबाज। शादी हुए दो साल हो गए थे, लेकिन अभी तक एक बार भी ससुराल न आ सका। इम्ताहानों से फुरसत ही न मिलती थी। लेकिन अब पढ़ाई खतम हो चुकी थी, नौकरी की तलाश थी। इसलिये अबकी होली के मौके पर ससुराल से बुलावा आया तो उसने कोई हील—हुज्जत न की। सूबेदार की बड़े—बड़े अफसरों से जान—पहचान थी, फौजी अफसरों की हुक्कम कितनी कद्र और कितनी इज्जत करते हैं, यह उसे खूब मालूम था। समझा मुमकिन है, सूबेदार साहब की सिफारिश से नायब तहसीलदारी में नामजद हो जाय। इधर श्यामदुलारी से भी साल—भर से मुलाकात नहीं हुई थी। एक निशाने से दो शिकार हो रहे थे। नया रेशमी कोट बनवाया और होली के एक दिन पहले ससुराल जा पहुंचा। अपने गराण्डील सालों के सामने बच्चा—सा मालूम होता था।
तीसरे पहर का वक्त था, गजेन्द्र सिंह अपने सालों से विद्यार्थी काल के कारनामें बयान कर रहा था। फूटबाल में किस तरह एक देव जैसे लम्बे—तड़ंगे गोरे को पटखनी दी, हाकी मैच मे किस तरह अकेले गोल कर लिया, कि इतने में सूबेदार साहब देव की तरह आकर खड़े हो गए और बड़े लड़के से बोलेकृअरे सुनों, तुम यहां बैठे क्या कर रहे हो। बाबू जी शहर से आये है, इन्हें लजे जाकर जरा जंगल की सैर करा लाओ। कुछ शिकार—विकार खिलाओ। यहा ठंठर—वेठर तो है नहीं, इनका जी घबराता होगा। वक्त भी अच्छा है, शाम तक लौट आओगे।
शिकार का नाम सुनते ही गजेन्द्र सिंह की नानी मर गई। बेचारे ने उम्र—भर कभी शिकार न खेला था। यह देहाती उजड़ लौंडे उसे न जाने कहां—कहां दौड़ाएंगे, कहीं किसी जानवर का सामन हा गया तो कहीं के न रहे। कौन जाने हिरन ही चोट कर बैठे। हिरन भी तो भागने की राह न पाकर कभी—कभी पलट पड़ता है। कहीं भेडि़या निकल आये तो काम ही तमाम कर दे। बोलेकृमेरा तो इस वक्त शिकार खेलने को जी नहीं चाहता, बहुत थक गया हूं।
सूबेदार साहब ने फरमायाकृतुम घोड़े पर सवार हो लेना। यही तो देहात की बहार है। चुन्नू, जाकर बन्दूक ला, मैं भी चलूंग। कई दिन से बाहर नहीं निकला। मेरा राइफल भी लेते आना।
चुन्नू और मुन्नू खूश—खूश बन्दूक लेने दौड़े, इधर गजेन्द्र की जान सूखने लगी। पछता रहा था कि नाहक इन लौडों के साथ गप—शप करने लगा। जानता कि यह बला सिर पर आने वाली है, तो आते ही फौरन बीमार बानकर चारपाई पर पड़ रहाता। अब तो कोई हीला भी नहीं कर सकता। सबसे बड़ी मुसीबत घोड़े की सवारी। देहाती घोड़े यो ही थान पर बंधे—बंधे टर्रे हो जाते हैं और आसन का कच्चा सवार देखकर तो वह और भी शेखियां करने लगते हैं। कहीं अलफ हो गया मुझे लेकर किसी नाले की तरफ बेतहाशा भागा तो खैरियत नहीं।
दोनों सालों बन्दूके लेकर आ पहुंचे। घोड़ा भ खिंचकर आ गया। सूबेदार साहब शिकुरी कपड़े पहन कर तैयार हो गए। अब गजेन्द्र के लिए कोई हीला न रहा। उसने घोड़े की तरफ कनाखियों से देखाकृबार—बार जमीन पर पैर पटकता था,हिनहिनाता था, उठी हुई गर्दन, लाला आंखें, कनौतियां खड़ी, बोटी—बोटी फड़क रही थी। उसकी तरफ देखते हुए डर लगता था। गजेन्द्र दिल में सहम उठा मगर बहादूरी दिखाने के लिए घोड़े के पास जाकर उसके गर्दन पर इस तरह थपकियां दीं कि जैसे पक्का शहसवार हैं, और बोलाकृजानवर तो जानदार है मगर मुनासिब नहीं मालूम होता कि आप लोगो तो पैदल चले और मैं घोड़े पर बैठूं। ऐसा कुछ थका नहीं। मैं भी पैदल ही चलूगां, इसका मुझे अभ्यास है।
सूबेदार ने कहा—बेटा, जंगल दूर है, थक जाओगे। बड़ा सीधा जानवर हैं, बच्चा भी सवार हो सकता है।
गजेन्द्र ने कहा—जी नहीं, मुझे भी यो ही चलने दीजिए। गप—शप करते हुए चलेंगे। सवारी में वह लुफ्त कहां आप बुजर्ग हैं, सवार हो जायं।
चारों आदमी पैदल चले। लोगों पर गजेन्द्र की इस नम्रता का बहुत अच्छा असर हुआ। सम्यता और सदाचार तो शहरवाले ही जानते हैं। तिस पर इल्म की बरक।
थोड़ी दूर के बाद पथरीला रास्ता मिला। एक तरफ हरा—भरा मैदान दूसरी तरफ पहाड़ का सिलसिला। दोनों ही तरफ बबूल, करील, करौंद और ढाक के जंगल थे। सूबेदार साहब अपनी—फौजी जिन्दगी के पिटे हुए किस्से कहतेग चले आते थे। गजेन्द्र तेज चलने की कोशिश कर रहा था। लेकिन बार—बार पिछड़ जाता था। और उसे दो—चार कदम दौड़कर उनके बराबर होना पड़ता था। पसीने से तर हांफता हुआ, अपनी बेवकूफ पर पछताता चला जाता था। यहां आने की जरुरत ही क्या थी, श्यामदुलारी महीने—दो—महीने में जाती ही। मुझे इस वक्त कुत्तें की तरह दौड़ते आने की क्या जरुरत थी। अभी से यह हाल है। शिकार नजर आ गया तो मालूम नहीं क्या आफत आएगी। मील—दो—मील की दौड़ तो उनपके लिए मामूली बात है मगर यहां तो कचूमर ही निकल जायगा। शायद बेहोश होकर गिर पडूं। पैर अभी से मन—मन—भर के हो रहे थे।
यकायक रास्ते में सेमल का एक पेड़ नजर आया। नीचे—लाल—लांल फूल बिछे हुए थे, ऊपर सारा पेड़ गुलनार हो राह था। गजेन्द्र वहीं खड़ा हो गया और उस पेड़ को मस्ताना निगाहों से देखने लगा।
चुन्नू ने पूछा—क्या है जीजा जी, रुक कैसे गये?
गजेन्द्र सिंह ने मुग्ध भाव से कहाकृकुछ नहीं, इस पेड़ का आर्कषक सौन्दर्य देखकर दिल बाग—बाग हुआ जा रहा है। अहा, क्या बहार है, क्या रौनक है, क्या शान है कि जैसे जंगल की देवी ने गोधीलि के आकाश को लज्जित करने के लिए केसरिया जोड़ा पहन लिया हो या ऋषियों की पवित्र आत्माएं अपनी शाश्वत यात्रा में यहा आराम कर रही हों, या प्रकृति का मधुर संगीत मूर्तिमान होकर दुनिया पर मोहिन मन्त्र डाल रहा हो आप लोग शिकार खेलने जाइए, मुझे इस अमृत से तृप्त होने दीजिए।
दोनों नौजवान आश्चर्य से गजेन्द्र का मुंह ताकने लगे। उनकी समझ ही में न आया कि यह महाश्य कह क्या रहे हैं। देहात के रहनेवाले जंगलों में घूमनेवाले, सेमल उनके लिए कोई अनोखी चीज न थी। उसे रोज देखते थे, कितनी ही बार उस पर चढ़े, थे उसके नीचे दौड़े थे, उसके फूलों की गेंद बनाकर खेले थे, उन पर यह मस्ती कभी न छाई थी, सौंदर्य का उपभोग करना बेचारे क्या जाने।
सूबेदार साहब आगे बढ़ गये थे। इन लोगों को ठहरा हुआ देखकर लौट ओये और बोलेकृक्यों बेटा ठहर क्यों गये?
गजेन्द्र ने हाथ जोड़कर कहा—आप लोग मुझे माफ कीजिए, मैं शिकार खेलने न जा सकूंगा। फूलों की यह बहार देखकर मुझ पर मस्ती—सी छा गई हैं, मेरी आत्मा स्वर्ग के संगीत का मजा ले रही है। अहा, यह मेरा ही दिल जो फूल बनकर चमक रहा है। मुझ में भी वही लाली है, वहीं सौंदर्य है, वही रस है। मेरे ह्दय पर केवल अज्ञानता का पर्दा पड़ा हुआ है। किसका शिकार करें? जंगल के मासूम जानवारों का? हमीं तो जानवर हैं, हमीं तो चिडि़यां हैं, यह हमारी ही कल्पनाओं का दर्पण है जिसमें भौतिक संसार की झलक दिखाई पड़ रही है। क्या अपना ही खून करें? नहीं, आप लोग शिकार करन जांय, मुझे इस मस्ती और बहार में डूबकर इसका आन्नद उठाने दें। बल्कि मैं तो प्रार्थना करुगां कि आप भी शिकार से दूर रहें। जिन्दगी खुशियों का खजाना हैं उसका खून न कीजिए। प्रकृति के दृश्यों से अपने मानस—चक्षुओं को तृप्त कीजिए। प्रकृति के एक—एक कण में, एक—एक फूल में, एक—एक पत्ती में इसी आन्नद की किरणों चकम रही हैं। खून करके आन्नद के इस अक्षय स्रोत को अपवित्र न कीजिए।
इस दर्शनिक भाषण ने सभी को प्रभावित कर दिया। सूबेदार ने चुन्नू से धीमे से कहाकृउम्र तो कुछ नहीं है लेकिन कितना ज्ञान भरा हुआ है। चुन्नू ने भी अपनी श्रृद्धा को व्यक्त कियाकृविद्या से ही आत्मा जाग जाती है, शिकार खेलना है बुरा।
सूबेदार साहब ने ज्ञानियों की तरह कहाकृहां, बुरा तो है, चलो लौट चलें। जब हरेक चीज में उसी का प्रकाश है, तो शिकार कौन और शिकार कौन अब कभी शिकार न खेलूंगा।
फिर वह गजेन्द्र से बोले—भइया, तुम्हारे उपदेश ने हमारी आंखें खोल दीं। कसम खाते हैं, अब कभी शिकार न खेलेगे।
गजेन्द्र पर मस्ती छाई हुई थी, उसी नशे की हालत में बोला—ईश्वर को लाख—लाख धन्यवाद है कि उसने आप लोगों को यह सदबुद्धि दी। मुझे खुद शिकार का कितना शौक था, बतला नहीं सकता। अनगिनत जंगली सूअर, हिरन, तुंदुए, नीलगायें, मगर मारे होंगे, एक बार चीते को मार डाला। मगर आज ज्ञान की मदिरा का वह नश हुआ कि दुनिया का कहीं अस्तित्त्व ही नहीं रहा।
होली जलाने का मुर्हूत नौ बजे रात को था। आठ ही बजे से गांव के औरत—मर्द, बूढ़े—बच्चे गाते—बजाते कबींरे उड़ाते होली की तरफ चले। सूबेदार साहब भी बाल—बच्चों को लिए मेहमान के साथ होली जलाने चले।
गजेन्द्र ने अभी तक किसी बड़े गांव की होली न देखी थी। उसके शहर में तो हर मुहल्ले में लकड़ी के मोटे—मोटे दो चार कुन्दे जला दिये जाते थे, जो कई—कई दिन तक जलते रहते थे। यहां की होली एक लम्बे—चौड़े मैदान में किसी पहाड़ की ऊंची चोटी की तरह आसमान से बातें कर रही थी। ज्यों ही पंडित जी ने मंत्र पढ़कर नये साल का स्वागत किया, आतिशबाजी छूटने लगी। छोटे—बड़े सभी पटाखे, छछूंदरे, हवाइयां छोड़ने लगे। गजेन्द्र के सिर पर से कई छछूंदर सनसनाती हुई निकल गईं। हरेक पटाखे पर बेचार दो—दो चार—चार कदम पीछे हट जाता था और दिल में इस उजड़ देहातियां को कोसता था। यह क्या बेहूदगी है, बारुद कहीं कपड़े में लग जाय, कोई और दुर्घटना हो जाय तो सारी शरारत निकल जाए। रोज ही तो ऐसी वारदातों होती रहती है, मगर इन गंवारों क्या खबर। यहां दादा न जो कुछ किया वही करेंगे। चाहे उसमें कुछ तुक हो या न हो
अचानक नजदीक से एक बमगोल के छूटने की गगनभेदी आवज हुई कि जैसे बिजली कड़की हो। गजेन्द्र सिंह चौंककर कोई दो फीट ऊंचे उछल गए। अपनी जिन्दगी में वह शायद कभी इतना न कूदे थे। दिल धक—धक करने लगा, गोया तोप के निशाने के सामने खड़े हों। फौरन दोनों कान उंगलियों से बन्द कर लिए और दस कदम और पीछे हट गए।
चुन्नू ने कहाकृजीजाजी, आप क्या छोड़ेंगे, क्या लाऊं?
मुन्नू बाला—हवाइयां छोडि़ए जीजाजी, बहुत अच्छी है। आसमान में निकल जाती हैं।
चुन्नू—हवाइयां बच्चे छोड़ते हैं कि यह छोड़ेगे? आप बमगोला छोडि़ए भाई साहब।
गजेन्द्रकृभाई, मुझे इन चीजों का शौक नहीं। मुझे तो ताज्जुब हो रहा है बूढ़े भी कितनी दिलचस्पी से आतिशबाजी छुड़ा रहे हैं।
मुन्नू—दो—चार महाताबियां तो जरुर छोडि़ए।
गजेन्द्र को महताबियां निरापद जान पड़ी। उनकी लाल, हरी सुनहरी चमक के साचमने उनके गोरे चेहरे और खूबसूरत बालों और रेशमी कुतेर्ं की मोहकता कितनी बढ़ जायगी। कोई खतरे की बात भी नहीं। मजे से हाथ में लिए खड़े हैं, गुल टप—टप नीचे गिर रहा है ओर सबकी निगाहें उनकी तरफ लगी हुई हैं उनकी दर्शनिक बुद्धि भी आत्मप्रदर्शन की लालसासे मुक्त न थी। फौरन महताबी ले ली, उदासीनता की एक अजब शान के साथ। मगर पहली ही महताबी छोड़ना शुरु की थी कि दुसरा बमगोला छूटा। आसमान कांप उठा। गजेन्द्र को ऐसा मालूम हुआ कि जैसे कान के पर्दे फट गये या सिर पर कोई हथौड़ा—गिर पड़ा। महताबी हाथ से छूटकर गिर पड़ी और छाती धड़कने लगी। अभी इस धामके से सम्हलने ने पाये थे कि दूसरा धामाक हुआ। जैसे आसमान फट पड़ा। सारे वायुमण्डल में कम्पन—सा आ गया, चिडि़या घोंसलों से निकल निकल शोर मचाती हुई भागी, जानवर रस्सियां तुड़ा—तुड़ाकर भागे और गजेन्द्र भी सिर पर पांव रखकर भागे, सरपट, और सीधे घर पर आकर दम लिया। चुन्नू और मुन्नू दोनों घबड़ा गए। सूबेदार साहब के होश उड़ गए। तीनों आदमी बगटुट दौड़े हुए गजेन्द्र के पीछे चले। दूसरों ने जो उन्हें भागते देखा तो समझे शायद कोई वारदात हो गई। सबके सब उनके पीछे हो लिए। गांव में एक प्रतिष्ठित अतिथि का आना मामूली बात न थी। सब एक—दूसरे से पूछ रहे थेकृमेहमान को हो क्या गया? माजरा क्या हैं? क्यों यह लोग दौड़े जा रहे हैं।
एक पल में सैकड़ों आदमी सूबेदार साहब के दरवाजे पर हाल—चाल पूछने लिए जमा हो गए। गांव का दामाद कुरुप होने पर भी दर्शनीय और बदहाल होते हुए भी सबका प्रिय होता है।
सूबेदार ने सहमी हुई आवाज में पूछा—तुम वहां से क्यों भाग आए, भइया।
गजेन्द्र को क्या मालूम था कि उसके चले आने से यह तहलका मच जाएगा। मगर उसके हाजिर दिमाग ने जवाब सोच लिया था और जवाब भी ऐसा कि गांव वालों पर उसकी अलौकिक दृष्टि की धाक जमा दे।
बोलाकृकोई खास बात न थी, दिल में कुछ ऐसा ही आया कि यहां से भाग जाना चाहिए।
‘नहीं, कोई बाता जरुर थी।'
‘आप पूछकर क्या करेंगे? मैं उसे जाहिर करके आपके आन्नद में विध्न 'नहीं डालना चाहता।'
‘जब तक बतला न दोगे बेटा, हमें तसल्ली नहीं होगी। सारा गांव घबराया हुआ है।'
गजेन्द्र ने फिर सूफियों का—सा चेहरा बनाया, आंखें बन्द कर लीं, जम्हाइयां लीं और आसमान की तरफ देखकर— बोले दृबात यह है कि ज्यों ही मैंने महताबी हाथ में ली, मुझे मालूम हुआ जैसे किसी ने उसे मेरे हाथ से छीनकर फेंक दिया। मैंने कभी आतिशबाजियां नहीं छोड़ी, हमेशा उनको बुराकृभला कहता रहा हूं। आज मैंने वह काम किया जो मेरी अन्तरात्मा के खिलाफ था। बस गजब ही तो हो गया। मुझे ऐसा मालूम हुआ जैसे मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही है। शर्म से मेरी गर्दन झुक गई और मैं इसी हालत में वहां से भागा। अब आप लोग मुझे माफ करें मैं आपको जशन में शरीक न हो सकूंगा।
सूबेदारा साहब ने इस तरह गर्दन हिलाई कि जैसे उनके सिवा वहां कोई इस अध्यात्मा का रहस्य नहीं समझ सकता। उनकी आंखें कह रही थींकृआती हैं तुम लोगों की समझ में यह बातें? तुम भला क्या समझोगे, हम भी कुछ—कुछ ही समझते हैं।
होली तो नियत समय जलाई गई थी मगर आतिशबाजीयां नदी में डाल दी गईं। शरीर लड़को ने कुछ इसलिए छिपाकर रख लीं कि गजेन्द्र चले जाएंगे तो मजे से छुड़ाएंगे।
श्यामदुलारी ने एकान्त में कहाकृतुम तो वहां से खूब भागो
गजेन्द्र अकड़ कर बोले—भागता क्यों, भागने की तो कोई बात न थी।
‘मेरी तो जान निकल गई कि न मालूम क्या हो गया। तुम्हारे ही साथ मैं भी दौड़ी आई। टोकीर—भर आतिशबाजी पानी में फेंक दी गई।'
‘यह तो रुपये को आग में फूकना है।'
‘यह तो रुपये को आग में फूंकना हैं।'
‘होली में भी न छोड़े तो कब छोड़े। त्यौहार इसीलिए तो आते हैं।'
‘त्यौहार में गाओ—बजाओ, अच्छी—अच्छी चीजें पकाओ—खाओ, खैरात करो, या—दोस्तों से मिलों, सबसे मुहब्बत से पेश आओ, बारुद उड़ने का नाम त्यौहार नहीं है।'
रात को बारह बज गये थे। किसी ने दरवाजे पर धक्का मारा, गजेन्द्र ने चौंककर पूछाकृयह धक्का किसने मारा?
श्यामा ने लापरवाही से कहा—बिल्ली—बिल्ली होगी।
कई आदमियों के फट—फट करने की आवाजें आईं, फिर किवाड़ पर धक्का पड़ा। गजेन्द्र को कंपकंपी छूट गई, लालटेन लेकर दराज से झांक तो चेहरे का रंग उड़ गयाकृचार—पांच आदमी कुर्ते पहने, पगडि़यां बाधे, दाढि़यां लगाये, कंधे पर बन्दूकें रखे, किवाड़ को तोड़ डालने की जबर्दस्त कोशिश में लगे हुए थे। गजेन्द्र कान लगाकर बातें सुनने लगाकृ
‘दोनों सो गये हैं, किवाड़ तोड़ डालो, माल अलमारी में है।'
‘और अगर दोनों जाग गए?'
‘औरत क्या कर सकती हैं, मर्द का चारपाई से बांध देंगे।'
‘सुनते है गजेन्द्र सिंह कोई बड़ा पहलवान हैं।'
‘कैसा ही पहलवान हो, चार हथियारबन्द आदमियों के सामने क्या कर सकता है।'
गजेन्द्र के कोटो तो बदन में खून नहीं शयामदुलारी से बोले—यह डाकू मालूम होते हैं। अब क्या होगा, मेरे तो हाथ—पांव कांप रहे है
चोर—चोर पुकारो, जाग हो जाएगी, आप भाग जाएगे। नहीं मैं चिलाती हूं। चोर का दिल आधा।'
‘ना—ना, कहीं ऐसा गजब न करना। इन सबों के पास बन्दूके हैं। गांव में इतना सन्नाटा क्यों हैं? घर के आदमी क्या हुए?'
‘भइया और मुन्नू दादा खलिहान में सोने गए हैं, काक दरवाजें पर पड़े होंगे, उनके कानों पर तोप छूटे तब भी न जागेंगे।'
‘इस कमरे में कोई दूसरी खिड़की भी तो नहीं है कि बाहर आवाज पहुंचे। मकान है या कैदखाने'
‘मै तो चिल्लाती हूं।'
‘अरे नहीं भाई, क्यों जान देने पर तुली हो। मैं तो सोचता हूं, हम दोनों चुपचाप लेट जाएं और आंखें बन्द कर लें। बदमाशों को जो कुछ ले जाना हो ले जांए, जान तो बचे। देखों किवाड़ हिल रहे हैं। कहीं टूट न जाएं। हे ईश्वर, कहां जाएं, इस मुसीबत में तुम्हारा ही भरोससा है। क्या जानता था कि यह आफत आने वाली हैं, नही आता ही क्यों? बसा चुप्पी ही साध लो। अगर हिलाएं—विलाएं तो भी सांस मत लेना।'
‘मुझसे तो चुप्पी साधकर पड़ा न रहा जाएगा।'
‘जेवर उतारकर रख क्यों नहीं देती, शैतान जेवर ही तो लेंगे।'
‘जेवर तो न उतारुंगी चाहे कुछ ही क्यों न हो जाय।'
‘क्यों जान देने पर तुली हुई हो?'
खुशी से तो जेवर न उतारुंगी, जबर्दस्त ओर बात हैं'
खामोशी, सुनो सब क्या बातें कर रहे हैं।'
बाहर से आवाज आईकृकिवाड़ खोल दो नहीं तो हम किवाड़ तोड़ कर अन्दर आ जाएंगे।
गजेन्द्र श्यामदुलीरी की मिन्नत कीकृमेरी मानो श्यामा, जेवर उतारकर रख दो, मैं वादा करता हूं बहूत जल्दी नये जेवर बनवा दूंगा।
बाहर से आवाज आई—क्यों, आई! बस एक मिनट की मुहलत और देते हैं, अगर किवाड़ न खोले तो खैरियत नहीं।
गजेन्द्र ने श्यामदुलारी से पूछाकृखोल दूं?
‘हा, बुला लो तुम्हारे भाई—बन्द हैं? वह दरवाजे को बाहर से ढकेलते हैं, तुम अन्दर से बाहर को ठेली।'
‘और जो दरवाजा मेरे ऊपर गिर पड़े? पांच—पांच जवान हैं!'
‘वह कोने में लाठी रखी है, लेकर खड़े हो जाओ।'
‘तुम पागल हो गई हो।'
‘चुन्नी दादा होते तो पांचों का गिरते।'
‘मैं लट्टाबाज नहीं हूं।'
‘तो आओ मुंह ढांपकर लेट जाओं, मैं उन सबों से समझ लूंगी।'
‘तुम्हें तो और समझकर छोड़ देंगे, माथे मेरे जाएगी।'
‘मैं तो चिल्लाती हूं।'
‘तुम मेरी जान लेकर छोड़ोगी!
‘मुझसे तो अब सब्र नहीं होता, मैं किवाड़ खोल देती हूं।'
उसने दरवाजा खोल दिया। पांचों चोर में भड़भड़कर घुस आए। एक ने अपने साथी से कहाकृमैं इस लौंडे को पकड़े हुए हूं तुम औरत के सारे गहने उतार लो।
दूसरा बोला—इसने तो आंखों बन्द कर लीं। अरे, तुम आंखें क्यों नहीं खोलती जी?
तीसरा—यार, औरत तो हसीन है!
चौथाकृसुनती है ओ मेहरिया, जेवर दे दे नहीं गला घोंट दूंगा।
गजेन्द्र दिल में बिगड़ रहे थे, यह चुड़ैल जेवर क्यों नही उतार देती।
श्यामादुलीरी ने कहाकृगला घोंट दो, चाहे गोली मार दो जेवर न उतारूंगी।
पहलाकृइस उठा ले चलो। यों न मानेगी, मन्दिर खाली है।
दूसराकृबस, यही मुनासिब है, क्यों रे छोकरी, हामारे साथ चलेगी?
श्यामदुलारीकृतुम्हारे मुहं में कालिख लगा दूंगी।
तीसराकृन चलेगी तो इस लौंडे को ले जाकर बेच डालेंगे।
श्यामाकृएक—एक के हथकड़ी लगवा दूंगा।
चौथाकृक्यों इतना बिगड़ती है महारानी, जरा हमारे साथ चली क्यो नहीं चलती। क्या हम इस लौंडें से भी गये—गुजरे है। क्या रा जाएगा, अगर हम तुझे जबर्दस्ती उठा ले जाएंगे। यों सीधी तरह नहीं मानती हो। तुम जैसी हसीन औरत पर जुल्म करने को जी नहीं चाहता।
पांचवांकृया तो सारे जेवर उतारकर दे दो या हमारे साथ चालो।
श्यामदुलारीकृकाका आ आएंगे तो एक—एक की खाल उधेड़ डालेंगे।
पहलाकृयह यों न मानेगी,ख् इस लौंडें को उठा ले चलो। तब आप ही पैरों पड़ेगी।
दो आदमियों ने एक चादर से गजेन्द्र के हाथ—पांव बांधे। गजेन्द्र मुर्दे की तरह पड़े हुए थे, सांस तक न आती थी, दिल में झुंझला रहे थेकृहाय कितनी बेवफा औरत है, जेवर न देगी चाहे यह सब मुझे जान से मार डालें। अच्छा, जिन्दा बचूंगा तो देखूंगा। बात तक तो पूछं नहीं।
डाकूओं ने गजेन्द्र को उठा लिया और लेकर आंगन में जा पहुंचे तो श्यामदुलारी दरवाजे पर खड़ी होकर बोलीकृइन्हें छोड़ दो तो मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूं।
पहलाकृपहले ही क्यों न राजी हो गई थी। चलेगी न?
श्यामदुलारीकृचलूंगी। कहती तो हूं
तीसराकृअच्छा तो चल। हम इसे इसे छोड़ देते है।
दोनों चोरों पे गजेन्द्र को लाकर चारपाई पर लिटा दिया और श्यामदुलारी को लेकर चले दिए। कमरे में सन्नटा छा गया। गजेन्द्र ने डरते—डरते आंखें खोलीं, कोई नजर ल आया। उठकर दरवाजे से झांका। सहन में भी कोई न था। तीर की तरह निकलकर सदर दरवाजे पर आए लेकिन बाहर निकलने का हौसला न हुआ। चाहा कि सूबेदार साहब को जगाएं, मुंह से आवाज न निकली।
उसी वक्त कहकहे की आवाज आई। पांच औरतें चुहल करती हुई श्यामदुलारी के कमरे में आईं। गजेन्द्र का वहां पता न था।
एककृकहां चले गए?
श्यामदुलारीकृबाहर चले गए होगें।
दूसरीकृबहुत शर्मिन्दा होंगे।
तीसरीकृडरके मारे उनकी सांस तक बन्द हो गई थी।
गजेन्द्र ने बोलचाल सुनी तो जान में जान आई। समझे शायद घर में जाग हो गईं। लपककर कमरे के दरवाजें पर आए और बोलेकृजरा देखिए श्यमा कहां हैं, मेरी तो नींद ही न खुली। जल्द किसी को दौड़ाइए।
यकायक उन्हीं औरतों के बीच में श्यामा को खड़क हंसते देखकर हैरत में आ गए।
पांचों सहेलियों ने हंसना और तालियां पीटना शुरु कर दिया।
एक ने कहाकृवाह जीजा जी, देख ली आपकी बहादुरी।
श्यामदुलारीकृतुम सब की सब शैतानी हो।
तीसीरकृबीवी तो चारों के साथ चली गईं और आपने सांस तक न ली!
गजेन्द्र समझ गए, बड़ा धोखा खाया। मगर जबान के शेर फौरन बिगड़ी बात बना ली, बालेकृतो क्या करता, तुम्हारा स्वांग बिगाड़ देता! मैं भी इस तमाशे का मजा ले रहा था। अगर सबों को पकड़कर मूंछे उखाड़ लेता तो तुम कितन शर्मिन्दा होतीं। मैं इतना बेहरहम नहीं हूं।
सब की गजेन्द्र का मुंह देखती रह गईं।