कामनाओं के नशेमन - 15 Husn Tabassum nihan द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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कामनाओं के नशेमन - 15

कामनाओं के नशेमन

हुस्न तबस्सुम निहाँ

15

‘‘फिर क्या होगा इन गहनों का?‘‘ बेला ने बहुत ही आहत भाव से कहा। अमल ने एक सहम के साथ कहा- ‘‘यह सब बाबू जी के पास पड़े रहेंगे।‘‘ इस बात पर केशव नाथ जी अजब ढंग से मुस्कुराए और अमल की ओर देखते हुए बोले- ‘‘..स्त्रियाँ अपनी कीमतीं चीजें यूंही नहीं गुम कर दिया करतीं। वे उन्हें बहुत सहेज कर रखती हैं। लेकिन जब उनके सम्मुख दूसरा कोई बड़ा मूल्य आकर खड़ा हो जाता है तो यह सब चीजें बेमानी हो जाती हैं...‘‘

अमल अभी जिन मूल्यों के गुम हो जाने की बात केशव नाथ जी से कह गए थे, शायद इन्ही मूल्यों की बात पर सोचने लगे थे। बेला भी इसी क्षण बाबू जी के चेहरे पर तैरते एक रहस्यमयता को जैसे टटोलने लगी थी। फिर केशव नाथ जी ने अजब ढंग से हँसते हुए कहा था- ‘‘...वह भूल नहीं गई है। जाते-जाते मुझसे कह गई थीं कि अब मैं इन गहनों का क्या करूंगी। इसे बेला के इलाज में लगा दीजिएगा। यदि सरकार बेला को अमल के साथ अमेरिका भेजने के लिए सहमत नहीं होती है तो इसे बेच कर अमल अपने साथ तुम्हें अमेरिका इलाज के लिए ले जाएं...मैंने उसे बहुत रोकना चाहा कि यह सब तुम्हारे काम आएंगे लेकिन उसका मन इन गहनों के लिए पूरी तरह विरक्त हो चुका था, वह नहीं मानी।‘‘

इतना कह कर केशव नाथ जी अपने कमरे में चले गए सहसा। अमल चुपचाप उनको जाते हुए देखते भर रह गए चुपचाप एक थके और टूटे व्यक्ति की तरह। वह पीछे-पीछे पोटली लेकर उनके कमरे में गये। केशव नाथ जी अपने बेड पर ढल कर लेटे हुए थे। अमल कुछ देर चुपचाप वैसे ही पोटली लिए उनके पास खड़े रहे। केशव नाथ जी ने उसकी ओर देख कर पूछा- ‘‘क्या बात है, इसे संभाल कर रख दो कहीं। जैसा रजिया कह गई है, वैसे ही इस्तेमाल करना...‘‘

अमल ने एक आवेग में आकर केशव नाथ जी के पांव पकड़ लिए और बहुत ही कातर स्वर में बोले- ‘‘मुझे माफ कर दीजिए बाबू जी।...वह मेरी वजह से चली गईं। मैंने आपका टिकने वाला कंधा छीन लिया जहाँ आप थक कर कुछ राहत पाते। मेरा पुरूष उन्हें शायद उन क्षणों में बहुत बच्चा लगा था और वे पुरूष वाले हठ के आगे सब कुछ हारने के लिए तैयार हो गई थीं चुपचाप...अपने सारे मूल्य खोकर।‘‘

केशव नाथ जी ने अमल को उठाते हुए हँस कर कहा- ‘‘...मैं भी तो तुमसे हार गया हूँ न...। मैं तेरे इस उम्र वाले पुरूष को समझता हूँ अच्छी तरह। भूल जा इन सब बातों को। रजिया भी बड़ी अजीब औरत थी उसने अपनी उम्र और खूबसूरती को इसलिए बहुत सहेज कर रखा था कि जब भी वह मुझे मिले, उसी तरह मिले जिस तरह कभी वह मेरे पास एक संगीत की शिष्या की तरह आायी थी, जिसे मैने बहुत चाहा था।...खैर अब इसे सोचने में कुछ नहीं रखा है। मैंने तुझसे एक बाप होकर इतना कह दिया ताकि मेरा मन कुछ हल्का हो जाए।‘‘ अमल इस क्षण पिता का चेहरा तकते भर रह गए हैं। वे इस पल एक पिता से कहीं ज्यादह बड़े एक इंसान लगे थे। बहुत ही खुले हुए इंसान। तभी केशव नाथ जी ने बहुत गहरे भाव से कहा है- ‘‘एक बात सुन...यहाँ तेरे कॉलेज में जल्दी ही एक जगह खाली होने वाली है।‘‘

‘‘तो...‘‘ अमल ने बहुत आश्चर्य से पूछा।

केशव नाथ जी इस क्षण अमल का चेहरा किसी भूखे प्यासे शिशु की तरह निहारते हुए कहा- ‘‘मोहिनी को मेरी ओर से फोन कर दो कि वह इस कॉलेज में आ जाए...यहाँ रह कर घर भी संभाल लेगी। बेला की भी उतनी चिंता नहीं रहेगी। वह देखभाल लेगी।‘‘

अमल बाबू जी का चेहरा तकते भर रह गए। क्षणों तक वह कुछ नहीं बोल पाए। फिर धीरे से कहा- ‘‘मोहिनी का अपना संसार है। उसका अपना संघर्ष है। वह खुद अपनी जिंदगी से जूझ रही है वहाँ...मैं बुला नहीं पाऊँगा।‘‘

केशव नाथ जीने फिर उसे समझाने की कोशिश की- ‘‘देखो अमल..यहाँ उसके रहने से बेला का कुछ छिन नहीं जाएगा। मैं यह समझता हूँ कि तुम बेला के बगैर रह नहीं सकते। तुम उसे बहुत ही चाहते हो। वह तेरी संवेदनाओं से अटूट ढंग से जुड़ी हुई है। लेकिन पुरूष केवल संवेदनाओं और अटूट लगाव से ही नहीं रह सकता।...उसके पुरूष को कुछ और भी चाहिए जीने के लिए।‘‘

अमल कुछ बोल नहीं पाए उस क्षण। केशव नाथ जी ने अभी जिस यथार्थ पर चुपके से उसका पांव रखवा दिया था वह बहुत तपता हुआ सा यथार्थ था।

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शाम को अमल डॉक्टर के पास गए हुए थे। केशव नाथ जी भी पड़ोस के नीरज बाबू के यहाँ यूंही चले गए थे। बेला बेड पर पड़ी दिल्ली से आए उस पत्र को पढ़ रही थी जिसमें अमल को अमेरिका जाने का निमंत्रण था। वह उस पत्र को शायद हमेशा अपने सिरहाने रखती है और जब उसका मन कहीं डूबने लगता है तो उसे पढ़ कर मन को संभालती रहती है। वह पत्र भी इतना तुड़-मुड़ गया था कि जैसे वह किसी सुनहरे भविष्य की कुण्डली हो जिसे बार-बार पढ़े बिना मन नहीं मानता हो।

तभी फाटक पर लूसी के बड़े ही स्नेहिल ढंग से कुकवाने की आवाज आई। बेला को लगा कोई आत्मीय जरूर आन पड़ा है। वह पत्र बंद कर आने वाले का अंदाजा लगाने लगी। कोई नारी स्वर सुनाई पड़ा है- ‘‘अरे लूसी...तूने पहचान लिया मुझे....अभी तक नहीं भूला मुझे?‘‘

कुछ ही देर में बेला ने देखा कि एक हाथ में ट्राली बैग खींचती और दूसरे हाथ से लूसी को उठाए वह कमरे में चली आई। बैग उधर रख कर लूसी को लिए वह बेला के बेड के पास आ गयी। कुछ पलों तक वह बेड पर पड़ी हुई बेला को अपलक चुपचाप निहारती रही और फिर हँस कर लूसी को नीचे उतारती हुई बेला के चेहरे पर झुकती एक उच्छवास के साथ बोली- ‘‘हाय...किस लोक से अमल तुम्हें लेकर आए हैं...? इत्ती सुंदर हो कि पुरूष तुम्हारी झील सी आँखों में डूब कर ही रह जाए।‘‘ बेला आश्चर्य से उसका मुस्काता चेहरा चुपचाप निहारती भर रह गयी। वह बेला की मांग में भरे सिंदूर और मोहक चेहरे को अपलक निहारती भर रह गई। फिर बेला को चुप देख कर एक मोहक अंदाज में बोली- ‘‘मैं कौन हूँ...? बहुत ताज्जुब में पड़ गई होँगी आप।...काश! इस लूसी के पास हमारी तरह बोलने की भाषा भी होती तो जरूर बता देता कि मैं कौन हूँ...‘‘

इस बार बेला ने बहुत गहरे भाव से मुस्कुरा कर कहा- ‘‘लूसी जिस तरह आपको दुलार रहा है इससे लगता है कि आपकी उससे पुरानी पहचान है...और इस घर से भी।‘‘

‘‘हूँ...मोहिनी राजदान नाम है मेरा।‘‘ उसने मुस्कुराते हुए कहा।

बेला कुछ कुतुहल से अभी भी मोहिनी का चेहरा निहारती रही चुपचाप। तब मोहिनी ने कुछ अपनत्व से कहा- ‘‘शायद इस घर की दीवारों ने आपको यह नाम नहीं बताया। सात साल पहले इस घर में यह नाम इको करता था।...लगता है अमल या बाबू जी ने कभी मेरा जिक्र नहीं किया। किसी ने भूले से भी याद नहीं किया मुझे। अमल ने चुपचाप शादी कर ली मुझे पूछा तक नहीं। मैंने भी शादी में यहाँ किसी को नहीं पूछा। जब ये लोग मुझे भूल सकते हैं तो मैं क्यों इन्हें याद करने के लिए मजबूर होऊँ...?‘‘

तभी लोकनाथ जी आ गए और शायद मोहिनी की बातें सुन ली थीं। वे पास आते-आते हँस कर बोले- ‘‘तुझे न बुलाने से तुझे यहाँ की दीवारें भूल गई होंगी यह कहाँ संभव है। चाहे तू याद कर चाहे न याद कर...‘‘

मोहिनी ने बढ़ कर केशव नाथ जी के पांव छुए और फिर हँस कर बोली- ‘‘अमल के लिए बहुत सुंदर बहू ले आए आप...मेरी नजर न लग जाए इसलिए आपने अमल की शादी में मुझे नहीं बुलाया।‘‘ इस बात पर केशव नाथ जी बेला का चेहरा कातर भाव से देखते रह गए। वे अंदर से कहीं सहम से गए जैसे। लगा बेला कहीं कुछ ऐसा न कह पड़े अपने बारे में जो कहीं गहरे जा के मन को लग जाए। तभी इस संदर्भ से कटते हुए केशव नाथ जी ने मुस्कुरा कर कहा- ‘‘तुझे बहुत दिनों बाद देख रहा हूँ। तेरी मांग में सिंदूर बहुत अच्छा लग रहा हैं। मोहिनी हठात् केशव नाथ जी की बात पर चुप सी लगा गयी। पल भर के लिए उसके चेहरे पर एक बुझता सा भाव उभरा है और फिर जैसे वह अंदर से खुद को संभालती हँसती हुई बोली- ‘‘बाबू जी कुछ चीजें दिखने में बहुत सुंदर लगती है। लेकिन वे सिर्फ सुंदर लगती भर हैं‘‘

तभी इस बात पर बेला बोल पड़ी- ‘‘शायद आप सही कह रही हैं।‘‘

तो मोहिनी ने मुड़कर बेला की ओर निहारा- ‘‘यह बात आप अपने लिए मत कहिए। आप वाकई में बहुत सुंदर हैं। अब बाबू जी के सामने क्या कहूँ...जानलेवा सुंदरता है आपकी। अमल कहाँ गए हैं...?‘‘

‘‘आते ही होंगे...डॉक्टर के पास गए हैं।‘‘ बेला ने बताया।

‘‘डॉक्टर के पास...वे बीमार चल रहे हैं क्या..?‘‘

‘‘वे नहीं...मैं बीमार चल रही हूँ।‘‘ बेला ने पीड़ा के स्वर में कहा- ‘‘अगर मैं ठीक होती तो क्या अब तक आपके सामने यूं ही लेटी पड़ी रहती?‘‘

मोहिनी ने बेला के सिर पर हाथ रखते हुए एक गहरी अनुभूति के साथ पूछा- ‘‘बुखार है क्या...? लेकिन गर्म तो नहीं लग रहा। ओह समझ गई...‘‘ फिर उसने बेला का गाल थपथपाते हुए एक मोहक अंदाज में मुस्कुराते हुए कहा-‘‘लगता है बाबू जी दादा बनने वाले हैं।‘‘ बेला ने इस बात पर अपनी आँखों भींच लीं फिर उसे पास खड़े केशव नाथ जी का एहसास हुआ। कुछ कांच की किरचें जैसी उसके अंदर बिखर गईं। लेकिन वह कुछ सोच कर मात्र मुस्कुरा कर रह गयी। केशव नाथ जी बेला का चेहरा तकने लगे थे। बेला कुछ बोले इस सहम से वे तत्काल ही मोहिनी से बोले- ‘‘अमल अभी लौटता होगा।...इधर आ मेरे कमरे में। अपना हालचाल बता। कैसे रही। तुझसे बहुत कुछ सुनना है न।‘‘

मोहिनी ने एक बार बेला के चेहरे की ओर देखा और फिर केशव नाथ जी की ओर। उसे लगा यह क्षण किसी पीड़ाजनक गोपनीयता में अभी व्यतीत हुआ है। वह कुछ बोल नहीं पायी। केवल बेला की ओर विस्फारित नेत्रों से देखती भर रह गई। पीड़ा की एक जो निःस्तब्धता होती है,...इस क्षण पूरी तरह वह छा गई थी। तभी बेला ने केशव नाथ जी को एक गहरे भाव से निहार कर कहा- ‘‘बाबू जी क्यों मुझे कुछ पलों के लिए रहस्य बना रहे हैं। अभी कितनी देर लगेगी इन्हें मेरे बारे में जानने के लिए।‘‘ फिर बेला ने मोहिनी का हाथ पकड़ कर बहुत ही संयत होते हुए कहा- ‘‘किसी भयावह सच को कुछ देर छिपा लेने से उस सच की भयावहता खत्म नहीं हो जाती।....मैं पूरी तरह अपाहिज हूँ। उठ कर मैं आपको गले नहीं लगा सकती। आप आयी हैं मैं आपके लिए चाय नहीं बना सकती। अभी आपने कुछ देर पहले कहा था कि सुंदर दिखने वाली चीजें वास्तव में सुंदर नहीं होतीं...।‘‘

मोहिनी के मुँह से एक आह निकलते-निकलते रह गई। फिर उसने झुक कर बेला का चेहरा हाथों में भर कर गहरी सहानुभूति के साथ कहा- ‘‘जल्दी ही ठीक हो जाओगी। स्त्री का मन अपाहिज नहीं होना चाहिए बस...। अमल अब तुमसे और ज्यादह प्यार करते होंगे। तुम्हारे मन के हाथों ने उन्हें और मजबूती से पकड़ रखा होगा।...है ना...?‘‘

‘‘यह तो अभी उनसे ही पूछिएगा।‘‘ बेला ने मुस्कुरा कर कहा।- ‘‘वैसे उनका बढ़ता हुआ अटूट लगाव ही मुझे और अपाहिज बनाता जा रहा है। मैं और भी क्षीण होती जा रही हूँ उनके इस विवश लगाव से।‘‘

‘‘अरे नहीं अमल को मैं जानती हूँ अच्छी तरह। वह बहुत ही समर्पित स्वाभाव के गंभीर इंसान हैं। बहुत विशाल मन के इंसान।‘‘ मोहिनी ने हँसते हुए कहा।

तभी केशव नाथ जी ने बहुत ही डूबते अंदाज में जैसे इन क्षणों की बोझिलता को कम करने की गरज से मोहिनी से कहा- ‘‘अरे हनी...चाय-वाय बनाएगी। काफी अरसा हुआ तेरे हाथ की चाय पिये। अमल भी लौटता होगा। उसके हिस्से का भी बना लेना...‘‘

मोहिनी केशव नाथ जी की बातों का अर्थ समझती हुई किचेन की तरफ जाते-जाते बोली- ‘‘ठीक है। वैसे भी मैं यहाँ रहते किचेन में किसी और को घुसने नहीं देती। इसी किचेन में मैंने बहुत कुछ बनना सीखा है। जब सब सीख गई तो आप लोगों ने मुझे यहाँ से भगा दिया। अब तो सारे डिसेज बना कर खिलाऊँगी।‘‘

मोहिनी के जाने के बाद बेला ने केशव नाथ जी से कहा- ‘‘यह अच्छा नहीं लगा कि वह सफर करके आयीं हैं और उन्हें किचेन में भेज दिया चाय बनाने।‘‘ केशव नाथ जी ने हँस कर कहा- ‘‘बहुत हिरनी टाईप की लड़की थी यह। थकना तो जानती ही नहीं थी। हर वक्त कुलांचें भरती रहती थी पूरे घर में। अमल ने इसे कभी पसंद नहीं किया। बस, मेरी बड़ी प्रिय शिष्या है। इसके रहते मुझे कभी कोई अभाव नहीं खला। यहीं मेरे घर में रह कर मेरे कॉलेज में पढ़ती थी। बिना माँ बाप की बेसहारा लड़की थी।‘‘

बेला चुप रही। फिर केशव नाथ जी अपने कमरे में चले गए कपड़े बदलने। तभी अमल दवाईयां लेकर आ गए। ट्रालीबैग और हैंड बैग देख के आश्चर्य से बेला के पास बैठते हुए बोले- ‘‘कोई आया है क्या...?‘‘

बेला ने बहुत ही सहज भाव से मुस्कुराते हुए कहा- ‘‘हाँ...इस घर का एक बहुत खूबसूरत सा अतीत।...‘‘

‘‘कौन...कैसा अतीत...?‘‘ अमल ने बेला के चेहरे पे आए उन सहज से भावों को एक कुतुहलता से पढ़ते हुए पूछा।

‘‘जा कर किचेन में देख लो।‘‘ बेला ने मुस्कुरा कर कहा।

बेला ने जिस ढंग से एक कुतुहल पैदा कर दी थी अभी, उससे अमल बच्चों की तरह थोड़ा जिज्ञासु हो उठे थे। वे फिर बिना कुछ और पूछे किचेन की ओर चले गए। देखा, किचेन में मोहिनी चाय की केतली गैस पे रखे उबाल का इंतजार कर रही थी। वे अचम्भित से खड़े उसे चुपचाप देखते खड़े रह गए। उनका मन अजीब सा हो उठा था। कभी-कभी कुछ वर्तमान ऐसे होते हैं कि वे पलों में अतीत बन जाते हैं और फिर पुनः वर्तमान की ओर लौट आते हैं और फिर ऐसे में एक मोहक भविष्य के सिरे भी हाथों में पकड़ा जाते हैं। इस क्षण अमल भी शायद तय नहीं कर पा रहे थे कि मोहिनी कितना वर्तमान है और कितना अतीत या फिर कितना मोहक भविष्य। अमल ने धीरे से पूछा-

‘‘कब आईं...?‘‘

मोहिनी ने पीछे घूम कर देखा। वह तत्काल कुछ बोल नहीं पायी। उसकी आँखों में शायद आंसू थे। उसने आंचल से आँखों को रगड़ते हुए कहा- ‘‘आता वह है जो कहीं जाता हो, मुझे तो लगा ही नहीं कि मैं यहाँ से कभी गई भी थी।‘‘ फिर उसने कुछ ठहर कर पूछा- ‘‘क्यों...मेरा आना अच्छा नहीं लगा क्या?‘‘

‘‘तुम्हें शायद अच्छा नहीं लगा।‘‘ अमल ने उसकी आँखों की तरलता को निहारते हुए कहा- ‘‘यहाँ आते-आते तुम्हारे मन को कौन छू गया...मैं या फिर अपाहिज बेला..?‘‘

मोहिनी ने केतली को गैस से उतारते हुए कहा- ‘‘मेरा मन तो पत्थर हो चुका था। यहाँ आ कर कुछ छू तो गया। क्या यह मेरे मन के लिए बहुत अच्छी बात नहीं है, चलो कमरे में साथ चाय पीते हैं। फिर अब तो मैं यहीं हूँ न...।‘‘

‘‘कैसे अचानक आ गईं?‘‘ अमल से जैसे यह प्रश्न छूट नहीं पाया।

‘‘बाबू जीने बुलाया है।...तुमने नहीं।‘‘ उसने अपने खास अंदाज में मुस्कुरा कर कहा- ‘‘अब तो यहीं रहूंगी, यहीं कॉलेज में नौकरी करूंगी। तुम्हारे भगाने से भी नहीं जाऊँगी। समझे। चलो कमरे में चाय पीने।‘‘

केशव नाथ जी, अमल बेला के कमरे में सब साथ चाय पीने लगे थे। तभ मोहिनी ने अमल से पूछा- ‘‘चाय में चीनी तो ज्यादा नहीं है?‘‘

इस बात पर केशव नाथ जी कुछ याद करके हँस पड़े और बोले- ‘‘बेला, जानती हो...हनी ने यह चीनी वाली बात क्यों पूछी, हनी हमेशा चाय में चीनी ज्यादह कर दिया करती थी और अमल गुस्से में वो चाय फेंक दिया करता था।‘‘ बेला ने फीकी हँसी के साथ कहा-

‘‘पहले की बात और थी, ये स्वाद देखा करते थे। अब तो जो मिल जाता है बेचारे चुपचाप खा पी लिया करते हैं। मेरे बेड पकड़ने के बाद से जैसे इनका सारा स्वाद ही मर गया है।‘‘ बेला की इस बात पर पलों तक एक घनी ख़ामोशी छा गई। कोई कुछ नहीं बोल सका। तभी उन पलों को चीरते हुए जैसे मोहिनी ने कहा- ‘‘अगर मुझे यहाँ रहने दिया अमल बाबू ने तो इनका खोया हुआ सारा स्वाद वापस लौटा लाऊँगी।‘‘

फिर बेला ने मोहिनी की आँखों में एक गहन आत्मीयता को पकड़ते हुए मुस्कुरा कर कह- ‘‘जैसी भी हूँ, मैं हूँ तो इस घर की मालकिन ही। आप रहेंगी या जाएंगी ये सोचना मेरा काम है।...लेकिन आप यहाँ हमारे पास कितने दिनों तक रह सकेंगी। आपका भी तो अपना घर संसार है बच्चे और परिवार है। उन्हें देखेंगी या यहाँ हम सबकी खिदमत के लिए रूकेंगी।‘‘

बेला की इस बात पर मोहिनी चुपचाप अंदर से हिल गई है थी। वह एक कृत्रिम मुस्कुराहट के साथ अमल का चेहरा तकने लगी थी। तभी केशव नाथ जी ने बहुत सहज भाव से कहा- ‘‘बेला सही कह रही है। कितने दिनों तक तू यहाँ रहेगी। अब तो तेरा परिवार भी होगा न। तेरी मांग में भरे सिंदूर को मैं भूल की गया था।‘‘

उत्तर में मोहिनी कुछ भी बोल नहीं पायी थी। वह सिर्फ अमल का चेहरा भर ही एक बुझी निगाह से देखती रह गयी थी। कभी-कभी अपनी दबी-छिपी व्यथा जब सामने वाले के चेहरे पर तैरने लगती है तो ऐसा लगता है जैसे वह व्यथा अब नंगी हुई कि तब नंगी हुई। मन एक अजीब सहम से भर जाता है तब। मोहिनी अपनी चाय की प्याली उठा कर बगल पर टेबल पर रखने के लिए बढ़ गई चुपचाप...शायद अपनी उस अव्यक्त सहम को छिपाने के लिए।

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