सुलझे...अनसुलझे - 6 Pragati Gupta द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सुलझे...अनसुलझे - 6

सुलझे...अनसुलझे

कहीं थी मज़बूरी...तो कहीं

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आज सेंटर की सीढ़ियों को चढ़ते समय अनायास ही मेरी नज़र एक औरत पर गई। जो कुछ ज्यादा ही सिकुड़कर सेंटर की बेंच के एक कोने पर चुपचाप बैठी हुई थी| उसको अपने कुछ ब्लड-टेस्ट करवाने थे| रसीद बनवाकर वह अपने टेस्ट करवाने की बारी आने का इंतज़ार कर रही थी। उसको देख कर न जाने क्यों मेरे मन में उसके बारे में जानने की इच्छा हुई|

अपने चैम्बर में आकर पूजा करके जब मैं अपनी कुर्सी पर बैठी तो फिर से अचानक मेरी नज़र उसी स्त्री पर पड़ी| न जाने क्यों मुझे लगा कि वह स्त्री नहीं चाहती कि कोई उसको स्पर्श भी करे| शायद इसी भाव के साथ उसने स्वयं को बहुत एतिहाद के साथ समेट कर रखा था।

चाहते न चाहते हुए भी मेरी नज़र सेंटर पर आए हुए इतने मरीज़ों के अलावा उसी पर बार-बार पड़ रही थी। उस मरीज़ा के चेहरे पर कुछ मासूम-सा था| जो मुझे बार-बार आकर्षित करके उसकी ओर ले जा रहा था| जिज्ञासावश स्टाफ को मैंने आवाज़ लगा कर अपने पास बुलाया..

“सतीश! आप अंदर आइये प्लीज।”

“क्या हुआ मैडम कुछ पूछना था आपको?” स्टाफ सतीश ने मुझसे पूछा।

“हां सतीश! यह सामने जो मरीज़ा बैठी है…क्या हुआ है इनको? किस जांच हेतु इनका हमारे यहां आना हुआ है?” मैंने पूछा।

“मैम! कुछ ब्लड टेस्ट इन्होंने पहले करवाये थे। जिसमें बोल रही है एड्स का टेस्ट पॉजिटिव आया था। इनको वही टेस्ट पुनः करवा कर कन्फर्म करना है।” सतीश ने जवाब दिया।
“सतीश! ब्लड सैम्पल लेते समय जो एतिहाद मरीज़ के साथ बरतनी चाहिए आपने ली।” मैंने सतीश से पूछा।

“हां मैम! सभी कुछ मेडिकल मानदण्डों को ध्यान में रख कर ही किया गया है ….आप निश्चिंत रहे।”...
“सतीश! मुझे बहुत अच्छा लगता है जब आप सभी स्टाफ़ इन छोटी-छोटी पर मेडिकल के हिसाब से बहुत मायने रखने वाली बातों का ध्यान रखते है। अब आप जाये अपना काम करिये| प्लीज इस मरीज़ा को मेरे पास भेजिएगा। मैंने सतीश को कहा और सतीश ने बाहर निकलकर मरीज़ा को अंदर भेज दिया ।

“क्या नाम है आपका? क्यों इतना दुबकी सिमटी हुई बैठी है आप? कहाँ रहती है? मैंने पूछा।

मेरे इतने प्रश्न पूछते ही न जाने किस बात से वह इतना द्रवित हो उठी कि उसकी आँखों से आसूं अविरल बह चले।

“बोलिये न आप क्यों रोई?” मैंने यह पूछकर उसके कंधे पर हाथ रखा ही था कि उसका सुबकना और बढ़ गया।

“मेरा नाम पारो है मैम। सुनहरी बस्ती कि रहने वाली हूँ। मुझे आज तक किसी ने इतने आदर से आप कहकर नहीं पुकारा| तो रोना आ गया। मैं बहुत परेशान हूँ| जब से पता चला है कि एड्स है मुझे| सारा-सारा दिन अपने अंदर से एक गंद-सी महसूस होती है। बस यही लगता है कि मेरे अंदर की यह गंद किसी और से न चिपक जाए। सारा-सारा दिन खुद को समेटती रहती हूँ।...

मेरी तेरह साल की एक बिटिया भी है। वह जब भी पास आती है उसको अपने पास से छिटक देती हूँ। जानती हूँ मेरा ऐसा करना...उसको बहुत रुलाता है| ऐसा करने के बाद ख़ुद भी बहुत रोती हूँ| बेटी के सिवाय मेरा बहुत अपना कोई भी नहीं है। मैं जिस धंधे से जुड़ी हूँ वह मेरी मजबूरी है| बहुत बेबस थी मैं।....

माँ-बाबा के जाते ही सब बदल गया। मैं बहुत छोटी थी। गरीबी और लाचारी ने मुझे इस धंधे से जोड़ दिया। मैं नहीं चाहती थी मेरे बच्चा पैदा हो| पर मेरी बिटिया को जीवन में आना था तो वह जीवन का हिस्सा बन गई। जबसे वह मेरे जीवन का हिस्सा बनी है मैम...बस तब से ही मुझ हर बात हर चीज़ में गंदगी नज़र आने लगी है। मुझे इस धंधे में भी बहुत गंदगी नज़र आती है| जब तक बातें मुझ तक सीमित थी मुझे इतना तनाव कभी नहीं हुआ क्योंकि मेरी मज़बूरी मुझे विवश करती थी| पर बेटी की बढ़ती हुई उम्र मुझे और चिंतित करती है| रही सही कसर इस बीमारी का पता चलने से पूरी हो गई है।....

यही बीमारी हर समय मुझे आभास कराती है कि मेरे अंदर कहीं गहरे तक गंदगी घुस गई है| और मुझे अंदर ही अंदर खाती जा रही है। कोई भी मेरे पास आकर बैठता है या बात करता है....तो मुझे लगता है वह भी गंदा हो जाएगा। नहीं चाहती मेरी बेटी किसी भी परेशानी से घिरे। उसको भी अपने से दूर कर देती हूँ।”

“कहाँ तक पढ़ी हो पारो? मैंने अनायास ही पूछ लिया...

“मैं कहाँ पढ़ी मैम! अगर पढ़ी-लिखी होती तो यह सब दिक्कत क्यों होती मुझे| पर मेरी बेटी पढ़ रही है।”

“पारो! तुम बहुत समझदार हो शायद किसी पढ़े-लिखे से कहीं अधिक समझदार। क्योंकि तुमने जो किया वह सब परिस्थितिवश था| पर आज के संदर्भ में सोचे तो यह सब काम क्षणिक मज़े के लिए हो रहे है। मुझे जाने क्यों आभास हो रहा है तुमने अपनी बीमारी को अपने ऊपर ओढ़ लिया है| जिसकी वजह से तुम सिर्फ नकारात्मक होती जा रही हो। बात करना चाहोगी मेरे साथ| ख़ुद के बारे में कुछ बताना चाहोगी| अपनी बात करोगी तो तुम्हारा मन शांत होगा|”

अपनी बात बोलकर मैंने पारो की ओर देखा और अपनी बात पूरी की.....

“कुछ दिन तुमको लगातार मेरे पास आना होगा| मैं नहीं चाहती तुम समय से पहले अपनी सोच की वजह से इस संसार से विदा ले लो| जानती हो हमारी सोच बहुधा हमारी बीमारी को और अधिक बिगाड़ देती है और मैं नहीं चाहती तुम समय से पहले चली जाओ। तुम्हारी बेटी को जरूरत है तुम्हारी। जितना अधिक समय उसको दे पाओगी दोनों के लिए अच्छा है।”

मेरी कही बातों को सुनकर,उसकी आँखों से फिर से आंसुओं की धार बह चली और वह सुबकते हुई बोली ....

“कैसे मना करूँ आपको। इतने सम्मान से तो आज तक किसी ने कभी भी मुझसे बात ही नहीं की। यहाँ आपके पास आ कर महसूस हुआ कि मै भी इंसान हूँ। अगर आप मेरे लिए कुछ कर सकती है तो मुझे बचा लीजिये किसी भी तरह| मुझे मरना नहीं है| मेरी बेटी बहुत छोटी है और मै जिस गंदगी से भरती जा रही हूँ उसको मेरे अंदर से हटा दीजिये।” पारो रोते-रोते बोली ...

उसकी बातें सुनते-सुनते अब मुझे आभास हो गया था कि वह कही गहरे अवसाद कि चपेट में आ चुकी है और मुझे उसके लिए और उसकी बेटी के लिए जतन करने ही होंगे।

“मैं तुम्हारी मदद जरूर करूंगी पारो| तुम जीओगी अच्छे से|बस पहले अपने मन को ठीक करने कि कोशिश करो| मैं तुम्हारी इस मानसिक टूटन को ठीक करने में मदद करूंगी.....समझ रही हो न| मन से हार जाओगी तो सब छूट जाएगा पारो। आज तुमसे मिलकर मुझे कितना अच्छा लगा है तुम नहीं जानती| ,पूछोगी नहीं क्यों अच्छा लगा मुझे भी तुमसे मिलकर?”

मैं पारो की हर कीमत पर मदद करना चाहती थी| इसलिए पारो को नि:शब्द देखकर मैंने पुनः बोलना शुरू किया ताकि वह मेरे से बेहिचक अपनी बातों को साझा करे ....

“पता है तुमसे बात करने से पहले तक मेरे मन में एक ही विचार था कि देह व्यापार से जुड़ी स्त्रियों में भावों को के प्रति बहुत बेरुख़ी आ जाती होगी| पर आज तुमसे मिलने के बाद आभास हुआ भाव हर इंसान के व्यक्तित्व का हिस्सा है| वह बात अलग है इंसान उनको महसूस करना छोड़ दे। साथ ही यह भी एहसास हुआ कि जिस संवेदनहीन दुनियाँ में तुम रहती हो वहाँ भी संवेदनाएं साँसे लेती हैं| बहुत-बहुत शुक्रिया तुम्हारा पारो क्योंकि तुमसे भी मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला।”

बोल कर मैंने उसके कंधे पर हाथ रख उसको सांत्वना दी।”

मेरा उसके कंधे पर रखा हुआ हाथ का स्पर्श शायद पारो को बहुत कुछ महसूस करवा गया जो कि उसके सकूँ से जुड़ा था।...फिर पारो से और उसकी बेटी से कई बार मिलना हुआ|

इलाज़ के सिलसिले में जाने कितनी बातें और दर्द पारो ने सांझे किए जोकि उसके साथ-साथ बहुत बार मेरी भी आँखों को नम कर गए। पारो की लाइलाज़ बीमारी का तो मेरे पास कोई समाधान नहीं था| पर स्वयं के अंदर की भरी हुई गंदगी के जिस अवसाद से वह घिरी हुई थी मैं उसको काफी कुछ उससे उबार पाई| यह मेरे लिए भी यह बहुत आसान नहीं था क्यों कि जिस वातावरण वह रहती थी उसी में रहते हुए उसके मन को पूरी तरह ठीक कर पाना कुछ ज्यादा ही परिश्रम मांगता था।

पारो मेरे से लगातार मिलती रही| धीरे-धीरे मानसिक तौर पर ठीक भी हो गई| पर समय ने उसको जीने के लिए पांच-छः वर्ष ही दिए| इस अंतराल में उसकी बेटी इतनी तो समझदार और समर्थ हो गई थी कि स्वयं को संभाल ले|

पर पारो से मिलना उसकी बातों को सुनना मुझे बहुत कुछ महसूस करवा गया| आज की इस नाटकीय और कृत्रिम-सी दुनिया में स्त्री हो या पुरुष जिस गंदगी में अपनी कुंठाओ को पूरा करने के लिए गिरने को हरदम तैयार है बगैर गन्द विचारे बहुत सोचनीय है। जबकि मजबूरियों से जुड़े पारो जैसे इंसान किस अवसाद से गुजर रहे है यह अकल्पनिये है।

कहीं तो मजबूरी है तो कही इंसान सिर्फ स्वयं को गर्त में गिराने के लिए तैयार है।

आज जितना मैं पारो को सोचती जाती हूँ वह कही मेरे दिमाग़ में उच्च स्थान पर स्थापित होती जाती है| और आज की सो कॉल्ड आधुनिक स्त्री बहुत कुछ पाने की होड़ में अपनी देह को कभी भी इस्तेमाल करने से संकोच नहीं करती….वह मेरे विचारों से स्वतः ही उतरती जाती है| इसके कितने घातक परिणाम होगे...सोच कर देखिये तो।।

प्रगति गुप्ता