उलझन - 17 Amita Dubey द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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उलझन - 17

उलझन

डॉ. अमिता दुबे

सत्रह

जज महोदया ने निर्णय अंशिका पर छोड़ा। उन्होंने दोनों के सामने ही उससे पूछा - ‘बेटा ! क्या तुम अपने पापा के साथ एक सप्ताह के लिए जाना चाहती हो।’

‘जी, केवल एक सप्ताह के लिए ही नहीं पूरी जिन्दगी के लिए।’ अंशिका का स्वर स्थिर था।

मम्मी अवाक् रह गयीं। एक क्षण के लिए उनके मुँह से कोई भी शब्द नहीं निकला। उन्हें ऐसा लगा जैसे वे मुकदमा हार गयीं। जज की कुर्सी पर बिना बैठे अंशिका ने ही फैसला सुना दिया। उनकी सारी लड़ाई बेकार हुई। उनका और उनके वकील का विचार था कि अंशिका के बहाने अंशिका के पापा को किसी भी तरह से झुकाया जा सकता है कोई भी समझौता करवाया जा सकता है। लेकिन अंशिका के आज इस एक वाक्य से पूरी बाजी ही पलट गयी।

जज महोदया के पूछने पर कि आपको कुछ कहना है या मैं अंशिका के अपने पापा के साथ जाने की तारीख तय कर दूँ। अंशिका की मम्मी मानो होश में आयीं और बस इतना ही कह सकीं कि महोदया, आप जैसा ठीक समझें।’

तय हुआ कि आखिरी पेपर के दो दिन बाद अंशिका के पापा उसे अपने साथ ले जायेंगे। अंशिका को उसके पापा के पास तक पहुँचाने का काम उसकी मम्मी का है। अगर वे उसे नानी के घर से न ले जाना चाहें तो। पापा ने नानी के घर से ही ले जाने की बात कही। अंशिका खुश तो हुई लेकिन मन ही मन डर भी गयी कि इस बात से मम्मी बहुत नाराज होंगी और नाराज होकर जो कुछ कहेंगी उससे वह चिन्तित नहीं थी उसे चिन्ता तो इस बात से थी कि उसके इस निर्णय से मम्मी को बहुत दुःख होगा। उसने उनका विश्वास तोड़ा है लेकिन वह भी क्या करे ? मम्मी के विश्वास को बनाये रखने के लिए वह पापा को नहीं छोड़ सकती। अपनी खुशियों को ताक पर नहीं रख सकती। जो भी होगा देखा जायेगा। पहले तो परीक्षाओं में अच्छे अंक लाना ही लक्ष्य है।

बादल के मामा की दुकान पर ही कभी-कभी सौमित्र और बादल की मुलाकात हो जाती। बोर्ड परीक्षा के लिए बादल की तैयारी भी ठीक-ठाक चल रही थी। उसे पढ़ाई में जो कुछ कठिनाई होती थी वह अपने अध्यापकों की सहायता से दूर कर लेता था। उसके मामा बहुत सन्तुष्ट थे अब उसका स्वभाव बिल्कुल बदल गया था। पढ़ाई के अलावा वह दुकान पर बैठकर मामा का हाथ बँटाता था मामा अगर उसे कुछ पैसे देते थे तो वह नहीं लेता था अगर जबर्दस्ती उसकी जेब में डाल देते थे तो वह उसका कुछ सामान घर में मामी को थमा देता था कभी आम, कभी केला कभी कोई और फल। फिर सब मिलकर खाते-पीते। बादल की माँ जी भी आजकल आयी हैं। उनका मानना है कि बादल पर खूब मेहनत पड़ रही है उसके खाने-पीने पर ध्यान देने के लिए उनका घर में रहना जरूरी है। अब बादल दुकान पर भी कम आता है। मामी के छोटे बच्चे को अम्मा सम्हाल लेती हैं ताकि बादल की पढ़ाई में कोई बाध्ज्ञा न आये।

हेमन्त अब निश्चित है। वह साइंस मैथ्स के साथ बराबर से हिन्दी, अंग्रेजी, की तैयारी पूरी कर चुका है। अब उसका रिवीजन चल रहा है। आजकल क्लास में तो टेस्ट हो ही रहे हैं सौमित्र अंशिका और हेमन्त घर में टेस्ट की तरह ही सवाल लगाते हैं और एक दूसरे की काॅपी जाँचते हैं। फिर अपनी-अपनी गल्तियों को ठीक तरह से समझते हैं।

परीक्षा में केवल सात दिन बचे हैं। सौमित्र की मम्मी ने एक महीने की छुट्टी ले ली है। सौमित्र और दादी के बहुत मना करने के बाद भी। उनका कहना है कि सौमित्र पहली बोर्ड की परीक्षा देने जा रहा है इसलिए उनका घर पर रहना जरूरी है।’

सौमित्र ने लापरवाही से कहा - ‘मम्मी ! आप क्या सोचती हो बोर्ड एग्जाम का मुझे कोई टैंषन है। या मुझे डर लग रहा है। नहीं बिल्कुल नहीं। मैंने पूरी तैयारी की है मेरा रिजल्ट अच्छा ही आयेगा देखना मेरे नम्बर देखकर आप सब चैंक जाओगे।’

मम्मी ने तुरन्त टोका - ‘सोमू ! इस समय परसेंटेज के बारे में बिल्कुल मत सोचो। केवल अपनी तैयारी के बारे में सोचो। नम्बरों से क्या होता है ? आज का समय तो कम्प्टीषन का युग है। हर फील्ड के लिए कम्प्टीशन होता है इसलिए पढ़ाई करते समय नम्बरों पर ध्यान मत दो नाॅलेज बढ़ाओ।’

‘सोमू ! बिल्कुल फ्री होकर पढ़ाई करो। जाओ कुछ देर के लिए या तो किसी दोस्त के यहाँ हो आओ या खेलो।’ दादी ने प्यार से सिर पर हाथ फेरा।

‘दादी ! किसके साथ खेलूँ। सभी तो अपनी पढ़ाई में लगे हैं। कोई सुबह पढ़ता है तो कोई रात में। कोई दिन में सोता है तो कोई रात को। आजकल सभी बच्चों का रूटीन बिल्कुल अलग है।’ सोमू ने बताया।

‘चलो हम तीनों खेलें’ दादी ने बिना एक मिनट गँवाये कहा।

‘कैरम’ मम्मी ने सुझाया।

‘हुर्रे बहुत दिनों बाद मम्मी को हराने का मौका मिलेगा।’ सौमित्र कैरम बिछाते हुए बोला।

‘पहले दादी से तो निपटो बेटा ! डर के मारे आज तक कभी मेरे साथ खेले ही नहीं।’ दादी ने ललकारा।

खेल शुरू करने से पहले सौमित्र ने मम्मी के मोबाइल में एक घण्टे बाद का एलार्म लगा दिया। ताकि कहीं खेल की मस्ती में ज्यादा समय बीत न जाय। दो दिन बाद उसका पेपर है यह बात वह कुछ देरे के लिए भूल गया और यही तो मम्मी और दादी चाहती थीं।

एलार्म बजते ही खेल खत्म हो गया। दादी से कोई नहीं जीत सका। क्वीन (रानी) विद कवर लेकर वे सबसे आगे रहीं। सौमित्र ने देखा मम्मी ने जानबूझकर कई बार दादी के लिए गोटियाँ छोड़ दीं जिसे वे आसानी से अपनी खाते में जोड़ सकती थीं।

दादी ने जीतने की खुशी में शाम को आइसक्रीम खिलाने का वायदा किया। खाना खाकर सौमित्र कुछ देर के लिए सो गया। दोपहर में वैसे भी पढ़ाई करना मुश्किल है इसलिए सोना ही ठीक रहेगा यह सुझाव मम्मी का था। जब से मम्मी की छुट्टी हुई है तब से सोमू दोपहर को मम्मी के साथ ही रहता है। यह समय दादी के आराम करने का होता है। मम्मी को तो दोपहर में सोने की आदत ही नहीं है। उन्हें सण्डे के अलावा कहाँ आराम मिलता है ?

साइंस और मैथ्स वाले सर ने आना बन्द कर दिया है। शुरू में हिन्दी, सोशल साइंस और काॅमर्स के पेपर हैं। फिर एक हफ्ते का गैप है और फिर साइंस और मैथ्स के पेपर हैं। जब से सर ने आना बन्द किया है तब से अंशिका और हेमन्त से भी मुलाकात कम ही हो पाती है।

आज पापा ने आॅफिस से दो घण्टे की छुट्टी ले रखी है। सोमू का पहला पेपर जो है। वैसे स्कूल की बस कुछ बच्चों को लेने पहुँचाने आयेगी लेकिन पापा सोमू और अंशिका को एग्जाम दिलाने ले जायेंगें। सोमू ने मम्मी के कहने पर भरपूर नींद ली और फिर सुबह चार बजे उठकर एक बार महत्त्वपूर्ण चीजों को दोहराया। पेन, पेन्सिल, प्रवेश पत्र जिसे उसने रात को ही एक ट्रांसपेरेंट बैग में रख लिया था दोबारा चेक किया और नहाने-ध्ज्ञोने चला गया। सात बजे से पेपर शुरू था पापा ने सवा छः बजे गाड़ी गैरिज से निकाल ली। वैसे रास्ता दस मिनट का है और सीट वह एक दिन पहले ही जाकर देख आया है लेकिन थोड़ा पहले घर से निकलना और एग्जामनेशन हाॅल में पहुँचना अच्छा रहता है। यह सोचकर ही तैयारी की गयी है। भगवान को प्रणाम कर मम्मी और दादी के चरण स्पर्श कर जब सौमित्र कार के पास पहुँचा तो पापा ड्राइविंग सीट पर बैठे थे और अंशिका पीछे की सीट पर बैठी रट्टा लगा रही थी। सौमित्र ने उसका मजाक बनाते हुए कहा -

‘रट्टू तोता कहीं की। साल भर क्या किया जो इस समय भी रटे जा रही हो ?’

‘अरे सूर, कबीर, तुलसी की जन्मतिथि और मृत्यु तिथि याद कर रही हूँ।’ अंशिका ने बिना किताब से निगाह हटाये उत्तर दिया।

‘जो चीज साल भर में याद नहीं हुई वह दस मिनट के रास्ते में कैसे याद हो जायेगी।’ सौमित्र ने फिर छेड़ा।

पापा ने मीठी झिड़की सौमित्र को देते हुए गाड़ी स्टार्ट की - ‘क्यों मेरी बेटी को तंग करते हो। तुम याद करो अंशी मैं गाड़ी ध्ज्ञीरे चलाऊँगा।’

अंकल आप भी सोमू के साथ मिलकर मुझे चिढ़ा रहे हैं। जाइये मैं आपसे नहीं बोलती। कहकर उसने किताब सीट पर पटक दी। गाड़ी आगे बढ़ते ही सोमू ने अपने घर की ओर देखा छज्जे पर मम्मी और दादी हाथ हिलाते हुए दिखीं जवाब में सौमित्र ने हाथ हिलाया। अंशिका के घर के सामने आण्टी खड़ी हाथ हिला रही थी जिन्हें अंशिका ने देखा ही नहीं। सोमू के टोकने पर वह खिड़की से झाँकी तब तक गाड़ी आगे निकल चुकी थी।

पहला पेपर सभी का बहुत अच्छा हुआ। काफी सरल प्रश्न पत्र था बहुत लम्बा भी नहीं था लेकिन सोमू ने दस मिनट पहले तक लिखा और आखिर में दोहराकर समय पर काॅपी जमा कर बाहर आ गया। पाँच मिनट बाद अंशिका भी बाहर आ गयी। गेट से बाहर निकलने पर कार तक पहुँचने में आध्ज्ञा घण्टा लग गया। अंशिका और सोमू खुश थे क्योंकि उनका पेपर अच्छा हुआ था। अंशिका कह रही थी - ‘सोमू ! मैं तो बहुत डर रही थी लेकिन बोर्ड का पेपर तो बहुत सरल आया। इससे कठिन पेपर तो हमारी मैम बनाती हैं। प्री बोर्ड का पेपर कितना कठिन था।’

‘पेपर तो वास्तव में हलुवा था’ सोनू ने कहा - ‘टीचर लोग बेकार में डराया करते हैं।’

‘अगर वे न डरातें या प्री बोर्ड का पेपर कठिन न होता तो तुम्हें यह पेपर सरल या हलुवा न लगता। टीचर्स तुम लोगों के भले के लिए ही ये सब करते हैं।’ पापा ने पेपर देखते हुए कहा।

‘अच्छा पापा, आपको पेपर समझ में आ रहा है। आप लोग तो आॅफिस में पूरा काम अंग्रेजी में करते हैं।’ सोमू ने जिज्ञासा व्यक्त की।

‘यह सही है कि आॅफिस और बैंक का ज्यादातर काम हमें अंग्रेजी में ही करना पड़ता है लेकिन तुम्हारी मम्मी के बैंक में भी ‘राजभाषा प्रकोष्ठ’ होता है जिसमें हिन्दी में काम करने को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक याजनाएँ चलायी जाती हैं।’ पापा ने कार स्टार्ट करते हुए कहा।

‘वैसे उनकी बैंक में ही क्या सभी बैंकों में राजभाषा हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए काम होता है।’ पापा ने सावध्ज्ञानी से गाड़ी मोड़ते हुए बताया।

‘अंकल हिन्दी हमारी राजभाषा है कि राष्ट्रभाषा ?’

अंशिका ने प्रश्न किया।

‘बेटा ! हिन्दी हमारे भारत देश की आत्मा है। वह राजभाषा, राष्ट्रभाषा, सम्पर्क भाषा सब कुछ है। वैसे हमारे संविध्ज्ञान में इसे ‘राजभाषा’ का दर्जा प्राप्त है लेकिन आज हिन्दी हमेशा की तरह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी हमारी पहचान है। हमें गर्व होना चाहिए कि हम भारतीय हैं और हिन्दी हमारी भाषा है।’ पापा ने छोटा सा भाषण दे डाला।

‘कम्प्यूटर और इंटरनेट के युग में पापा ! क्या हिन्दी पढ़ने वालों का कोई फ्यूचर भी है ?’ सौमित्र का प्रश्न सटीक था।

‘ज्यादातर लोग यह सोचते हैं कि हिनदी पिछड़ी हुई भाषा है या उसे पढ़ने वाले आगे नहीं बढ़ सकते हैं लेकिन ऐसा है नहीं किसी विषय को पढ़ने का माध्यम कोई भी भाषा हो सकती है लेकिन व्यावहारिक उपयोग में तो वही भाषा हमारा साथ देती है जिसे अध्ज्ञिक से अधिक लोग बोलते या समझते हों। मान लो तुम अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई कर डाॅक्टर या इंजीनियर बन जाते हो। गोल्ड मैडलिस्ट हो तुम्हारा ज्ञान परफेक्ट है लेकिन सोचो, डाॅक्टर बनकर तो तुम्हें मरीजों के सम्पर्क में ही रहना होगा। मरीज तो आम आदमी होता है। उसका मर्ज या उसकी बात समझने के लिए तो हिन्दी भाषा का ज्ञान होना आवश्यक है न। इसी तरह इंजीनियर, बैंक कर्मी, यहाँ तक कि प्रशासनिक सेवा वाले आई0ए0एस0 या पी0सी0एस0 अध्ज्ञिकारियों को भी आम जनता के बीच जाना होता है उनकी समस्याओं को समझना होता है। तब हमारी पढ़ाई की माध्यम बनी भाषा काम नहीं आती। जन-जन की भाषा को ही अपनाना पड़ता है।’ पापा ने विस्तार से बताया।