इक समंदर मेरे अंदर - 26 - अंतिम भाग Madhu Arora द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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इक समंदर मेरे अंदर - 26 - अंतिम भाग

इक समंदर मेरे अंदर

मधु अरोड़ा

(26)

रविवार आने में देर ही कितनी लगती थी। उस दिन भी वह सुबह जल्‍दी उठी और नाश्‍ते की तैयारी करने लगी। इतने में ससुर किचन में आये और बोले – ‘कामना, हम अगले सप्ताह वापिस जा रहे हैं। मैं पिछले दिनों जाकर वापसी की टिकटें ले आया था।

....चिंकू की परीक्षाएं भी नज़दीक आ रही हैं। हम टीवी और केबल के बिना नहीं रह सकते। अब अगले साल फिर नवंबर में आयेंगे। अब ये समझ लो कि वहां की ठंड सही नहीं जाती। मुंबई का मौसम ठीक रहता है।‘

उन्‍होंने तो उसको चुप ही करा दिया था। उसने कहा था – ‘जैसा आप उचित समझें। आपका कहना भी ठीक है कि आपके लिये टीवी ज़रूरी है…लेकिन बेटे की परीक्षाओं की वजह से मैं केबल कटवाने की सोच रही हूं। चिंकू रात को समय से नहीं सोता तो सुबह उठने में तंग करता है।‘

अब उन लोगों को इस बात का भान हो गया था कि वह अपने मन की करेगी। अब तक सोम अपने संस्थान के क्‍वर्टर में ही रह रहे थे और बहुत खुश थे। खुश तो कामना और बच्‍चे भी थे, लेकिन वह सोचती थी कि इस शहर में अपना एक घर होना बहुत ज़रूरी था।

सोम ने एक फ्लैट अपने पिताजी के कहने पर दिल्‍ली में ले रखा था। उसकी दिल्‍ली में बसने की कोई इच्‍छा नहीं थी। यह उसने स्पष्ट कर दिया था कि वह दिखावे की ज़िंदगी नहीं जी पायेगी। अब समय आ गया था कि उस फ्लैट को बेचकर और सोम एक बैंक लोन लेकर मुंबई में घर ले लें।

इस बात को लेकर ससुर जी, सोम और कामना में बहुत लंबी बहस हुई थी। अंतत: उसे कहना पड़ा था – ‘ठीक है सोम, यदि तुम वहां रहना चाहते हो, तुम्‍हारी मर्जी़। तुम्‍हारी हर बात रखी है, पर यह बात नहीं रख पाऊंगी।‘

तब कहीं जाकर सोम को यह समझ में आ गया था कि वह सच में घर को लेकर गंभीर थी और फिर वे बोले थे – ‘ठीक है। मैं उस घर को बेच दूंगा। उसका लोन पूरा होने को आ गया है। जो बाकी है, वह चुकता करके एक लोन और उठाया जा सकता है।‘

कामना का मानना था कि सोम पचास साल के हों, उसके पहले अपना घर हो जाना चाहिये। उनका ट्रांसफर कभी भी हो सकता था और अब वह अपने संस्थान के कैंपस में रहने की बहुत इच्छुक नहीं थी।

बार बार बंजारों की तरह सामान लेकर जाना बार बार अच्‍छा नहीं लगता था। बच्‍चों की पढ़ाई पर असर पड़ता था। दूसरे, वह सोचती थी कि खुदा न खास्‍ता कोई बात हो जाये तो औरत को ही सबसे ज्‍य़ादा भुगतना होता है।

यह तो अच्‍छा था कि उन दोनों में ज्‍य़ादा बहस नहीं हुई थी। सच कहा जाये तो सोम को भी अब मुंबई रास आ गई थी। दिल्‍ली का घर बेचा गया और मुंबई में घर की ढुंढ़ाई शुरू हुई।

पवई, मालाड, कांदिवली, बोरिवली, सब जगह घर देखा गया और अंततः: गोरेगांव और मालाड के बीच बनी एक नई कॉलोनी में घर पसंद आ ही गया था। इस तरह बंबई आने के बीस बरस बाद सोम ने अपना घर खरीद ही लिया था।

जब जब वह अतीत में जाती है, बहुत डिस्‍टर्ब होती है। लौट-लौटकर वर्तमान में आना ही होता है। कम से कम सिर पर छत का होना बहुत ज़रूरी था और वह बसेरा लिया जा चुका था। एक अच्‍छे पिता की भूमिका सोम ने बख़ूबी निभाई थी।

बच्‍चों को अच्‍छी उच्च शिक्षा दिलवाई थी। अपने संस्थान से बच्‍चों की पढ़ाई के लिये लोन लिया था। दोनों बेटे अच्‍छी नौकरियों पर लग गये थे। उसने अपने बेटों को गिटार सिखाया था। इसके पीछे भी यह तर्क था कि बच्‍चों के मन का साफ्ट कार्नर ज़िंदा रहना बहुत ज़रूरी था।

जब वह छोटे छोटे बच्‍चों को कराटे क्‍लास जाते देखती थी और कॉलोनी में प्रैक्टिस करते देखती थी, बच्‍चे एक दूसरे पर बुरी तरह गिरते थी, तो देखकर बड़ी कोफ्त होती थी। ये बच्‍चे अपने माता-पिता की महत्वाकांक्षाओं की बलि चढ़ रहे थे।

यह बच्‍चों का नहीं, बल्‍कि माता पिता का क़सूर था कि उन्‍होंने असमय ही अपने बच्‍चों का बचपन छीन लिया था और उन्‍हें मशीनी ज़िंदगी जीने पर विवश कर दिया था।

यादें रुकने का नाम ही नहीं ले रही थीं....और वह 26 जुलाई, 2006 की बारिश? कैसी थी तो फंसी थी वह। दोपहर तक तो सब ठीक था। बेटा स्‍कूल से घर पहुंच चुका था। वह उससे फोन पर बात कर चुकी थी।

बारिश थी कि बढ़ती ही जा रही थी। तीन बजे मौसम और भी बिगड़ गया था। आसमान पर ग्रे बादल और समुद्र में ज्वार....बारिश की झड़ी ने मुंबई को बाढ़ के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया था।

ऑफिस ने तीन बजे अपने कर्मचारियों के लिये बसें छोड़ दी थीं ताकि लोग अपने घर समय से पहुंच जायें। बस ऑफिस से निकली थी और आरे रोड के अंदर से अपने गंतव्य को चल दी थी....लेकिन यह क्‍या? जगह जगह पानी भरा था और मूसलाधार बारिश हो रही थी।

ड्राइवर बार बार रास्‍ता बदल रहा था, पर हर जगह पानी ही पानी। उसने फिर भी हिम्‍मत नहीं हारी थी। रॉयल पाम्‍स में तो उसने बस को चढ़ाया और जिस तरह से बस हिचकोले खा रही थी, सबको लग रहा था कि शायद ही घर पहुंच पायेंगे।

किसी तरह बस को रिवर्स करके नीचे लाया गया था और फाइनली ड्राइवर ने लाल झंडी दिखा दी थी कि इंजन में पानी भर गया था। वह रात को बस में ही रुकेगा। लोग उतरकर पैदल गोरेगांव स्‍टेशन जा सकते थे।

कामना बस से उतर गई थी और जाते जाते ड्राइवर से कह गई थी – ‘कोई भी प्रॉब्लम हो तो गाड़ी मेरी कॉलोनी में ले आना। मैं बगल की सड़क पर बस पार्क करने की परमिशन ले लूंगी और सब बिना हिचक के मेरे घर आ जायें। दाल-चावल तो खिला ही सकती हूं।‘

इस पर बस में बैठे संस्थान के डॉक्‍टर ने कहा था – ‘वो क्‍या है कामना, हमको प्रॉब्लम नहीं है, पर आपका मिस्‍टर घर में नहीं है, लोग क्‍या सोचेंगा? इस पर उसने कुढ़कर कहा था –

‘लोगों के सोचने की समस्‍या आपकी है, मेरी नहीं है। मेरे मिस्‍टर को बीच में न लायें। वे क्‍या कहेंगे, वह समस्‍या भी मेरी नहीं है...बाकी आप लोग जो समझें’ और वह बस से उतरकर पानी में भीगती हुई अकेली चल दी थी अपने गंतव्य की ओर....

मौसम का मिजाज़ बिगड़ता ही जा रहा था। रास्‍ते में चारों ओर पानी ही पानी था। सड़क के दोनों ओर घास के मैदान थे, उनमें पानी भर गया था और बाउंडरी पार करके पानी सड़क पर आ गया था। लोग पैदल चल रहे थे।

पानी का बहाव इतना तेज़ था कि लगता था मानो वह सबको अपने साथ बहाकर ले जायेगा। कामना ने अपनी चप्पलें हाथ में ले ली थीं और वह चलने लगी थी। वह पानी का ज़ोर और अपने पैरों का ज़ोर देख रही थी।

पानी में चलते हुए सोच रही थी ....आ देखें ज़रा, किसमें कितना है दम.....बचके रखना क़दम। जब पानी का बहाव और तेज़ हो गया तथा खेत और सड़क पानी के जमने से इकसार हो गये तब लोगों ने कामना को अपने साथ लिया और सांकल बनाकर चलने लगे थे।

थोड़ी दूर जाकर देखा कि मारुति गाड़ी पानी के बहाव में बहकर पास ही बह रहे नाले में अटक गई थी। उस गाड़ी में कोई नहीं था इस प्रकार वह पौने चार बजे पैदल चली थी और साढ़े पांच बजे आरे चेक नाका पहुंची थी। वहां पानी जमा नहीं था।

वह ऑटो की राह देख रही थी। इतनी बारिश में ऑटो भी मिलना मुश्‍किल होता है। उसने छतरी भी बंद कर दी थी। भीग तो चुकी थी। इतने में एक ऑटो रुका और बोला – ‘भाभी, गेट तक छोड़ दूंगा। अंदर पानी भरा है।

....आपकी कॉलोनी के गेट और कॉलोनी के अंदर दोनों बाजू के गटर भर चुके हैं और सारा गंदा पानी बाहर बह रहा है। मेरा ऑटो बंद पड़ जायेगा। वह कुछ न कहते हुए जल्‍दी से ऑटो में घुस गई थी और चैन की सांस ली थी।

उसने देखा तो वह ऑटोवाला उसकी कॉलोनी के बाहर ही तो रहता था। इस प्रकार वह अपने घर पहुंच गई थी। बरसात लगातार हो रही थी। वह बारिश सात दिन हुई और न जाने कितने लोग पानी के बहाव में बहे थे, कितनी कारें डूबीं थीं और कितने युवा कारों में ही मर गये थे।

वह बारिश कामना कभी नहीं भूल सकती। न जाने कितनों के घर उजड़े थे। बारिश की भयावहता को देखते हुए राज्य सरकार ने मुंबई के ऑफिस, कॉलेज और स्‍कूल तीन दिन तक बंद करने का आदेश जारी कर दिया गया था।

बारिश में संस्थान की अस्थायी कर्मचारी मीनू का झोपड़ा और सारा सामान, ब्‍लैक एंड व्हाइट टी वी सब उफनते नाले बनाम मीठी नदी में बह गया था और वह कुछ नहीं कर सकी थी। वह कम उम्र में ही विधवा हो गई थी और देखने में बहुत सुंदर थी।

कामना के सेक्‍शन में आकर वह ज़ार-ज़ार रोई थी। कामना ने उसे धीर बंधाते हुए पूरे परिवार के लिये एक महीने का राशन, दालें रखने के लिये प्‍लास्‍टिक की शीशियां, मसाले आदि दिये थे और दूध का सूखा पाउडर दिया था।

देखा-देखी और महिला कर्मचारियों ने भी हर संभव सहायता की थी। इस प्रकार उसका उजड़ा घर फिर बस गया था। कामना ने उसके बेटे की स्‍कूल की फीस भी दी थी। साथ अपने छोटे बेटे की स्‍कूल यूनिफॉर्म भी दे दी थीं, ताकि वह अपनी पढ़ाई जारी रख सके।

मुंबई में हाई अलर्ट घोषित कर दिया था। उस बारिश ने मुंबई को तहस नहस कर दिया था और उजड़ों को बसाने के लिये कई संस्थाएं आगे आई थीं। व्यापारियों ने अन्‍न अन्‍न के भंडार खोल दिये थे।

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कामना की ज़िंदगी में शादी से पहले, शादी के वक्‍त़ पड़ी भांवरों के बाद आये अड़ंगों और समुद्र में पड़नेवाली भंवरों के बीच ख़ास फ़र्क़ नहीं था। उसने सभी का सामना किया था और जो भी नकारात्‍मक लगा, उन्‍हें ज़िंदगी से बाहर कर दिया था।

अब वह अपने मन की बात किसी से नहीं कहती। अपने होठों को सी लिया था। विकल्पों की दुनिया में कौन किसकी सुनता है। सब एक दूसरे में और वह अपने में मगन थी। सबने कामना को हंसते बोलते देखा है था, पर उसकी जानलेवा चुप्‍पी को नहीं देखा है। यह वही जानती थी।

नौकरी के दौरान और सोम के ट्रांसफर के दौरान किसी से कोई नाता नहीं था और कोई संपर्क सूत्र नहीं था। जो सोम की अनुपस्थिति में आते भी थे, वह उन्‍हें पानी का गिलास और एक कप चाय पिलाकर विदा कर देती थी।

अकेले में ज्‍य़ादा मेहमाननवाजी ठीक नहीं। अब किसी का फोन नहीं आयेगा। वह अकेली खिलखिलाकर हंसेगी पहले की तरह। वह कितने घंटों से इसी तरह पालथी मारे समंदर के किनारे बैठी थी। हजारों लहरें आयीं और आ कर चली गयीं। कुछ छोटी, कुछ बड़ी। वह सम्मोहित सी हर आती जाती लहर को देख रही थी।

पता नहीं समुद्र के अंतस्‍तल में कितना कुछ छिपा है और वह फिर भी चुप रहता है। जब वह कुपित होता है और ज्वार के समय लहरों के रूप में पछाड़ें खाता है। भाटे के समय उस दर्द को और अपने अंदर लोगों द्वारा फेंके गये कूड़े को किनारे पर ही छोड़ जाता है।

साथ ही सोचती जा रही है........जिस कामना ने पानी की मार और वक्‍त़ की मार को सहन करना सीख लिया है, वह किसी भी हालत में जी सकती है। वक्‍त़ के थपेड़े, रिश्तों के थपेड़े, बेवजह के शक की टोकरी को कितना ढोया है, यह भी वही जानती है या उसका दिल।

एक लहर ज़ोर से आई है और कामना के हाथ को स्‍पर्श करते हुए खिलखिलाते हुए वापिस समुद्र में मिल गई है। नदियां सूखती हैं और जो नदी नहीं सूखतीं, वे अंतत: समुद्र में मिल जाती हैं। नारियल पूर्णिमा के दिन समुद्र का पानी मीठा हो जाता है, ऐसा उसकी सहेली ज्‍योति कहती है।

अब वह फिर से एक बार फिर पुरानी वाली कामना में परिवर्तित हो गई है, बिंदास और अपने तरीके से जानेवाली कामना। वह वहीं जायेगी, जहां जाने का दिल करे। ज़बर्दस्‍ती कार में पीछे बैठकर ऊंघने से थक गई है। वह आराम से ऑटो में घूमेगी।

अम्‍मां गाया करती थीं... दिल लूटने वाले जादूगर, अब मैंने तुम्‍हें पहचाना है...नज़रें तो उठा के देख ज़रा, तेरे सामने ये दीवाना है, और वह खुद भी इस गीत को गुनगुना रही है... और अवचेतन में यही गाना बज रहा है....

सूर्यास्त हो रहा है लेकिन कल फिर यहीं से सूर्य की पहली किरण उजास लेकर आयेगी।

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