कैसी आधुनिकता, कैसी मानसिकता Annada patni द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कैसी आधुनिकता, कैसी मानसिकता

कैसी आधुनिकता, कैसी मानसिकता

अन्नदा पाटनी

कावेरी का फ़ोन आया," क्या कर रही है ? आजा बैठेंगे। चाय वाय पियेंगे ।"

मैं बोली," क्या ख़ाली बैठी है ?

"अरे क्या ख़ाली,ख़ाली होते हुए भी भरी बैठी हूँ।" कावेरी की यही ख़ासियत है, बातों को ऐसा घुमाती है कि सामनेवाले की उत्सुकता बढ़ जाय। मुझे कौन सा काम था सो पहुँच गई उसके पास ।

ड्राइंग रूम में पैर पसारे बैठी थी । मुझे देखते ही बोली," आ जा, आ जा ।" फिर अपने पास ही बैठा लिया । थोड़ी देर इधर-उधर की बातें हुईं । फिर मैने पूछा," क्या चल रहा है ?" इतने में ही उसकी बहुरानी लावण्या बाहर जाने को निकली ।

" हाय आंटी और बाय आंटी " कह कर वह चली गई ।

कावेरी बोली," तू पूछ रही थी न क्या चल रहा है । यह चल रहा है । न पैर छूना न प्रणाम । यह भी बताने की ज़रूरत नही है कि कहाँ जा रही है । माना मोबाइल है पर भगवान न करे कुछ हो जाय तो पता तो रहे कहाँ हो ।"

मैं बोली,"क्या करना है तुझे । ज़्यादा माथापच्ची क्यों कर रही है । कम से कम नौकरी नहीं कर रही,घर पर तो है ।"

कावेरी चिढ़ कर बोली," क्या घर पर है। एक मिनट घर पर नहीं टिकती । रोज़ बारह बजे निकल जाती है और शाम को छ:सात बजे अपने पतिदेव के आने के पहले आ जाती है । यह तो अच्छा है कि मेड ( नौकरानी ) अच्छी मिल गई है जो सारा काम संभाल लेती है । फ़ुल टाइम है, बेड टी से लेकर सुबह का नाश्ता, बेटे पोते का टिफ़िन आदि सब बिना कहे तैयार कर देती है । घर में बुज़ुर्गों को सम्मान मिले न मिले, इनकी बडी इज़्ज़त होती है । और क्यों न हो भगवान के बाद ये ही तो तारनहार हैं जो इनकी नैया पार लगाती हैं । इनकी तनख़्वाह और शर्तें बडी मँहगी है पर आराम के आगे पैसे की क्या परवाह । ख़ैर मेरी जेब से तो कुछ जा नहीं रहा । उल्टे मेरे सारे काम समय पर हो जाते हैं। अक़्लमंदी इसी में है कि चुपचाप तमाशा देखते जाओ । देखा नहीं क्या कपड़े पहन कर गई है । संकीर्ण और पुराने विचारों वाले परिवार से आई हैं पर आधुनिक बनने और दिखने के चक्कर में सब लाज शरम ताक पर रख दी है । छोटे-छोटे जांघ तक चढ़े निकर, बिना बाँह के बग़लें दिखाते कपड़े, गहरे गले जिसमें से सब कुछ झाँकता रहता है । मोटी मोटी टाँगें, थुल-थुल शरीर फ़ैशन की जगह फूहड़ता का प्रदर्शन अधिक करते हैं । पहले बड़े बूढ़ों का लिहाज़ तो रहता था पर अब तो हम बड़े बूढ़ों की आँखें नीची हो जाती हैं । कुछ कहो तो कहा जाता है," फ़ैशन के अनुसार परिवर्तन होना स्वाभाविक है। इससे आपको क्या परेशानी है । "

कावेरी की खीज साफ़ दिखाई दे रही थी । मैं बोली," ठीक कह रही है तू । आजकल चारों तरफ़ यही तो हो रहा है । चुप रह कर मूक दर्शक बने रहने में ही भलाई है । मन पर ज़ोर मत डालो। तमाशा देखते रहो और हँसते रहो । " और दोनों को हँसी आ गई ।

तभी कावेरी बोली," एक बात तूने और ग़ौर की होगी । दिन भर तो सभी अपने काम में व्यस्त रहते हैं पर रात को खाने का समय ऐसा होता है जब सब साथ बैठ सकते हैं और बातचीत का समय निकाल सकते हैं । पर आजकल सबसे ज़रूरी हो गया है खाते-खाते टी.वी देखना ।सब अपनी-अपनी प्लेट भर कर टी.वी के सामने पड़े सोफ़े पर या कुर्सियों पर धँस जाते हैं । अगर माँ-बाप या घर का कोई सदस्य कुछ ज़रूरी बात करना चाहे तो चिढ़ मच जाती है," अभी टी.वी देखने दो, कल बात करना।" छोटे-छोटे बच्चे सुबह उठते पहले टी.वी पर कार्टून फ़िल्म देखते-देखते दूध पीते हैं । खाते समय टी.वी उनके लिए खाना पचाने का काम करता है।”

मैं हँसते हुए कावेरी से बोली," भूल गई मिसेज़ भल्ला के यहाँ जब हम लंच पर गए थे । हम सब ताश खेलने में व्यस्त थे तभी उनकी नौकरानी आकर बोली,"आप लोग ताश बंद कर खाना खा लीजिए नहीं तो मेरे टी.वी सीरियल का टाइम हो जायेगा ।" मिसेज़ भल्ला भी घबरा कर बोली," हाँ,हाँ भई पहले खाना खालो ।" हम सब बग़लें झाँकने लग गए थे और आँखों-आँखों में मुस्करा भी रहे थे ।

मैं और कावेरी वह बात सोच ख़ूब हँसे । फिर चाय-पकौड़ी का ख़ूब मज़ा लिया ।अच्छा लगा कि बिना मुँह का स्वाद ख़राब किए इतनी बडी चुभने वाली बातों को हम ने इतनी सहजता से बाँट लिया । तभी तो भरी बैठी कावेरी भी हल्की हो गई ।

मैं घर के लिए रवाना हो गई । घर आ कर सोचती रही कि कैसा समय आ गया है।एक समय था जब हमारे आचरण और संस्कार प्यार-सम्मान, स्थिरता और दृढ़ता की नींव पर जीवन के भव्य भवन का निर्माण करते थे वही आज अर्थहीन और दक़ियानूसी माने जाते हैं और बोझ भी । ऐसी स्थिति में हमारा कुछ भी न कहना बेहतर होगा । यह माना कि समय के साथ हम सबको बदलना होता है पर शालीनता, तहज़ीब और पारिवारिक मूल्यों को ताक में रख कर नहीं।

हम भूल रहे हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ी पर इस सबका कितना विपरीत और गहरा प्रभाव पड़ रहा है । हमारे बच्चे भविष्य में उसी आचरण का अनुसरण करेंगे जो वे देखते आ रहे हैं । इस संदर्भ में एक कहानी याद आ रही है जिसमें बेटा अपनी पत्नी के कहने पर पिता को घर से बाहर निकाल देता है। निकालते समय अपने पाँच-छ: वर्षीय पुत्र को अंदर से कंबल लाकर दादा को देने का आदेश देता है । काफी समय बाद जब वह कंबल लेकर आता है तो उसका पिता ग़ुस्से से देरी का कारण पूछता है तो वह बच्चा कहता है," पापा, मैं कंबल को आधा कर रहा था क्योंकि बड़ा होकर जब मैं आपको घर से निकालूँगा तो आधा आपको दे दूँगा ।"

किसी ने सही कहा है कि इतिहास स्वयं को दोहराता है । सबसे कष्टदायक बात यह है कि आज स्त्री ही स्त्री की सबसे बडी दुश्मन हो रही है । इसके पीछे मानसिकता यह है कि वह केवल अपने पति और बच्चों को ही परिवार मानकर चलती चाहती है । अन्य लोगों का अस्तित्व उसके लिए कोई मायने नहीं रखता है । यह दृष्टिकोण किसी भी संबंध को दृढ़ता प्रदान नही कर सकता । यही कारण है कि घर बाहर मतभेद उभर रहे हैं और संबंधों की नींव में सेंध लग रही है । अभी हम महिलाएँ इस स्थिति के दूरगामी परिणाम की कल्पना नहीं कर पा रहीं हैं । जब चेतेगी तब तक बहुत देर हो चुकी होगी ।