पागल – बंदूक सिंह Mens HUB द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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पागल – बंदूक सिंह

पागल एक छोटे शहर और उसके दरोगा का किस्सा है जिससे 3 भागों में लिखा गया है इस किस्से का वास्तविक नाम ‘रामनगर’ या ‘दरोगा बन्दूक सिंह’ होना चाहिए था | परन्तु बहुत सोच विचार करने के पश्चात् मैं इस निश्चय पर पहुंचा हूँ की इसका नाम ‘पागल’ रखा जाना चाहिए |

रामनगर
बंदूक सिंह
स्वर्गाश्रम
होटल सम्राट


बंदूक सिंह

कहा जाता है की दीपावली की रातें भयानक रूप से काली होती है | ऐसी ही एक रात एक साधारण आय वर्ग वाले दंपति के यहाँ एक बच्चे का जन्म हुआ | परिवार का पहला बच्चा होने के कारण या शायद कारण कोई अन्य रहा हो परन्तु बच्चे को अपने माँ बाप से बहुत प्यार दुलार मिला और साथ मैं मिली एक खिलौना बंदूक | बच्चे को बंदूक के नाम से ही जाना गया | हलाकि बंदूक बच्चे का वास्तविक नाम नहीं है उसका असली नाम बताने वाला आज कोई जिन्दा नहीं है | वक्त को कोई नहीं रोक सकता और न ही अनहोनी को | बंदूक जब सिर्फ 1 साल का था तभी उसकी अम्मा एक लंबी बीमारी के कारण स्वर्ग (वैसे नरक भी हो सकता है ) चली गयी | अम्मा का साया बचपन से ही नहीं मिला और बाप दिन भर बहार काम धंधे मैं लगा रहता | बन्दूक के पिता से बन्दूक की देखभाल का हरसंभव उपाय किया परन्तु जो असंभव था वह यह की बन्दूक पर हर वक़्त नज़र रखी जा सके | नतीजा बन्दूक का बचपन गलियों मैं नंगे घुमते गुलेल से निशाने लगते और लकड़ी को बन्दूक मान कर खेलते हुए बीता |

लम्बी बीमारी और महंगा इलाज़, परिवार की आर्थिक हालत को हिला गया | लिहाज़ा बन्दूक को सरकारी स्कूल में दाखिल करवाया गया | और यही वह स्थान था जहाँ पर उसे बन्दूक नाम मिला | जब बन्दूक प्रवेश के लिए स्कूल पहुंचे तब हेडमास्टर साहब ने बन्दूक को बन्दूक कह कर सम्बोधित किया | हेडमास्टर साहब बन्दूक की गुलेल के निशानों को बहुत वक़्त से झेलते रहे थे इसीलिए जब बन्दूक अपने पिता के साथ हेडमास्टर के सामने पेश हुए तब हेडमास्टर साहब ने कहा था

हेडमास्टर : आखिर बन्दूक मेरे पास ही आ गयी

पिता : बन्दूक बहुत ही लाजवाब नाम है इसे इसी नाम से भर्ती कीजिये

हेडमास्टर : बहुत बढ़िया

पिता : कोशिश कीजिये की बन्दूक अपने नाम को सार्थक कर सके

और बन्दूक ने अपने नाम को सार्थक किया भी परन्तु इस सार्थकता को देखने का सौभाग्य उसके पिता को नहीं मिल पाया | बन्दूक अभी कॉलेज की पढाई पूरी नहीं कर पाया था की उसके पिता का बुलावा भी आ गया | और इस तरह बन्दूक आज़ाद हो गया अपनी ज़िन्दगी अपने तरीके से जीने के लिए | पिता द्वारा छोड़ी गयी कुछ सम्पति से कॉलेज पूरा करने के बाद जब काम धंधे की बात आयी तब बन्दूक लगभग तय कर चूका था की उसे पुलिस या फिर फौज में भर्ती होना है | इंतज़ार सिर्फ अवसर का था | बन्दूक का भाग्य उसके आगे आगे चल रहा था

उन दिनों रामनगर के आस पास का इलाका डाकू मनोहर के कहर से काँप रहा था | और डाकू दल से सुरक्षा के लिए हथियारबंद पुलिस की जरूरत थी | बन्दूक को अवसर मिल गया और फिर एक दिन बन्दूक अपनी ट्रेनिंग पूरी करके पुलिस ठाणे मैं तैनात हो गया | कुछ दिन ही गुजरे थे की प्रशासन महसूस करने लगा की एक पुलिस चौकी ऐसी जगह बनायीं जानी चाहिए जहाँ पर से डाकू दल की गतिविधियों पर नज़र रखी जा सके और जरूरत पड़ने पर कार्यवाही भी तुरंत की जा सके | और इस तरह नदी के पार जंगल के किनारे और पुराने कम चलते हुए हाईवे पर एक छोटी सी पुलिस चौकी बना दी गयी | पुलिस चौकी थी तो जाहिर है की पुलिस की तैनाती भी होनी थी ऐसे में जिसके पास भी कोई सिफारिश थी उसे सुनसान चौकी पर कैसे तैनात किया जा सकता था लिहाज़ा बन्दुक जैसे नौजवानों को भिजवा कर खानापूर्ति कर दी गयी |

बन्दुक सिंह कुछ और सिपाहियों एवं अपनी पुरानी जंग खाई राइफल के साथ नयी चोंकी की कच्ची ईमारत में आ गया | बाकि सिपाहियों के तो खैर घर भी थे परन्तु बन्दूक तो रहता ही वही था नज़दीक में बने ढाबे पर 3 वक़्त खाना और 3 वक़्त चाय और दिन भर राइफल की साफ़ सफाई | बन्दूक सिंह ने ढाबे वाली विधवा की एकमात्र लड़की से कुछ प्यार की पींगे भी चढ़ा ली और आखिर में शादी भी की | ढाबे पर बैठे बैठे बन्दूक सिंह की दोस्ती ड्राइवर भाइयों के साथ भी हो गयी और उनके सहयोग से बन्दूक सिंह ने अपनी कमाई के नए साधन भी पैदा के लिए | बन्दूक सिंह मनोहर डाकू एवं ट्रकों के बीच माध्यम बना और इस तरह हाईवे पर होने वाली लूटपाट बंद हो गयी | जिसका पूरा का पूरा श्रेय रामनगर के सुप्रीडेन्डेन्ट साहब को मिला और कुछ टुकड़े चौकी पर तैनात सिपाहियों को भी मिले | क्योंकि मनोहर डाकू की जरूरतें बिना डाका डाले ही पूरी होती थी इसीलिए डाके पड़ना भी लगभग दंड हो गया | पूरी तरह तो बंद नहीं हो सका क्योंकि डाकू मनोहर को अपना दबदबा भी बना कर रखना था |

कुल मिलकर डाके बहुत कम पड़ते और जब ऐसा होता तब चौकी के सिपाही लोगों का हिस्सा उनके पास पहुँच जाता | और जब ऐसा होता तो बाकायदा चौकी के सिपाही और डाकू दल के हतियार आग उगलते और आखिर में कभी कभी कुछ थोड़ा माल जबत भी दिखा दिया जाता | कभी कभी तो बाकायदा किसी डाकू को जख्मी भी दिखा दिया जाता | एक बार तो ऐसा हुआ की एक डाकू किसी कारन से मर गया और उसे बाकायदा पुलिस एनकाउंटर में मरा दिखा कर सिपाही बंदूकसिंघ ने बहादुरी का मैडल भी हासिल किया | खेर यह सब तो खेल तमाशे थे जो बन्दूक सिंह अक्सर दिखता रहा |

पुल जिस पर अंदर होने के बाद कोई नहीं आता उस पर एक रात मनोहर डाकू अपने साथियों के साथ बैठा देसी दारू पी रहा था , बन्दूक सिंह भी वही बैठा था | मनोहर डाकू डाका दाल कर लौटा था और सिपाहियों की तरफ से हिस्सा लेने के लिए बन्दुक सिंह मौजूद था | पूरी ईमानदारी से माल के 3 हिस्से कर लिए गए और फिर साथ बैठ कर दारु की बोतल भी ख़तम कर दी गयी | रात का आखिरी पहर था और सभी पर दारु का नशा हावी था की मनोहर डाकू ने किसी बात पर बन्दूक को कुछ कह दिया क्या कहा ना मनोहर को समझ आया और न बन्दूक को परन्तु कुछ कहा कैसे यह नाक का सवाल बन गया और फिर दोनों तरफ से मोर्चे लग गए | दोनों दलों की तरफ से फायरिंग हुई एक तरफ था शराब के नशे में झूमता हुआ डाकू मनोहर अपने पुरे दल के साथ और दूसरी तरफ अकेला शराबी बन्दूक | बन्दूक के साथी सिपाही तो दुबक गए परन्तु शराब ने बन्दूक को शेर बना दिया और लगातार आधे घंटे तक फायरिंग करते हुए बन्दूक ने मनोहर और उसके सभी साथियों को ठिकाने लगा दिया |

जब तक बन्दुक की समझ में कुछ आया तब तक तो सब निबट चूका था | लीपा पोती करना जरूरी था इसीलिए बन्दुक नदी में कूद गया कर नशा कुछ हल्का करने का प्रयास किया फिर चौकी में गया और अपने साथियों के हथियारों से कुछ और फायर किये | बंटवारे के भी सब निशान मिटा दिए | इससे पहले की SP साहब पहुंचते स्टेज सेट हो चूका था | बन्दूक एक तरफ जख्मी हुआ बैठा था और दूसरी तरफ मनोहर डाकू और उसके सभी साथियों की लाशे पड़ी थी | और लूट का सामान राम जाने |

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में खुलासा हुआ की मनोहर डाकू के दल के सफाये का असली हीरो बन्दूक सिंह था और फिर शहर भर में बन्दूक की हवा बन गयी | महकमे मैं भी बन्दूक का नाम हुआ और उसे सिपाही से दरोगा बना दिया गया |

दरोगा बन्दूक सिंह उसी चौकी पर तैनात थे | मनोहर डाकू तो ख़तम हो गया परन्तु ट्रक वालो से वसूली लगातार चालू थी | जिसकी बदौलत एक टूटा फूटा ढाबा सिर्फ 2 साल में ही बढ़िया ढाबा बन गया | और अगले कुछ सालों में बाक़ायदा होटल भी बन गया | बन्दूक लगातार तरक्की करता रहा |

इसीबीच कहीं से एक पागल आ गया और दिन भर पागल शहर भर में घूमता और रात में चौकी के पास ही सो जाता | शुरू शुरू में किसी ने ध्यान नहीं दिया बल्कि जरूरत होने पर पागल को चाय खाना वगैरह भी दिया जाता रहा | पागल सब कुछ देखता , ट्रकों से वसूली , ट्रकों से गंजे का अवैध व्यापार , और भी कई गाइकानूनी काम परन्तु पागल समझ नहीं पाया की उसे चुप रहना है | दिन में जब पागल शहर में घूमता तब जो देखा उसे बड़बड़ाता रहता | पहले तो लोगों ने ध्यान नहीं दिया पर आखिर कब तक ध्यान नहीं देते | धीरे धीरे बात फैलने लगी परन्तु अभी भी लोग अंधभगत थे और पागल की बड़बड़ाहट पर ध्यान नहीं देते थे | परन्तु बन्दूक सिंह के दुश्मन भी तो थे उनके लिए यह सुनहरा अवसर था और उन्होंने पागल को बढ़ावा देने शुरू कर दिया | धीरे धीरे बात फ़ैल रही थी और आखिर बन्दुक सिंह तक भी बात पहुंची तब उन्होंने पागल को भागने का प्रयास शुरू कर दिया | बात नहीं बन पायी और आखिर एक रात वह पागल बन्दूक की गोली का शिकार बन गया | और पागल की जेब से जो पेपर बरामद हुए उससे यही साबित हुआ की पागल पाकिस्तानी खुफ़िआ एजेंसी का जासूस था और शहर की सद्भावना को ख़तम करना चाहता था और मुठभेड़ में मारा गया |

पागल लम्बे समय तक शहर में घूमता रहा था लोग उसे जानते थे और किसी को भी बन्दूक की कहानी हज़म नहीं हो रही थी परन्तु आखिर एक पागल ही तो था इसीलिए किसी ने भी एक पागल की खातिर अपने चेहते बहादुर दरोगा जी पर अंगुली उठाने की जरूरत नहीं समझी | और पागल एक गुमनाम मौत मारा गया |

रामनगर की जनता ने पागल की मौत को तमाशा समझा और दरोगा बन्दुक सिंह के खिलाफ आवाज़ उठाना जरूरी नहीं समझा और इस तरह पागल एक गुमनाम मौत मारा गया परन्तु रामनगर भी उस रस्ते पर चल पड़ा जिस रस्ते पर रामनगर की प्रासंगिता ही ख़तम हो गयी | पागल की मौत राम नगर की खुशाली का भी अंत था क्योंकि दरोगा जी समझ चुके थे की अब वह जो चाहे कर सकते था रामनगर में उनका कोई विरोध नहीं करेगा |