बात बस इतनी सी थी - 24 Dr kavita Tyagi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बात बस इतनी सी थी - 24

बात बस इतनी सी थी

24.

पिछले दो वर्षों में माता जी ने मेरी वजह से जितना अकेलापन भोगा था, मैं किसी भी तरह उसकी भरपाई करना चाहता था । लेकिन मुजफ्फरपुर से रोज पटना आना-जाना सम्भव नहीं था । दूसरी ओर पटना में माता जी को रखना भी संभव नहीं था, क्योंकि पटना में अपना फ्लैट मैं पहले ही बेच चुका था । पटना में माता जी को किराए के फ्लैट में रखना भी मेरे लिए किसी मुसीबत से कम नहीं था । माता जी के पटना में रहने पर उन्हें यह पता चलने से किसी भी हालत में नहीं रोका जा सकता था कि पापा का खरीदा हुआ फ्लैट मैं पहले ही बेच चुका हूँ ।

अगले दिन घर से ऑफिस के लिए निकलने से पहले मैंने संकल्प किया कि अब मैं माता जी को अकेला नहीं रहने दूँगा और अपना अधिक-से-अधिक समय माता जी को देने की कोशिश करूँगा ! अपने संकल्प को व्यवहार में लाने के लिए मैने सारी समस्याओं से बचने का एक उपाय खोज लिया । अपने इस उपाय के तहत हालांकि मुझे ऑफिस की कोई ज्यादा व्यस्तता नहीं थी और न ही निकट भविष्य के कुछ दिनों में मुझे ऑफिस के काम से आउट ऑफ स्टेशन जाने का कंपनी का कोई आदेश था । फिर भी मैंने माता जी से कहा -

"अगले कुछ महीने तक ऑफिस में मैं कुछ ज्यादा ही व्यस्त रहूँगा ! हो सकता है, इस दौरान ऑफिस के काम से मुझे बाहर भी जाना पड़े ! इसलिए शायद मैं यहाँ नहीं आ पाऊँगा !"

कुछ महीने के बाद आप भी पटना में आकर रहना ! बाहर का खाना खाते खाते और अकेले रहते-रहते मैं थक चुका हूँ !"

"कुछ महीने बाद की कुछ महीने बाद देखेंगे ! आज, आज की सोचो !"

"जी, माता जी ! ठीक है !" कहकर मैं घर से निकल गया ।

दो महीने तक मैं अपने उसी फ्लैट को किसी भी तरह हासिल करने की जुगाड़बाजी करता रहा, जिसे मैं बेच चुका था । वैसे तो मैं अपने पिता द्वारा माता जी के लिए छोड़ी गई धरोहर को दोबारा खरीदना चाहता था, लेकिन तुरंत इतनी बड़ी रकम का प्रबंध करना मेरे लिए आसान काम नहीं था ।

मैंने सोच रहा था कि माता जी पटना में आकर यदि अपने फ्लैट में रहेंगी, तो उन्हें सच का पता नहीं चलेगा और इस तरह मेरी गलती की वजह से उन्हें कोई मानसिक कष्ट भी नहीं होगा । इसलिए मैं चाहता था कि कम-से-कम कुछ दिन के लिए वह फ्लैट मुझे किराए पर ही मिल जाए, तो मैं माता जी को पटना ले आऊँ ! मैंने इसके बारे में उनसे बातें भी की थी, जिनको फ्लैट बेचा था और जो अभी भी उस फ्लैट के मालिक थे और अभी भी उसी फ्लैट में रह रहे थे । किंतु उन्होंने यह कहकर मेरे निवेदन को नकार दिया कि उन्होंने फ्लैट खुद के रहने के लिए खरीदा था, किराए पर देने के लिए नहीं ! इसलिए मुझे किराए पर भी वह फ्लैट कुछ दिन के लिए नहीं मिल सका ।

धीरे-धीरे दो महीने की जगह चार महीने का समय बीत गया । चार महीने बीत जाने के बाद भी मुझे लगता था कि माता जी को दिए गए मेरे वचन को निभाने की घड़ी बहुत जल्दी आ गई थी । ऐसा इसलिए हो रहा था, क्योंकि अभी तक मैं ऐसी कोई भी व्यवस्था नहीं कर पाया था कि कुछ दिन के लिए फ्लैट बेचे जाने का सच माता जी से छिपा रह सके ।

मेरी गलतियों की वजह से मेरी माता जी अपने ही घर से बेघर होकर अकेलेपन का कष्ट भोग रही हैं और मैं सबकुछ जानते-बूझते हुए भी उनके कष्टों का अन्त नहीं कर पा रहा हूँ, यह सोच-सोचकर मैं बहुत परेशान हो गया था । लेकिन जब मुझे अपनी गलतियों और विफलताओं से निजात पाने का कोई रास्ता नहीं मिल पा रहा था, तब मुझे बचपन में माता जी के मुँह से कई बार सुनी हुई एक बात याद आयी । माता जी अक्सर पापा जी से कहा करती थी -

"जब आप किसी समस्या का समाधान नहीं कर पा रहे हैं, तो सबकुछ भगवान के ऊपर छोड़ देना चाहिए । ऐसी कोई समस्या नहीं है, जिसका समाधान ऊपर वाला नहीं कर सकता !"

माता जी के इसी कुंजी वाक्य को याद करते हुए मैंने अपनी आँखें बंद करके एक लम्बी साँस ली और सब कुछ ऊपर वाले के भरोसे पर छोड़कर मुजफ्फरपुर की ओर निकल पड़ा । उसी समय मैंने मेरे मुजफ्फरपुर पहुँचने के समय का अनुमान लगाकर माता जी को अपने आने की सूचना मैं दे दी ।

अपने बताए हुए समय से कुछ पहले ही जब रात को मैं घर पहुँचा, माता जी खाना बनाकर बैठी हुई मेरा इंतजार कर रही थी । मेरे पहुँचते ही माता जी ने थाली परोस दी और हम दोनों ने एक साथ बैठकर खाना खाया । सोने से पहले मैंने माता जी से निवेदन किया -

"माता जी कल आप मेरे साथ पटना चलोगी ? यहाँ पर आप अकेली रहती हैं और वहाँ पर मैं घर का खाना खाने के लिए तरस जाता हूँ !"

"चंदन, बेटा ! मुझे लगता है, मेरा यही रहना ज्यादा ठीक है !"

"नहीं, माता जी ! आपका यहाँ रहना ज्यादा ठीक नहीं है !"

"क्यों ?"

"माता जी ! आप पटना से यहाँ तब लौटकर आई थी, जब मंजरी ने आपके ऊपर मुझे उससे दूर करने का आरोप लगाया था ! आपने मंजरी की वजह से मुझे और पटना को छोड़ा था ! अब, जब मंजरी और मैं दोनों बिल्कुल अलग-अलग हो चुके हैं, तब आपका यहाँ रहने की न तो कोई वजह है, न ही जरूरत है, और न ही कोई औचित्य है ! इसलिए सुबह आप मेरे साथ पटना चल रही है ! जल्दी तैयार हो जाना !"

मैंने विनम्र आग्रह करते हुए कहा । माता जी ने मेरे आग्रह का तुरन्त कुछ उत्तर नहीं दिया । इसका अर्थ था कि वह मेरे मत से सहमत हैं और सुबह मेरे साथ पटना चलने के लिए तैयार हैं ।

अगले दिन माता जी को लेकर मैं सुबह सवेरे जल्दी ही पटना के लिए रवाना हो गया था । पूरे रास्ते मैं इसी तनाव में रहा कि माता जी को जब मैं अपने एक कमरे के किराए के फ्लैट में लेकर जाऊँगा, तब उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी ? और उस स्थिति को मैं कैसे सम्हाल पाऊँगा ? सम्हाल भी पाऊँगा या नहीं ?

यद्यपि मैं एक दिन पहले ही इस समस्या को ऊपर वाले के भरोसे छोड़ चुका था, फिर भी बार-बार चाहे-अनचाहे मेरे दिल दिमाग की सुँई इसी समस्या पर आकर रुक जाती थी और हृदय से बस एक ही मौन स्वर गूँज रहा था -

"न जाने आज क्या होने वाला है ? हे प्रभु ! आज बस एक तेरा ही सहारा है ! उस समय मेरी माता जी को सम्हाल लेना, जब उन्हें उस सच्चाई का पता चलेगा, जो मैंने उनसे आज तक छुपाई है ! हे प्रभु ! उस समय इन्हें इस सच्चाई को सहन करने की शक्ति दे देना ! आप तो जानते ही हैं कि यह सब मैंने मेरी माता जी के लिए ही किया है !"

जब माता जी मेरे साथ उस फ्लैट में पहुँची, एक कमरे के किराए के जिस फ्लैट में मैं पिछले एक साल से रह रहा था, तो वे बोली -

"चंदन ! तू मुझे लेकर यहाँ क्यों आया है ?"

"माता जी ! जब से आप मुजफ्फर गई हैं, तभी से मैं यहीं रह रहा हूँ !" मैंने माता जी को विनम्र भाव से उत्तर दिया ।

"बेटा, अब तक तू अकेला रहता था ! लेकिन अब मैं आ गई हूँ, तो अपने फ्लैट में रहेंगे ! अब यहाँ क्यों रहना है ?"

"माता जी ! मेरा ऑफिस यहाँ से पास पड़ता है और हमारा वह फ्लैट ऑफिस से बहुत दूर हो जाता है !"

"अरे बेटा ! तेरे पास अपनी गाड़ी है ! तुझे पैदल थोड़ी ही जाना है कि ऑफिस जाने के लिए दूर तक पैदल चलकर थक जाएगा !"

"हाँ जी, माता जी ! आप बिल्कुल ठीक कह रही हैं, लेकिन ऑफिस के समय सड़क पर इतनी भीड़ रहती है कि गाड़ी जाम में फँसी रह जाती थी और मैं अक्सर ऑफिस पहुँचने में लेट हो जाता था !"

मेरे पास माता जी के सवाल का इससे बेहतर कोई जवाब नहीं था । मैं बहुत बड़ी दुविधा में फँस गया था । मैं माता जी को यह कैसे ? और किस मुँह से बताता कि मैं उस पर फ्लैट को बेच चुका हूँ ! अब वह फ्लैट हमारा नहीं रह गया है ! एक सच को छिपाने के लिए कितने झूठ बोलने पड़ेंगे ? मुझे यह समझ में नहीं आ रहा था और न ही मैं सच बोलने का साहस कर पा रहा था । अब केवल 'हारे को हरिनाम का सहारा' था । मैंने भगवान से प्रार्थना की -

"हे प्रभु ! कोई ऐसा चमत्कार कर दे कि मेरी जुबान को झूठ भी न बोलना पड़े और माताजी के सामने सच भी उजागर न हो !"

उसी समय मैने महसूस किया कि मेरी सच्चे मन से की गयी प्रार्थना ईश्वर ने सुन ली है । अचानक ईश्वर पर मेरी आस्था उस दिन पहले से कहीं ज्यादा दृढ़ हो गई, जब मैंने देखा कि माता जी इधर-उधर पड़े सामानों को करीने से सजाने में लग गयी हैं ।

माता जी अपने बुद्धि कौशल से उस फ्लैट को घर बनाने में जुट गई थी । कुछ इधर-उधर बिखरे पड़े सामानों को व्यवस्थित करने के बाद उन्होंने रसोई सहित घर के कुछ अन्य जरूरी सामानों की सूची बनायी और फिर उस सूची को मेरे हाथों में थमाते हुए बोली -

"जल्दी जाकर बाजार से यह सामान ले आ !"

मैंने माता जी से सामानों की सूची ली और घर से बाहर निकल कर कुछ देर के लिए राहत भरी साँस ली । लेकिन सच के उजागर होने का डर मेरे मन में गहरे तक समाया हुआ था कि चोर की माँ कब तक खैर मनाएगी ? आज नहीं तो कल सच तो माता जी के सामने आ ही जाएगा ! मेरा यह डर तब तक दूर होना संभव नहीं था, जब तक कि मेरे फ्लैट बेचने का सच उसी फ्लैट को दोबारा खरीदने के सच में न बदल जाए ! कम-से-कम मुझे जल्दी तो ऐसा होने की कोई संभावना नजर नहीं आ रही थी । मेरी सामान्य परिस्थिति में तो ऐसा होना संभव नहीं था । यह तभी संभव था, जब ऊपर वाले का कोई चमत्कार हो जाए !

जब मैं बाजार से सामान लेकर लौटा, तब तक माता जी उस जड़ फ्लैट में प्राण फूँक चुकी थी । उस दिन मैंने महसूस किया कि सचमुच एक औरत ही किसी मकान को घर बना सकती है । औरत के बिना वह सिर्फ ईंट-पत्थरों का ढाँचा ही होता है । किसी स्त्री के बिना ईंट-पत्थर से बने उस बेजान ढाँचे के साथ रहकर कोई पुरुष उसी बेजान ढाँचे की तरह कठोर और संवेदनहीन बनकर रह जाता है । उस दिन मैंने महसूस किया कि किसी भी पुरुष को संवेदनशील और प्राणवान बनाने के लिए हर पल एक मातृ-शक्ति की जरूरत होती है, जो माँ, बहन, पत्नी, प्रेमिका या अन्य किसी भी रूप में हो सकती है ।

माता जी के आने पर मेरा एक कमरे का वह फ्लैट अब घर बन चुका था । अब मुझे ऑफिस जाने से पहले स्वादिष्ट नाश्ता मिलता था और ऑफिस ले जाने के लिए स्वादिष्ट भोजन से भरा लंच बॉक्स । एक बार फिर अब मेरी जिंदगी पुराने ढर्रे पर लौटने लगी थी, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण था ऑफिस बंद होने के बाद समय पर घर लौटना । समय पर मेरे घर नहीं लौटने पर, थोड़ी-सी भी देर हो जाने पर माता जी चिंतित हो जाती थी । इसलिए मेरा समय पर घर लौटना बहुत जरूरी हो गया था ।

हर रोज ऑफिस जाना, दिन-भर ऑफिस में काम में व्यस्त रहना और फिर समय पर घर लौटना, मेरा सारा समय इसी तरह बीतने लगा था । ऑफिस की व्यस्त जिंदगी और घर में माता जी के स्नेहयुक्त स्वादिष्ट खाने के साथ सुख-सुकून की जिंदगी के बीच मेरा वह डर कहीं गुम हो गया था, जो कुछ दिन पहले तक सोते-जागते हर समय मुझ पर हावी रहता था । कुछ दिनों के लिए मैं यह भूल ही गया था कि मेरी कोई ऐसी समस्या भी है, जो किसी भी समय अपना सिर उठाकर मेरे सामने एक बड़ा संकट खड़ा कर सकती है । मेरा वह डर और मेरी वह समस्या थी - फ्लैट बेचे जाने का सच माता जी से कब तक और कैसे छिपाकर रखा जा सकता है ?

क्रमश..