इक समंदर मेरे अंदर - 23 Madhu Arora द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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इक समंदर मेरे अंदर - 23

इक समंदर मेरे अंदर

मधु अरोड़ा

(23)

उसे छोड़ने से पहले वह भी तो हज़ार बार सोचेगी। सोचेगी ही नहीं, नौकरी छोड़ने के ऑफ्टर इफेक्ट्स भी देखेगी। एक औरत के लिये आर्थिक स्वतंत्रता बहुत मायने रखती है, यह वह अपनी पढ़ाई के दौरान देख चुकी थी।

भले ही वह छोटी नौकरी थी, पर अपनी फीस और जेब खर्च तो कमा ही सकती थी। पिताजी को इतना सहारा तो वह दे ही सकती थी और दिया भी था। इसी लिये वे कामना की ओर से निश्चिंत थे।

अंततः सोम को मुंबई में नौकरी करते करते पांच साल हो गये थे और उनके ट्रांसफर का ऑर्डर उनके हाथ में दे दिया गया था। उन्‍होंने घर आकर सहज भाव से कहा था – ‘मैंने कहा था न...अब मेरा ट्रांसफर कानपुर हो गया है। अगले सप्ताह कानपुर जॉइन करना होगा।‘

वह टुकुर-टुकुर देखती रह गई थी। ट्रांसफर में तो जाना ही होता था। अपने संस्थान में शिफ्ट कर सकती थी। साढ़े छ: साल अकेली रही थी वह अपने साढ़े तीन साल के बेटे के साथ। पता नहीं कितनी यादों ने उसके सीने में अपना घर बना लिया है, कहीं भी उमड़ आती हैं ...

उस पर ससुराल से दबाव था कि वह नौकरी छोड़ दे। सोम को खाने-पीने की तकलीफ होगी। भाभियों का फोन भी था - कामना, सोम चंचल है स्‍वभाव से। वह कहीं हाथ से न निकल जाये। हमें देखो, हम हमेशा अपने पतियों के साथ रहती हैं। समझा करो।‘

उधर से ससुर जी का फोन – ‘तुमको परिवार की चिंता नहीं है। तुम नौकरी छोड़ क्‍यों नहीं देतीं? यदि नौकरी करने का इतना ही शौक़ है तो वहीं कर लेना हज़ार-दो हज़ार रुपयों की।‘ यहां मुंबई में सोम के मित्रों की पत्नियों ने तो एक बैठक बुला ली थी और उसे भी शामिल कर लिया था।

श्रीमती बंसल का कहना था – ‘देखो कामना, हम तो तुम्‍हें समझा सकते हैं। पति को ऐसे अकेला नहीं छोड़ना चाहिये। अगर वह दूसरे शहर में अवैध रूप से दूसरी शादी कर ले तो क्‍या करेंगी?’

उधर से श्रीमती गुप्ता का कहना था – ‘अकेला आदमी छुट्टा सांड होता है और उस पर सबकी नज़र रहती है। तुम तो कोई देखने जाओगी नहीं।‘ यह सब सुनकर वह चुप ही रही थी। बहुत सोचने के बाद उसने इतना ही कहा था –

‘हजारों की नौकरी कोई छोड़ता है भला? दूसरी बात, मैंने सोम को अपने से इतना बांधकर कभी नहीं रखा है कि उनको घुटन होने लगे। मुझे कैसे रहना है, यह फैसला हम दोनों को ही करने दें, तो बेहतर होगा।‘ इसके बाद किसी ने कुछ नहीं कहा था।

एक बार उड़ते उड़ते यह बात ज़रूर सुनी थी - कामना का मायका मुंबई में है, तो वह कहीं क्‍यों जाना चाहेगी। वह अपने अम्‍मां-बाप पर ज़रूर खर्च करती होगी। यह बात जो हरक़ारा लाया था, उससे कामना ने कह दिया था –

‘जैसे वहां की बात यहां लाये हैं, वैसे ही ज़रा मेरी बात भी वहां तक पहुंचा देना। वैसे तो मैं मायके में कुछ खर्च नहीं करती, पर यदि करती हूं तो मेरे भी माता पिता हैं। आज यह बात कही सो कही, पर आगे से इस तरह की बात नहीं उठनी चाहिये। अब आप जा सकते हैं।‘

उसी दिन उसने श्रीमती बंसल और श्रीमती गुप्ता को घर बुला लिया था। बातें होती रही और उसने उसी दौरान कह दिया – ‘उस दिन तो मैंने कुछ नहीं कहा था, पर आज ज़रूर कहना चाहूंगी। पति साथ रहकर भी अवैध तरीके से रह सकता है किसी के साथ।

....मुझसे ऐसी बातें मत कहा कीजिये। जो भी होगा, देखा जायेगा। हां, यह बात तय है कि मैं नौकरी नहीं छोड़ रही। जल्‍दी ही अपने संस्थान के कैंपस में शिफ्ट कर जाऊंगी। आज आप दोनों को चाय पर बुलाया है।‘

यह कह कर उसने चाय का पानी चढ़ा दिया। समोसे वह पहले ही ले आई थी। उन लोगों को चाय पीना भारी पड़ रहा था। किसी तरह से चाय पानी हुआ और उन लोगों ने अपने घर की राह पकड़ ली थी।

जिस बात से वह डर रही थी, वह हो ही गई। अभी तो घर पूरी तरह से बसा भी नहीं था और एक बार फिर से शिफ्टिंग। समय बहुत कम था। इतनी मुश्‍किल से तो घर मिला था। अब क्‍या करे...उसे याद आया कि उसके संस्थान का भी तो कैंपस था।

अब जो करना था, उसने सोच लिया था कि उसे क्‍या करना था। दूसरे दिन ऑफिस पहुंची तो प्रशासनिक अधिकारी के पास गई – ‘सर, अचानक मुसीबत आ पड़ी है’ और यह कहकर अपनी बात बता दी।

उन अधिकारी की विशेषता थी कि कितनी भी बड़ी समस्‍या हो, वे कूल रहते थे। कभी उनके माथे पर सिलवटें नहीं देखी थीं। बोले – ‘ओके। आप एक काम करिये। अभी कैंपस में एक फ्लैट खाली है। अभी तक किसने अप्लाई नहीं किया है। आप कर दें।‘

उसने बिना किसी देरी के कुछ ही देर में आवेदन कर दिया था। अधिकारी ने रजिस्ट्रार से बात की और उन्‍होंने कहा – ‘ठीक है। कोई न कोई इंतज़ाम कर देंगे। उनको कैंपस का फ्लैट दे देंगे।‘

चूंकि कामना के लिये फ्लैट का मिलना फौरी तौर पर ज़रूरी था, इसलिये उसका आवेदन पत्र तत्काल के आधार पर आगे भेजा गया था और दो दिन बाद उसे इस आशय का पत्र मिला कि फ्लैट उसके नाम आबंटित हो गया था।

आखिरी तारीख़ तक किसी ने आवेदन नहीं किया था। यह सुनकर सोम निश्चिंत हो गये थे। कामना के ऑफिस के ड्राइवर का टैंपो था, जो वह सामान शिफ्ट करने के लिये किराये पर देता था। कामना का काम आसान हो गया था। दो दिन बाद ही शिफ्ट करना था।

उस समय तक सोम मोटर साइकिल ले चुके थे। कामना रात को दो बजे तक जागती रही और सोचती रही कि क्‍या अकेले सब सैट कर पायेगी? बाकी सारा सामान तो टैंपो में चला जायेगा, पर इस बाइक का क्‍या होगा? यह कैसे टैंपो में जायेगी।

अचानक सोम की नींद खुली और उसको जागते देखा, तो पूछा – ‘अभी तक सोई नहीं तुम? सो जाओ। कल सामान शिफ्ट करना है।‘ इस पर वह बोली – ‘वह तो ठीक है, पर इस बाइक को कैसे ले जायेंगे?’

इस पर सोम हंसकर बोले - सरदारनी जैसी बातें करती हो। इस बाइक पर चिंकू और तुमको बिठाकर तुम्‍हारे कैंपस में छोड़ने जाऊंगा। चलो अब सो जाओ। उल्‍टी-सीधी बातें सोचती रहती हो।‘ वह निश्चिंत होकर करवट लेकर नींद के आगोश में चली गई थी। सुबह को होना था और वह हुई।

शनिवार को सुबह सात बजे टैंपो आ गया था। ड्राइवर अपने साथ चार लड़कों को भी ले आया था। सोम ने कार्टन्‍स पहले ही पैक कर दिये थे। आनन-फानन में टैंपो पर सामान चढ़ा दिया गया था और उसके आगे आगे सोम की बाइक थी।

चिंकू बाइक पर आगे बैठा था और हवा के झोंकों से खूब खुश था। आज उसे बालवाड़ी नहीं जाना था। इस तरह बीस मिनट के बाद कामना अपने संस्थान के कैंपस में थी। इस मामले में वह भाग्यशाली रही कि उसने जो चाहा, उसे मिला, भले ही देर से मिला और काफी संघर्ष के बाद मिला था।

कैंपस की हरियाली देखने लायक थी। चारों ओर हरे-भरे पेड़ और बीच में तालाब, जो दलदल से भरा था। संस्थान की सड़क से दायीं ओर जाने पर एक दरगाह था, जहां संस्थान के कुछ कर्मचारी रहते थे। वह रास्‍ता उसे रहस्यमय ही लगा था।

सुबह के समय लोग टहल कर आ रहे थे। जो कर्मचारी परिचित थे, वे मुस्करा कर स्‍वागत कर रहे थे और एकाध ने तो पूछ भी लिया – ‘मैडम, तुम्हीं कैंपसमधे राहायला आले का? छान।‘

रविवार को सोम को जाना था। उनको वीटी स्‍टेशन छोड़ने के लिये वह और चिंकू गये थे। स्‍टेशन पर बात करते रहे और चिंकू से बोले – ‘मम्‍मी को तंग मत करना। मैं अगले महीने आऊंगा।‘

इस बात का जो उत्तर दिया गया, सोम उसकी कल्‍पना भी नहीं कर सकते थे। आइसक्रीम खाते हुए तीन बरस का चिंकू बोला था – ‘पापा, जैसे आप मुझे अकेला छोड़कर जा रहे हैं, वैसे ही एक दिन मैं आपको अकेला छोड़कर बहुत दूर चला जाऊंगा।‘

यह सुनकर कामना की आंखें नम हो आई थीं और वह अंदर तक कांपकर रह गई थी। उन तीनों में से कोई कुछ नहीं बोला था और वह बेटे की उंगली पकड़कर चुपचाप वापिस एक्‍ज़िट गेट की ओर चल दी थी।

सच में चिंकू 12वीं पास करने के बाद उच्च शिक्षा ग्रहण करने दूसरे शहर में चला गया था और उच्चतर शिक्षा के लिये और उसके बाद तबादले वाली नौकरी में शहर-दर-शहर रहा था। उसने भी अच्‍छे जीवन-स्‍तर के लिये जितने पापड़ बेले थे, वही जानता था।

कामना तो बस तीन टिफिन देती रही कि उसे भूखा न रहना पड़े। पूरे नौ साल बाद वह घर लौटा था अपने चेहरे पर आत्‍मविश्‍वास से भरी चमक और तेजस्वी चेहरे के साथ। वह तेज़ सोम के चेहरे पर भी था और कामना के चेहरे पर भी था। इसी तेज से छोटे बेटे अवि का चेहरा दमकता है।

वह साठ वर्ष की होने के बाद भी युवा लगती है....यह सभी कहते हैं और वह इसे स्‍वीकार करती है। छोटे बेटे की बड़ी बड़ी काली ओर गहरी आंखें। वह चश्मे से जब उन आंखों से देखता है तो कामना दंग रह जाती है। बच्‍चे कब बड़े हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता।

वह हंसकर कहती है – ‘आंखों से डराते हो मुझे? चलो खाना खाओ...धीमी गति की पेंसेजर ट्रेन और वह कहता है - रुको, मैं बाहर जा रहा हूं। एक घंटे में वापिस आता हूं।‘ वह वापिस आता है रात को ग्‍यारह बजे।

पूछने पर मासूम सा उत्तर... ‘देर से आने की कह कर जाता तो आप जाने नहीं देतीं। अचानक मीटिंग आ गई थी। मेरे लिये खाने से ज्‍य़ादा ज़रूरी मीटिंग थी मम्‍मी, समझा करो। जिस अम्‍मां ने उंगली पकड़कर चलना सिखाया, वे ही बच्‍चे अपनी अम्‍मां को समझा रहे थे।

धन्य हैं ये बच्‍चे और आज की युवा पीढ़ी और फिर हंस देती है। उसने तो हंसना ही सीखा है, मुसीबतों में, दिल को जख्म मिलने पर...आखिर वह बेटी किसकी है। अपनी आंखों में पानी आने ही नहीं देती...आंखों में पानी बाकी रहना ज़रूरी है।

चरित्र बेदाग़ रहे, उसके लिये हर किसी से दूरी रखना ज़रूरी है। इस पर भी कोई हल्की ज़ुबान बोले तो उसकी ऐसी की तैसी। उसकी जात का बैदा मारूं। हंसते हंसते यह मराठी में दी जानेवाली गाली है। इस गाली का कोई बुरा नहीं मानता।

कामना ने यह गाली आज गुस्‍से में आकर दी थी और फिर हंस पड़ी थी यह सोचकर कि सब भिन्न भिन्न प्रकार की गालियां देते हैं तो उसने भी दे दी। क्‍या कर लेंगे उसका और क्‍या बिगाड़ लेंगे...हुंह

.....वह भी कहां की कहां पहुंच जाती है। बात सोम के शहर छोड़ कर जाने पर हो रही थी। चिंकू की बात से माहौल इतना भारी हो गया था कि वह बाय करना भी भूल गई थी। अब वह मुंबई में अकेली थी, नितांत अकेली। शादीशुदा लड़की का रोज़ रोज़ मायके जाना और मायकेवालों का अपनी लड़की के घर आना शोभा नहीं देता।

वैसे भी उसके मायके से कोई रहने आया ही नहीं था और लोकल होते हुए भी वह अपने मायके दो दिन रहने भी नहीं गई थी। वह शनिवार को मिलने जाती थी और शाम को छ: बजे घर वापिस आ जाती थी।

अब तो उसे अकेले ही लड़ना था। वह स्वयं को मानसिक रूप से तैयार कर रही थी। अगले दिन उसे भी ऑफिस जाना था। साथ ही चिंकू का लोअर केजी में एडमिशन भी कराना था।

कैंपस से ही पता चला कि ऑफिस की ओर से अपने बच्‍चों को वहां आसानी से एडमिशन मिल जाता था। दस प्रतिशत रिज़र्वेशन था। यह जानकर कामना को बहुत अच्‍छा लगा था। उसे अन्‍य माता-पिताओं की तरह उसे अपने बेटे के एडमिशन के लिये मारामारी नहीं करनी पड़ेगी।

न अवांछित डोनेशन देना पड़ेगा। वह औरों से सुनती थी कि लोअर केजी में एडमिशन के लिये बीस हज़ार रुपये देना होगा। यह तो अच्‍छा था कि वह मार्च का महीना था और स्‍कूल में एडमिशन शुरू होने वाले थे।

उसने चपरासी से कहकर लोअर केजी का फॉर्म मंगवाया और भरकर ऑफिस के प्रशासन अनुभाग में जमा करवा दिया था। ये काम ऑफिस के जरिये ही होता था। सिर्फ़ फीस भरने के लिये जाना पड़ता था। उन दिनों लोअर केजी की फीस नाममात्र की थी। स्‍कूल के पास ही पाठ्यक्रम की पुस्तकों की दुकान थी।

उन्‍होंने किताबों के सैट तैयार करके बैग तैयार करके रखे थे। पूरा सैट लेना होता था...शिक्षा की शुरूआत जो थी। वह बैग क्‍लास में ही रखा जाता था। छात्र को खाली स्‍लेट लेकर जाना होता था। अस्‍सी के दशक तक छोटे बच्‍चों को स्‍लेट पर बत्ती से लिखना सिखाया जाता था।

संस्थान की बस कैंपस के बच्‍चों को स्‍कूल छोड़ने और लेने के लिये जाती थी। शाम को कामना पांच बजकर चालीस मिनट पर घर आ जाती थी। अब उसे चिंकू के लिये बालवाड़ी देखनी थी, जहां वह स्‍कूल से पहुंच सके और दोपहर का खाना खा सके।

उसकी बिल्‍डिंग में ही तल मंज़िल पर एक मराठी परिवार था, जो बच्‍चे रखने का काम करती थीं। वे खुशी खुशी चिंकू को रखने के लिये तैयार हो गई थीं। तय हुआ कि वे हर महीने के पांच सौ रुपये लेंगी और उसके एवज में स्‍कूल से आने के बाद चिंकू को लंच और शाम को नाश्‍ता देंगी।

उनकी बेटी शीना भी उसी स्‍कूल में जाती थी, जहां संस्थान के बच्‍चे जाते थे। शीना स्‍कूल से आकर चिंकू को पढ़ाती थी। इस तरह कामना का काम थोड़ा हल्का हो जाता था। कैंपस शहर से दूर था और सोम बाइक भी कानपुर ले गये थे।

उसका घर से बाहर आना जाना क़रीब क़रीब बंद हो गया था। सोशल कॉन्‍टेक्‍ट्स खत्‍म....न कोई बुलाता था और न कोई आता था। अब तक सारे मित्र सोम के थे और सोम के वहां न रहने पर वे किनारा कर गये थे।

वह धीरे धीरे इस अकेलेपन की आदी होती जा रही थी। हां, उसे रात में अंधेरे से बहुत डर लगता था। रात को पेड़ झूम-झूमकर खिड़की से टकराते थे और सांय सांय हवा चलती थी। उसके दिल में हौला सा उठता और लगता था कि ये हवा खिड़की तोड़कर अंदर आ जायेगी।

वह पूरे फ्लैट की ट्यूब लाइट जला देती और तब कहीं जाकर नींद आती। सुबह चार बजे जब उस पेड़ पर एक चिड़िया बैठकर ‘हे राम...हे राम’ बोलती, तो उसकी जान में जान आती....सुबह हो गई....जागो। वह घड़ी देखती तो उस समय सुबह के पांच बजे होते थे।

वह फिर से चादर तान लेती और फिर सो जाती थी। ठीक छ: बजे एक अलार्म बजता और उसके बाद आलस करना बेकार था। वह एक चाय पीती और साथ ही सब्जी काटने में लग जाती थी।

वैसे तो वह सुबह टीवी नहीं चलाती थी, लेकिन रविवार को सुबह चित्रहार कार्यक्रम देखने के लिये ज़रूर लगाती थी। उस दिन भी तो रविवार ही था और उसने टीवी ऑन किया। यह क्‍या? प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्‍या कर दी गई थी।

चैनल वाले बार बार रिवाइंड करके 21 मई, 1991 दिखा रहे थे। वह सन्नाटे में रह गई थी। उसे राजीव गांधी बहुत पसंद थे। वे पेशेवर राजनीतिज्ञ नहीं थे। वे तो पायलट थे। उनके चेहरे पर एक मासूमियत और बोलने का शरीफाना अंदाज उसे बहुत अच्‍छा लगता था।

कितनी सहजता से हिंदी बोलते थे। वह इस सदमे को सह नहीं पाई थी। टीवी पर बार बार हत्यारों के चेहरे दिखाये जा रहे थे और वे देखने में ही इतने डरावने लग रहे थे, और वह धनु...मानव बम से लैस। उसने इस जघन्य कार्य के लिये खुद को कैसे तैयार किया होगा?