लिखी हुई इबारत - 8 Jyotsana Kapil द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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लिखी हुई इबारत - 8

दंश
बाबूजी ने बहुत उमंग व आतुरता से दरवाजे पर लगा घण्टी का बटन दबाया। सोच रहे थे, उन्हें अचानक सामने देखकर बिटिया कितनी खुश होगी। कितना समय हो गया उससे मिले।
कुछ देर बाद लड़खड़ाते हुए जमाई बाबू ने दरवाजा खोला। मुँह से एक तेज बदबूदार भभका निकला। उसके हाथ में शायद कोई आभूषण था। प्रणाम की मुद्रा में जुड़े उनके हाथ यूं ही रह गए।
“बाबू जी आप!”
बेटी पर निगाह पड़ी तो कलेजा मुँह को आ गया। तन पर मारपीट के निशान, शरीर पर आभूषण के नाम पर नाक की कील तक न थी। आँखों के नीचे पड़े स्याह घेरे अपनी कहानी खुद कह रहे थे। उसकी दशा देखकर बहुत देर तक पछताते रहे। फिर बोले
"तू चल मेरे साथ, अब मैं तुझे इस नर्क में एक पल भी नही रहने दूँगा।"
"नहीं बाबूजी, अब तो यही तकदीर है मेरी, जिसे कभी आपने चुना था मेरे लिए।"
"मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई बेटी।”
"माँ-बाप से कभी कोई कोई गलती कहाँ होती है बाबूजी!" कहते हुए अश्रु उसकी आँखों से निकल कर गालों से ढलक पड़े।
“बेटी तुमने कभी बताया भी नहीं कि…"
“ आप सुनते मेरी ? पहले भी कहाँ सुनी आपने मेरी …आपको विश्वास ही नही हुआ कि मैं भी कोई सही निर्णय ले सकती हूँ। तब आप जात-बिरादरी लेकर बैठ गए थे। अब यह आपकी जात-बिरादरी के हीरे जैसे वर की चमक में मुझे रिसना है जिंदगी भर!"
उसकी आँखों से बहते अश्रु देखकर बाबूजी तड़प उठे।
“नहीं बेटी, नहीं। हर भूल को सुधारा जा सकता है।मैं अब तुझे यहाँ सिसक सिसक कर ज़िन्दगी तमाम करने की इजाज़त नही दे सकता । तेरे हाथ की लकीरों को बदलने की ज़िम्मेदारी अब तेरे पिता की है । ”
विडम्बना

" क्या ! साहित्य सिर्फ 150 रु किलो ? " फुटपाथ पर एक जगह हिंदी साहित्य की पुस्तकों का ढेर और उसके साथ लगा हुआ बैनर ' हिंदी साहित्य 150 रु. किलो ' देखकर पुस्तक प्रेमी अंकित चिहुँक उठा।
" मैंने तो फिर भी ज्यादा कीमत लगा दी है वरना कौन पूछता है इस रद्दी का ढेर को। " व्यंग्य से उस कबाड़ी का स्वर तिक्त हो उठा।
" ज़ाहिल हो तुम, इन की कीमत तुम क्या जानो।"
" तो आप ही बता दीजिए न। "
" ज्ञान का बेशकीमती खजाना हैं ये। "
" अच्छा ! पहली बार सुन रहा हूँ ये बात ।"
" और क्या, लेखक बेचारा दिन रात खुद को भूलकर सृजन करता है और तुम उसकी मेहनत को यूँ कौड़ियों के मोल बेच रहे हो। "
" और बदले में मिलता क्या है लेखक को ? "
" लोगों का मान-सम्मान, पैसा। "
" आप न जाने सपनों की किस दुनिया में जी रहे हैं। वरना आज के दौर में बिकने को तरसती हैं ये किताबें। लेखक हर कष्ट उठाकर कलम घिसता है, पर प्रकाशक इन्हें पूछता तक नहीं। फिर वो अपनी जमा पूँजी लगाकर छपवाता है, इस आस में की लोग पढ़ेंगे और उसका लगाया धन वापस आ जाएगा। पर लोग हैं कि मुफ़्त पाने की जुगाड़ में रहते हैं। लेखक बेचारे की तो कमर ही टूट जाती है। "
" ज्यादा ज्ञानी मत बन,तू कितना जानता है लेखक के बारे में "
" मैं सब जानता हूँ, हर जगह शोषण है लेखक का। कई बार तो उसकी बिकाऊ रचना पर नाम तक किसी और का होता है। "
" बात तो ऐसे कर रहा है जैसे कितने लेखकों से वास्ता पड़ता रहता है तेरा। "
" जी, बिलकुल जानता हूँ एक ऐसे ही लेखक को , जिसकी रचनाएँ छापकर प्रकाशक माल कमा रहे हैं, और उसका परिवार छोटी- छोटी ज़रूरत पूरी करने को तरस रहा है। "
" अच्छा ! कौन है वो ?"
" ........................."
" बताओ भाई। "
" मैं खुद। "