मौत उनके बदन पर अपना वहशी पंजा पसारने लगी. उन्हें ऐसा लगने लगा जैसे यह गुफा ही उनकी जिंदगी का अंतिम ठिकाना हो. मृत्यु उनकी आंखों के सामने दिखाई देने लगी. वे आखरी बार अपने अपने इश्वर को याद करने लगे.
कहते है; जो हिम्मतवान होते है, उनको तो खुदा भी मदद करता है. फिर इन सब बहादुरों की दुर्दशा खुदा को कैसे मंजूर होती?
तभी नियति ने इन साहसी लोगों की मौत को नामंजूर कर दिया. और वो हो गया; जो अप्रत्यासित था!
अचानक राजू के बदन में कुछ हिलचाल हुई. उसने हिम्मत इकठ्ठा की. और त्वरा से कार्बन डायऑक्साइड बम निकाल, जलती आग पर छोड़ दिए. तुरंत उस बम ने धमाके के साथ हवा में कार्बन डायऑक्साइड फैला दिया. और आग बूझ गई.
मुरदों में जैसे जान आ गई. साफ़ हवा के लिए तरस रहे सब गुफा छोड़, बाहर भागे. जल बिन तड़पती मीन को जैसे समंदर मिल गया. साँसों में ताजा हवा जाते ही उनके होश ठिकाने हुए. और वे कुछ कर सकने की हालत में लौटे. उनको एक नई जिन्दगी मिल गई थी.
अब चौंकने की बारी उन आदिम लोगों की थी. उन्होने तो सब को गुफा में ही रौंद कर मार डालने का पक्का बंदोबस्त किया था. पर अचानक आग ऐसे ही कैसे बूझ गई? इस चमत्कार से वे मनुष्य चकित रह गए. ऐसे ही उनकी अचंभित अवस्था में कुछ पल गुजर गए. और वे कुछ कर न पाए. पर तब तक राजू और उनकी टीम को संभलने का मौका मिल गया.
फिर जैसे ही आदिम लोगों को होश आया, उन्होंने पत्थरों से राजू और उनके साथियों पर हमला कर दिया. इस आक्रमण से बचने के लिए सभी ने दौड़ कर एक पेड़ के नीचे शरण ली. पर तभी ऊपर से पत्थर आ कर उन पर गिरने लगे. हेलमेट की वजह से उन्हें ज्यादा गंभीर चोट नहीं पहुँच रही थी. पर फिर भी इस हमले ने उन सब को बेबस कर दिया.
भीमुचाचा ने ऊपर देखा. दो आदमी ऊपर बैठे हुए नजर चढ़ गए. तत्काल उनकी बंदूक गरज उठी. उसी पल दोनों की चीखें निकल गई. धड़ाम से दोनों नीचे आ गिरे.
भीमुचाचा ने दोनों के पैरों पर गोलियां चलाई थी. एक के घुटने में और एक की जांघ में गोली लगी थी. चीखना चित्कारना दोनों का जारी था. उनकी ह्रदय दहला देने वाली चीखें सुन, उनके अन्य साथी दो घड़ी सदमे में आ गए. वे पत्थर बरसाना भी भूल गए.
तभी बगल वाले पेड़ पर हिलचाल हुई. और तीन लोग नजर में पड़ गए. इस बार भीमूचाचा के अन्य साथियों की बंदूकें चल पड़ी. उन तीनों का भी वहीँ हश्र हुआ, जो पहले वालों का हुआ था.
अब पांचों की चीखों ने वातावरण को कंपा दिया. किसी भी आदिम मनुष्य की हिम्मत बाहर निकलने और उन घायलों की मदद को आने की नहीं हो रही थी. दहशत ने उनके दिलों पर कब्जा कर लिया था. पत्थर या तीर बरसाना तो वे बिलकुल भूल ही गए थे.
उन पांचो की दिल दहला देने वाली चीख़ों से जरा सी देर तक तो राजू और उनके साथी भी कांप गए. फिर वे आगे बढ़े और घायलों के पास पहुँचे. कोई हमला नहीं हुआ. सायद घायलों की चीख़ों और उनकी हालत से वे आदिम भी कांप गए होंगे. और इसलिए दुबक कर बैठे रहे होंगे.
फिर राजू, संजय और पिंटू उन पांचों के घाव साफ़ करने लगे. अन्य साथी भी उनकी मदद में लगे. जिन घायलों के बदन में गोली रह गई थी, उनके बदन से गोली निकाल दी. फिर घावों पर मरहम पट्टी की. और दर्द नाशक व संक्रमण रोधी इंजेक्शन दिए. इससे उन सबों को कुछ आराम हुआ.
घाँस पत्तियाँ इकठ्ठा कर, बिस्तर बनाए गए. और उनपर पांचों को लेटा दिया गया. उन्हें पानी एवं फल भी खाने को दिए.
यह सब उपद्रव वे आदिम लोग भी पेड़ों पर बैठे बैठे देख रहे थे. इस मानवीय कार्य से उन लोगों पर अच्छा प्रभाव पड़ा. फिर उन्होंने कोई हमला नहीं किया.
तभी एक पेड़ से दो तीन आदिम उतर कर खड़े हो गए. वे इन्हीं लोगों की और देख रहे थे. पर नजदीक आने से दर रहे थे. राजू और उनके साथियों ने भी यह हाल देखा. वे समझ गए की वे आदिम इन पांचों के पास आना चाहते हैं. पर उन्हें उनका दर लग रहा है. इसलिए वे उन पांचों घायलों से हट, दूर खड़े हो गए. और उन्हें नजदीक आने का मौका दिया. फिर तो अन्य लोग भी पेड़ों से उतर कर आने लगे. वहां बड़ा भावुक दृश्य पैदा हो गया. वे मनुष्य अश्रु भरी आंखों से उन पांचों घायलों के प्रति जिस प्रकार प्रेम और सहानुभूति प्रदर्शित कर रहे थे, वैसा निःस्वार्थ प्रेम और बंधुत्व की भावना आधुनिक दुनियाँ में देखने को नहीं मिलती.
दूर खड़े खड़े देख रहे राजू और उनके साथियों के दिल भी इन आदिम मनुष्यों का आपसी प्रेम देखकर भारी हो गए. वे सोचने लगे.
आदिम मनुष्यों के खिलाफ उनकी लड़ाई अब खत्म हो गई थी. जिसमे आखिर उनका विजय हुआ था. पर ये विजय क्या उनके पास जो आधुनिक हथियार थे, उसने दिलवाया था?
नहीं. ये तो उनके मानवीय कार्य ने दिलवाया था. इस मानवता ने सिर्फ लड़ाई ही नहीं, दुश्मनावत को ही खत्म कर दिया था.
फिर वे जिस आधुनिक कही जाने वाली दुनियाँ में रहते है, उस दुनियाँ में तो सदियों से इंसान आपस में युद्ध लड़ रहे हैं. हजारों लाखों इंसानों की आपस में हत्या कर रहे हैं. क्यूँ?
क्यूंकि वे युद्ध का समाधान चाहते हैं, युद्ध से. दुश्मनी का समाधान चाहते हैं, दुश्मनी से. बैर लेना चाहते हैं. अन्य पर अपना प्रभाव स्थापित करना चाहते हैं. दूसरों से ज्यादा लाभ प्राप्त करना चाहते हैं.
पर क्या उनका यह ध्येय सिद्ध हो पाया? अगर ध्येय सिद्ध हो गया है, तो सदियों से युद्ध क्यूँ इसी तरह जारी है?
तो फिर क्या युद्ध और बैर हर इंसान की फितरत में है? क्या युद्ध कोई आम इंसान शुरू करता है?
नहीं. आम इंसान तो शांति चाहते हैं. उसे तो अपने परिवार की ख़ुशियाँ चाहिए. बच्चों की शिक्षा एवं स्वास्थ्य चाहिए. तरक्की चाहिए. बेहतर जिंदगी चाहिए. वे तो ऐसा समाज चाहते हैं, जहां उसकी भावी पीढ़ी बिना कोई खोफ के जिंदगी गुज़ार सके. वे तो युद्ध, लड़ाई या लड़ना झगड़ना कतय नहीं चाह सकते. क्यूंकि युद्ध, लड़ाई में वे ही तो मरते हैं! उनके बच्चे ही तो मरते हैं! उनके ही भाई बाप तो मरते हैं! उनके ही परिवार तो उजड़ते हैं!
फिर युद्ध और सामाजिक बैर के लिए कौन जिम्मेदार हैं?
युद्ध, लड़ाई, सिर्फ कुछ इक्के दुक्के नाकाम और सत्ता लोलुप लोगों का निजी स्वार्थ मात्र है. अगर वे लोगों को युद्ध, दुश्मनावत, आपसी बैर और सामाजिक अविश्वास एवं असुरक्षा की भावना में उलझाये नहीं रखेंगे तो वही लोग, जिन पर वे प्रभाव रखते हैं या शासन कर रहे हैं, सवाल करना शुरू कर देंगे कि तुम जनता की भलाई और विकास के लिए क्या कर रहे हो? और जिस दिन आम आदमी के दिमाग में ऐसे सवाल पैदा होना आरम्भ हुए, उस दिन उनका प्रभाव और सत्ता की बुनियाद ही पूरी तरह से हिल जाएगी.
फिर तो उनके पास एक मात्र उपाय यहीं रहता है कि इंसानों को दुश्मनी, लड़ाई और आपसी बैर में ही उलझाया रखा जाए. उनकी आंखों पर फरेब का पर्दा लगाया रखा जाए. उसे कभी एक न होने दिया जाए. उनकी लाचारी को, मजबूरी को अपना हथियार बना, उनपर प्रभाव स्थापित किया जाए. वर्ना इंसानों की एकता में यह ताकत है, जिसके सामने शक्तिशाली सम्राट भी बेबस हो जायेंगे.
***
राजू और उनके साथियों को इंसानियत का जादुई परचा मिल गया था. वे इस मानवता को अपने दम में भरते हुए वहां से चल दिए. अपनी मंजिल की और.
"उन लोगों के पास हमारे जैसे हथियार नहीं थे. वर्ना उन्होंने युद्ध निति में हमें साफ़ परास्त कर दिया था. और हम उनकी व्यूहरचना के सामने बिलकुल बेबस थे." भीमुचाचा ने जाते जाते आदिम लोगों की तारीफ में सूर निकाले. और एक नजर मुड़कर उनको देखा. वे सब भी राजू और उनके साथियों को जाते देख रहे थे.
भीमुचाचा की बात सब ने सुनी. पर चुप्पी साधे सब चलते रहे.
अद्यतन होने का दम भर रहे आधुनिक लोगों को उन आदिम लोगों ने कैसे बेबस कर दिया था, यह याद कर, वे शर्मिंदगी महसूस कर रहे थे. और उन आदिम लोगों की काबिलियत के प्रति उनके ह्रदय में सम्मान भी पैदा हुआ. मन ही मन सब उन आदिम लोगों की तारीफ़ करने लगे.
***
सारे धन को अपनी याट तक लाने में राजू और उनकी टीम को पूरे तीन दिन लग गए. आखिर में भावुक ह्रदय से और अश्रु भरी आंखों से उस द्वीप को उन्होंने सदा के लिए अलविदा कह दिया.
इस द्वीप ने उन्हें मानवता का सबसे बड़ा सबब सिखलाया था. प्राकृत अवस्था में जी रहे इंसानों से भेंट करवाई थी. जिसे वे बिलकुल भी नहीं जानते थे, ऐसे दोस्त दिए थे. उनके धैर्य और हिम्मत की कसौटी की थी. और सबसे बड़ी बात. उन्हें नई जिंदगी भी इसी द्वीप पर मिली थी. इन सब बातों को याद करते वे अपनी दूर जाती याट से इस द्वीप को जब तक दिखाई देता रहा, नम आँखों से देखते रहे.
उन संदूकों में से निकले मेघनाथजी के पत्रों से पता चला कि ग्यारह संदूकों में से नौ संदूकों का धन मेघनाथजी के सेठ की मालिकी का था. मेघनाथजी ने अपने पत्रों में साफ़ लिखा था कि उनके सेठ की मालिकी के धन को उसके सेठ या उनके वारिस तक पहुंचाया जाए. और अगर उनका कोई अता पता न मिले तो ज़रूरतमंद ग़रीबों में सेठ के धन का दान कर दिया जाए. पर उनके परिवार का कोई भी सदस्य इस पराये धन को हाथ भी नहीं लगाएगा.
शेष दो संदूकों के धन के मालिक मेघनाथजी स्वयं थे. पर यह धन भी आज के जमाने के हिसाब से करोड़ो डॉलर के मूल्य का था. पर जिस तरह इस द्वीप ने राजू और उनके साथियों को मौत से भेंट करवा दी थी, इससे उनके मन में धन के प्रति मोह नहीं रह गया था. बल्कि इस धन को याद करने मात्र से उनके दिमाग पर वे उनकी जिन्दगी की सबसे बुरी यादें कब्जा कर लेती थी. और वे सर से पाँव तक सिहर उठते थे.
अंततः, याट ने अपने देश के किनारे को छुआ. सब ने गदगद हो कर अपनी मातृभूमि को चूमा. और नई जिंदगी देने के लिए ईश्वर का धन्यवाद किया.
राजू ने मेघनाथजी के धन में से सब को उचित से ज्यादा ही लाभ दिया. इस धन से प्रताप और हिरेन ने अपने अपने स्वतंत्र व्यवसाय शुरू किये. भीमुचाचा ने नई नौकरी ढूंढने के बजाय सामाजिक सेवा करना आरम्भ कर दिया. रफीकचाचा ने भी गेटकिपर की नौकरी छोड़, चाय नाश्ते का छोटा सा स्टॉल लगा लिया.
मेघनाथजी के सेठ के रिश्तेदारों की खोज की गई. पर उनका कोई पता न चला. अतः, उनका सारा धन गरीबों एवं जरुरतमन्दो की भलाई के लिए प्रयोग में लाया गया. और शेष बचे धन को विश्व स्तर पर मानवता के लिए कार्य कर रहे संगठनों को डॉनेट कर दिया गया.
आखिर जेसिका ने अपना पीएचदी सम्पूर्ण कर लिया. उसने गुफा वासी आदिम लोगों पर अपना संशोधन लेख प्रकाशित कर विश्वभर में बहुत ख्याति अर्जित की.
और सब से बड़ी बात, जेसिका और दीपक, जिनका रिश्ता अब दोस्ती से थोड़ा ज्यादा आगे बढ़ चूका था, उन्होंने शादी करने का फैसला कर लिया था. और थोड़े ही दिनों में दीपक भी अब UK स्थायी होने वाला था.
राजू, संजय और पिंटू ने मिलकर अपनी इस यात्रा के अनुभवों पर एक किताब लिखी. जो उस साल की बेस्ट सेलर बुक साबित हुई. अब तीनों दोस्त मिलकर दुनियाँ की अनजानी जगहों की यात्रा करते हैं. और उसके अनुभवों पर किताबे लिखते हैं. इसी को उन्होंने अपना व्यवसाय बना लिया है.
जब तीनों अपनी इस पहली साहसी यात्रा पर किताब लिख रहे थे, तभी उनको एक ऐसे रहस्य का पता लगा, जिनको जानकर उनको जबरदस्त झटका लगा. इस रहस्य की बात जब उन्होंने अन्य साथियों को फोन पर बताई, तब वे भी स्तब्ध रह गए.
रहस्य कुछ यूँ था कि वह सितारे मिलकर आकार लेती हुई दो मुंह वाली सर्प की आकृति की घटना सात साल में सिर्फ एक दिन ही घटित होती थी.
मतलब यह कि जिस दिन वह घटना घटित होने वाली थी, उसी दिन उन लोगों का माउंट पेले पर पहुंचना; यह सारा खेल किस्मत का ही बना बनाया था. जिनको जानने के बाद उन लोगों का ईश्वर एवं किस्मत पर भरोसा बहुत बढ़ गया.
समाप्त.
यह कहानी, उनके पात्र एवं घटना सम्पूर्ण रूप से लेखक की कल्पना मात्र है. और वास्तविकता से इनका कोई नाता नहीं है. अगर कहीं किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध पाया जाता है, तो इसे मात्र संयोग ही समजा जाए.