वो लोग : ये लोग Mukesh Verma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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वो लोग : ये लोग

(एक जुड़वा कहानी.)

वो लोग : ये लोग

— मुकेष वर्मा.

वे लोग

मेरे पिता शहर की सहकारी पेढ़ी के हैड मुनीम थे। सब लोग उन्हें हैड साब कहकर पुकारते। अमूमन पुलिस के सिपाहियों को इस नाम से जाना जाता जिसमें जितना कम गौरव प्रगट में था, उससे कई गुना ज़्यादा तिरस्कार और उपहास भीतर शामिल था, लेकिन पिता के लिए यह भाव नहीं था, सुनकर वे जरा सा लजाते, हँसते, हाथ नचाते मना जैसा कुछ करते, कुछ इन्कार और कुछ इकरार के बीच डगमग मुस्कुराते। इस हँसी के बीच उनकी सांवली छोटी नाक रह—रह कर चमकती। लोगों के साथ वे भी ऐसे ही हँसते। हम बच्चों को लोगों का यह ढंग पसंद नहीं आता लेकिन उन्हें ऐसा कोई ख़्याल नहीं, वे अपनी धुन में रहते। गाते रहते; छांड़िये ना हिम्मत, बिसारिये ना हरि नाम, जाही विध राखे राम ताही विध रहिये।

लम्बा लपकता कद, तांबा मिला गोरा रंग, खिचड़ी मूँदें कुछ कुछ नीचे गिरती सी और ऊँचा ऊँचा फैलता ढेर सारा अपनापन और यहीं से वे हमें बेहद अपने लगते। ऐसे हमारे पिता।

जहाँ तक मैं उस उमर में देख पाया, वे बड़ी फजर उठते और कोई भी रुत हो, कैसी भी हो, पाँच बजने के पहले ही छड़ी लेकर बाहर निकल जाते। चलने में दिक्कत नहीं थी और शहर भर के कुत्ते, बिल्ली, गाय, भैंस, तमाम जानवरों से पक्की बोल—चाल थी, आदमियों का तो ख़्ौर सवाल नहीं तो फिर छड़ी क्यों रखते, कभी बूझ नहीं पाया। घूमने का कोई ठिकाना नहीं था। मन की मर्जी, दिल के राजा, ऐसा वे ख़्ाुद कहते। और फिर रानीपुरा के छोटे तालाब के उस 2पार, कभी भूतेश्वर की तरफ, कभी कैन्टोनमेन्ट वाले बड़े पुल पर से रेलगाड़ियों को देखते तो कभी कजरीवन खेल—मैदान में नियमित दौड़ने पाले लड़कों के साथ दौड़ने लगते। वृन्दावन—घाट से लगा हुआ कनफटे जोगियों का जो अखाड़ा है, वहाँ उनका मन ज़्यादा रमता। भुरभुरी भसकती मिट्टी देखकर रहा नहीं जाता। बस निहाल हो जाते। खुद तो जोर करते नहीं, कहते— यार, अब उमर नहीं रही। अलबत्ता लौंडे—लपाड़ियों को शह देते और बला का शोरगुल मचाते—मचवाते। लेकिन कभी कोई जोश दिला दे या तबियत ही आखिर उछल जाए जो अक्सर होता, तो क्या कहना। कपड़े फेंक—फांक कर लकड़बग्घा दाँव के पेंच दर पेंच दिखाने में जुट जाते। सारे शहर में और आस—पास के इलाकों में, पहलवानी का यह अद्‌भुत और अजीब दाँव पिता के अख़्ितयार में ही था।

हांफते—हूंफते, मुदित—मन घर लौटते, गलियों में घूमते, मोहल्ले दर मोहल्ले में हाल—चाल पूछते, सलाह—मशविरे—ख़्ाबरें बांटते, घर के दरवाजे पर हुलसकर आवाज देते — ‘‘बाई, लो मैं आ गया.....''

जहाँ तक मैं जान पाया, मेरी माँ का नाम बाई था क्योंकि सब उन्हें बाई कहकर ही बुलाते, हम सब भाई—बहिनें, रिश्तेदार, पास—पड़ोस और पिता भी। माँ भी बुलाने पर ‘हओ' ही कहती। कन्धे पर कुर्ते को लटकाये, सकपकाये पिता को देखकर रोज की तरह माथे पर साड़ी का पल्लू खींचती माँ रोज आश्चर्य से पूछती —‘हे राम, आज का कर आए...? और जल्दी—जल्दी झूठे—सच्चे बहाने बनाते पिता हें—हें करते झट से नहानी में घुस जाते और उतनी ही फुर्ती से वे रसोई वाले बरामदे में बैठे दिखाई देते जहाँ कांसे की बड़ी थाली में गरम भात में दाल सान—सान कर चबूतरा सा बनाते और उस पर ऊपर से घी की घन्टी (छोटा सा लोटा) उड़ेल—उड़ेल कर, उंगलियों को थाली में घुसेड़—घुसेड़ कर सपड़—सपड़ कर खाते। कभी मिर्च, कभी अचार, कभी लहसुन—प्याज मांगते। खाते वक्त उनकी आँखें मुंद—मुंद जातीं और रस—विभोर हो रह—रह कर कहते; —‘बाई, कैसी उम्दा दाल पकाई.....।' पिता जितनी बार कहते, माँ का चेहरा रानी—महारानी के गर्व भाव से भर जाता। ललछौंही आभा गालों पर दमक उठती और वहीं टिक जाती। एक विलक्षण सन्तोष उनकी नाक की लौंग के पास दिपदिपाने लगता। वे वहीं उनके पास सलीके से बैठ जातीं, कभी बिजना डुलाने लगतीं और गृहस्थिन की गंभीरता को साधने की कोशिश में बात आगे बढ़ातीं लेकिन छाती भीतर उमड़ती—घुमड़ती खुशी गले तक रस की बूंदों की जो फिसलन रचा देती उसमें जुबान बार बार रपट जाती और फिर अटपटे—लटपटे वचनों के साथ, पिता को पेढ़ी से लौटते समय क्या—क्या लाना है या कौन से ज़रूरी काम बाकी रह गए हैं, धीरे धीरे उंगलियों पर टहोंके देती हुई गिनवाती जातीं जब तक पिता पेट पर हाथ मलते तेज—तूफानी डकार नहीं ले लेते।

जिस तरह रंगमंच पर पर्दा उठता और गिरता है तथा एक दृश्य के बाद दूसरा आ जाता है, ठीक उसी तरह पिता की सुबह के बाद एक छोटे अंतराल का पर्दा (जो हमें हमेशा बड़ा ही लगता) गिरता जब पिता पेढी गये होते। तब घर में कुछ घटता ही नहीं, घर जैसा तो लगता लेकिन बहुत कुछ उखड़ा सा, अजीब, उदास, अनाथ सा। लेकिन यह मनहूसियत ख़्ात्म होती शाम को, जब पिता पेढी से घर वापस आते। यह दृश्य सुबह जैसा तो नहीं, लेकिन उससे बिल्कुल उलट भी नहीं लेकिन फिर भी कुछ अलग, अलहदा रंग लिये हुये होता। सुबह जिस ऊर्जा और ऊष्मा से पिता जगर—मगर रहते, वाचालता और बचपना उनमें होता, वही यूँ तो शाम को भी होता मगर वो बात नहीं होती। शाम को वे एक वयस्क चेहरे के साथ लौटते। भारी चेहरा और भरा गला। जितने थके नहीं, उससे ज्यादा अनमने। घिनौची में मुँह धोते। बाई के हाथ की चाय पीते और वहीं बरामदे में पड़ी खटिया पर लुढ़क जाते। मेंढक की तरह हाथ—पैर सिकोड़ लेते। ऐसा नहीं कि हम बच्चों से बात नहीं करते। बाकायदा सबका हाल—चाल पूछते, बातें सुनते, पेढी की बताते। बरहमेश वे हमें कहानियां सुनाते जिनमें अजीबो—गरीब लोग और उतनी मजेदार उनकी बातें होतीं। सभी चेहरे पहिचाने से लगते जैसे उनसे हम कभी न कभी, कहीं न कहीं जरूर मिले हैं। किस्सों में उनके दुःख, भय और झूठ के रचे उलझाव होते और उन्हें तोड़ते आश्वस्ति भरे सुखद अंत जो पलकों को हौले से सहलाते हमें गहरे संतोष और अव्यक्त प्रसन्नता से भर देते लेकिन नींद में डूबते हुये मुझे अक्सर लगा कि खत्म होती कहानी में जब सब लोग आपस में गले मिलकर खुशी मना रहे होते, पिता कहीं अकेले छूट रहे होते, किसी अनकही व्यथा में दीवार से सिर टिकाये वे और... पास में बाई। अंधेरे में घुलते दो सिर... बरसों यह प्रतिबिम्ब मेरे भीतर जागता रहा और न कभी मैं और न मेरा कोई भाई—बहिन उन दोनों के दुःख को भेद पाया। इतना गोपन दुःख लिये दोनों संसार से मुस्कुराते बिदा हो गये और हम तक आँच नहीं पहुंचने दी।

या ऐसा भी कभी—कभी लगता कि कहानी सुनाते हुये वे हमसे मुखातिब नहीं हैं बल्कि खुद को सुना रहे हैं या शायद खुद को भी नहीं बल्कि सूने खंडहर में बिखरते अपनी आवाज के टुकड़े वे अकेले बटोर रहे हैं। हम में से कोई कुछ नहीं समझ पाता। हाँ, बाई जरूर उलझी—उलझी सी रहतीं जैसे कहीं कोई बड़ी चूक हो गई है और सुलझने की राह सूझती नजर नहीं आ रही है। हालांकि छोटा होते हुये मैं सभी बच्चों में से सबसे बड़ा था, और षायद समझदार भी, लेकिन यह सही है कि जिस कच्ची गृहस्थी को वे ढो रहे थे उसकी दुश्वारियों का हम में से किसी को भी जरा सा इल्म नहीं था। यह जरूर लगा करता था कि सुबह के पिता और शाम घर वापस लौटते पिता के बीच कुछ मुस्कुराहटों का फासला रहता है जो हर अगली सुबह गायब मिलता है और शाम को मौजूद।

इतने मिलनसार होने के बावजूद उन्हें घर से बाहर निकलना पसंद नहीं था। जब कभी जबर्दस्ती या मजबूरी में बाज़ार या रिष्तेदारी में जाना पड़ता, तब वे पेटी में बरसों से सहेज कर रखे गये दबे—चिपके कपड़े निकालकर पहिनते। उस वक्त उन कपड़ों की तहों से सिलेटी रंग की अजब अजनबी गंध आती। एक अन्जान आदमी घर से निकलता दिखता जो हमारे पिता तो कतई नहीं होते, लेकिन जब वे लौटते, वह गंध कहीं नहीं होती बल्कि हमारी अपनी हँसी उनके चेहरे पर होती। हमें लगता कि हमारे पिता हमें फिर मिल गये। यदि बाहर नहीं जाते तो उनका एक ही ठिकाना था। मीर साब के उस बड़े कमरे में जिसे कचहरी कहा जाता था और जहाँ हम सब भी साथ जाते थे। मीर साब की आँख बचा कर स्प्रिंग वाले बड़े—बड़े सोफों के छेदों में उँगली घुसेड़ कर पुरानी रबड़ या भूसे जैसा कुछ—कुछ अनोखा निकाल कर कौतुहल में होंठ भींच कर हँसते रहते थे। वहाँ पिता का साथ अच्छा लगता था क्योंकि वहाँ अक्सर सुबह वाले पिता दिखाई दे जाते थे। चौपड़ खेलते उत्तेजना के चरम क्षणों में वे प्रायः ललकारते और इस तरह ताल ठोंकते गोया कि जंग के मैदान में घोड़े पर सवार तलवार लहरा रहे हों। पहाड़ से ऊँचे ऐसे पिता थे हमारे।

लेकिन उनका असली रंग होली में खिलता। होली के चार दिन पहिले से रंगपंचमी के पांच दिन बाद तक। शहर में लंगोट बाँधकर होली खेलने वाले हुरियारों में उनका नाम अव्वल नम्बर पर था। भांग, होली और दोस्ती के नशे में दिन भर, गले में ढोलक लटकाये शहर में फिरते। वे बहुत अच्छा गाते थे, खासकर स्वांग और फागें। कहते थे कि कंठ में ईसुरी बसते थे और सामने बैठी सरसुती माई टकटकी बाँध कर उन्हें हेरती रहती। आनंद के उस आलम में फिर क्या कहना..........? पिता को सारा संसार बिसर जाता! सिर्फ वे, ढोलक की थाप पर थाप और आसमान से टकरा कर फिर—फिर लौटती उनकी गूँजती आवाज और उस आवाज का साथ देते, बढ़ाते, उकसाते साथियों के समवेत स्वर। इतवारी टौरी से शनीचरी टौरी वाया शुक्रवारी टौरी और परकोटा से पलोटनगंज, बीच में बैरिस्टर की कटन, रामपुरा, गुजराती बाजार और फिर मछरयाई, मोती नगर से पुरब्याऊ टौरी से होकर बरियाघाट, चकराघाट और अंत में कटरा, सुदामा की होटल। शाम को हम लोगों की चिरौरी करते— 'राजा बेटा, पांव दबा दे, तनिक पीठ पर खड़ा हो जा रे, मोरो प्यारो मुन्ना...' और हम सब अखिल भारतीय गर्व और अखंड कर्तव्य—परायणता से उनकी देह पर देर तक मचकते रहते।

96वें साल की उमर में वे गये। न कभी बीमार, न कभी बुखार। न दवाई ली, न अस्पताल गये, न किसी से सेवा कराई। तनकर चलते फिरते रहे और एक शाम बरामदे की उसी खटिया पर मेंढक की तरह सोये हुये वे चुपचाप निकल गये। सिरहाने टँगी लालटेन की पीली रौशनी परछी से आगे आँगन तक पहुंचने की दमतोड़ कोशिश कर रही थी जिसकी बरामदे भर लहरों की पीली आभा उनके अंतिम चेहरे को चमका रही थी। हालांकि रौशनी कम थी लेकिन ऐसी कोई जगह नहीं थी जहाँ वह नहीं थी। लगा ही नहीं कि वे चले गये बल्कि ऐसा लगा कि अभी—अभी हाँफते हुये अखाड़े की मिट्टी से बाहर निकले हैं, थकान से भारी आँखें अभी—अभी मुँद गई हैं, कि अभी—अभी उनमें नींद उतर आई है, कि अभी—अभी वे नींद में हँसे हैं और अभी उठकर भरपूर गले से कहेंगे कि ...‘बाई, लो मैं तो सो गया था..............' !

लोग उनके बारे में किस्से सुनाते हैं। उनके पास जो एक बड़ा मन था उसके सिवाय और कुछ नहीं था। थे तो वे पेढी में जहाँ हर गरजमंद हाथ फैलाने जाता और पेढ़ी का धंधा भी यही था, लेकिन कर्ज लेने आये हर व्यक्ति को वे हर तरह से हतोत्साहित करते— 'काय को ले रहे हो, कर्जा जान का बबाल होता है। कर्जदार मरता है, कर्ज नहीं मरता। एक बार लिया तो चिता तक साथ जाता है और साथ भसम नहीं होता, मुर्दा को भसम कर रोती—कलपती औलाद के साथ फिर घर लौट आता है।'

कैसा समय था कि ऐसी बातों से कोई इन्कार नहीं करता था, वरन्‌ दिल से हामी भरता था, यह अलग बात है कि उसे कोई कितना मान पाता या मान पाया या मान सका। लेकिन कोई एक शर्म थी जो दिल में रहती थी और चेहरे पर उभर कर इस गुनाह की हामी भरती और देर तक हाथ मलती रहती। और कुछ लोग ऐसे भी रहे जो ऐसी किसी भी शर्म से जिन्दगी भर डरते रहे, लाख गरीबी और अभाव में रहे लेकिन उस रास्ते नहीं गये जहाँ उन्हें ऐसी किसी शर्म की सोहबत का भी अंदेशा रहा। और मजबूरी में जाना भी पड़ा तो किसी तरह कर्ज चुकाकर जान छुड़ाई। वह कोई सत्‌युग नहीं था लेकिन उसकी उम्मीद जरूर थी। मैंने इस उम्मीद को बनते देखा है, टूटते देखा है, बनते हजार बार तो टूटते लाख बार लेकिन फिर—फिर बनते—बिगड़ते लेकिन मिटते कभी नहीं।

हम उस पीढ़ी के लोग हैं जो इस ठहरे हुये क्षण के साथ हमेशा के लिये ठहर गये और शाम और सुबह में फर्क नहीं कर सके। कुछ लोग जो हमें पहिले मिले, सुबह के साथी थे, वे सुबह के होकर रह गये। जो बाद में हमारे संग हुये, शाम के मुसाफिर थे, वे शाम के साथ चले गये।

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ये लोग

मेरा बेटा एक बड़े बैंक में अधिकारी हैं। बचपन से ही उस पर एक ही धुन सवार थी कि अफसर बनूँगा। रात—दिन पढ़ाई में जुटा रहा। न कोई दोस्त, न कोई शौक, न कभी खेल, न कोई और रुझान। उसका बचपन देख कर अक्सर कोफ्त होती। कभी आज़्िाज़्ा आकर मैं कुछ कहता भी तो वह बस यही रट लगाता कि खेलने को तमाम उम्र पड़ी है बाबू, आज मेहनत कर लूँगा तो कल चार पैसे कमाने लायक हो जाऊँगा और दुनिया में इज्जत हो सकेगी।

बातें तो ऐसी करता जैसा मेरा बाप हो लेकिन मेरे बाप तो ऐसे नहीं थे। लोग—बाग कहते कि ऐसी औलाद को सब तरसते हैं और तुम अलग ही सुर अलापते हो। पत्नी भी मेरे पक्ष में नहीं हुई, कहती... 'हमेशा ऐसी टोका—टोकी ठीक नहीं, वह जैसा उचित समझता है, उसे करने दो, कोई गलत रास्ते पर तो नहीं है न। तो फिर तुम्हारी जान क्यों जलती है। बाप हो कि दुश्मन? ............' मैं कहता— 'भला उसका दुश्मन क्यों होऊँगा, लेकिन मुझे लगता है कि कहीं कुछ गड़बड़ है। जीवन में एक संतुलन होना चाहिये, जितनी पढ़ाई तो उतना खेल भी हो, मन अच्छा रखो और शरीर भी, लोगों से मिलना—जुलना भी, दुःख—सुख में शामिल होना... केवल अपना ही नहीं दूसरों का भी सोचो... इसलिये खूब पढ़ो तो खूब खेलो—कूंदो। खेलने से सबका संग—साथ होता है... एक दुनिया बनती है, यह क्या कि दिन—रात भूत की तरह अकेले मसान जगाने में जुट गये.'

हम लोग इन्हीं बातों में लगे रहे और एक दिन वह मुम्बई से लौटा तो उसकी धज निराली थी। बढ़िया सूट—बूट, टाई लगाये, तेज कदमों से चलता मेरे पास आया और उस आवाज में बोला जिसमें दम था— 'बाबू अमेरिका के सबसे बड़े बैंक की ब्रांच अभी हाल में मुम्बई में खुली है, उसमें मुझे दस लाख रुपया साल के पैकेज पर सिलेक्ट किया गया है। कम्पनी का फ्लैट, कम्पनी की गाड़ी और तो और आठ लाख रुपये कपड़े आदि के लिये अलग से दिये गये। एक स्टेटस होना चाहिये न। मैं तो फटाफट ज्वाइन करके आ गया, आप लोगों को बताना था, मिलना भी था, फिर छुट्टी न जाने कब मिले, काम बहुत ज्यादा है... परसों सुबह चला जाऊँगा... फ्लाइट से वापिसी एलाउ की है...'

उस दिन घर में मंगल हो गया। ऐसी चहल—पहल और धूम कि कभी अपने घर में देखी नहीं। जिसने सुना, बधाई दी। मेरी आशंकायें गलत निकलीं। पत्नी ने कनखियों से मुझे कई दफा देखा भी और बिना बोले कई बार जताया भी। मुझे अपनी यह हार अच्छी लगी। छोटे भाई—बहिनों में हड़कंप मचा रहा। सब बड़े भैया की सेवा में तैयार और तत्पर। पत्नी ने चाव से दस प्रकार के पकवान बनाये। सबने साथ खाना खाया। देर रात तक सभी भाई—बहिन बड़े के पास बैठे मुम्बई की शानदार इमारतों, समुद्र, चौपाटी के किस्से और बैंक—ऑफिस की खूबसूरती के चर्चे सुनते रहे। वहीं मैं बैठा रहा और पत्नी भी। सुबह वह चला गया लेकिन घर में अनगिनत खुशियाँ छोड़ गया। खुशी इतनी ज्यादा थी कि मैं और पत्नी एक दूसरे की आँख बचा—बचा कर पोंछते रहे। जब जीवन खुशियों से भर जाता है तब मन उतना कहीं कुछ खाली भी हो जाता है जिसे सिर्फ आँसू ही भर पाते हैं।

जहाँ वह गया, बरसों बाद मैं गया। चूँकि वह यहाँ है, इसलिये मैं आया, वरना मुझे यह शहर बिल्कुल पसंद नहीं। इस शहर के भीतर एक हॉरर है जो हमेशा, हर समय सारे वजूद पर मँडराता रहता है। शायद यही कारण है कि पिता कभी मुम्बई नहीं गये। कभी कोई अवसर आया भी तो उन्होंने हाथ—पैर जोड़कर जान छुड़ाई। वे कहते कि भैया, माया—नगरी है। वे डरते क्योंकि माया भटकाती है, भरमाती है, सर्वनाश कर देती है। वे निश्चय ही सर्वनाश नहीं चाहते थे। उनका सर्वनाश भी नहीं हुआ। वे बच गये लेकिन मुझे कई बार इधर आना पड़ा। जैसा आया, वैसा वापस लौटा, और जितनी जल्दी हो सका।

मेरा बेटा इसे सपनों का शहर कहता है। खुल जा सिमसिम। कहता है कि यह सिद्ध—नगरी है, जो माँगोगे, मिलेगा।

कितनी अजीब बात है कि जिस शहर में पाँव धरने से पिता घबड़ाते थे, जिस शहर में रहने से मैं बचता था, उसी शहर में बेटा फ्लैट खरीद कर बस गया।

मैं उसके सपनों के उसी शहर को देखने आया। कई बरस बाद। इस दौरान जिन्दगी किसी उतावले बच्चे की तरह कैलेन्डर के पन्ने पर पन्ने नोंच—नोंच कर फेकती रही। कई घटनायें घटीं। अच्छी भी, बुरी भी जो अच्छी थीं, जल्दी ही उनकी अच्छाई हवा में उड़ गई जैसे उल्लसित दिये का तेल चुक जाता है। जो बुरी थीं, उनमें अन्तः बुराई नहीं बची। वे कफन लेटे, बीते दिनों की तरह खामोश हो गर्इं। समय गुजरते घटनाओं में उत्तेजना ही नहीं रहती।

अपने सपनों के शहर में वह रोज सुबह हड़बड़ाता उठता है जैसे किसी जानवर को असमय चाबुक मार कर हड़काया गया हो। गुसलखाने से निकलते ही उसके हजार हाथ हो जाते हैं। जिनमें किसी से लैपटॉप उठाता, पेन्ट में शर्ट गूंधता, मुँह में टोस्ट ठूँसता, चाय, पानी, जूस पीता कम, ढोलता ज्यादा, लंच—बॉक्स संभालता, टीवी पर वर्ल्ड—बिजनेस, शेयर—मार्केट की अफरा—तफरी की खबरों में ताक—झाँक करता, जूते के तस्मे बाँधता, चीजें गिराता, ऐनक ढूँढता, पर्स उठाता, रुमाल खोजता, टाई कसता—ढीली करता, ब्रीफ—केस उठाता—धरता, बार—बार पिनकता, झिड़कता, भड़कता, बार बार सीढ़ियों से लौटता, असबाब से लदा—फँदा, हैरान परेशान हर हालत में नौ बजे सुबह बाहर!

दो—ढाई घन्टे की जहमत भरी यात्रा कर हाँफता, खांसता, खखारता लतपथ ऑफिस में और फिर मीटिंग्ज, आंकड़े, टारगेट, लाभ—हानि, बाजार के उतार—चढ़ाव, चालें—चालाकियाँ, मक्कारी, बेईमानी, झूठ, व्यापार, वादाखिलाफी, षडयंत्र, ओछापन, नीचता, जलालत, हिकारत झेलता और सारा दिन और पूरी शाम गँवाता थका—हरा घर लौटता रात के दस बजे। आते ही ब्रीफ—केस फेंका और बिस्तर पर धड़ाम। सारा घर उसके चारों तरफ घूम रहा। सब उसको पापा कहते और सबको पापा से कुछ न कुछ काम, जरूरी बेहद जरूरी। और पापा हैं कि बात—बात पर बेबात झल्ला रहे हैं।

या फिर ऐसा भी कि शाम डूबते सरपट घर आता। जल्दी—जल्दी मुँह पर पानी मारा। कपड़े बदले, सेन्ट पोता और बीबी को लेकर लेट—नाइट पार्टी में भागते—भागते गया। रात को डेढ़—दो बजे उसके सकपकाते कदमों की डगमगाहट, दरवाजे के ताले पर देर तक चाबी की कवायद, दबे सुरों में झिड़कियाँ, कानाफूसी, बेड—रूम का दरवाजा भड़ाक्‌ से बंद होना, फ्लश का चलना और उसी में वे उभरती तेज—तीखी—तल्ख टकराहटें मेरे बिस्तर तक आतीं और रात भर वहीं मँडराती रहतीं, उसके सपनों के शहर में। अगली सुबह फिर वही भागमभाग।

जब वह घर वापस लौटता, शून्य में रखे उसके पैरों के साये की दीवार के भसकने की आवाज आती। अपमान और जिल्लत के दाग़ों में हिलगी सायास हँसी की शर्मसार थरथराहट उसके चेहरे के चारों ओर उचटती। देखकर लगता जिन्दगी एक सजा है जो उसे सुनाई गई है। उसका पदनाम एक सूली है जिस पर उसे लटका दिया गया है और तमाम व्यावसायिक लक्ष्यों की कीलों से हाथ—पैरों और दिल—दिमाग को बींध दिया गया है। आँखों पर महत्वाकांक्षा, सफलता और निरन्तर उपलब्धियों की पट्टियाँ बाँध दी गई हैं और जेब में रुपया, शराब और लालच ठूँस दिये गये हैं जिनकी खनकती आवाजों के पीछे लपलपाता वह कोल्हू के बैल की तरह प्रगति के गोलाकार रास्तों पर लगातार चल रहा है।

उसके आने पर बच्चे सहम कर टेबिलों के आगे बैठ जाते और किताबों में सिर गपा लेते हैं। उसके आने पर उसकी पत्नी शिकायतों और फरमाइशों की लिस्ट लेकर सामने मुस्तैद बैठ जाती है। उसके आने पर लगता है कि वह आया है, बल्कि कहीं गया हुआ है। इतने नफीस, खूबसूरत और बिजली की ताकत से लैस उपकरणों से पछाड़ खाकर गिरती रौशनी बेहद बेदम मालूम होती। हालांकि घर में अंधेरा नहीं, लेकिन उसे हर जगह बखूबी देखा जा सकता है।

उसे बच्चों को कहानी सुनाते मैंने कभी नहीं देखा। भ्रष्टाचार, अनैतिक और तिकड़मबाजी के एक से अंतहीन उद्‌धरण और उदाहरण। हाँ, ऐसी गलीच और भयानक बातें हँस—हँसकर सुनाता जिन्हें सुनकर बच्चे तो क्या मैं भी दहल जाता और फिर रात भर नींद नहीं आती।

उसकी छुट्टी का कोई दिन नहीं था। होली—दीवाली का अर्थ नहीं। होली के दिन कोई आता—जाता नहीं। सिर्फ एस.एम.एस. आते। दीवाली की रात तेज संगीत में शीशे के गिलास खनकते। बाकी तीज—त्यौहार के निशान नहीं पाये जाते और न कोई जानता। मैं उसके चेहरे पर अपने पिता की उस मुस्कान को ढूँढने की कोशिश करता जो लाख कटने—फटने के बावजूद उनके चेहरे से आखिरी वक्त तक नहीं हटी। बेटे के चेहरे पर भयावह और खोखले अट्टहास की बेशुमार परछाईयाँ हैं जिनके भीतर से किसी के करुण स्वर में रोने की दहशत भरी आवाजें लगातार आती हैं।

रविवार को भी वह लैपटॉप से जूझता रहता। घंटों मोबाइल पर बतियाता। डाँट लगाता या सुनता। ओछी बारिश की तरह उमसता। गालियाँ बकता। अकेला पछताता सा पस्त पड़ा रहता। उसके एकाकीपन को कम करने के ख्याल से मैं संग—शामिल होने की सोचता और कुछ दूसरी बातों में उसकी दिलचस्पी जगाने की कोशिश करता लेकिन उसके न कोई शौक, न हॉबीज और न दूसरे टॉपिक। घूम—फिर कर वह शेयरों की खरीद—फरोख्त, इन्कम टैक्स की उलझनों, बाजार की मंदी और इस दुष्समय में पैसा पैदा करने के तरीकों पर आ जाता। वह लोन लेने की हजार योजनाओं की खूबियाँ, उनकी पोलें और फायदे लेने के तिलिस्मी रास्तों के बारे में खुश हो—होकर बताता और मुझको ही प्रलोभित करने के व्यावसायिक जाल फेकता। कर्ज न लेने के पिता के सिद्धांत मेरे दिमाग में दीवार की तरह खड़े थे, हालाँकि वक्त के चलते उनमें दरारें फट चली थीं और झाड़—झंखाड़ के मकड़—जाल भी फैलने लगे थे लेकिन दीवारें अपनी जगह अपनी तरह से तैनात थीं। लेकिन वह कहता कि आधुनिक मनुष्य की हैसियत की पहचान ही इसी बात से होती है कि उसने कितना सारा लोन लिया हुआ है!

मैं पूछता कि फिर चुकायेगा कौन और कैसे ???

वह मुझे यूँ देखता जैसे किसी उल्लू के पट्‌ठे को देख रहा हो। कहता — 'यह सामाजिक व्यवस्था का दायित्व है। जो रास्ता समाज चुनता है, फँसने पर समाधान भी समाज ही निकालता है। हम क्यों व्यर्थ परेशान हों और दिमाग खराब करें। देखा नहीं कि अमेरिका में लोन न चुकाये जाने के सबब से चीख—पुकार शुरू हो गई। लोग कहने लगे कि अमरीका डूब गया। न बाबा न... अमरीका इज़ ए बिग पावर.......गवर्नमेंट ने खजाने खोले और सबने फिर अपने अपने घर भर लिये। आप लोग पुराने जमाने की बातों में लगे रहते हो, देखते नहीं कि जमाना किस तेजी से कहाँ से कहाँ जा रहा है। अरे भाई, जिस नाव में सब बैठे हैं, उसके डूबने पर सब डूबेंगे, अकेला कोई नहीं और बाबू डूबने के जमाने गये। अब जिसे तैरना आता है और पड़ोसी को डुबाना आता है, राज तो वही करेगा न...।' वह कहता रहा और मैं देखता रह गया। कुछ समझ नहीं पाया। मेरा बाप क्या समझ पाता ! ! !

मेरे पिता और उनके पिता और उनके भी पिता, पिछली कई शताब्दियों के इन पूर्वज लोगों को अपने बेटों के जीवन में झांकने का यदि कभी कोई मौका मिला होता तो उन्हें अपने समय और इन पीढ़ियों के समय में कुछ खास फर्क महसूस नहीं होता लेकिन पिछले बीस—पच्चीस सालों में न जाने कब कैसे क्या हुआ कि मैं अपने पीछे के समय और आगे के समय में तालमेल ही नहीं बैठा पाता हूँ। यह मेरी अभागी पीढ़ी है।

एक मोमबत्ती जल रही है जिसके एक सिरे पर वह आग थी जिसकी रौषनी ने कभी आदिम गुफाओं में समय के अंधेरे को काटकर सभ्यता को प्रषांत उजाला दिया, दूसरे सिरे पर अब वह आग है जिसमें इतनी बला की गर्मी है जो अब तक अर्जित पूरी संस्कृति को भस्म करने पर उतारू है और फिर उन्हीं गुफाओं की ओर ले जाता अंधकार ...!

दोनों के दरम्यान हमारी यह पीढ़ी है जो पीले उजाले और गहराते अंधेरे के बीच मोमबत्ती की तरह जल रही है, गल रही है और असहाय अपने समय का अंत देख रही है। एक उम्मीद ढूंढती है और कोई नज़र नहीं आता।