गवाक्ष - 37 Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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गवाक्ष - 37

गवाक्ष

37==

कॉस्मॉस के मन को सत्यनिधि की मधुर स्मृति नहला गई । कितना कुछ प्राप्त किया था उस नृत्यांगना से जो उसकी 'निधी'बन गया था।

निधी ने भी तो यही कहा था –

'सीखने के लिए शिष्य का विनम्र होना आवश्यक है, वही शिष्य सही अर्थों में कुछ सीख सकता है जो अपने गुरु को सम्मान देता है अर्थात विनम्र होता है। '

दूत ज्ञानी प्रोफ़ेसर के समक्ष विनम्रता से सिर झुकाए बैठा था।

“यह छोटा आई और बड़ा आई क्या है?" उसने पूछा ।

" ये जीव के भीतर का 'अहं'है जो उससे छूटना ही नहीं चाहता, मनुष्य सदा स्वयं को बड़ा तथा महान दिखाने की चेष्टा करता है । उसे झुकना पसंद नहीं । अपने सामने देखते हुए भी वह इस बात को नहीं स्वीकार करना चाहता कि वृक्ष वो ही झुकते हैं जो फलों से लदे रहते हैं । फलों से विहीन वृक्ष सीधे खड़े रहते हैं । इसी प्रकार से ज्ञानी मनुष्य अहंकार से दूर रहकर सबके समक्ष अपना शीश नवा सकता है परन्तु अहंकारी मनुष्य एक कठोर वृक्ष अथवा डंडे के समान सीधा खड़ा रहता है । "

प्रोफेसर को अच्छा लगा कि मृत्युदूत के भीतर ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा है, वह उनसे कुछ जानने की आशा कर रहा है अर्थात वह उन पर विश्वास कर रहा है। जिस प्रकार प्रत्येक बात के पीछे कारण होता है, किसी पर विश्वास भी बिना कारण नहीं किया जाता।

"यह जीव क्या है ?"कॉस्मॉस ने पुन: पूछा ।

प्रोफ़ेसर के मुख से जैसे सरस्वती बहने लगीं ---

"जीव का अर्थ है प्राण अर्थात जीवित मनुष्य, जिसे ले जाने का कर्तव्य तुम्हें सौंपा गया है। वास्तव में जीवन प्राण के रूप में वह सुन्दर उपहार है जिसका उपयोग अर्थपूर्ण तथा सुन्दर कारणों के लिए किया जाना चाहिए। जब जीव का जीवन सबके लिए उपयोगी तथा कल्याणकारी होता है तब ही यह महत्वपूर्ण है। "

दूत ज्ञानी प्रोफ़ेसर के मुख से निकले हुए शब्दों का अर्थ समझने का प्रयास कर ही रहा था कि वे अपने गहन विचारों में डूबने लगे ;

"यह जो जीवन है जिसके लिए इतने पापड़ बेले जाते हैं, जिसमें अहं के वृक्ष रोपकर उन्हें सींचा जाता है, एक-दूसरे से ईर्ष्यावश न जाने कितने अमर्यादित कार्य किये जाते हैं, वह वास्तव में प्रेम है, प्रकाश है, विनम्रता है, सौंदर्य है, जागृति है, सेवा है, करुणा है, भजन है, वंदन है और इन सबकी स्वीकृति है। यही सब तो जीव के जीवन का जुड़ाव है । यही साँस है, आस है, विश्वास है --वास्तव में जीवन को जान लेना ही चेतना है, ज्ञान है----"

प्रोफ़ेसर मानो अपना कोई अध्याय लिखने बैठे थे ।

"लेकिन जीवन है क्या, यह समझ में कैसे आता है?"कॉस्मॉस का प्रश्न था ।

"जब इस बात का ज्ञान हो जाता है कि हम अपना अंतिम ग्रास खाए बिना इस जीवन से नहीं जा सकते तब वास्तव में हम जीवन को समझ लेते हैं। जब हम जीवन के प्रत्येक पल को महत्वपूर्ण इकाई मानकर व्यवहार करते हैं, हम जीवन को समझने लगते हैं। लेकिन यह सत्य है कि जीवन एक संघर्ष भी है, स्वयं को जानने, समझने का संघर्ष !जिसमें प्राणी पूरी उम्र उछलता-कूदता रहता है किन्तु उसे कुछ प्राप्त नहीं होता । !"

मृत्युदूत, कॉस्मॉस बेचारा प्रेम, ममता, प्रकाश, विश्वास के मकड़जाल में फँसने लगा था। यह क्या घुचपुच था प्रेम, स्नेह से छलांग लगाकर ज्ञानी प्रोफेसर संघर्ष पर पहुँच गए थे ।

" ये जीवन तो बहुत बड़ी उलझन है!मैं इस सबको कैसे समझ सकूँगा?!" उसके मुख से अचानक निकल गया ।

" नहीं कॉस्मॉस, जीवन को समझना जटिल नहीं है, केवल स्वयं को समझने की आवश्यकता है । ज़रा विचार तो करो, इस संपूर्ण सृष्टि में मस्तिष्क प्रत्येक प्राणी के पास है किन्तु चिंतन की विशेष योग्यता केवल मनुष्य नमक प्राणी को प्रदान की गई है परन्तु क्या मनुष्य इसका समुचित उपयोग करता है?मैंने तुम्हे समझाने के लिए ही जीवन को संघर्ष कहा है । क्या अपने कर्तव्य को पूर्ण करने के लिए तुम संघर्ष नहीं कर रहे हो?जिस प्रकार एक डॉक्टर अपने रोगी की बीमारी दूर करने के लिए अनथक परिश्रम करता है, उसी प्रकार जब हम किसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए बारंबार प्रयत्न करते हैं, वही संघर्ष है । संघर्ष करते समय हमारी चेतना जागरूक रहती है, हम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए डटे रहते हैं, निश्चयपूर्वक अपने कार्य को सफल बनाने का प्रयास करते हैं, वही संघर्ष है । यहाँ संघर्ष करते समय हार-जीत की बात नहीं है, यहाँ कर्म करने की बात है। कर्म करने पर मनुष्य के समक्ष दो विकल्प आते हैं ;

‘सफ़लता एवं असफ़लता’

असफलता मिलने पर जब हम बारंबार उसकी सफलता के लिए प्रयास करते हैं, वही संघर्ष है । "

उन्होंने कॉस्मॉस को कर्म के बारे में समझाने का प्रयास करते हुए कहा --

श्री कृष्ण ने भी भागवत गीता में कर्म पर ही मनुष्य का अधिकार है, यह शिक्षा प्रदान की है ;

'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन '

“इसका क्या अर्थ है?और ये कृष्ण कौन हैं ?"

" इसका अर्थ है हमें अपने कार्य को पूरी तल्लीनता से करना चाहिए, फल के बारे में नहीं सोचना चाहिए --"

" कार्य करेंगे तो फल तो चाहिए न, जैसे मैंने अपना कार्य किया लेकिन मुझे फल नहीं मिला, मैं उससे पीड़ित हुआ । "

" मैंने कहा, कार्य को पूरी तल्लीनता से करना चाहिए, फल प्राप्त होगा ही। कोई भी कार्य बिना फल के नहीं होता, जैसा काम, वैसा परिणाम ! समझे?"

" और ये कृष्ण कौन हैं?" कॉस्मॉस ने पुन: प्रोफेसर के सम्मुख प्रश्न रखा ।

" वैसे तो कृष्ण ने इस पृथ्वी पर हमारे जैसे ही जन्म लिया था, उन्हें यदुवंशी कहा जाता है । महाभारत ---के युद्ध में उन्होंने कौरव व पांडवों को जो उपदेश देकर कर्म पर बल दिया था, उसे श्रीमतभागवतगीता के द्वारा समाज के लाभ के लिए प्रस्तुत किया गया है । "कॉस्मॉस का प्रश्नवाचक चेहरा पढ़कर प्रोफ़ेसर ने फिर कहा ;

" वास्तव में कृष्ण को शब्द-अर्थ, भाग्य-परमार्थ, भक्ति-शक्ति, विज्ञान-तत्वज्ञान, साध्य-आराध्य माना गया है । उन्होंने कर्म की महत्ता पर बल दिया । यह अनुभवपूर्ण सत्य है कि मनुष्य जितने श्रम से कार्य करेगा, उसका परिणाम भी उसे उसी अनुपात में प्राप्त होगा । इसीलिए कार्य भक्ति भी है, शक्ति भी ----"

क्रमश..