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क्लीनचिट - 5

अंक- पांचवा /५

शेखर- आलोक, ये हालात मेरे लिए अपनी दोस्ती के मायने के इम्तिहान के नतीजे का वक्त है। मैं पिछले काफी वक्त से इस बात पर गौर कर रहा हूं कि, तू बात करते करते अपनी बात की मुख्य धारा से भटक जाता है। तेरे शब्द और तेरे बर्ताव के बीच में संतुनल नहीं रहता। और तेरी आँखे इस बात की चुगली कर देती है। तेरी जो व्यथा की कथा है उस में किसी स्त्री पात्र होने की सम्भावना का संदेह इसलिए उठता है, क्योंकि, जहाँ तक मुझे जानकारी है, वहां तक तुझे कोई आर्थिक या पारिवारिक या अन्य कोई शारीरिक जैसे सामान्य कारण की वहज से तू इतना मानसिक तौर पर अस्वस्थ हो जाये ऐसा मैं नहीं मानता। और दूसरी एक खास बात कि, भावुक परिस्थिति में जो तुम्हारे दिल के सबसे करीब होता है, उनका स्मरण तुम्हारी आँखों में साफ उभर आता है। आलोक, तू बिलकुल एक खुली किताब जैसा है, ये तेरी खूबी भी है और कमी भी, एसा समझ ले।

आगे बोलते हुए शेखर ने कहा,

"और उस दिन जब मैं तेरी ऑफिस गया और गोपाल से बात की, तब ही मुझे ये अहसास हुआ कि तू जरुर कोई बे-वजह की उलझन पाल के बैठा है।"

शेखर: "सच बता आलोक, कौन है ये अदिती ?"
इतना सुन कर आलोक भोचक्का ही रह गया।आश्चर्य की मुद्रा में अभी वो कुछ बोलने जाए उस से पहले ही शेखर बोला,
"इसमें इतना हिपोपोटोमस की तरह मुंह फाड़ कर देखने की जरूरत नहीं है, उस दिन तुमने जो ऑफिस में उटपटांग हरकते की थी न, उससे ये अंदाज़ा लगाना आसान है।"

आलोक :-"पर यार, मैंने तो सिर्फ..."
आलोक की बात बीच में से काटते हुए,

शेखर-"सबसे पहले तू मेरी बात ध्यान से सुन, तेरी इन सब हरकतों से इतना तो साफ पता चलता है कि ये अदिती जो भी है, पर तुज पर तो भारी ही पड रही है,ये बात तो पक्की है। अब जो कुछ माजरा है वो साफ़ साफ़ बता दे, फिर हम उस पर गंभीरता से बात करेंगे।

थोड़ी देर आलोक चुप रहा, फिर एक लम्बी सांस लेकर २९ अप्रैल की सुबह...कॉलेज केम्पस से लेकर.. अदिती से बिछड़ ने के आखरी पल तक की सब बातों का एक एक शब्द में वर्णन करते करते आखिर में आलोक का गला भर आया तब खामोश हो गया।

शेखर भी कुछ वक्त चुप ही रहा।

फिर थोडा स्वस्थ होते हुए,

आलोक- "शेखर पिछले एक महीने से इस हादसे ने परछाई की तरह मेरा पीछा किया है। तू पूछ रहा था न कि, कल रात मैं जन्मदिन की पार्टी छोड़कर बीच में से ही क्यूँ भाग चला आया? उस वक्त में सिर्फ़ अदिती के ख्यालो से घिरा हुआ था। मुझे सब से ज्यादा उसकी रिक्तता चुभ रही थी। उसी वक्त किसी ने मुझे रेड बूल पीने के लिए दिया और फिर मैं अपनी विचारशक्ति और अस्तित्व पर अंकुश न कर सका। उस वक्त मेरे भीतर की घुटन की वहज से जो मुझे बेचेनी महेसुस हो रही थी वो मैं तुझे कैसे समजाता? और फिर मैं वहां से निकल गया, हालाँकि वो बाद में मुझे बुरा भी लगा और आज तुमने जब मेरे फ्लैट पर आकर डोर बैल बजाई तब टी.वी. पे वही गाना चल रहा था,

‘आगे भी जाने न तू..."

शेखर- "एक बात ठीक से बता, तेरे दिमाग में क्या चल रहा है ? इस बात को लेकर तू कितना गंभीर है? तेरे विचार और वास्तविकता में कितना अंतर है? जो कुछ भी असमंजस है, वो साफ़ साफ़ बता दे."

आलोक- "किसी और के लिए ये महज एक हादसा हो सकता है, पर मेरे लिए ये एक ठोस वास्तविकता है, एक सत्य है, जैसे कि अभी मैं सांस ले रहां हूँ। अदिती के लिए मै पूर्ण रूप से गंभीर हूँ। हालात मुझ पर इसलिए हावी हो जाते है क्यूँ कि मैं दिशाहीन हूँ। पर जब तक अदिती के संपर्क के सेतु की कोई कड़ी नहीं मिल जाती, तब तक ये पहेली ही रहेगी। ये सिलसिला तब शुरू हुआ जब हम दोनों एक दूसरे की आँखों में आखरी बार झांक रहे थे, और शेखर, तेरी बात बिलकुल सच है, कोई भी मेरी आँखे आसानी से पढ़ सकता है, क्यूँ कि मेरी आँखों में हंमेशा अदिती का ही मंझर रहेता है, और जो होगा वही नज़र आएगा ना?"
इतना बोलते हुए आलोक की आँखे नम हो गई।

शेखर ने आलोक को पहली बार इतना निसहाय और भावुक होते हुए देखा था।
थोड़ी देर बात शेखर आलोक का हाथ अपने हाथो में लेते हुए बोला,

"अरे, मेरे प्यारे, मेरे होते हुए तू इतनी जल्दी इतना कमज़ोर पड जायेगा तो कैसे चलेगा? इतना दुखी क्यूँ हो रहा है? इतना भी दिल पे मत ले मेरे यार।

मैं तेरा जिगरी दोस्त नहीं हूँ ? अरे दुनिया की किसी भी कोने से ढूंढकर लायेंगे तेरी अदिती को। तुम दोनों की सब बातें मुझे समज में आ गई, पर एक बात समज में नहीं आई कि ये अदिती ने उसको ढूंढने लिए कोई सुराग क्यूँ नहीं छोड़ा? और अच्छा चलो एक पल के लिए मान ले कि किसी कारणवश नहीं छोड़ा हो, पर वो तो तुझे आसानी से ढूंढ सकती है, तो आज एक महीने के बाद भी उसने तेरा संपर्क क्यूँ नहीं किया ?"

आलोक – "बस यार एक इसी समस्या का हल नहीं मिल रहा ना, इसी चक्रव्यूह में तो मैं फंसा हूँ। मुझे कोई अंदाज़ा नहीं आ रहा कि ये क्यूँ हो रहा है? पर शेखर कुछ भी हो जाये मेरा विश्वास पत्थर की लकीर जैसा है, शायद होगी उसकी भी कोई मजबूरी या फिर ऐसा भी तो हो सकता है कि किसी संजोग की शिकार हो गई हो? पर किसी भी हालात में, मैं अपने भरोसे को टूटने नहीं दूंगा।"

शेखर – "अलोक, ये बात तुमने मुझे अब तक क्यूँ नहीं बताई ?"

अलोक -"बात न बताने की एक ही वजह थी, डर।"
शेखर- डर? मुझसे डर? किस बात का डर आलोक?"

आलोक –"हाँ, डर इस बात का कि तुमने मेरी भावुकता को हंसी में उड़ा के उसका मजाक किया तो? मेरी बात को सिर्फ कहानी समजकर, समजने में असमर्थ रहा तो ? मेरे जीवनकाल के सब से कठिन और दर्दनाक हालात को व्यंग बना दिया तो ? फिर.. फिर तो मैं अंदर से टूट ही जाता, पर अब मुझे लगता है कि मेरा डर आधारहीन और भ्रमिक था। और उसी डर की वजह से कई बार इस बात को बताने से नकारता रहा।"

शेखर- "गलत मत समजना आलोक, पर मुझे भावुकता और बचकानी हरकतों के बीच का फ़र्क मालूम है। मैं जीवन में बिलकुल ही व्यहवारिक हूँ। इसलिए संघर्ष के किसी भी हालात मे अपनी मर्यादा और वास्तविकता को नजरअंदाज़ नहीं करता। और कहीं ऐसा न हो की तुम अपने ही अति आत्मविश्वास के बोझ तले दब जाओ। मैं अंदाज़ा लगा सकता हूँ कि तू वास्तविक और काल्पनिक जीवन को संतुलित करने में नाकाम हो रहा है। ये उसी का नतीजा है। और शायद आखिर में ऐसा भी हो सकता है कि अदिती ने तेरे साथ कोई बड़ा मजाक भी किया हो?"

आलोक- "चलो शेखर शायद एक पल के लिए मैं तेरी ये बात मान भी लूँ, तो कल रात पार्टी में कोई मुझे पीने के लिए रेड बूल ही क्यूँ देगा? फिर आधी रात को वीरान रास्ते में मुझे कोई ऐसा अजनबी मिलता है जिस के बारे मैं मुझे ये भी नहीं मालूम हैं कि वो मर्द है या औरत जो मुझे किसी अवतारी बनके छोड़ जाता है। किसी चमत्कार की तरह। फिर एक दिन अचानक से ऑफिस में खबर आती है कि कोई अदिती मजुमदार आ रही है। और कुछ देर बाद सिर्फ खबर ही आती है।शेखर मुझे एक बात बता, ये सब हादसे मेरे साथ ही क्यूँ हो रहे है? क्या ये सिर्फ हादसे ही है? पर क्यूँ? कुछ तो है, जो मुझे बार बार कुछ याद दिलाने की कोशिष कर रहा है। कभी कभी जैसे किसी धारदार हथियार की नौक के चुभन की पीड़ा की पराकाष्ठा का अनुभव करते हुए मुझे ये अहेसास होता है कि अदिती की सांस किसी घुटन में दबी जा रही है,मेरी प्रतीक्षा में। शेखर मुझे लग रहा है कि धीरे धीरे ये अजीब राक्षसी भ्रमित अजगर मुझे पिसकर मेरे अस्तित्व को नष्ट कर देगा।"
आलोक अपने संवाद को पूर्णविराम लगाये तब तक लावा जैसे उभर कर आये उसके दिल के दहकते अरमान के साथ साथ आये आंसू से उसके गाल गिले हो गये थे। कार के ए.सी. की शीतलता से आलोक की अदंरुनी जलन के मात्रा की तीव्रता ज्यादा थी।

अब शेखर को आलोक की दिमागी हालात की गंभीरता समज में आने लगी। शेखर को लगा कि आलोक का सामान्य होना आवश्यक है।

कुछ देर बाद आलोक बोला, "जिंदगी में पहली बार रोया हूँ, और वो भी किसी और के लिए।"
बातचीत की मुख्य धारा को आगे बढ़ाते हुए,
शेखर -"अदिती को ढूँढने के लिए तुमने क्या क्या किया?"
आलोक – "ये पूछ की क्या नहीं किया? मेरे जितने भी संपर्क थे सब को आजमा लिया। पर कोई बात नहीं बनी। २९ अप्रैल की अहमदाबाद से मुंबई जाने वाली सभी फ्लाईट के यात्रियों की सूचि मैंने छान ली। पूरा सोशयल मिडिया छान मारा। फिर भी अदिती का एक भी सुराग नहीं मिला। न पता, न कोई फोन नंबर, न कोई फोटो कुछ भी नहीं।"
कुछ देर सोचने के बाद,
शेखर – "एक उपाय है, जिस रेस्तरां में तुम दोनों डिनर के लिए गये थे वहां के सी.सी.टी.वी. केमरे की फुटेज से कुछ न कुछ मिल ही जायेगा।"
आलोक- "वो ही मैं कर चूका दोस्त।"
शेखर – "क्यूँ वहां क्या हुआ?"

आलोक – "ये ख्याल मुझे भी आया था। बंगलुरु आने के तीसरे दिन बाद ही, पर मेरी किस्मत दो कदम नहीं चार कदम पीछे चल रही है। रेस्तरां के मेनेजर से मेरी बात हुई तो उस ने बताया की सर, कुछ दिन पहेले ही इलेक्ट्रिक शोर्ट सर्किट की आग लगने के कारन पूरा कंट्रोल रुम जल कर खाख हो गया और हम ऑनलाइन बेकअप लेना भूल गये थे।"

निराश होते हुए,
शेखर- "तुम दोनों के अलावा ये बात और कौन जानता है?"

आलोक – "मेरी और से सिर्फ तुम। पर आज तुमसे ये सब बातें कर के मन हल्का हो गया। और थोड़ी सी हिम्मत भी आ गई है, सोच रहा हूँ कल ऑफिस से छुट्टी ले लूँ।"
शेखर – "क्यूँ? कोई खास वहज ?"
आलोक- "बस, यूँ ही।"
शेखर – "सुन अब बिना मतलब की बातें सोचना बंध कर दे। दोनों मिलकर कोइ न कोई रास्ता जरुर निकालेंगे। कल सोमवार है, तो इसलिए मैं थोडा सा काम में व्यस्त रहूँगा, तो परसों आराम से मिलते है।"
बातों बातों में वक्त हो गया १२:३५
आलोक – "शेखर काफी देर हो गई अब हमें निकलना चाहिए।"

शेखर- "आलोक आखिर मैं एक बात बता दूँ, एक तरफ है, तेरे मम्मी, पापा. तू, तेरी साफ सुथरी छवि, तेरी जॉब, खुबसूरत जिंदगी, तेरी जिम्मेदारियां और दूसरी तरफ, एक बिना पते का एक नाम अदिती। बहुत शांत दिमाग से सोचना, पर किसी भी हालात में मैं तेरे साथ हूँ।"
ऐसा बोल के शेखर ने आलोक के चंचल मन को शांत करने की कोशष की।

आलोक को उस के फ्लैट पर छोड़कर शेखर जब अपने घर आया तब वक्त हो रहा था, रात के १:२५।

सोते सोते आलोक ने शेखर की सभी बातों का शांत मन से अध्यन किया, पर जब आँख लगी, तब अदिती का ही पलड़ा भारी रहा।

सोमवार ६ जून सुबह ६:१५ को उठकर आलोक जिम जाने के लिए निकल पड़ा था। कल रात को तय किये हुए ऑफिस से छुट्टी लेने के इरादे से रात को ही गोपाल को मेसेज कर दिया था।

अब सुबह के सब नित्यकर्म खत्म करते हुए वक्त हुआ ११:३० नास्ता करते हुए मम्मी , पापा से बात भी कर ली, सोच रहा था कि शहर का एक चक्कर लगाया जाये, और थोड़ी सी खरीदारी करने का भी इरादा था, तो निकल पड़ा बाइक लेकर।

शहर के बीचो बीच आए मॉल की तरफ जाना था। सोमवार का दिन था चारों और काफी भीड़ थी, और गरमी भी। एक ट्राफिक सिग्नल पर उसने बाइक रोकी किसी वहज से काफी ट्राफिक जाम हो गया था।घड़ी में वक्त देखा १२:४०। जैसे ही दाई और का सिग्नल हरा हुआ भीड़ के सब लोग एक दूसरे की बाजू काटते हुए ऐसे भागदौड़ करने लगे जैसे कि किसी मरोथोन दौड़ में हिस्सा ले रहे हो।
और उसी ट्राफिक के बीच में से आलोक ने अदिती को एक कार में जाते हुए देखा। देखते ही आलोक के गले से एक तेज़ चीख निकल गई
अदितीतीतीतीतीती..........अदितीतीतीतीती...... अदितीतीतीतीती..

आलोक ने जिस तरह से चीख लगाईं, वह देखकर सब लोग दंग रहे गये।
बेहद ट्राफिक, गाड़ियों के हॉर्न का शोर और आलोक की चीख के बीच में से अदिती को ले जा रही कार दूर निकल गई। हक्के बक्के हुए आलोक का बीचो बीच फंसे हुए ट्राफिक से निकलना ना मुमकिन था। जैसे ही सिग्नल हरा हुआ जैसे तैसे कर के भीड़ से निकलकर आलोक ने काफी तेज़ी से बाइक दौड़ाई अदिती के कार की दिशा की तरफ पर तब तक तो उसकी कार काफी आगे निकल चूकी थी। फिर भी चारों और आलोक ने बाइक घुमाई, अदिती को देखने में कार का नंबर देखना भी भूल गया। फिर थक हार कर कॉल लगाया शेखर को,
आलोक- "शेखर... शेखर .."
शेखर – "क्या हुआ, तू इतना हांफ क्यूँ रहा है?"
आलोक- "शेखर मैंने अभी..अभी अदिती को देखा।"
शेखर – "अदिती को? पर कहाँ?"
आलोक- "एक कार में जाते हुए, पर मैं ट्राफिक में फंसा हुआ था। मैंने उसका पीछा भी किया, पर तब तक वो काफी दूर निकल गई।"
शेखर- "कार का नंबर क्या था? कौन सी कार थी? कौन से कलर की थी? तू इस वक्त कहाँ है?"
उतेजित होते हुए शेखर ने सब एक ही सांस में पूछ लिया।
आलोक- "सब कुछ इतनी जल्दी में हो गया की सोचने का कुछ मौका ही नहीं मिला।"
शेखर – "ठीक है तू शांत हो जा। तू कहाँ है ? मैं आ रहा हूँ।"
आलोक – "तू कहाँ है? में आ रहा हूँ।"
शेखर – "मैं अपनी ट्रांसपोर्ट की ऑफिस में ही हूँ, तू आ मैं तेरा इंतज़ार कर रहा हूँ।"
थककर आलोक फुटपाथ के किनारे बैठ गया। धुप और गरमी की वजह से उसका गला सुख रहा था। दोनों घुटनों पर सर रखकर आँखे मूंद कर दिमाग और धडकने शांत होने तक बैठा रहा।

१५ मिनिट के बाद मन थोड़ा शांत हुआ, तब निकला शेखर के ऑफिस की और।
२:२५ को पहुंचा शेखर की ऑफिस।
दोनों बैठे शेखर के कक्ष में, आलोक के चहेरे पर निराशा छाई हुई थी।
शेखर – "तुम्हे यकीन है वो अदिती ही थी ?"
आलोक- "शेखर, मैं अपने आप को भूल सकता हूं, अदिती को हरगिज़ नहीं।"
शेखर को लगा कि कल रात की बात को लेकर आलोक अभी भी किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा है। और फिर आज अचानक से ये अदिती का अर्धसत्य जैसा अप्रत्यक्ष रूप आलोक की नज़र के सामने आते ही, मुश्किल से शांत होने जा रहे विचार फिर से बाढ़ का रूप लेने जा रहे है।
शेखर- "ठीक है सोचते है कुछ, चल अभी लंच का वक्त है तो कुछ खाया जाए।"
आलोक- "मैं ११:३० बजे ठीक से नास्ता कर के निकला था, तो अभी इच्छा नहीं है।"
आलोक को लगा की इतनी गंभीर बात बन गई है और शेखर को खाने की पड़ी है।
शेखर – "अरे मेरे भाई,कभी तो मेरे बारे में भी सोच लिया कर, सूखे के पीछे गिला भी जलाएगा क्या ?"
हंसते हुए शेखर ने आलोक के साथ साथ माहोल को भी सामान्य करने की कोशिष की।
फिर दोनों लंच के लिए चल दिए।
लंच करते करते आलोक ने बातों का दौर अपनी अटकी हुई सुई से फिर से शुरू किया।

आलोक- "मेरे दिमाग में एक ख्याल आ रहा है, उस दिन ऑफिस में जो बॉस के गेस्ट आने वाले थे वो अदिती ही होगी, ऐसा मेरा दिल कह रहा है।
गोपाल तेरा करीबी दोस्त है, तो हम उनसे नहीं पूछ सकते?"
शांति से जवाब देते हुए,
शेखर- "देख आलोक, मेरी बात ध्यान से सुन। तुझे ढूंढना अदिती के लिए बाएँ हाथ का काम है। क्योंकि उसके पास तेरी सारी जानकारी है। तू यहाँ बंगलुरु में किसी जर्मन कंपनी में जॉब करता है, वो भी उसे पता है। और वो ये सब गूगलबाबा की मेहरबानी से आसानी से पता लगा सकती है। तेरा पता लगाने के लिए उसे यहाँ तक आने की जरूरत है?"

अब आलोक थोडा बैचैन होते हुए बोला,
"अरे.. यार चल मान लिया कि तेरी सब बात सही है, तो फिर वो यहाँ बंगलुरु आकर भी मेरा संपर्क क्यूँ नहीं कर रही, ये बता ?"

आलोक को बेवहज बोखलाते हुए शेखर को थोड़ी हंसी भी आ रही थी।
आलोक की और देखते हुए, मनोमन सोचा की इस मजनू की आँखों से उल्टा चश्मा उतारना थोडा कठिन तो है। अब इस से उन्ही की जबान में बात करनी पड़ेगी।
थोड़ी देर सोचने के बाद,
शेखर- "अब यार ये तेरे लाख रूपये जैसे सवाल का जवाब तो सिर्फ तेरी अदिती ही दे सकती है। और गोपाल इस वक्त ऑफिस में होगा तो इस वक्त बात करना उचित नही होगा। शाम को उससे रूबरू मिल के ही बात करना ही ठीक रहेगा।"
शेखर के संतोषकारक प्रत्युतर से आलोक के दिल को कुछ ठंडक महसूस हुई।
शेखर ने गोपाल को मेसेज कर के वक्त और पता तय कर लिया।
आलोक को निराश देखते हुए,
शेखर-"आलोक,मैं तेरी हालत और तकलीफ को अच्छी तरह से समज सकता हूँ पर यार तू हर बात पर इतना भावुक होकर दिमागी संतुलन खो देगा तो कैसे चलेगा? अभी कल ही तो हमारी बातचीत हुई, और आज हमें पता चला की अदिती बंगलुरु में ही है तो ये इश्वर का ही कोई सकरात्मक संकेत होगा, ऐसा सोच ना। इतनी छोटी छोटी बातों को लेकर तू क्यूं इतना बौखला जाता है?"

आलोक – "पर शेखर बार बार ऐसा क्यूँ होता है ? हर बार थोड़े दिनों के अन्तराल के बाद अचानक ही मेरी नजर के आगे ऐसे काल्पनिक लगते हादसों के चित्र उभरने लगते है, और मैं एक बूत की माफिक चुपचाप बस देखता ही रह जाता हूँ, क्यूँ ? और आज तो जो कुछ भी हुआ वो मेरा आंखो देखा सनातन सत्य है। उस में तिल भर भी शक की कोई गुंजाइश नहीं है। शेखर, अब ऐसे ही चलता रहा तो आने वाले दिनों का सामना करने के लिए मैं असमर्थ हो जाऊंगा। अदिती से मिलने की बात तो दूर रही, लगता है, मैं अपने आप को ही खो दूंगा।

शेखर जब भी मैं बहोत ही खुश होता हूँ, तब अचानक से कोई एक ऐसा द्रश्य मेरे सामने खड़ा हो जाता है और फिर मेरी आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है।"
अब शेखर को लगा कि अदिती एक हद से ज्यादा आलोक के दिलो दिमाग पर हावी हो गई है। हालात निरंकुश हो जाये, उस से पहले संभलकर काम लेना पड़ेगा। इस परिस्थिति में आलोक की किसी भी बात या विचार का विरोध करना उचित नहीं था। शेखर को लगा की इस बात से आलोक का ध्यान हटाने और माहोल को थोडा सा हल्का करने के लिए किसी और विषय पर बात की जाए। इस वक्त वास्तविकता और काल्पनिक के बीच संतुलन करना जरूरी था।

कोफ़ी का ऑर्डर देते हुए
शेखर- "आलोक मान ले कि अगर तुझे अदिती मिल गई, तो फीर तू मुझे भूल तो नहीं जायेगा ना?" हँसते हुए बोला।
आलोक के चहेरे पर बड़ी सी मुश्कुराहट को देखते हुए शेखर मनोमन बोला,
"अब लगा तीर निशाने पर, फिर आगे,
शेखर- "हेय आलोक, ये बता की अदिती दिखती कैसी है ?
आलोक की आँखों में एक अलग सी चमक दिखी रही थी। पहली बार वो अदिती की महेसुस की हुई अनमोल जायदाद जैसी संजो के रखी हुई स्मृति और संवेदना का ब्यौरा एक ऐसे व्यक्ति के पास सांझा करने जा रहा था जो आलोक की प्रकृति से पूरी तरह वाकिफ था। और आलोक को ये भरोसा था कि उनकी व्यथा की कथा के एक एक शब्द को न्याय मिलेगा।

जैसे छोटे बच्चे को उनका कोई पसंदीदा खिलौना मिल जाने से एक ही पल में सब कुछ भूल जाता है, कुछ ऐसे ही ख़ुशी के भाव आलोक के चहेरे पर देखकर,

शेखर- "अरे,,, यार तेरा गुब्बारे जैसा फुला हुआ और गुलाब की तरह खिला हुआ चहेरा देखते तो मुझे तो बच्चन को वो गाना याद आ गया,"

'सुहाग रात है... घुंघट उठा रहा हूँ मैं.....'

-आगे अगले अंक में


© विजय रावल
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