क्लीनचिट - 4 Vijay Raval द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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क्लीनचिट - 4

अंक-४/ चौथा

आलोक को ये अहेसास हुआ की उनकी दिमागी अस्वस्था उनके पर हावी हो जाए उस से पहेले उसे इस माहोल से निकल जाना चाहिए।

गोपाल से किसी काम का बहना बना के आलोक ऑफिस से निकल के सीधा अपने फ्लेट पर आ गया। लंच का वक्त होते हुए भी उसे भोजन करने की कोई रूचि नहीं थी। कोल्ड कोफ़ी का कप लेकर बाल्कनी में जुले पर बैठ कर उदास और परेशान मन के आरोह अवरोह को शांत करने की कोशिष करने लगा।

अदिती से जुदा हुए आलोक को आज तीन हफ्ते का वक़्त गुजर चूका था फिर भी एक दिन भी ऐसा नहीं बिता होगा की जिस दिन आलोक ने अपने दिल की छोटी सी बात भी मनोमन अदिती से शेयर न की हो। फिर गहेरी सोच में डूबते हुए, स्वयं खुदसे संवाद करने लगा।

अदिती के वो प्रथम और अंतिम, अपने लगते स्पर्श का कितना अनुवाद करु ? लक्ष्यवेध जैसे लगते उस विधान को एक सन्मानीय गरिमा की ऊंचाई देने के लिए किस दिशा में उस अनुसंधान के संकेत की खोज करू ?

अब कब, कहाँ, कैसे, किस हाल में दोनों एक दुसरे से मिलेंगे ऐसे कई प्रश्नचिन्हों को, वो आखरी मुलाकात, अमर्यादित समय के लिए अंकित कर गई थी। इस के बावजूद भी आलोक को एक बात की ख़ुशी के साथ एक ठोस भरोसा भी था की अदिती ही मेरी तमाम खुशियों का एक अंतिम छोर है। और ये बात सनातन सत्य है , ऐसी उसने यकीं से २९ की रात को ही महोर लगा दी थी।

बाल्कनी में दिल नहीं लगा तो थोड़ी देर बाद द्रोइंगरुम में आकर किताब की अलमारी में से अमृता प्रीतम की “ ध रेवन्यू स्टेम्प’ निकाल के सोफे पर लेट के कुछ पन्ने पलटे, पर पढने में दिल नहीं लगा.

थोड़ी देर बाद शेखर का कॉल आया, तब वक़्त हुआ था ४:१५ मिनिट।

शेखर- अरे, यार आलोक मैं तूझे मिलने तेरी ऑफिस आया हूँ, और तू गायब है। यहाँ पूछा तो, पता चला की तेरी तबियत कुछ ठीक नहीं थी, क्या हुआ ? कहाँ हो तुम ? ठीक हो ?

आलोक-अरे यार, घर पर ही हूँ, और ठीक हूँ।कुछ नहीं बस ऑफिस में दिल नहीं लग रहता था तो सोचा की घर आके थोडा आराम कर लू। जस्ट फॉर चेंज। बोल, कुछ खास कम था क्या ?
शेखर- जी, कुछ नहीं ऐसे ही यहाँ से गुजर रहा था तो सोचा की तुमसे मिलता चलू. ठीक है, कल मिलते है।

उस के एक हफ्ते बाद ५ जून मतलब ४ जून की रात को शेखरने आलोक को बिना बताए आलोक के जन्मदिन की सरप्राईज का प्रयोजन किया था।

वहां से आने के बाद २९ अप्रैल की रात की घटना को याद करते हुए गहरी
नींद सोने के बाद फिर....दोहपर में...

लगातार बज रही डोर बेल की आवाज़ से गहेरी नींद से जपक से जाग के सोचने लगा की क्या हो रहा है ?

फिर पता चला की कोई डोर बेल बजा रहा है। दिवार पर टंगी घडी पर देखा तो वक़्त हुआ था दोपहर के १२:३५, नींद में ही आँखे मलते मलते दरवाज़ा खोल के देखा तो शेखर की ट्रांसपोर्ट ऑफिस का कर्मचारी भाष्करन था।
भाष्करन- गुड आफ्टर नून।
आलोक- गुड आफ्टर नून, सोरी, वो कल रात जरा देर से आँख लगी थी, काफी गहेरी नींद में था तो डोर बेल की आजाज सुनाई नहीं दी. अंदर आ जाओ, कितनी देर से बजा रहे हो ?
पंद्रह मिनिट से।
आलोक- ओह. सोरी. बोलो कैसे आना हुआ ?
भाष्करन- सर, शेखरजी का कॉल आया था. वो आप के बाइक की चाबी लेने के लिए आया हूँ।
आलोक-बाइक की चाबी ?
थोड़ी देर सोचने के बाद बोला
ओह्ह.. हाँ.. हाँ.. याद आया, एक मिनिट।
की स्टेंड से बाइक की चाबी देते हुए आलोक ने पूछा
पानी पीना है ?
जी, नहीं शुक्रिया, मैं निकलता हूँ, जितनी जल्दी हो सके, बाइक ठीक करे के दे जाता हूँ।
आलोक- अरे.. आराम से, मुझे कोई जल्दी नहीं है, वैसे भी आज इतवार है तो पुरा दिन आराम करने के मूड में हूँ। एक मिनिट, भाष्करन पहेले मेरा एक छोटा सा काम कर दो। नीचे मेडिकल स्टोर से मुझे सरदर्द की गोली ला कर दो, प्लीज़।
जी, अभी ले के आया।

भाष्करन के गोली दे जाने के बाद, आलोक बेडरूम में आके फिर से लेट गया। सर तेज़ दर्द से फटा जा रहा था। कोफ़ी पीने की बहोत इच्छा थी पर सरदर्द की वजह से उठने का मन नहीं कर रहा था। ऐसा सरदर्द पहेली बार हुआ था। पिछली रात की घटना के बाद की नींद में लगातार उसको लगता था की अजगर जैसे विचारो के असमंजस ने उसे दबोच रखा हो।

२९ अप्रैल की वो वारदात में अदिती, अल्प नहीं पर एक बहोत विराटविराम के प्रश्नचिन्ह के पदचिन्ह को अदिती पल पल में अंकित कर के गई थी. उस का सुराग ढूंढने के लिए आज एक महीने के बाद भी आलोक भटक ही रह था।

गत आधी रात को, सुमसाम जगह पर, कोई अनजान व्यक्ति, एक भी शब्द के संवाद बोले बिना, उस अकल्पनीय घटना का वो एक बूत की माफिक मूक साक्षी बन कर रह सिर्फ देखता ही रहे गया. २९ अप्रैल के दिन का एक एक द्रश्य आलोक की आँखों के सामने एक चलचित्र की माफिक चलने लगे.

फिर मोबाईल हाथमें लेकर देखा तो पापा के दो मिस्ड कॉल्स थे. और एक शेखर का.

जैसे ही पापा को कॉल लगाने गया,तो सामने से शेखर का कॉल आ आया।
हेल्लो, शेखर
अबे यार, कितना सौएगा तू ? ऐसी कौन सी गर्ल के ड्रीम में तू इतनी जल्दी कुम्भकर्ण बन गया, रे ? सुन, तेरे पापा के दो बार कॉल आ गए मुझे बोल रहे थे की तू कॉल रिसीव नहीं कर रहा तो थोड़े से चिंतीत हो गये थे। मैंने ठीक से बात कर के समजा दिया है। मुझे तो मालूम ही था की तू जल्दी से उठने वाला है नहीं, पर इतना सोएगा ये पता नहीं था। सोने की मन्नत ली है क्या ? ठीक है, पहेले अंकल से बात कर ले, फिर हम आराम से बातें करेंगे।

आलोक- अरे यार, ऐसा पहेली बार हुआ है, अभी भी नींद में हूँ, और तेज़ सिरदर्द भी है। मैं पापा को ही कॉल करने जा रहा था की तुम्हारा आ गया. ठीक है, मैं रखता हूँ।

पापा को कॉल लगते हुए,
पापा
हाँ, बेटे. बोल कैसा है तू ?
जी, पापा एकदम बढ़िया, आप और मम्मी कैसे है ?
हम दोनों भी बिलकुल ठीक है और मजे में, तुमने कॉल नहीं उठाया तो थोड़ी चिंता हो रही थी।

वो पापा मैंने आपको बताया था की कल आलोक ने मेरे जन्मदिन पर सरप्राइज पार्टी का इन्तेजाम किए था. जॉब जॉइन करने के बाद पहेली बार सब ऑफिस के कर्मचारी के साथ साथ शेखर के निजी दोस्तों से भी मिलने का अच्छा मौका मिल गया. और फिर आज इतवार था तो किसी को घर जाने की जल्दी नहीं थी। तो पार्टी तो देर तक चली थी पर मैं जल्दी घर आ गया था। और फिर इतनी गहरी नींद आ गई की आपके दो कॉल्स कब मिस्ड हो गये, पता नहीं चला।

हाँ बेटे, शेखरने सब बात बताई. हमने सोचा की तू जाग गया होगा तो सुनेंगे की कैसी रही पार्टी ?

पापा आप यकीं नहीं करोगे, शेखरने पार्टी का इतना शानदार आयोजन किया था की सब को लग रहा थी जैसे उसके खुद का जन्मदिन हो।

आलोक बेटे, ये इश्वर के आशीर्वाद का संकेत है। वरना जब तुमने पहेली बार बंगलुरु जॉब जॉइन करने की बात की थी तब तुम्हारी माँ ने साफ़ साफ़ मना कर दिया था। तूझे पता है न की तुजे जरा सी ठेस भी लगती है तो तेरी माँ रात भर सो नहीं पाती। और आज ऐसा बोल रही है की मेरे एक नहीं, पर दो बेटे है। शेखर तेरे साथ है इसलिए हम निश्चिंत है. हम दोनों जब पहेली बार तुजसे मिलने बंगलुरु आये थे तब शेखर और उनके परिवार की और से हमें जो आदर, सम्मान और स्नेह मिला था वो देखते हुए तो हम दोनों दंग रहे गये थे। लो, अपनी मम्मी से बात करो।
हाँ, मम्मी कैसी हो तुम ?
में बहोत ही बढ़िया और खूब मजे में,
सरोजबहन की आजाज़ थोड़ी सी भारी हो गई। थोड़ी देर चुप रहेने के बाद बोले,
कल तुम्हारा जन्मदिन था तो....
इतना बोलते हुए बहोत ही भावुक हो गये और आगे नहीं बोल सके।
आलोक- मुझे याद नहीं मम्मी की मेरा जन्मदिन हो और हम तीनो साथ न हो ऐसा कभी हुआ हो।

बेटे, तुम इतने खुश हो तो हमारे दिलमें उमंग का उत्सव उमड़ रहा है. कैसी रही पार्टी ?

एक यादगार जश्न. शेखर और उनके सब दोस्तों के साथ रिश्तेदारी जैसे सम्बन्ध हो गये है। और शेखर का तो तुम्हे पता ही है, काफी देर रात तक उसने धमाल, मस्ती की थी। मम्मी, अभी भी नींद आ रही है, तो मैं सो जाता हूँ, जरा पापा को फोन देना।
हाँ, बोल आलोक.
पापा मैं पार्टी की तस्वीरे भेज रहा हूँ, फिर रात को आराम से बात करते है।
जी, ठीक है बेटे. अपना ख्याल रखना।

आलोक ने पार्टी की सारी तस्वीरे इन्द्र्वदन को सेंड की।
वक़्त देखा १: २०. कड़ी भूख भी लगी थी और सरदर्द भी बढ़ गया था। रसोईघर में जाने की ताकत नहीं थी. फ्लैट के नीचे जो फास्टफूड स्टोर था उसके मालिक से दोस्ती हो गई थी, तो उन को कॉल किया।
हेल्लो, गुड आफ्टर नून, भालचंद्र, आलोक बोल रहा हूँ, फ्लैट नं. बी/३६ से।
गुड आफ्टर नून सर, आपका नंबर मेरी सूचि में शामिल है, फरमाइए।
भालचंद्र मेरी एक छोटी से मदद करोंगे ?
जी, जरुर करेंगे, बोलिए।
मुझे एक बटर सेंडविच, एक बिग साइज़ कोफी का पार्सल भेज सकते हो क्या ? आज मेरी तबियत थोड़ी नर्म सी है तो।
अरे, ये तो मेरा फर्ज़ है, अभी भेजता हूँ दस मिनिट में। और कुछ कम हो तो भी बोलना.
शुक्रिया।
वेलकम सर।
आलोक ने सोचा पार्सल आने तक शेखर से बात कर ली जाए.
हेल्लो.. शेखर.
हाँ, आलोक, अंकल से बात हो गई ?
हाँ, हो गई।
अब सिरदर्द कैसा है ?
अभी थोडा सा नास्ता कर ने के बाद दवाई ले के सो जाऊंगा तो सब ठीक हो जायेगा। कैसी रही पार्टी ? कितने बजे खत्म हुई ?

तूम सच में गज़ब करते हो यार। तू मुझे मिल फिर देख मैं तूझे ठीक से बताता हूँ कैसी रही पार्टी। अबे साले, तेरी पार्टी और तू ही गायब ? ऐसा कभी कहीं होता है भला ? और ये दिमाग में ऐसे कौन से तम्बू गाढ़ रखे है की दिमाग की नब्स खिंची जा रही है ?

अरे, बाबा ऐसी कोई बात नहीं है. अच्छा, मेरी बात सुन. आज तेरे दिन भर के काम की क्या सूचि है ?
जी, नहीं कुछ भी नहीं. आज इतवार है तो पूरा दिन परिवार के साथ बिताना है, क्यूँ , कुछ काम था ? कहीं जाना है ?

जी, कुछ इतना खास भी नहीं. और वैसे भी तबियत ठीक नहीं तो बहार जाने का तो सवाल ही नहीं उठता. मैं ऐसा सोच रहा था की कुछ वक़्त साथ बैठते।
कुछ खास बात हो तो अभी आ जाऊ क्या ?
नहीं.. नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है।
अच्छा तो आलोक, ऐसा करते है की मैं रात को ९ बजे के करीब आता हूँ, तेरे फ्लैट पर तो आराम से बात करेंगे।
हाँ ये ठीक रहेगा, और सुन भाष्करन को बोल देना बाइक नौ बजे के बाद ही ले के आए, वरना मेरी नींद बिगाड़ेगा. भूलना मत।
अच्छा ठीक है, बोल दूंगा।
उसके बाद आलोक ब्रश कर के सेंडविच के साथ कोफ़ी पीने के बाद सिरदर्द की गोली लेके सो गया। तब वक्त हुआ था २:३५।

कल रात बिना कोई ठोस वहज और कोई संवाद के यूँही अचानक से आलोक का पार्टी से चले जाना, और अभी की बातचीत से शेखर के दिमाग में चल रहे मनोमंथन को समर्थन मिल गया।

शाम तक आलोक का कोई कॉल या मेसेज नहीं आया तो फिर शेखर के कॉल लगया.
रींग बजते ही आलोक कॉल उठाते हुए बोला.
हेल्लो, शेखर
अभी तक़रीबन ८ बज रहे है, में घंटे भर में पहोंच रहा हूँ। अब कैसी है तबियत ?
अब तो बिलकुल नार्मल है।
डिनर के बारे में क्या सोचा है ?
ऐसा करना मेरे लिए कुछ पार्सल ले के आना।
क्या ले के आऊ बोल ?
मेरी पसंदीदा सब्जी तो तूझे पता ही है, उसके अलावा बटर रोटी, और बटर मिल्क.
और कुछ ?
नहीं, इतना काफी है.
ठीक है।

अब आलोक का सिरदर्द बिलकुल खत्म हो गया था। आधे घंटे तक शावर बाथ लेने के बाद बिलकुल फ्रेश लग रह था। बड़ा सा कोल्ड कोफ़ी का कप लेकर सोफे पर बैठ कर टी.वी. ऑन किया, ८ से १० चेनल्स घुमाने के बाद, आखिर में एक म्युज़िक चेनल सेट कर दी.

किसी म्यूजिकल नाईट का रिपीट टेलेकास्ट चल रह था. एक के बाद एक पुराने सदाबहार नगमे चल रहे थे. कोफ़ी के घूंट के साथ अख़बार पढ़ते पढ़ते हुए संगीत की धुनों का आनंद ले रहा था.

तभी अचानक गाना बजा,
‘आगे भी जाने न तू.. पीछे भी जाने न तू...जो भी है, बस यही एक पल है.’

अख़बार और कोफ़ी का कप दोनों आलोक के हाथ में धरे के धरे रहे गये और डोर बेल बजी.

आलोक ने दरवाज़ा खोल के देखा तो सामने शेखर खड़ा था।
आओ शेखर,
कैसे हो, मेरे हीरो, अब अच्छा लग रहा है ?
बस यार, आज तो पूरा दिन सोया ही हूँ,
दोपहर को दवाई ले ने के बाद काफी अच्छा है. तू कोफ़ी पिएगा या चाय ?
अह.. अभी कुछ नहीं, थोड़ी देर के बाद.
ये तेरी काजू बटर मसाला की तीखी सब्जी, बटर रोटी और बटर मिल्क।
डायनींग टेबल पर पार्सल रखते हुए शेखर बोला।
शेखर, तू बाइक ले के आया है या कार ?
बाइक, क्यूँ ?
पूरा दिन सोया हूँ तो, थोडा आलसीपन जैसा महसूस हो रहा है, सोच रहा था की अगर कहीं बाहर चक्कर लगाया जाये तो कैसा रहेगा ?
नेकी और पुछ पूछ, किस में जाना है. बाइक या कार ?
इच्छा तो कार में जाने की है, पर तू तो बाइक लाया है न ?
अरे,तो इस में कौन सी परेशानी की बात है, पहले यहाँ से घर जायेंगे फिर वंहा से कार में।
ये ठीक रहेगा, पर पहेले भाष्करन को पूछ तो सही की वो बाइक लेके कब तक आ रहा है।
शेखर ने भाष्करन को कॉल लगा के पूछा,
मैं आलोक के घर पर हूँ, तुम कब तक आ रहे हो ?
जी, सर बस दस मिनिट में आ रहा हूँ।
आलोक, वो आ रहा है दस मिनिट में तब तक तू डिनर कर ले।
चल, शेखर तू भी आजा।
में सिर्फ कोफ़ी लूँगा।
आलोक ने कोफ़ी बनाई. फिर कोफ़ी पीते हुए शेखर ने पूछा
यार, सब से पहले ये बता की तू कल पार्टी से क्यूँ भाग निकला ? तूझे पता है, सब तुजसे कितने नाराज़ थे. क्या परेशानी थी ? और फिर अचानक से इतना भारी सरदर्द ? माज़रा क्या है ?

सच कहूँ शेखर, यूँ अचानक बीच पार्टी से चले जाने क बाद मुझे भी कुछ अजीब सा महसूस हुआ. शेखर मुझे तुमसे कुछ जरुरी बात करनी है, इसी लिए तुम्हे बुलाया है।

हाँ, तो बोल ना, कोई गंभीर समस्या है ? या फिर हमारे बाहुबली का किसी साऊथ इन्डियन लड़की पर दिल आ गया है ?

बोलते हुए शेखर ठहाके मारके हँसने लगा।
क्या यार तू भी. बात को कहाँ से कहाँ ले जा रहा है। बात कुछ ऐसी है की बाहर जा के खुल्ले में दिल खोल के बात करनी है।
ठीक है, जो सरकार की मर्ज़ी, बोल कहाँ चलाना है ?
आलोक तैयार हो गया, जैसे ही निकलने के लिए दरवाज़ा खोला तो सामने ही भाष्करन खड़ा था।
आलोक ने बाइक की चाबी लेते हुए कहा,
शुक्रिया।
कुछ ही देर में शेखर और आलोक निकल पड़े. वक्त था रात के १० बजे का.
शेखर ने बाइक रख दी, और उनकी पसंदीदा होन्डा सिटी कार लेके निकल पड़े हाइवे की ऑर।

८ या १० किलोमीटर जाने के बाद एक अच्छी सी गार्डन रेस्तरां के सामने कार पार्क की। गरमी के दिनों की वहज से रेस्तरां में काफी भीड़ थी तो दोनों ने कार में ही बैठना पसंद किया।
शेखर- तुम क्या पीना पसंद करोगे ?
आलोक- स्प्राईट ले ले।
शेखर दो स्प्राईट की बोतलें ले कर बैठ के आलोक की तरफ देखता रहा।
आलोक – क्या देख रहे हो ?
एक मार्मिक स्मित के साथ शेखर ने पूछा
क्या नाम है, लड़की का ?
आलोक बिलकुल चौंक सा गया।
शेखर के सामने देखते हुए आश्चर्य से आलोक बोला
अरे, यार पर तुम्हे पता चला की में किसी....
आलोक की बात को काटते हुए हँसता हुआ शेखर बोला

आलोक दोस्ती निभाने का मतलब है फूल की अनुउपस्थिति में खुशबु को चुराने जैसी बात है। दोस्ती में हक से पहेले लक होना चाहिए। दोस्ती के दावे नहीं मायने होते है। जंहा दोस्ती के कोई वार या त्यौहार के दिन तय नहीं होते वंही वो बेशुमार होती है। भीतर से खुद को खोलने या खिल ने के लिए जिनका पता नहीं पूछना पड़ता, पर जिसकी वजह से वो अपनेआप खुलने का पता बन जाये वो दोस्त।

आगे अगले अंक में।


© विजय रावल


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