क्लीनचिट - 3 Vijay Raval द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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क्लीनचिट - 3

अंक- तीसरा /३
अदिती- आलोक, दो दिन बाद डेल्ही में मेरे एन.जी.ओ. की एक जरुरी मुलाकात है, पापा के एक अज़ीज़ दोस्त और फॅमिली सदस्य जैसे अंकल और उनके कुछ दोस्त इस एन.जी.ओ. के नयी परियोजना की वितीय योजना के लिए ऑस्ट्रेलिया से आ रहे है, बहोत ही कम वक़्त में मुझे ढेर सारी तैयारिया करनी है, और मैं इस परियोजना की मुख्य प्रभारी हूँ , सिर्फ तिन दिन में पुरे परियोजना की डिजिटल मिडिया मंच से ले कर प्रिंट मिडिया तक की ब्ल्यूप्रिंट मुझे ही तैयार करनी है।

अदिती को लगा की आलोक कुछ पूछना चाहता है, पर चुप है, इसलिए अदिती ने उसकी चुप्पी तोड़ने के लिए बात की शरुआत करते हुए पूछा।

आलोक भविष्य को लेके तुमने क्या योजना सोच रखी है ?

आलोक- कल कॉलेज का अंतिम दिन है, बंगलुरू में एक जर्मन कंपनी में जॉब के लिए सिलेक्ट हो गया हूँ, शायद अगले हफ्ते जोइनिंग लेटर आ जायेगा।
अदिती- कोंग्रेच्युलेशन, ये तो मेरे लिए और भी ख़ुशी की बात है।
आलोक- क्यों ?
अदिती- अगले महीने मैं अपने एन.जी.ओ. की नई शाखा का बंगलुरु में उद्घाटन करने की सोच रही हूँ, बस थोड़ी सी कागज़ी कारवाई और कर्मचारी का इंतजाम हो जाए फिर कोई तारीख तय करती हूँ।

ये सुन के आलोक का चहेरा थोडा खिल सा गया।
अब अदिती थोड़ी गंभीर हो गई।

आलोक- हमारे वार्तालाप की शुरुआत एक शर्त के विषय से शुरू हुई थी,
और मैंने कहा था की जब हम यहाँ से निकलेंगे तब में तुम्हे कहूँगी अगर कहेने जैसा लगा तो।
आलोक- हां, अदिती बोलो क्या शर्त है तुम्हारी ? तुम को लगता है की शर्त के लिए में काबिल हूँ ?

अदिती- आलोक जब से जिंदगी को समजने लगी हूँ तब से मैंने जिंदगी को एक चुनौती के रूप में ही देखा है, जिस आदमी में खुली आँखों से देखे हुए, अपने कीर्तिमान के लक्ष्यवेध करने का पागलपन का जूनून और सपने हो, एसा कुछ मैं तुजमे देख रही हूँ |

पर, ये सिर्फ शर्त नहीं है | ये मेरे लिए एक अनमोल जायदाद है, समज लो की ये मेरे तरकश का आखरी तीर है।
क्यों की.. शर्त भंग के साथ विश्वासभंग भी होगा, और दोनों ही परिस्थितियों में हार मेरी है होगी।

आलोक गहेरी सोच में पड गया की... ऐसी कौन सी कठिन शर्त होगी ?

‘हेय.. आलोक, किस सोच में पड गये ? कहीं मन ही मन में गालियाँ तो नहीं दे रहे हो ? की कहाँ इस भूतनी से पाला पड गया |
इतना बोल के अदिती हंस ने लगी |

आलोक, अब वक्त हो रहा है १:१०. कृपया मुझे निकलना होगा, अभी घर जाके मुझे फाइनल पेकिंग भी करनी है, अहमदाबाद एयरपोर्ट निकल ने के लिए ट्रावेल एजंट के कार ड्राइवर को मैंने १:३० का पिक-अप टाइम दिया हुआ है।

पर, अदिती तुम्हारी शर्त ?

आलोक, तुम सच में गंभीर हो शर्त के लिए या, सिर्फ सुनने की खातिर सुन रहे हो ?

अदिती, जहाँ तक मेरी समज में आ रहा है, इस शर्त पर तुम्हारा कोई गंभीर निर्णय रुका हुआ है, अगर मेरा अनुमान सही है तो तुम्हे इतना तो यकीन हो ही गया होगा की तुम्हारे कहे बिना ही में उस शर्त के आत्मसमर्पण के पक्ष में हूँ।

यकायक आलोक ने अदिती की आँखों में एक अनूठे चमक की लहर देखी|

अदिती बाइक पर बैठी, थोड़ी देर आलोक को देखती रही, आलोक के सामने हाथ बढाया, दोनों ने हाथ मिलाये।

अदिती- आलोक मैंने बहोत से लोंगो से हाथ मिलाए है, किसी को अपना निजी स्पर्श नहीं दिया।

मुझे इस स्पर्श के अनुभूति की अभिलाषा है, अनजानी फिर भी काफी हद तक अपनी लगती इस प्रतीति के प्रसस्तिपत्र की मुझे प्रतीक्षा रहेगी।

आलोक मेरी इच्छा है की हमारी अगली मुलाकात के अनुसंधान की तुम खोज कर लो, तो मुझे अपने सारे सवालों के जवाब मिल जायेंगे, बस इतनी सी है मेरी शर्त।

थोड़ी देर तक दोनों हाथ मिला कर खड़े रहे, दोनों में से किसी ने हाथ छुड़ाने की कोशिष नहीं की, आखिर में अदिती हाथ छुड़ाकर बोली,

अदिती- आलोक एक बात जरुर याद रखना, मैं बिन्दास हूँ पर बेहद नहीं।
थी है, फिर मिलते है, अलविदा, अपना ख्याल रखना।

आलोक अभी कुछ बोले उस से पहेले अदिती दूर निकल कर अँधेरे में ओझल हो गई।

आलोक काफी देर तक उनकी शर्त का अर्थघटन करता रहा |

अदिती को अहमदबाद एयरपोर्ट से जल्दी सुबह की फ्लाईट में जाने की वहज से ठीक निर्धारित समय १:३० बजे कार में बैठ कर निकल गई।

अभी एयरपोर्ट पहोंच ने में १५ मिनिट की दुरी थी तब ही एयर लाइन का मेसेज आया की फ्लाईट की उड़ान रद्द हो गई है। इस लिए उस ने तुरंत ही सोचा की सब से पहेली जो ट्रेन मिले उस में निकल जाएगी। ऑनलाइन सर्च करते हुए टिकट बुक कर ली स्टेशन पर आई, ट्रेन में अपनी सीट पर बैठ के टाइम देखा ५:३५ ए.एम, सबसे पहेले स्वाति को कॉल लगाया।

रात की पिछली प्रहर की गहेरी नींद से ज़पक से जागते हुए, आँखे मलते मलते स्वाति ने कॉल उठाया |
अदिती- हाय गुड मोर्निंग माय स्वीट हार्ट डार्लिंग।
बड़े बड़े जवाई लेते हुए स्वाति ने पूछा
गुड मोर्निंग.. ये कोई वक़्त है कॉल करने का ? क्यूँ तेरी वो निजी मुलाकात अब जाके खत्म हो हुई ?
‘हा.. हा.. हा, हंसते हए अदिती बोली
अबे ओये ज्यादा होंशियार बनने की कोशिश मत कर समजी. निजी मतलब निजी।
स्वाति- हा पर किस के भाग्य फुट गये थे जो तुजसे टकरा गया ?
अदिती- मिल गया था... सरे राह चलते चलते.. आलोक नाम है उसका।
स्वाति- कौन आलोक ?
अदिती- वो में रूबरू आने के बाद विस्तार से बताउंगी. काफी दिलचस्प किस्सा है, और सुन, फ्लाईट की उड़ान रद्द हुई है, मैं ट्रेन से आ रही हूँ, चल अब तू सो जा, मैं मम्मी, पप्पा से बात कर लेती हूँ, बाय।

अदिती के जाने के बाद आलोक काफी देर तक सोचता ही रहा, स्वयं से संवाद करता रहा. ये मुलाकात हकीकत थी या कोई सपना ? आलोक किसी लडकी को लेके कभी इतना गंभीर नहीं था, उसे आज तक अपनी जिंदगी को अपने विचार और द्रष्टिकोण से उजागर किया था, कभी उलझा नहीं था, तो फिर आज अदिती ही क्यूँ ? मुलाकात के अंतिम दौर में अदिती के एक एक शब्द में काफी गंभीरता थी, और वो शब्द जो अनुभूति में परिवर्तित होके उनके होंठो की कंपन न बन जाए उस बात का अदिती ने काफी ख्याल रखते हुए भी आखिर में उस बात की चुगली उसकी आँखों ने कर ही दी थी,
बस वो ही नज़ारा आलोक की आंखो में एक तिनके की माफिक चुभ रहा था।

अदिती मजुमदार एक नाम... एक परिचय के कितने परिवेश ?
पर गर्भित शब्दार्थ से उभरे हुए काल्पनिक रेखा चित्र की धुंधली तस्वीर धीरे धीरे साफ़ नज़र आने लगी थी।

थोड़ी देर बाद बाइक स्टार्ट कर के हॉस्टल पर आया, उनका रुम पार्टनर एक हफ्ते पहेले ही कॉलेज छोड़ के चला गया था, नींद उड़ गई थी, सोने की कोशिश की क्यों की, कल कॉलेज का आखरी दिन था इस लिए नियमित समय से थोडा जल्दी उठने की सोच रहा था. काफी तर्क-वितर्क और विरोधाभासी विचारो से लड़ते हुए बहोत देर के बाद उसकी आँख लग गई।

सुबह जब आंख खुली तब घड़ी में देखा तो ८:३० का समय देख के मन ही मन बोला।

बाप रे.. आज जल्दी जाने का सोचा था मगर.. दिमागी तौर से अभी भी थोडा अस्वस्थ था. और चित अब तक ब्ल्यू मून रेस्तरां में ही था. क्या करे ? ये समज में नहीं आ रहा था.

थोडा मन बहेलाने के लिए जिम की और निकल पड़ा, फिर आराम से ताजा हो के कॉलेज जाएगा ऐसा सोचा, तक़रीबन दो घंटे के बाद १०:३० बजे एकदम ताजा हो के ब्रेड, बटर और कोफ़ी के साथ डाईनिंग टेबल पर लेपटोप लेके बैठ गया. मेइल चेक करने लगा, औए अचानक से एक मेल देख के चौंक गया. इतने जोश में आ गया की नाश्ता अधुरा छोड़ के सीधा पिताजी को फ़ोन कर दिया।
हेल्लो..पापा।
इन्द्र्वदन- हाँ, आलोक बोल, कैसा है तू ?
मैं बिलकुल बढ़िया।
पापा, एक जबरदस्त खुशखबरी देता हूँ, अभी अभी कंपनी से जोइनिंग लेटर का मेल आया है, दो तारीख को जॉब ज्वाइन करनी है, पापा मैं बहोत ही खुश हूँ।

खुशखबर सुन के इन्द्र्वंदन की आँखे भर आई।

इन्द्र्वदन- बहोत बहोत बधाई बेटे, ये तुम्हारी कड़ी महेनत की सफलता का पहेला पायदान है, हमारी तो हरदम इश्वर से यही गुज़ारिश है की बस तू इसी तरह खुश रहे।

मम्मी कहाँ है ?
मेरे बाजू में खड़ी है,उनको देता हूँ फोन, ले बात कर।
मम्मी.
हाँ, बोल आलोक हमारे दिल में तो हर्षौल्लास की बाढ़ उमड़ पड़ी है, हमारे मन तो आज आनंद का उत्सव है बेटे।
मम्मी में आज रात को निकल के सुबह तक घर आ जाऊंगा, आप दोनों के आशीर्वाद ले ने, अब मेरे पास वक्त बहोत कम है, और काफी सारे काम भी निपटाने है।
ठीक है बेटे, आजा संभल के।
अच्छा ठीक है मम्मी, फोन रखता हूँ, पापा को बोल देना में बाद मैं कॉल करूंगा।
अपना ख्याल रखना।

फिर जोइनिंग मेल को कन्फर्मेशन का रिप्लाय दिया, कुछ दोस्तो को मेइल से गुड न्यूज़ की जानकारी दी, करीबी दोस्तों को कॉल्स किये, सब की एक ही मांग थी,पार्टी। आलोक ने बोला.. आप सब तय कर के फाइनल करो मैं अभी कॉलेज पहुँचता हूँ।

एक पल के लिए सोचा काश...अदिती, लगातार बहे रही ख़ुशी के तरंगो में कुछ रूकावट आ रही थी, खुश था पर कुछ कमी थी. कुछ खटक रहा था, थोडा सा मायूस हो गया, फिर अपने आप को संभालते हए कॉलेज की और निकल पड़ा।

तक़रीबन १२ बजे के आसपास कॉलेज में दाखिल होते ही बेसब्री इंतज़ार करते हुए हेमन्त, कबीर, कामनी, सलीम, आदित्य, श्रुति, बलविंदर, सिद्धार्थ,और मेघना सबने आलोक को खुशी से चिल्लाते हुए घेर लिया।
एक तरफ दिलोजान दोस्त की बहोत बड़ी सफलता की बेहद ख़ुशी का आनंद और गौरव था, तो दूसरी तरफ उनसे बिछड़ ने का गम भी, सब ने इस दुर्लभ अवसर की ख़ुशी को पार्टी के रूप में मनाने का मन बना लिया था।

और फिर रात को पार्टी की महेफिल चली, सब अपनी मस्ती में खुश हो के ज़ूम रहे थे, आलोक के दिमाग में अभी भी कल रात के हादसे की कुछ चुभती बातें दस्तक दे रही थी, आखिर में रात को एक बजे पार्टी से सब को गले मिलते हुए निकल ने लगा, सब की आँखे गीली हो गई थी, पहेले से बुक की हुई टैक्सी तय किये हुए वक्त पे आ गई और आलोक उस में बैठ के अपने वतन की और निकल पड़ा।

जल्दी सुबह पांच बजे पहोंच गया अपने घर, पूरी रात ट्रेवलिंग की थकान से थका हारा अपने कमरे में जा के गहेरी नींद में सो गया।

दुसरे दिन मम्मी, पापा से ढेर सारी बातें करे के पुरे दिन को यादगार बना दिया, इन्द्र्वदन और सरोज बहन की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था. फिर शाम को दोनों के चरणस्पर्श करके आशीर्वाद ले के अहमदाबाद एयरपोर्ट के लिए कार से निकलने लगा तब दोनों काफी भावुक हो गये, दिल को कठोर करते हुए दोनों ने भीगी आँखों से आलोक को विदाइ दी।

आधी रात के बाद अहमदाबाद फ्लाईट से दो तारीख की जल्दी सुबह ६:३० बजे बंगलुरू एयरपोर्ट पर आ गया, वहां से दी गई जानकारी के मुताबिक होटल पर आ के थोड़ी देर के लिए सो गया।

पूर्ण रूपसे एक ऑफिसर की माफिक तैयार हो के ठीक १०:३० बजे ऑफिस पहोंच गया, ऑफिस के हेड गोपाल कृष्णन ने ऑफिस के सभी कर्मचारीओ के साथ आलोक का परिचय करवाते हुए अवगत करवाया, फिर आलोक को उनकी निजी केबिन दिखा कर सब काम समजाया,
एक हफ्ते में सब काम काज अनुसूची के मुताबिक सामान्य होने लगा था, सिर्फ अदिती की आहाट के अलावा।

ऑफिस का समय खत्म होने के बाद सूर्यास्त के वक्त नियमित रूपसे अदिती की यांदे भीड़ की शक्ल में उमड़ पड़ती थी, अदिती का संपर्क करने की गुत्थी ज्यादा से ज्यादा उलज रही थी।

आलोक के शालीनता भरे स्वभाव, काम करने और काम लेने की काबिलियत से ऑफिस के सभी कर्मचारी गण और हेड गोपाल कृष्णन भी खुश और संतुष्ट थे, सब आलोक के प्रति मान और आदर करने लगे, कुछ ही दिनों में ऑफिस में आलोक ने अपनी एक साफ सुथरी और सन्मान जनक छवि बना ली, आलोक अपने काम और फर्ज़ के प्रति पूरी लगन और सतर्कता का पूरा ख्याल रखता था, बंगलुरू के वातारवरण, वहां के लोग, वहां की बोली, वहां के तौर तरीके इन सब बातोँ से धीरे धीरे वाकिफ होने लगा, आलोक ने ऑफिस के नजदीक ही रईसी इलाके में दो बेडरूम किचन वाला फुल्ली फर्निश्ड फ्लेट किराये पर रख लिया, धीरे धीरे नये नये दोस्त बनते गये, और उस दरमियाँ सब के बीच में शेखर सब से चहिता औए जिगरी दोस्त बन गया, और एक दफा इन्द्र्वदन और सरोज बहन भी दो दिन ठहर के निश्चिंत हो कर गये।

तिन हफ्ते बाद एक दिन ११:०० बजे के करीब आलोक अपनी केबिन में कंप्यूटर पर एक भविष्य के पारियोजना की प्रक्रिया की ऑनलाइन जाँच करने में मशगुल था, तब ही गोपाल कृष्णन का कॉल आया।

गोपाल- गुड मोर्निंग आलोक, सुनो आज मैं ऑफिस जरा देर से आऊंगा।
ऑफिस की किसी काम के सिलसिले से बॉस के कोई रिश्तेदार आ रहे है, मैं एक घंटे में आ जाऊंगा, बाकि की विस्तृत जानकारी मैं तुम्हे मेसेज में भेज रहा हूँ, आशा करता हूँ तुम सब ठीक तरह से संभाल लोगे।
दो मिनिट बाद गोपल का मेसेज आया।
नाम- अदिती मजुमदार।
फ्रॉम-मुंबई।
अदिती मजुमदार फ्रॉम मुंबई सिर्फ इतना पढ़ते ही आलोक का मानसिक संतुनल असंतुलित हो गया, बिना सर पैर वाले विचार उनके दिमाग में घुमने गले, मन ही मन बोला- अदिती यहाँ ? अचानक ? आलोक के विचार बिना तर्क की दिशा में अंधी दौड़ लगाने लगे, तेज ए.सी. चलते हुए भी आलोक पसीने से पानी पानी हो गया, हाथ पांव ठन्डे हो गये, कुछ पल के लिए तो ये भी भूल गया की वो कंहाँ है, चपरासी से दो गिलास पानी मंगा के पी गया, चपरासी को बोला-
कोई अदिती मेडम आये तो उन्हें मेरी केबिन में लेके आना।

पन्द्रह मिनिट में तीन बार केबिन से बहार आ कर हक्के बक्के हो के कर्मचारी और चपरासी से कुछ उलटे पुल्टे सवाल पूछने और आलोक के चहेरे के भाव से उनका रवैया कुछ विचित्र लगा तब एक कर्मचारी ने पूछा,
सर, कोई परेशानी ,कोई समस्या ?
आलोक ने चहेरे पर नकली हंसी ला के अपने आप को सँभालते हुए बोला,
जी.. जी. कुछ नहीं. सब कुछ ठीक है।

अधीरता से आकुल व्याकुल आलोक ने पांच मिनिट के बाद इंटरकोम से ग्राउंड फ्लोर के सुरक्षा कर्मी को जानकारी दी,फिर भी रहा नहीं गया तो खुद ही ग्राउंड फ्लोर पर आकर सुरक्षा कर्मी से इधर उधर की बातें करने लगा, मगर आलोक का ध्यान तो एंट्री गेईट की तरफ ही था।

अब आलोक अपनी धीरज खो चूका था, अधीरता से निराश होकर उसने गोपाल को कॉल लगा दिया और फिर हडबडाते हुए बोला-
सर, वो बॉस के गेस्ट अभी तक आये नहीं है..
आगे क्या बोलना है वो आलोक को सुजा नहीं तो अटक गया।

गोपाल- क्या हुआ है ? क्यूँ इतनी चिंता कर रहे हो ? तुम्हे कहीं जाने की जल्दी है ? तुम ठीक हो ? वोह आये तो ठीक है, अगर न आये तो इसमें इतनी चिंता करने इतनी जरूरत नहीं है. ये सिर्फ एक हमारी जॉब का हिस्सा है, मैं आ रहा हूँ थोड़ी देर में।

आलोक थोडा बोखलाते हुए बोला,
जी.. जी.. ठीक है. मैं तो बस ऐसे ही पूछ रहा था की..
आलोक अपनी बात पूरी करे उससे पहेले गोपाल ने कॉल काट दिया।

आलोक को उसकी गलती का अहेसास होने लगा,अपने बेहुदे बर्ताव पर काबू करने का निष्फल प्रयास करते हुए, अपनी केबीन में आ के वापिस उलझन में पड गया, १२:४५ का वक़्त हुआ था, घड़ी की टिक टिक उसके दिमाग में कील की तरह चुभ रही थी।

अगर अदिती सामने आ गई तो तो क्या करूंगा ? क्या बोलूँगा ? वोह मुझे पहेचानेगी ? मैं उसको क्या जवाब दूंगा ? ऐसे कई बे-मतलब के तर्क हीन सवाल अलोक अपने आप से करता रहा।

अब वक़्त हुआ १:१० गोपाल अपने केबीन में गया।
तब चपरासी ने आकर आलोक को बोला की आप को साब बुला रहे है।
गोपाल की चेम्बर में दाखिल हो कर एक लंबी सांस भर के जैसे ही आलोक चेयर पर बैठा तब गोपला ने पूछा
तुम ठीक हो ? कोई परेशानी ? ये सिर्फ एक ओपचारिक मुलाकात है, तुम जानते हो अदिती मजुमदार को ?
थोड़ी देर बाद
आलोक – हाँ, ना।
हँसते हुए,
गोपाल- अरे.. ये क्या हाँ.. ना.. ? तुम ठीक तो हो ना ?
आलोक – सर. मेरा मतलब है की नाम कुछ जाना पहेचाना सा लगता है तो शायद।
दोनों की बातचीत चल रही थी तब ही गोपाल के बॉस का कॉल आया।
गोपाल ने कॉल उठाया. बातचीत खत्म की. फिर बोला.
गोपाल- चलो, बात खत्म, मुलाकात ही रद्द हुई।
आलोक – क्यूँ ? गलती से आलोक ने आतुरता से पूछ लिया।
गोपाल- अरे.. यार ये बॉस का निजी मामला है. हम नहीं पूछ सकते, और बोस और उनके क्या ताल्लुकात है, उनसे हमें क्या लेना देना ?

आलोक को बात की गंभीरता समज में आ गई. तो बात को हंसी में टालते हुए बोला,
आलोक- अगर कुछ काम न हो तो में अपनी केबीन में जा सकता हूँ ?
गोपाल- जी जरुर।

अलोक अपनी केबिन में आया. उनको अपनी इस बेवकूफी भरे बर्ताव पर गुस्सा आ रहा था. मन ही मन बडबडाने लगा. मैं इनता बेबाक क्यूँ हो रहा हूँ ? मुंबई में लाखो अदिती मजुमदार होंगी. पर किसी भी अदिती मजुमदार को आलोक देसाई से ही क्यूँ मिलना होता है ? पहेले आ रही है, फिर नहीं आ रही है, क्यूँ ? कौन है ये अदिती ? किस से पूछू ? कहाँ होगी वोह ? मेरे आसपास या फिर शर्त की आड़ में इश्वर अपनी करामात से मेरे साथ कोई खिलवाड़ कर रहा है ?

आगे अगले अंक में.

© विजय रावल

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