साइलेंट किलिंग
भला ये भी कोई जिंदगी है । पहाड़ से भी बड़ा जानलेवा दर्द । अस्पताल के इस बिस्तर पर पड़े–पड़े कब सुबह होती है, कब शाम होती है, कुछ पता ही नहीं चलता । न दिन का एहसास, न रात का । बस नर्सों और डॉक्टरों का आना–जाना है । पूरे शरीर को नलियों से बेध दिया गया है । कौन सी नली कहां से निकलकर कहां जा रही है, कुछ पता नहीं । नाक के ऊपर हर वक्त सांस लेने के लिए कटोरे नुमा प्लास्टिक का उपकरण जिसके अंदर मुंह भी ढका है, नाक भी । बस टुकुर–टुकुर देखने के लिए दो आंखें हैं जो कब बंद होती हंै, कब खुलती हंै, पता नहीं । दो आंखें जिनसे कब आंसू बह निकलते हंै, कब रुक जाते हंै, पता ही नहीं चलता । डॉक्टर कहते हैं शरीर में आक्सीजन लेवल कम हो गया है । इसलिए आक्सीजन मास्क हमेशा लगाए रखना जरूरी है । पर डॉक्टर को क्या पता कि इरा मेहरा के जीवन में आक्सीजन हमेशा ही कम रही । अस्पताल के इस कमरे के सोफे पर पति राजीव लोचन चुपचाप बैठे हुए हंै । हमेशा की तरह चुप । उन्हें कातर निगाहों से देखती हैं इरा मेहरा और सोचती हैं अगर ये समय पर बोलते तो, अगर इन्होंने समय रहते डॉक्टरों की बात मान ली होती तो, शायद आज हालात कुछ और ही होते । बेसुध सी इरा मेहरा का सजग मन न जाने अतीत के किन बीहड़ और डरावने जंगलों में भटक रहा है ।
पिछले दस दिन से इरा मेहरा इस अस्पताल में हैं । डॉक्टर, नर्स अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे । न जाने कितने डॉक्टर आये, न जाने कितने तरह के टेस्ट हुए, लेकिन कोई कुछ बता नहीं रहा । जो हालत अस्पताल में दाखिल होने से पहले थी, आज भी है, कहीं कोई सुधार नहीं , कहीं कोई राहत नहीं, लेकिन जब हालात इस स्तर तक पहुंच जायंे तो सिवाय इंतजार के और कुछ नहीं किया जा सकता और तब वही सब कर रहे थे । डॉक्टर भी, नर्स भी, राजीव लोचन भी और इरा मेहरा भी ।
याद आते हैं पिता । जिन्होंने कहा था तुम्हें हार नहीं माननी–––अपने पैरों पर खुद खड़ा होना है, अपने आप को किसी से कम नहीं समझना, आगे बढ़ने के रास्ते खुद तलाश करना । पिता की एक–एक बात को इरा मेहरा ने अपनाया । बहुत मेहनत–मशक्कत करके पिता की साधारण कमाई से अपने लिए पढ़ने के रास्ते निकाले । टीचर की नौकरी हासिल की । अपनी योग्यता और व्यवहार के कारण पूरे स्कूल की चहेती टीचर बनीं । उनके पढा़ए हुए एक नहीं, सैकड़ों विधार्थी मान–सम्मान का जीवन जी रहे थे । कोई नौकरशाह बनकर, कोई इंजीनियर बनकर, तो कोई डॉक्टर बनकर । दूसरों की बेहतरी के लिए हमेशा तैयार । पता नहीं कब यह संकल्प ले लिया कि किसी को दु%ख नहीं पहुंचाना, न अपने मां–बाप को, न राजीव लोचन के परिवार वालों को और न ही अपने स्कूल के टीचरों को । जाने या अनजाने ऐसा कोई काम नहीं करना जिससे किसी को दु:ख पहुंचे । अपने इसी संकल्प पर अडिग रहीं । इसी संकल्प को मन में बसाए भागती रहीं इधर से उधर, उधर से इधर । बस पता चले कि किसी टीचर के परिवार के किसी सदस्य को अस्पताल ले जाना है, तो सेवा–टहल के लिए फौरन तैयार । पता चले किसी टीचर के घर में लड़की की शादी है, तो पहुंच जायें हाथ बंटाने । पता चले कि किसी टीचर को कुछ पैसों की जरूरत है, तो अपने पी–एफ– से पैसे निकालकर देने के लिए तैयार । साथी टीचर हमेशा कहा करते थे, “इतने भले मत बन जाओ कि दुनिया की नज़रों में बुद्धू साबित हो जाओ । कुछ दुनियादारी भी सीख़ो । पर इरा मेहरा के लिए दुनियादारी का मतलब अपने आप को मुश्किलों में खड़ा कर दूसरों के काम को आसान बनाना था । भले ही अपने लिए तमाम मुसीबतें खड़ी हो जाएं लेकिन दूसरों का काम आसान होना चाहिए, उनका मान–सम्मान बना रहना चाहिए । दूसरों को मान–सम्मान की जिंदगी देते–देते कब उनके अपने जीवन से मान–सम्मान गायब हो गया, पता ही न चला । कभी बहुत गर्व करती थीं अपने आप पर, अपनी खुद्दारी पर, भीतर ही भीतर एक शून्य पैदा हो गया ।–––––एक विराट शून्य, जिसकी भनक तक किसी को नहीं लगने दी ।
बेसुध सी हालत में इरा मेहरा का अवचेतन मन याद करता है अपने अतीत को । किस तरह बिखर गया उनका परिवार । भाई पढ़ने के लिए गया अमरीका । लौट कर आया नहीं । वहीं उसने अपना घर बसा लिया । पिता के जाने के बाद मां रह गई अकेली । बहुत बड़ा घर था उनका । अमरीका से भाई ने आकर वह भी बेच दिया । उसने बहुत रोका, मत बेचो यह घर । पर उसका कहना था कि जब मुझे यहां आना ही नहीं, तो घर रखकर क्या करूँगा । पर इरा मेहरा के लिए घर बेचने का मतलब था, अपने अतीत को बेच देना, अतीत से जुड़ी उन सभी स्मृतियों को बेच देना, बेघर होकर जीना, आने वाली पीढ़ियों को अपनी जमीन से बेदखल कर देना । लेकिन इरा मेहरा के भाई ने एक नहीं सुनी । घर बेचकर मां को उसने बेघर कर दिया । हालांकि घर को बेचने का विचार मां का ही था । लिहाज़ा घर बेचकर मां पैसे लेकर अपने भाई के पास रहने लगी । सारी जिंदगी भर का इंतजाम मां ने घर बेचकर कर लिया था । मां का मानना था कि पैसे हाथ में रहेंगे तो भाई भी कद्र करेगा । इरा मेहरा का अपना एक बेटा था । पढ़–लिखकर वह भी दुबई चला गया । वहाँ जाने के लिए उसने मन–माफिक तर्क गढ़ लिये थे । वहां जाकर उसने अपनी दुनिया बसा ली थी । उनकी चाह थी कि बेटा यहीं रहे, लेकिन यह संभव न हो सका । किसी शादी–ब्याह में वह आता । वह भी रस्मी तौर पर । घर पर न ठहरकर होटल में ठहरता और दूसरे या तीसरे दिन चला जाता । यहां कोई बचा नहीं था । पति राजीव लोचन थे । उनका परिवार था । उन्हें अंदाजा नहीं था कि सब कुछ होते हुए भी उनका जीवन इस प्रकार से गुजरेगा ।
तीस साल पहले राजीव लोचन से इरा मेहरा की शादी हुई शादी के बाद कुछ दिनों तक सब ठीक चला, लेकिन हालात धीरे–धीरे बदलते गये । इरा मेहरा को शादी के बाद पता चला कि इस घर में उनके पति राजीव लोचन का कोई वजूद ही नहीं था । घर में जो भी थे उनके पति के बड़े भाई ही थे । उनकी अपनी पत्नी का भी कोई वजूद नहीं था । बड़े भाई के आगे सब बौने थे । पूरे घर की बागडोर उन्हीं के हाथ में थी । जब पति का ही घर में कोई वजूद न हो, तो इरा मेहरा का वजूद कैसे हो सकता था । कहने को तो राजीव लोचन वैज्ञानिक थे लेकिन घर में अपने भाई के प्यादे से ज्यादा उनकी औकात नहीं थी । घर में जो भी सैलरी आती वह अपने बेटे पर खर्च न कर भाई के बच्चों पर खर्च होती । पूरे घर का बिजली के बिल का भुगतान करने से लेकर राशन लाने तक जिम्मा राजीव लोचन पर ही था, बिना इस बात की परवाह किए कि उनकी पत्नी क्या सोचती है । इतना तक होता तो भी गनीमत होती । पर इससे भी आगे बहुत कुछ था ।
“चलिए, कपड़े बदलने का टाइम हो गया ।” नर्स ने कमरे में आते ही कहा तो इरा मेहरा की तंद्रा वापस लौटी । वह तो तेज बुखार में न जाने किस अतीत के सागर में गोते लगा रही थीं ।
“डॉक्टर साहब कब आयेंगे ।” राजीव लोचन ने सोफे से उठते हुए नर्स से पूछा ।
वे जानना चाहते थे कि, “कल जो एमआरआई करवाया था, उसकी रिपोर्ट कैसी आई है ?”
“अभी थोड़ी देर में आएंगे । वही बताएंगे” नर्स ने इरा मेहरा का बुखार चेक करते हुए कहा ।
“कितना बुखार है–––––––––––––– ?”
“अभी है हंड्रेड थ्री–––––” नर्स ने कहा ।
सुनकर कमरे से बाहर चले गये राजीव लोचन । नर्स को कपड़े और बिस्तर सब बदलने थे ।
नर्स के जाने के बाद पता नहीं कब फिर बेसुध हो गर्इं इरा मेहरा । दिमाग में एक–एक करके स्मृतियां कौंधती हैं ।
जब भर्ती हुई थी अस्पताल में तब मां आई थीं । मां को जब पता चला कि उनकी बेटी किसी जानलेवा बीमारी की गिरफ्त में आ चुकी है तो किसी विजिटर की तरह आई थीं । आधा घंटा चुपचाप बैठी रही और फिर चली गई ।
“क्या कहते हैं डॉक्टर ।” मां ने पूछा था ।
“कुछ नहीं कहते ।” इरा मेहरा के मुंह से मुश्किल से ये शब्द निकले थे ।
जानती थीं मां कि जीवन ज्यादा दूर तक नहीं जायेगा फिर भी पूछ रही थींµ “आपरेशन करेंगे ?” मां न पूछा था ।
इरा मेहरा ने कोई जवाब नहीं दिया । उसे कुछ पता होता तो जवाब देती । गुमसुम मां को देखती रहीं । अपनी मां से बात करने की उनकी कोई इच्छा नहीं थी । बात करने की ताकत भी नहीं बची थी ।
अक्सर सोचती हैं इरा मेहरा मां के बारे में कि मां इतनी संवेदनहीन क्यों हैं ? क्यों मां को यह लगता रहा कि यह तो लड़की है । शादी कर दी । मेरा दायित्व खत्म है । अब यह जाने और इसकी ससुराल वाले जानें । वैसे मां चाहतीं तो वह उसे इस हालात में पहुंचने से बचा सकती थीं । बहुत बड़ा घर था उनका । नौकरी थी ही उसके पास । बेटा दुबई चला ही गया था लेकिन मां ने ऐसा नहीं सोचा । सोचा होगा कौन सारी जिंदगी के लिए मुसीबत मोल ले । कौन देखभाल करे बीमार औरत की । उसका तो मानना था कि शादी के बाद लड़की की अर्थी ही निकलती है उस घर से । खुद लड़की नहीं । एक–दो बार वह कह भी चुकी थी ।
“लीजिए सूप ले लीजिए ।––––” नर्स कंधा पकड़कर उठाती है तो इरा मेहरा की तंद्रा टूटती है । पास में पति राजीव लोचन खड़े हैं । उन्हें देखकर पूछती है, “क्या टाइम हो गया ।”
“अभी सात बजे हैं ।” राजीव लोचन ने घड़ी की ओर देखते हुए टाइम बताया
“ओह!–––––––––––” “पता ही नहीं चलता समय का ।” इरा मेहरा ने आहिस्ता– आहिस्ता कहा दर्द जुबान पर आ रहा था ।
सूप पीते–पीते फिर स्मृतियों के बीहड़ में खो जाती हंै इरा मेहरा ।
एक और स्मृति–––
“मैं उस घर में नहीं रह सकती ।” कहा था मां से, जब राजीव लोचन के भाई ने उन पर हाथ उठाने की कोशिश की ।
“नहीं, तुम्हें वहीं रहना है ।” मां ने दृढ़ता से कहा ।
“पर यदि मैं वहाँ रही तो बचूंगी नहीं” इरा मेहरा ने डरी हुई आवाज में कहा ।
“ऐसा कुछ नहीं होगा, तू घबराती क्यों है ? वहीं रह” मां ने अपना फैसला सा सुना दिया ।
तब से मां को वह हर खबर से अवगत करातीं कि कैसे पति राजीव लोचन उसके प्रति बेपरवाह हैं, कैसे राजीव लोचन का बड़ा भाई सारी तनख़ाह हड़प लेते हैं, कैसे उसे प्रताड़ित करते हैं और राजीव लोचन या तो चुप रहते हैं या अपने भाई का साथ देते हैं । पर मां ने कभी अपनी बेटी का साथ नहीं दिया । मां कभी–कभार उसके स्कूल में मिलने आतीं । सारा हाल–चाल पूछतीं । लेकिन कभी यह नहीं कहा, छोड़ इस परिवार को, निकल इस नरक की जिंदगी से । चल मेरे साथ ।
“उठिए ।––––” कानों में कहीं दूर से आती आवाज सुनाई दी ।
धीरे–धीरे आंखें खोली इरा मेहरा ने , सामने पति राजीव लोचन ही थे ।
“ये दवाइयां ले लो ।” उनके एक हाथ में कुछ गोलियां थीं और दूसरे हाथ में पानी का गिलास ।
इरा मेहरा ने अपने आस पास देखते हुए कहाµ “नर्स नहीं है ।”
“नर्स आई थी । उस समय तुम सो रही थीं । मैंने उठाने से मना कर दिया । अभी आधे घंटे में खाना आने वाला है । खाने से पहले ये गोलियाँ ले लो ।” राजीव लोचन ने कहा था ।
दवाइयाँ लेने के बाद भाई का चेहरा स्मृतियों में आकार लेने लगता है ।
एक बार गई थीं अमरीका उसके पास । वहां जाकर कहा था भाई से “सोचती हूं कि यहीं रह जाऊं ।”
“यहां––– ? यहां क्या करोगी ।” भाई के पैरों के नीचे से जमीन खिसकने लगी थी ।
“बहुत से इंडियन रहते हैं यहां । कोई न कोई नौकरी तो मिल ही जाएगी, उन्हें पढ़ाने की । किसी न किसी स्कूल में ।”
भाई व्यवहारकुशल था । समझ गया यदि यहां रह गई तो सारी जिंदगी संभालना पड़ेगा । उसकी सारी सच्चाइयां पता चल जायंेगी । बिना पल गंवाए उसने जवाब दिया । “यहां नौकरी करने के लिए वर्क परमिट नहीं मिलेगा और यदि मिल भी गया तो नौकरी आसानी से नहीं मिलेगी––– ।’’
ताड़ गर्इं भाई की मंशा को । नहीं रखना चाहता वह भी अपने पास ।
आज सोचती हैं यदि मां और भाई ने जरा सी भी हिम्मत दिखाई होती, उसे अपने पास रखने की, तो शायद बीमारी यहां तक न पहुंचती । किसे कसूरवार ठहराएं मां को, भाई को या राजीव लोचन को ।
“आज पूरा खाना खत्म करना है । रोज खाना छोड़ देती हो ।” नर्स ने उलाहना देते हुए कहा था ।
अस्पताल का खाना लेकर आई थी नर्स । यह नर्स क्या सिर्फ इसलिए उनकी देखभाल करती है कि इसके एवज में उन्हें सैलरी मिलती है या कुछ और । रोज सुबह एक बार जरूर हालचाल पूछती हैµ “मां जी, आज कैसी तबियत है । बेटा आ रहा है कि नहीं ।” यह रोज का उसका सवाल था और इरा मेहरा इस सवाल का जवाब केवल मुस्कराकर देती थी ।
कैसे हो गया यह सब । कैसे आ गर्इं यहां तक । याद करने की कोशिश करती हंै तो याद आता है ।
एक दिन सिर में हल्का–सा दर्द हुआ । एनासीन वगैरह ली, कोई फायदा नहीं हुआ । धीरे–धीरे दर्द बढ़ता ही गया । राजीव लोचन को कई बार कहा । लेकिन उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया । खुद भी इतनी लापरवाह रही कि कभी अकेले जाकर डॉक्टरों को नहीं दिखाया । जब दर्द अपनी सीमा खुद ही पार कर गया तो डॉक्टर को दिखाया । उसने कुछ दवाईयां दी, एंटीबायोटिक लिखे और कोर्स पूरा करने की सख्त हिदायत दी । उस समय दर्द तो ठीक हो गया, लेकिन कोर्स पूरा करने के चक्कर में एंटीबायोटिक अनचाहे ही लेने पड़े । बस सिलसिला–सा शुरू हो गया, इधर सिर में दर्द, उधर एंटीबायोटिक का कोर्स । इधर दर्द, उधर एंटीबायोटिक । तीन साल तक यह सिलसिला लगातार चलता रहा । धीरे–धीरे सुनाई भी कम देने लगा और सांस लेने में तकलीफ भी बढ़ गई फिर शहर के नामी–गिरामी अस्पताल में ब्रेन स्पेशलिस्ट को दिखाया तो उसने एमआरआई करवाने की सलाह दी ताकि बीमारी की जड़ का पता चल सके और जब एम आर आई की रिपोर्ट ब्रेन स्पेशलिस्ट ने देखी तो पांवों के नीचे से जमीन खिसक गई ।
“आपके दिमाग में एक छोटी–सी गांठ बन रही है । शायद वही आपके सिर दर्द का कारण है ।” डाक्टर ने रोग की जड़ को पकड़ लिया था ।
“दिमाग में गांठ ।––––––––––––––यानी ब्रेन ट्यूमर । इरा मेहरा के । उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि वे इतनी बड़ी बीमारी की चपेट में आ सकती हैं ।
“घबराइये नहीं, अभी बहुत छोटी गांठ है । आपरेशन से आसानी से निकल सकती है ।” “ऑपरेशन करवाकर इस गांठ को निकलवा लीजिए ।”
“कितनी बड़ी गांठ है ।” राजीव लोचन ने जानना चाहा ।
“है अभी छोटी–सी । लेकिन यह गांठ ब्रेन स्ट्रेम से एकदम चिपकी है जो कि दिक्कत पैदा कर सकती है । मेरे ख्याल से जल्द से जल्द से ऑपरेशन करवाना ठीक रहेगा ।”
इरा मेहरा को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहें डॉक्टर को ।
डॉक्टर ने कहना जारी रखा, “आपको सांस की तकलीफ होती है वह भी इसी वजह से । मेरे ख्याल से सर्जरी ही इसका इलाज है । ज्यादा देर मत करिए । जानलेवा साबित हो सकती है ।”
राजीव लोचन सुनते रहे डॉक्टर की एक–एक बात को । लेकिन चेहरे पर कोई हावभाव नहीं, डॉक्टर की बात का कोई जवाब नहीं दिया ।
“तब तक मैं कुछ दवाइयां लिखकर देता हूं । पर आप ज्यादा देर मत करिए और कोशिश करिए घर में कोई तनाव न हो । ऐसी कोई घटना न हो, जिससे इनके दिमाग पर ज्यादा जोर पड़े । घर में खुशनुमा माहौल बनाए रखें ।” डाक्टर ने सलाह देते हुए कहा था ।
सुनकर मन ही मन मुस्कराई थीं इरा मेहरा । घर में खुशनुमा माहौल कैसे हो सकता है । घर में घुसते ही राजीव लोचन के बड़े भाई की शक्ल दिखते ही आधी ऊर्जा खत्म हो जाती थी । बाकी एक चैथाई राजीव लोचन के दब्बूपन के कारण खत्म हो जाती है । शेष बची एक चैथाई ऊर्जा से ही उसने अपने जीवन की नाँव को खेना था ।
घर आकर जब राजीव लोचन ने दिमाग में गांठ की बात अपने बड़े भाई को बताई तो उसने इसे परले सिरे से ही नकार दिया । कहा था यह सब डॉक्टरों के पैसा ऐंठने का नुस्खा है । वो तो चाहते हैं मरीज फंसे और वे ज्यादा से ज्यादा पैसे कमा सकें । पर इरा मेहरा के लिए यह केवल पैसा ऐंठने की बात भर नहीं थी । उनके जीवन का सवाल था जिसे उनके पति राजीव लोचन और उनके बड़े भाई ने परले सिरे से ही नकार दिया था । कई बार इरा मेहरा ने राजीव लोचन से अपने आपरेशन की बात की लेकिन राजीव लोचन ने सुनकर भी अनसुना कर दिया । कई बार यह भी सोचा कि अकेले ही जाकर अस्पताल में भर्ती हो जाएं और ऑपरेशन करवा आएं लेकिन ऐसा कर न सकीं ।
ज्यों–ज्यों वक्त बीतता गया इरा मेहरा के लिए जीना मुश्किल होता गया । धीरे–धीरे करके सारे बाल झड़ गये । सारा शरीर स्याह काला पड़ गया । एक दिन पता नहीं अपने बड़े भाई के कहने से या दर्द के मारे इरा मेहरा की कराहे सुनकर या मन की आवाज सुनकर राजीव लोचन ऑपरेशन के लिए तैयार हो गये लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी ।
तीन साल लग गये राजीव लोचन को इस फैसले तक पहुंचने में । ये तीन साल कैसे गुजरे वही बता सकती हंै, दर्द और बेतहाशा दर्द । दर्द की वजह से स्कूल की नौकरी छोड़ देनी पड़ी और हमेशा दूसरों की मदद करने वाली इरा मेहरा अपनी बीमारी को लेकर पहले अपनी कॉलोनी तक सिमटीं, फिर अपनी ब्लॉक तक, फिर अपने घर तक और फिर केवल अपने कमरे तक । कैसे एक ही झटके में सब कुछ बदल गया । रोज खुद से ही जद्दोजहद करतीं । इरा मेहरा को बार–बार लगता था कि वह किसी खौफनाक और निर्मम आदमी के साथ रह रही हैं जिसे जरा सी भी हमदर्दी नहीं, जरा सी भी इच्छा नहीं कि वह अपनी पत्नी के लिए कुछ करे । इरा मेहरा नहीं भूल सकती राजीव लोचन के बड़े भाई के उस वाक्य को, कि होंगी तुम स्कूल में प्रिंसिपल, होंगी तुम बेहतरीन टीचर, पर हमारे घर में औरत को पांव की जूती ही समझा जाता है ।”
तीर की तरह सारी जिंदगी यह वाक्य उनका पीछा करता रहा । उन्होंने ये सिर्फ कहा ही नहीं करके भी दिखाया । कदम–कदम पर उपेक्षा, कदम–कदम पर अपमान और उपहास, कदम–कदम पर प्रताड़ना और यातना । ऐसे में दिमाग में गांठ नहीं होती, तो क्या होता ।
एक दिन काम करते–करते मूर्च्छित होकर धड़ाम से घर के फर्श पर गिर गर्इं । कब तक बेहोश रहीं मालूम नहीं । लेकिन जब होश आई तो पता चला कि फर्श पर गिरने से उनके कूल्हे की हड्डी टूट गई है और डॉक्टर ने एक रॉड डाल दी है । जीवन भर के लिए न जाने दर्द की कितने पर्तें उनके ऊपर पोत दी गर्इं रॉड का बोझ शरीर पर ही नहीं दिल पर भी था ।
तब से जिंदगी हाथ से फिसलने लगी । एक तो कूल्हे में रॉड का दर्द और ऊपर से दिमाग में गाँठ । नौकरी करना मुश्किल हो गया और एक दिन नौकरी से इस्तीफा दिया । उस दर्द के साथ जीना सीख लिया इरा मेहरा ने ।
आखिर क्यों है राजीव लोचन इतने दब्बू । एक बार राजीव लोचन ने इरा मेहरा को बताया था जब वे छोटे थे तो घर में पिता की खूब मार पड़ती थी । पिता के जाने के बाद घर की बागडोर बड़े भाई ने संभाली थी । पर मार का सिलसिला पिता के जाने के बाद भी जारी रहा और जब नौकरी लगी तो भी बड़ा भाई एक कोरे चेक पर दस्तखत करवा लेता था । वही घर का सर्वेसर्वा था । जिस तरह वह राजीव लोचन पर रोब जमाता था । उसी तरह उसने इरा मेहरा पर भी रोब जमाना चाहा । लेकिन इरा मेहरा को यह मंजूर नहीं था और इसी का खामियाजा वह भुगत रही है । घर में दोनों भाइयों ने हमेशा उन्हें कमतर ही आंका । इरा मेहरा को मानसिक संताप कदम–कदम पर मिला ।
पूरी रात बिता दी इरा मेहरा ने इन्हीं स्मृतियों में विचरते हुए ।
“देखो, डाक्टर साहब आए हैं ।” राजीव लोचन की आवाज उनके कानों में पड़ी तो इरा मेहरा ने धीरे–धीरे आंखें खोलीं । सामने देखा पाँच– छह डॉक्टरों का जत्था उनके पलंग के चारों ओर खड़ा था । उनकी रिपोर्टों को देखते हुए । आपस में कुछ बात करते हुए ।
उनमें से एक डॉक्टर था डॉ फारुख– चालीस साल की उम्र रही होगी । ब्रेन ट्यूमर का एक्सपर्ट । सुना था उसके बारे में न जाने कितने आपरेशन करके ब्रेन ट्यूमर को निकाल चुका है । पूरे देश में ख्याति थी उसकी । उसी की देख–रेख में सारा इलाज चल रहा था । रोज सुबह–शाम यही आता । कभी–कभी तो दिन में कई–कई बार । आता हर टेस्ट की रिपोर्ट को गहराई से जाँचता । और जूनियर डॉक्टर को हिदायतें देता । आज भी वह बड़ी देर तक सारी रिपोर्टों को देखता रहा । कभी रिपोर्टों को देखता, कभी दिमाग के चारों तरफ लगी मशीनों को देखता उनमें से निकल रहें संकेतों को समझता ।
अचानक उसने राजीव लोचन से कहा, “आप आइए मेरे साथ…… ।”
कहकर वह कमरे से बाहर जाने लगा । उसके पीछे–पीछे सारे डॉक्टर भी चले गए । इरा मेहरा कुछ समझ न सकीं । वह तो टुकर–टुकर डॉक्टरों को एक–एक करके जाते हुए देखती रहीं ।
राजीव लोचन समझ नहीं सके वे उसे क्यों अपने साथ ले जाना चाह रहे हैं, क्या कहना चाह रहे हैं ?
डॉक्टर फारुख राजीव लोचन को एक कमरे में ले गये, बाकी डॉक्टर भी उसी कमरे में आ गए ।
“देखिए सर, हम आपको अंधेरे में नहीं रख सकते । इनके दिमाग का ट्यूमर बहुत बड़ा हो गया है, करीब पांच सेंटीमीटर का और यह ट्यूमर ब्रेन स्टेम से एकदम सटा हुआ है । ऑपरेशन करते ही ब्रेन स्टेम डैमेज हो सकता है । ऐसा ऑपरेशन बहुत रिस्की होगा । इस हालत में हम लोग कोई रिस्क नहीं ले सकते ।” डॉ– फारुख ने अपना फैसला सुना दिया । राजीव लोचन घबरा से गये डॉक्टर की बातें सुनकर ।
“आपने बहुत देर कर दी इन्हें यहाँ लाने में । पहले ले आते तो बहुत कुछ संभव हो सकता था । जान बच सकती थी पर उस स्टेज में, अब इस स्टेज में अस्पताल कोई रिस्क नहीं ले सकता ।” डॉ– फारुख ने अपनी बातें फिर से दोहरा दीं ।
राजीव लोचन चुप रहे ।
“जब आपको यह पता चल गया कि दिमाग में ट्यूमर है । तो आपने यहां लाने में देर क्यों कर दी ।” डॉ फारुख ने बिजली के करंट जैसा सवाल राजीव लोचन के सामने रख दिया ।
“जी–––––––––––––” राजीव लोचन घबरा गए । समझ नहीं सके डॉ– फारुख के सवाल को ।
“आज से करीब तीन साल पहले जब आपको यह पता चल गया था कि इन्हें ब्रेन ट्यूमर है, तो आपने इलाज क्यों नहीं शुरू करवाया ? तब इन्हें यहां क्यों नहीं लेकर आए ।” डाक्टर ने अपना सवाल फिर दोहरा दिया । वह आवेश में आ गया था ।
इस बार उसकी आवाज में गुस्सा और आक्रोश बहुत साफ साफ दिखाई दे रहा था । अमूमन डॉक्टर इस तरह के सवाल किसी से नहीं करते, पर आज वह कर रहा था ।
“उस समय तो यह बताया गया कि दवाइयों से ठीक हो जायेगा ।” राजीव लोचन ने सहमते हुए कहा ।
“झूठ बोलते हैं आप, किसी ने आपको ऐसा नहीं कहा था । मैंने सारी रिपोर्ट चेक की हैं । एक बार नहीं, कई बार आपको ऑपरेशन की सलाह दी गई थी । लेकिन आपने डॉक्टरों की सलाह को हर बार नजरअंदाज किया, जिसका खामियाजा मैडम भुगत रही हैं ।”
उसका गुस्सा बरकरार था ।
राजीव लोचन समझ नहीं सके यह डाक्टर क्या कह रहा हैं ।
“मेडिकल साइंस में इसे साइलेंट मर्डर कहा जाता है । आपने अपने और अपने परिवार का ही नहीं, सोसायटी का भी बहुत बड़ा नुकसान किया है । एक बेहतरीन टीचर की जान ली है आपने । यू आर ए किलर, अंकल, यू आर ए किलर । श्रीमान राजीव लोचन जी । उनके ब्रेन ट्यूमर के जिम्मेदार आप ही है । मुझे अपने टीचर की मौत का बेहद दु:ख होगा और इस बात का भी दु:ख होगा कि मेरी काबलियत उनके काम न आ सकी… आपनेअपना और मेरा ही नहीं सोसायटी का भी बहुत बड़ा नुकसान किया है ।”
“आपकी टीचर ।–––––––––––––––” राजीव लोचन की आंखें फटी की फटी रह गई ।
“हां टीचर, जिस स्कूल में मैडम पढ़ाती थीं, मैं भी उसी स्कूल में पढ़ा हूं । इनका स्टूडेंट था मैं । वे यदि पढ़ाती रहती तो मेरे जैसे कई काबलि स्टूडैंट निकल सकते थे ” कहते–कहते डॉ– फारुख की आंखें नम हो गर्इं ।
...................................